Book Title: Jain Sanskruti aur uska Avadan Jainachar ka Pran Ahimsa Author(s): Anupamashreeji Publisher: Z_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf View full book textPage 2
________________ बर्गों में विभक्त हैं। बाह्य और प्रत्यक्ष ज्ञान के सुखाकांक्षा आत्मा की सहज प्रवृत्ति है। श्रमण आधार पर यह वैभिन्न्य स्वीकार करना ही पड़ता भगवान् महावीर ने अपने शिष्यों को उपदेश देते है, किन्तु यह एक स्थूल सत्य है। इसके अतिरिक्त हुए कहा थाएक सूक्ष्म सत्य और भी है। यह एक महत्त्वपूर्ण "सभी आत्माएँ सुख चाहती हैं। अतः सृष्टि तथ्य है कि विभिन्न प्राणी-वर्गों के घोर असाम्य के के समस्त प्राणियों को आत्मवत् समझो। किसी के समानान्तर रूप में एक अमिट साम्य भी है । सभी लिए ऐसा कार्य मत करो, जो तुम्हारे लिए कष्टप्राणी सचेतन हैं, सभी में आत्मा का निवास है। कारी हो।" यह आत्मा सभी में एक सी है । आत्मा की दृष्टि एक अन्य अवसर पर भगवान ने अपने उपदेश । से सभी प्राणी एक से हैं। उदाहरणार्थ, मनुष्य में इस सिद्धान्त की सुस्पष्ट विवेचना की थी। अन्य प्राणियों की अपेक्षा कई गुना अधिक सशक्त उनका कथन था कि- “दूसरों से तुम जैसा एवं विवेकशील है, तथापि आत्मा की दृष्टि से व्यवहार अपने लिए चाहते हो, वैसा ही व्यवहार उसका स्थान भी अन्य प्राणियों के समकक्ष ही है। तुम भी दूसरों के साथ करो।" उन्होंने यह भी cा मनुष्य की कोई अन्य श्रेणी नहीं है। सचेतनता कहा कि "जिस दिन तुम अपनी और दूसरों की का धर्म मनुष्य का भी है और अन्य प्राणियों का आत्मा के मध्य भेद को विस्मत कर दोगे-उसी भी। यह चैतन्य जीव-वर्ग में ऐसा व्याप्त है कि दिन तुम्हारी अहिंसा की साधना भी सफल हो इसी आधार पर जीवों को शेष अजीवों से पृथक जायगी। अपने प्राणों की सुरक्षा चाहने वालों का करके पहचाना जा सकता है। सुख-दुःखादि की यह कर्त्तव्य भी है कि वे दूसरों के जीवन-रक्षा अनुभूति चैतन्य का ही परिणाम है । ये अनुभूतियाँ सम्बन्धी अधिकार को भी मान्यता दें । यह अहिंसा प्राणियों के लिए ही हैं, निर्जीव, जड़ पदार्थों के का मूल मन्त्र है।" लिए नहीं, क्योंकि वे चेतनाहीन होते हैं। भगवान का अहिंसा सम्बन्धी यह उपदेश मात्र वाचिक ही नहीं था। उनका समग्र जीवन ही मूर्ति- । ___ समस्त सदेतन जीव दुःख से बचना चाहते हैं __ मन्त अहिंसा का रूप हो गया है। उन्हें नाना विध और सुखमय जीवन की कामना करते कष्ट दिये गये, किन्तु धैर्य और क्षमाशीलता के र प्रत्येक आत्मा का स्वाभाविक लक्ष्य होता है और साथ वे उन सभी को सहन करते रहे । प्रत्याक्रमण सुख प्राप्ति के मार्ग में आने वाली बाधक परिस्थि का कोई भाव भी उनके मन में कभी उदित नहीं तियाँ दुःखानुभव का कारण बनती हैं । जिस प्रकार यह सत्य है कि आत्मा की दृष्टि से सभी आत्माएं हुआ । अहिंसा की विकटतम कसौटियों पर वे इसी / कारण सफल रहे कि वे सदा यह स्वीकार । समान हैं, सचेतनतावश सभी को सुख-दुःखादि का , करते थे कि जैसा मैं हैं, वैसे ही सभी हैं। अनुभव होता है उसी प्रकार यह भी सत्य है कि __ मुझे किसी को कष्ट नहीं देना चाहिए । सुख अथवा दुःख का अनुभव कराने वाली परिस्थितियाँ भी सभी प्राणियों के लिए एक सी होती हैं। ___ यह हिंसा-त्याग का उच्चतम रूप है। सभी प्राणी जिन बातों से एक प्राणी को कष्ट होता हैं, उनसे , सुखपूर्वक जीना चाहते हैं और दूसरों की इस अभि-4 सभी प्राणी कष्टित ही होते हैं। इस प्रकार कोई लाषा में बाधक नहीं बनना ही मूलतः अहिंसा है। सुखद विषय सभी के लिए सखद होता है। इस विभिन्न युगों एवं विचारधाराओं के तत्त्वसम्बन्ध में मनुष्य और इतर जीवों में भेद नहीं चिन्तकों ने अहिंसा की व्याख्या की है । यथाकिया जा सकता । इसके अतिरिक्ति सभी तत्र अहिंसा सर्वदा सर्वभूतेष अनभिद्रोहः आत्माएँ सुखकामी और दुःख-द्वषी होती हैं। सर्व प्रकार से, सर्व कालों में, सर्व प्राणियों के - ५६८ कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट (6,669 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ u tion International Nor Rorate & Personal Use Only www.jainelibrarwalPage Navigation
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