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जैन प्रतिमाओं में सरस्वती, चक्रेश्वरी, पद्मावती और अम्बिका
डॉ० कादम्बरी शर्मा, गाजियाबाद, ( उ० प्र० )
ऋग्वेदमें सरस्वती सरित प्रवाहमय बनकर आयी । उसी सरस्वतीको वाक्यका समानार्थी मानते हुए ब्राह्मणोंने सरस्वतीको वाक्की संज्ञा दी और वाक्को वर्ण, पद और वाक्यका प्रवाह माना है । सरित प्रवाह वाक्य प्रवाह में परिवर्तित हो गया । भाषाकी प्रतीक बनकर वह सब धर्मोकी अधिष्ठात्रीके रूपमें पूजी जाने लगी। सरस्वती हिन्दू, बौद्ध और जैनधर्ममें विभिन्न नामोंसे सुशोभित हुयी है । जैन मतावलम्बियोंने इसे श्रुता देवीके रूपमें स्वीकार किया है। यह शब्द सरस्वतीके काफी समीप बैठता है ।
वाग्वादिनि भगवति सरस्वती हीं नमः इत्यनेन मूलमन्त्रेण वेष्टयेत् ।
ओं ह्रीं मयूरवाहिन्ये नम इति वागधिदेवता स्थापयेत् ॥ ( प्रतिष्ठासा रोद्धार) माउन्ट आबू के नेमिनाथ के मन्दिरमें सरस्वती वन्दना लिखी हुई मिलती है । इस प्रधान देवी सरस्वती के साथ जैन शास्त्रोंमें कुछ अन्य देवियोंका भी उल्लेख है । लेकिन ये यक्षिणियोंके रूपमें तीर्थकरों की रक्षिकाओं के रूप में आती हैं । ये तीर्थंकरोंसे हेय मानी जाती हैं । ये संख्यामें सोलह हैं । इनकी आराधना करनेसे महापुरुषों एवं तीर्थंकरोंके प्रति आदरभाव उत्पन्न होता है ।
सरस्वती की प्रतिमाएँ
जैन प्रतिमाओं में श्रेष्ठ और अधिक मात्रामें प्राप्त श्रुतादेवी सरस्वतीकी कुछ प्रसिद्ध प्रतिमाओंके वर्णनसे पहले इस प्रतिमाके सामान्य गुण एवं विशेषताओंका उल्लेख करते हैं । जैनधर्ममें दो मार्ग हैंश्वेताम्बर और दिगम्बर । ये मूर्तियाँ अधिकतर श्वेताम्बरमार्गीय हैं । जैनधर्ममें केवल तीर्थंकरोंकी दो मुद्रायें मिलती हैं : कायोत्सर्ग और पद्मासन (ध्यानी मुद्रा ) | परन्तु सरस्वती प्रतिमाएँ पद्मासन पर खड़ी त्रिभंग, समभंग और ललितासनमें मिलती है। जैन मूर्ति विज्ञानानुसार ही वह नवयौवना एवं सन्तुलित सौन्दर्यकी सजीव प्रतिमा रूपमें ही मिलती हैं । जहाँ जैन तीर्थंकरोंके दो हाथोंको ही मान्यता देते हैं, वहाँ सरस्वतीकी प्रतिमा चतुर्हस्ता भी मिलती है । दाहिना हाथ अभयमुद्रा, दूसरे दाहिने हाथमें अक्षमाला, बायें हाथोंमें पुस्तक तथा एक श्वेत पुण्डरीक मिलते हैं । इसके शरीर पर यज्ञोपवीत, मस्तक पर जटामुकुट और अंग सुन्दर आभूषणोंसे सुसज्जित मिलते हैं । दक्षिणकी होयसालकी प्रतिमायें विष्णुधर्मोत्तर के अनुसार समभंग मुद्रामें, दाहिने हाथमें व्याख्यान मुद्राके अविरक्त बाँसके नालकी बनी वीणा, बायें हाथमें कमलके स्थान पर कमण्डलु है। पटनासे प्राप्त कांस्य मूर्ति ललिता