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श्रा है। अहिंसाव्रत का दृढ़तापूर्वक पालन करने का (१) भावहिंसा (२) द्रव्यहिंसा
अभिलाषी होते हुए भी उससे ऐसे कार्य हो ही जाते हैं और इन कार्यों तथा इनके परिणामों से भी वह
भावहिंसा का सीधा सम्बन्ध मनुष्य के मन से || अवगत नहीं हो पाता । उदाहरणार्थ, चलने-फिरने है । हिसा का यह मानसिक स्वरूप है, जो उसकी । में ही अनेक जीवों का हनन हो जाता है। तो क्या भूमिका तैयार करता है। व्यक्ति अन्य प्राणियों की६ वह अहिसाव्रत से भ्रष्ट समझा जाना चाहिए ? हानि अहित करने का विचार मन में ले आये, चाहे क्या उसका जीवन पापमय है ?
वह अहित कर पाये अथवा नहीं-यह उसके द्वारा ___ कहा जाता है कि इसी प्रकार की समस्या
की गई भावहिंसा कहलाती है । हिंसा का यह ऐसा में भगवान महावीर के समक्ष प्रस्तुत करते हुए
रूप है, जो अन्य प्राणियों के लिये अहितकर चाहे
न हो, किन्तु स्वयं उस व्यक्ति के लिये घोर अनिष्टजिज्ञासु शिष्य गौतम ने जीवन को पापरहित करने
___ कारी होता ही है । राग-द्वेष, मोह, लोभ, क्रोधादि का उपाय जानना चाहा था। उत्तर में भगवान ने के भाव इस प्रकार की मानसिक हिंसा के उत्प्रेरक । अपने उपदेश में कथन किया कि जीवन की नाना- होते हैं और ये आत्मा को कलुषित एवं पतित कर प्रवृत्तियाँ न केवल स्वाभाविक, अपितु अनिवार्य देते हैं। यह हिंसा आत्म-विनाशक होती है। भी हैं, जिन्हें मनुष्य को करना ही होता है। इन अहिंसा की साधना के लिए सर्वप्रथम भावहिंसा | प्रवत्तियों से हिसा-अहिंसा का प्रश्न भी जुड़ा रहता पर ही नियन्त्रण करना होता है। यही नियन्त्रण | है, किन्तु ये भिन्न प्रवृत्तियां अपने आप में न पाप हैं
__संयम है। इसके लिए अपनी कुमनोवृत्तियों का न पुण्य हैं। विवेक-यतना ही इनकी कसौटी है। ,
दमन करना होता है। इस सन्दर्भ में भगवान | ये सारे कार्य यदि विवेक के साथ, सावधानी के
महावीर स्वामी का उपदेश है कि बाहरी शत्रुओं || साथ, यतना के साथ किये गये हैं तो कर्त्ता का
से नहीं, अपने भीतरी शत्रुओं से युद्ध करो और मैं जीवन स्वयं अपने लिए और जगत के लिए भी सुख
विजयी बनो। इस विजय का उपहार होगादायक होगा। इसके विपरीत अविवेक या अयतना
संयम और उसकी अभिव्यक्ति अहिंसा के रूप में । के साथ यापित जीवन दुःखमूलक होगा। यही
होगी। यह संयम अहिंसात्मक आचरण द्वारा स्वयं अविवेक पाप का कारण होगा, हिंसा का आधार
संयमी के जीवन को उन्नत और सुखमय बनाता होगा। इस प्रकार विवेक और अहिंसा का घनिष्ठ नाता है । जहाँ विवेक है, वहीं अहिंसा भी होगी। प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोणं हिंसा
द्रव्यहिंसा का परिणाम भौतिक या वास्तविक || ____ अर्थात् प्रमादवश जो प्राणघात होता है वही रूप में प्रकट होता है। मानसिक हिंसा की भाँति । हिंसा है। तत्वार्थसूत्र में उमास्वाति का अहिंसा वह विचार तक मर्यादित न रहकर व्यवहार में है विषयक प्रस्तुत सूत्र यह इंगित करता है कि प्राणि- परिणत हो जाता है। मन में कषाय का उदय होना । मात्र के रक्षण के भाव में ही अहिंसा निहित होती भावहिंसा है और मन के भाव को वचन और
क्रिया का रूप देना द्रव्यहिंसा है-स्थल हिसा। अहिंसा के रूप
है। प्रमादवश किसी का प्राणापहरण ही हिंसा है ।। ___मोटे तौर पर हिंसा का अभाव ही अहिंसा है। अर्थात् कषाय-भाव के साथ किया गया अहितकर । अतः अहिंसा की स्पष्ट समझ के लिए हिंसा का कार्य ही हिंसा है। यदि वास्तव में अहित हो गया। स्वरूप जानना अनिवार्य है। जैन-चिन्तन में हिंसा है, किन्तु उसके मूल में कषाय या प्रमाद नहीं है, के दो रूप माने गये हैं
तो वह हिंसा नहीं है। वह अहित 'हो गया' है;
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कुसुम अभिनन्दन ग्रन्थ : परिशिष्ट
(
8 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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