आसनमें बैठी है जिसके दोनों ओर मानव प्रतिमायें बाँसुरी-मंजीरे बजा रही हैं । परमारकी सरस्वती मूर्ति (जो ११वीं सदीकी है) भी ललितासन पर बैठी है। मूर्तिके ऊपर जैन तीर्थंकर ध्यान मुद्रामें बैठे हैं । यह मूर्ति स्फटिककी बनी हैं । होयसालकी मूर्ति ज्यादातर काले-चमकीले पत्थरकी हैं । दोनों पत्थर ( स्फटिक, काला पत्थर) जैन मूर्तिशास्त्र सम्मत हैं । यह देवी स्वयं वीणावादिनी है । उसके चारों ओर संगीतमय वातावरण उत्कीर्ण हुआ उपलब्ध होता है । उदाहरणके लिए, होयसाल (१२वीं सदी) कालीन केशव मन्दिर की मूर्ति, सोमनाथकी कर्णाटककी
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मूर्ति और खरीद (म० प्र०) की प्रतिमायें (१०वीं सदी) ली जा सकती हैं जिनमें सीधी तरफ बौना वीणा बजा रही है। देवी संगीतप्रिय भी तो है । मत्स्यपुराणमें देवीके बारेमें लिखा है :
वेदाः शास्त्राणि सर्वाणि नृत्यगीतादिकं चयन् । न विहीनं त्वया देवि तथा मे सन्सू सिद्धये ॥
सरस्वती दो हाथकी भी मिलती है। गन्धावल, गोरखपुरकी सरस्वती चमकीले पत्थरकी द्विहस्त मूर्ति है। यह ११-१२वीं सदीकी है। पाला (२४ परगना, बंगाल) से प्राप्त (१०वीं सदी) मूर्ति त्रिभंग
मुद्रा में खड़ी है । यह दोनों हाथोंमें वीणा पकड़े हुए है ! इसका शरीर पारदर्शक साड़ीसे पूर्ण रूपसे ऊपरसे नीचे तक एका हुआ है । सरस्वती केवल चार हाथ तक ही सीमित नहीं। जब वह शारदारूपमे चतुःषष्टि कलाकी अध्यक्षाके रूपमें आती है, उस समय उसके पाँच मुख और विभिन्न आयुधोंसे सुशोभित दस भुजायें दिखाये जाते हैं । वैसे विष्णुधर्मोत्तर तथा रूपमंडन आदि पुस्तकोंके अनुसार सरस्वती चतुर्हस्ता, श्वेतपद्मासना, शुक्लवर्णी, श्वेताम्बरी, जटामुकुट संयुक्ता एवं रत्नकुण्डलमण्डिता है।
प्राचीनतम सरस्वती मूर्ति मथुराके कंकाली टीलेसे प्राप्त हुई है। यह ईसाकी द्वितीय शताब्दीकी मानी जाती है। यह कुषाण कालीन है । प्रतीकरूपमें यह भीटासे प्राप्त गोलमोहर पर मद्रघटके रूप में अंकित मिलती है। इस पर गुप्तलिपिमें सरस्वती लिखा है।
सरस्वतीकी जैन मूर्ति दो प्रकारसे पहचानी जा सकती है। प्रथम, उस पर स्वयं विस्तृत उल्लेख उत्कीर्ण हों। दूसरे, मूर्तिके साथ जैन तीर्थकर दर्शाये गये हों। ब्रिटिश म्यूजियममें प्राप्त सरस्वतीकी प्रतिमाके पीठके ऊपर ध्यानमुद्रामें पाँच तीर्थकर बैठे हैं। यह ११-१२वीं सदीकी है।
श्वेतसंगमरमरकी यह मूर्ति त्रिभंग मुद्रामें प्राप्त चतुर्हस्ता चित्र १. सरस्वती, चौहान, १२वीं शती ई० देवी है। इनके दोनों हाथ पैर टूट चुके हैं और बायें हाथम पल्लू, बीकानेर, राजस्थान
FE अक्षमाला और नीचेवालेमें पुस्तक है । इसी म्यूजियममें प्राप्त दूसरी मूत्ति सुन्दर है। यह एक अपूर्व वीणा वादन करती सरस्वती प्रतिमा है। सबसे पूर्व भाग कलहंसका है। चतुर्हस्ता देवी अपने ऊपरके दायें हाथमें अक्षमाला, बाएँ हाथमें पुस्तक और नीचे दोनों हाथोंमें वीणा बजा रही हैं।
मक सरस्वती प्रतिमाओंकी शृंखलामें प्रतिष्ठित सुन्दरतमकृति १२वीं सदीकी पल्लकी जैन सरस्वती मत्ति है। ये एक ही कालकी एक-सी मिलती-जुलती दो प्रतिमाएँ बीकानेरसे प्राप्त हुई हैं। इनमें एक राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्लीमें तथा दूसरी बीकानेर संग्रहालयमें है। देहली वाली श्रेष्ठतम मूर्ति चित्रमें दी गई है। वह मूर्ति स्फटिक (संगमरमर) की बनी होनेके कारण श्वेताम्बरी तो है ही, यह चतुर्हस्ता भी है। ऊपर
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वाले दाहिने हाथमें श्वेत पुण्डरीक (१६ दलका), बाएँ हाथमें ताडपत्रीय पुस्तक है जो काष्ठ फलक तीन फीटोंमें बन्धी हुयी है। इस हाथकी अन्तिम अंगुलि खण्डित है। दाहिना हाथ, जो वरद मुद्रामें है उसमें खण्डित अक्षमाला धारण कर रखी है। बाएँ हाथमें पुष्पपंक्तियोंसे सुसज्जित कमण्डलु है । उसकी नलकीका अग्रमात्र टूट गया है। साँचेमें ढला देवी का शरीर त्रिभंग मुद्रामें सोने में सुहागेका कार्य कर रहा है। पद्मासनके पद्मके दोनों ओरसे नाल निकले हुये हैं। इस आसन पर वाहन हंस चित्रित है। इसके गले में पड़ी त्रिवलीने अंग सौष्ठवको बढ़ाया है, लम्बी आँखोंमें भाव प्रवणताके कारण वे अर्द्ध मुकुलित हैं । लम्बे गोल हाथकी अगुलियाँ लम्बी कलात्मक हैं। बड़े नाखूनोंसे अंगुलियाँ और भी सुन्दर हो गया है। चेहरे पर सौम्यता एवं नवयौवनकी आभा फूटी पड़ती है । हथेलियों पर पुष्प-तथा सामुद्रिक रेखाएँ अंकित हैं ।
सरस्वतीकी जैन प्रतिमाएँ आभूषण-सज्जा एवं सुन्दर वस्त्र सज्जाके कारण प्रसिद्ध हैं। यह मूर्ति इसका अद्वितीय उदाहरण है । इसके शीश पर रत्न जटित मुकुट सुशोभित है। इस मुकुटसे निकल कर बाल बड़े कलात्मक ढंगसे जूड़ेके रूपमें बायीं ओर लटक रहे हैं। गलेमें हारोंकी पंक्तियाँ हैं जिनमें फलक हार भी हैं । गोलहाथोंमें आभूषण भुजबन्धसे शुरु होकर कंगन, चूड़ियाँ, अगुलियोंमें अंगुलियाँ तक पहने हुए हैं। आभूषण ठोस और कलात्मक हैं । मुखाकृतिके अनुसार कानोंमें लटकते मोतियोंके झुमके अत्यन्त सुन्दर लग रहे हैं । कानके ऊपरी भागमें मणियुक्त भँवरियाँ धारण किये हुये हैं। ऊपरका नग्न शरीर साँचेमें ढल कर बना मालूम पड़ता है। नीचेके भागमें फलदार किनारेकी कस कर सुन्दर साड़ी बँधी है। यह फलदार साड़ी सुन्दर वनमालाके नीचेसे स्पष्ट होती है। ऊपर कमर सुन्दर कटिसूत्र है। जिसकी सुन्दर दनी पैरों पर लटक रही हैं। लम्बी सुन्दर अंगुलियों युक्त पैरोंमें पादजालक पहने हुए हैं। साडीका कपड़ा अत्यन्त पारदर्शक और असाधारण मालूम पड़ता है । अन्य यक्षिणियाँ (अर्ध देवियाँ) : १. चक्रेश्वरी और उसकी प्रतिमाएँ
___ बी० सी० महाचार्यने अपनी पुस्तक दी जैन इक्नोग्राफीमें हेमचन्द्रका एक उदाहरण देते हुए चक्रेश्वरीका रूप वर्णन किया है । इसका विवरण वासुनन्दीकृत प्रतिष्ठासारसंग्रहमें उपलब्ध होता है :
वामे चक्रेश्वरी देवी, स्थाप्या द्वादश-षड्भुजा । धत्ते हस्तद्वये बजे चक्राणि च तथाष्टसु ।। एकेन वीणपुरं तु वरदा कमलासना। चतुर्भूजाऽथवा चक्रं द्वयोर्गरुडवाहना ॥ जैनोंकी यह यक्षिणी ब्रह्मदेवी भी है।
गन्धावलमें प्राप्त ऋषभनाथकी शासनदेवी चक्रेश्वरी अद्वितीय है। यह जैन प्रतिमाओंमें विशेष स्थान रखती हैं। इसके बीस हाथोंमें से अधिकतर हाथ खण्डित हैं। बचे हुओंमें आयुध और दोमें चक्रपूर्ण रूपसे स्पष्ट है। इनके पकड़ने का ढंग ध्यान देने योग्य है । यह आभूषणमण्डिता है। राजस्थानमें औशिया ग्राममें
( भुजाएँ हैं। यह सभीमें चक्र पकड़े हुए है। शीर्षके पीछे प्रभामण्डल है। दोनों ओर विधाधर युगल निर्मित हैं। प्रतिमाके ऊपरी भागमें ध्यनमद्रामें स्थित पाँच तीर्थंकरोंकी लघु मूर्तियाँ हैं। दाहिने पैरके पास वाहन गरुड़ विराजमान हैं और बाँये हाथमें सर्पपकड़ा हुआ है।
उत्तरप्रदेमें प्रतिहार कालकी प्राप्त मूर्तिमें चक्रेश्वरी ललितासनमें विराजमान है जिसे पूर्ण विकसित कमल दलके रूपमें दिखाया गया है। इसका समय १०वीं सदी है। इसके आठ हाथोंमेंसे छः हाथोंमें चक्र है, निचला दाहिना हाथ वरद मुद्रामें है । बायेंमें फल है । शीशप्रभामें आदिनाथकी मूत्ति है । इसकी पीठिका पर वाहन गरुड़ आलीढ़ मुद्रामें अंकित है। पुरातत्त्व संग्रहालयमें ऋषभनाथकी कई मूत्तियाँ मिलती हैं।
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कारीतलाई नामक स्थानसे प्राप्त आदिनाथ ध्यान मुद्रामें हैं । इसके सिंहासनके बायों और यक्षी चक्रेश्वरीकी आसन मूर्तियाँ हैं । परन्तु यहाँ एक आदिनाथकी मूर्ति में यक्षी चक्रेश्वरीके स्थानपर नेमिनाथकी यक्षी अम्बिका का अंकन हुआ है जो असाधारण प्रतीत होता है । यह मूर्ति १०वीं से १२वीं सदीकी चेदिकालीन है । ब्रिटिश संग्रहालय, लन्दनसे प्राप्त एक मूर्ति में वाहन गरुड़ दाहिने हाथोंमें फलोंका गुच्छा और अक्षमाला, बायें हाथोंमें पद्म तथा परशु हैं । अन्य हाथ खण्डित हैं । यह धमिल्ल रूपमें सुसज्जित है । यहाँकी एक अन्य मूर्ति पूर्व मध्ययुगीन मालूम पड़ती है। इसके दोनों ओर एक-एक सेविका त्रिभंग मुद्रा में खड़ी हैं। ऊपरी भागमें ध्यानी तीर्थंकर हैं । देवीके वाहन गरुड़के दोनों हाथ अंजलिबद्ध हैं । ये दोनों मूर्ति चन्देल कालकी बनी प्रतीत होती हैं। श्वेताम्बर चक्रेश्वरी मूर्तिके आठ हाथ मिलते हैं जिनमें तीर, चक्र, धनुष, अंकुश, वज्र, वरदमुद्रा आदि होते हैं । इसके विपर्यासमें, दिगम्बर बारह और चार हाथकी मूर्तियोंको मान्यता देते हैं । बारह हाथ वाली मूर्ति में आठमें चक्र होते हैं। दो में वज्र तथा एक हाथ वरद मुद्रामें होता है । चतुर्हस्तामें दो हाथमें चक्र दिखायी पड़ते हैं । पद्मावती (यक्षिणी) और उसकी प्रतिमायें
हेमचन्द्रने पार्श्वनाथचरित्रमें पद्मावतीके स्वरूपका वर्णन किया है । वह पार्श्वनाथकी यक्षिणी है ।
गुजरात एवं राजस्थानसे प्राप्त पद्मावतीकी दो मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं । प्रथममें यक्षी पद्मासनमें सर्प के ऊपर तीन फणोंके नीचे बैठी है। ऊपर ध्यानी तीर्थंकर की मूर्ति है । इनके ऊपर के दो हाथों में फल तथा कमल हैं । नीचेका दाहिना हाथ वरद मुद्रा तथा बायेंमें घट है। पैरोंके समीप वाहन कुर्कुट उत्कीर्ण है । यह मूर्ति १७वीं शतीकी है । द्वितीय प्रतिमामें वह गोल आसनमें ललित मुद्रामें बैठी है। उसके ऊपर के हाथों में अंकुश पाश है । विचला दायाँ हाथ वरद मुद्रामें है और बायेंमें फल है । अठारहवीं सदीमें बनी इस मूर्तिके ऊपरी भागमें ध्यानी तीर्थंकर उत्कीर्ण हैं ।
चित्र २. पद्मावती
गाहड़वाल, १२वीं शती, उत्तरप्रदेश
उत्तर प्रदेशमें गाहड़वाल कालीन बारहवीं सदीकी प्राप्त पद्मावतीकी मूर्ति मूर्तिकलाका एक अच्छा उदाहरण है (चित्र २) । यह देवी ललितासन पर विराजमान । इसके दायें हाथमें फल तथा बाएँ में सर्प है । इसके शीशके ऊपर भी सर्प है जिसके नौ फण हैं । उसका वाहन सर्प बाँएँ पैरके पास अंकित है ।
ब्रिटिश संग्रहालय, लन्दनमें भी एक परमार युगीन (बारहवी सदी) देवीकी मूर्ति है । यह देवी त्रिभंग मुद्रामें सर्प फणोंके नीचे खड़ी है। इसके दाहिने हाथमें एक नाग व तलवारकी मूँठ है जिसमें
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तलवार खण्डित हो चुकी है। यह बाएँ हाथोंमें दाल व पद्म पकड़े हुए हैं। देवीने सुन्दर आभूषण धारण कर रखे हैं। शीश और सर्प फणोंके ऊपर ध्यानी तीर्थकरकी मूर्ति है। पैरोंके पास वाहन सर्प बना है। विक्टोरिया एण्ड एलबर्ट संग्रहालय, लन्दनमें प्राप्त देवीकी एक मूर्ति पार्श्वनाथको मेघकुमारसे बचाते हुए नागरागकी पत्नी नागिनी पद्मावतीके रूपमें पाषाणमें उत्कीर्ण हुयी है। यह देवी पार्श्वनाथके वाँयी ओर खड़ी है। इसके हाथोंमें छत्र है जो तीर्थकरके ऊपर उठाए हुये है। यह मूर्ति अपने प्रकारका बेजोड़ उदाहरण है। यह वर्धनकालकी सातवीं शतीकी महानतम कृतियोंमें आती है। अम्बिका और उसकी प्रतिमाएँ
__ श्वेताम्बर आचार्य गुणविजय गणिने अपने नेमिनाथचरितमें अम्बिकाका स्वरूप वर्णित किया है। इसीके अनुसार दिगम्बर मतावलम्बी भी इसे सिंहवाहनी द्विभुजा वाली मानते हैं। इसका विस्तृत वर्णन प्रतिष्ठासारसंग्रहालय तथा प्रतिष्ठासारोद्धारमें मिलता है। विचार करनेसे लगता है कि यह देवी सिंहवाहिनी दुर्गा, अम्बा, कुममण्डिता, कुशमण्डीसे मिलती है। इसके बादके दो नाम भी दुर्गाके ही हैं।
गन्धावलमें प्राप्त अम्बिकाकी मूर्ति नेमिनाथकी यक्षिणीके रूपमें दिखायी गयी है। इसका केवल ऊपरका भाग मिलता है। इसके कानों में कुण्डल तथा गलेमें हार दिखाये गये हैं। दाहिना हाथ खण्डित है । बाँये हाथमें बालक पकड़े हुए है। आम्रवृक्षके नीचे देवीका अंकन हुआ है। यहाँ बानर फल खाते दिखाये गये हैं। प्रतिमाके ऊपरी भागमें शीश रहित तीर्थंकर अंकित किये गये हैं। यह प्रतिमा पूर्ण रूपसे सुन्दर रही होगी।
अम्बिकाकी एक प्रतिमा त्रिपुरासे भी मिली है। देवी वाहनसिंह पर आसीन है। इसके शीशके ऊपर नेमिनाथ भी ध्यानस्थ मूर्ति के साथ उसके दाँयी ओर बलराम और बाँयी ओर कृष्ण अपने आयुधोंके साथ दर्शाये गये हैं। देवीके पैरोंके पास गणपति कुवेर भी प्रतिष्ठित हैं । यह मूर्ति धार्मिक सहिष्णुताका उदाहरण है। अम्बिकाकी एक अन्यमूर्ति
बारहवीं सदी (चैदिकाल) की भी मिलती है। जो राष्ट्रीय संग्रहालय नई दिल्लीमें है। इसमें अम्बिकाका आसन एक वृक्ष के नीचे दिखाया गया है। इसके गोदमें बालक है। वाहनसिंह बाँये पैरके समीप बैठा है। चतुर्हस्ता देवीके हाथोंमें आम्रलुम्बि व पद्म हैं । इसने खण्डित वस्तुधारण कर रखी है । पेड़के ऊपर ध्यान अवस्थामें नेमिनाथ अंकित हैं। इसके पैरोंके समीप भक्तगण दिखाये गये हैं ।
काँस्यकी बनी एक जैन अम्बिका मूर्ति तो चालुक्य कला (नवीं सदी) का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है । इसमें अम्बिका अन्य देवियों (चक्रेश्वरी, विद्या देवियों) के साथ आयी है। इसमें पार्श्वनाथ, महावीर तथा ऋषभनाथ अंकित किये गये हैं। इसमें सिंहासनके दाहिनी ओर एक देबी दिखाई गई है और वायी और सिंह पर अम्बिका बैठी है। उनके दाहिने हाथमें आम्रलुम्बि तथा वह बायें गोदमें बालक पकड़े हुये है । सिंहासनकेसामने धर्मचक्र सहित दो मग, भक्त और गहोंका अंकन हुआ है।
आकोटामें ग्यारहवीं शतीकी प्राप्त अम्बिकाकी मूर्ति सुन्दर है। वह सिंहपर ललितासनपर बैठी है । इसके दाहिने हाथमें आम्रलुम्बि है । यह बाँये हाथसे छोटे पुत्र प्रियंकरको पकड़े हैं। बड़ा पुत्र शुभंकर बाँयी ओर खड़ा है । शीशके पीछे ध्यानी नेमिनाथकी मूर्ति अंकित है ।
मालवा क्षेत्रकी परमार कालीन अम्बिका मूर्ति भी सिंहपर ललितासनमें बैठी हैं। ऊपरके दोनों
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हाथोंमें आमोंके गुच्छे, नीचेवाले हाथमें फल, बाँयेसे बालक पकड़ा हुआ, दूसरा बालक दायीं ओर खड़ा है, ऊपर नेमिनाथकी ध्यानी लघु मूर्ति है । इसके पृष्ठ भागपर १२०३ सम्वत् लिखा है।
बिहारमें प्राप्त अम्बिकाकी मूर्तिके आभूषण और लटकती साड़ी उल्लेखनीय है। यह यक्षी आमोंसे लदे पेड़ के नीचे खड़ी है। बायें हाथसे छोटा पुत्र प्रियंकर पकड़ रखा है । द्वितीय पुत्र शुभंकर, जिसके दोनों हाथ खण्डित हैं, दाहिने हाथ खड़ा है । वाहन सिंह पद्मासनके पास बैठा है । यह मूर्ति कलाकी दृष्टिसे दशवीं शती (पालकला) की बनी मालूम पड़ती है । (चित्र ३)।
चित्र ३. अम्बिका
पाल, १०वीं शती, बिहार कर्नाटकसे दो समान अम्बिका मूर्तियाँ मिली हैं। दोनोंमें अम्बिका आमके वृक्ष के नीचे त्रिभंग मुद्रामें खड़ी हैं । दोनों मूर्तियोंमें इनका एक पुत्र दाँयी ओर सिंहपर बैठा है। दूसरा बाँयी ओर खड़ा है । एक मूर्तिके दाहिने हाथमें आनलुम्बि है और बाँया खण्डित है । दूसरी मूर्ति में दाहिना हाथ टूटा है। बाँयेमें फल हैं। ये बारहवीं शतीकी बनीं मालूम पड़ती हैं।
ब्रिटिश संग्रहालय, लन्दनमें संग्रहीत अम्बिकाकी एक मूर्ति उड़ीसासे प्राप्त हुई है । इसमें एक सुन्दर आम्रवृक्ष के नीचे खड़ी त्रिभंग मुद्रामें अम्बिका मिलती है। यह सुन्दर आभूषण एवं साड़ी पहने हुए हैं ।
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________________ इसमें एक पुत्र प्रियंकर गोदमें तथा दूसरा शुभंकर दाहिने हाथमें आमोंके गुच्छोंको पकड़े हुये पैरोंके पास खड़ा है / मूर्तिके दोनों ओर लताओंके मध्य विभिन्न वाद्योंको बजाती हुई मूर्तियाँ उत्कीर्ण है / ऊपर नेमिनाथ ध्यानी अवस्थामें हैं। नीचे पीठिकापर वाहन सिंह बैठा है / यह ग्यारहवीं शदीकी है / यह अमेरिकाको स्टेणहल गैलरीमें प्रदर्शित मूर्तिसे साम्य रखती है। ___ म्युनियम फर वोल्कारकुण्डे, म्यूनिख, फिलेडोल्फया म्यूजियम आफ आर्ट, एशियन आर्ट म्यूजियम सेन फ्रांसिस्को तथा वर्जीनिया म्यूजियम आफ आर्ट, रिछमोन्डमें अम्बिकाकी बहुत सुन्दर मूर्तियाँ संग्रहीत हैं / इनका उल्लेख कलापारखी विद्वान डा. व्रजेन्द्रनाथ शर्माने अपनी पुस्तक जैन प्रतिमायें में किया है / वास्तवमें, ये मूर्तियाँ इतनी सुन्दर और अनूठी रही होगी कि विदेशी विद्वान भी इनके संग्रहणका लोभ संवरण नहीं कर सके। -328