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________________ जैन प्रतिमाओं में सरस्वती, चक्रेश्वरी, पद्मावती और अम्बिका डॉ० कादम्बरी शर्मा, गाजियाबाद, ( उ० प्र० ) ऋग्वेदमें सरस्वती सरित प्रवाहमय बनकर आयी । उसी सरस्वतीको वाक्यका समानार्थी मानते हुए ब्राह्मणोंने सरस्वतीको वाक्की संज्ञा दी और वाक्को वर्ण, पद और वाक्यका प्रवाह माना है । सरित प्रवाह वाक्य प्रवाह में परिवर्तित हो गया । भाषाकी प्रतीक बनकर वह सब धर्मोकी अधिष्ठात्रीके रूपमें पूजी जाने लगी। सरस्वती हिन्दू, बौद्ध और जैनधर्ममें विभिन्न नामोंसे सुशोभित हुयी है । जैन मतावलम्बियोंने इसे श्रुता देवीके रूपमें स्वीकार किया है। यह शब्द सरस्वतीके काफी समीप बैठता है । वाग्वादिनि भगवति सरस्वती हीं नमः इत्यनेन मूलमन्त्रेण वेष्टयेत् । ओं ह्रीं मयूरवाहिन्ये नम इति वागधिदेवता स्थापयेत् ॥ ( प्रतिष्ठासा रोद्धार) माउन्ट आबू के नेमिनाथ के मन्दिरमें सरस्वती वन्दना लिखी हुई मिलती है । इस प्रधान देवी सरस्वती के साथ जैन शास्त्रोंमें कुछ अन्य देवियोंका भी उल्लेख है । लेकिन ये यक्षिणियोंके रूपमें तीर्थकरों की रक्षिकाओं के रूप में आती हैं । ये तीर्थंकरोंसे हेय मानी जाती हैं । ये संख्यामें सोलह हैं । इनकी आराधना करनेसे महापुरुषों एवं तीर्थंकरोंके प्रति आदरभाव उत्पन्न होता है । सरस्वती की प्रतिमाएँ जैन प्रतिमाओं में श्रेष्ठ और अधिक मात्रामें प्राप्त श्रुतादेवी सरस्वतीकी कुछ प्रसिद्ध प्रतिमाओंके वर्णनसे पहले इस प्रतिमाके सामान्य गुण एवं विशेषताओंका उल्लेख करते हैं । जैनधर्ममें दो मार्ग हैंश्वेताम्बर और दिगम्बर । ये मूर्तियाँ अधिकतर श्वेताम्बरमार्गीय हैं । जैनधर्ममें केवल तीर्थंकरोंकी दो मुद्रायें मिलती हैं : कायोत्सर्ग और पद्मासन (ध्यानी मुद्रा ) | परन्तु सरस्वती प्रतिमाएँ पद्मासन पर खड़ी त्रिभंग, समभंग और ललितासनमें मिलती है। जैन मूर्ति विज्ञानानुसार ही वह नवयौवना एवं सन्तुलित सौन्दर्यकी सजीव प्रतिमा रूपमें ही मिलती हैं । जहाँ जैन तीर्थंकरोंके दो हाथोंको ही मान्यता देते हैं, वहाँ सरस्वतीकी प्रतिमा चतुर्हस्ता भी मिलती है । दाहिना हाथ अभयमुद्रा, दूसरे दाहिने हाथमें अक्षमाला, बायें हाथोंमें पुस्तक तथा एक श्वेत पुण्डरीक मिलते हैं । इसके शरीर पर यज्ञोपवीत, मस्तक पर जटामुकुट और अंग सुन्दर आभूषणोंसे सुसज्जित मिलते हैं । दक्षिणकी होयसालकी प्रतिमायें विष्णुधर्मोत्तर के अनुसार समभंग मुद्रामें, दाहिने हाथमें व्याख्यान मुद्राके अविरक्त बाँसके नालकी बनी वीणा, बायें हाथमें कमलके स्थान पर कमण्डलु है। पटनासे प्राप्त कांस्य मूर्ति ललिता आसनमें बैठी है जिसके दोनों ओर मानव प्रतिमायें बाँसुरी-मंजीरे बजा रही हैं । परमारकी सरस्वती मूर्ति (जो ११वीं सदीकी है) भी ललितासन पर बैठी है। मूर्तिके ऊपर जैन तीर्थंकर ध्यान मुद्रामें बैठे हैं । यह मूर्ति स्फटिककी बनी हैं । होयसालकी मूर्ति ज्यादातर काले-चमकीले पत्थरकी हैं । दोनों पत्थर ( स्फटिक, काला पत्थर) जैन मूर्तिशास्त्र सम्मत हैं । यह देवी स्वयं वीणावादिनी है । उसके चारों ओर संगीतमय वातावरण उत्कीर्ण हुआ उपलब्ध होता है । उदाहरणके लिए, होयसाल (१२वीं सदी) कालीन केशव मन्दिर की मूर्ति, सोमनाथकी कर्णाटककी ३२२ - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.210818
Book TitleJain Pratimao me Sarasvati Chakreshwari Padmavati aur Ambika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKadambari Sharma
PublisherZ_Kailashchandra_Shastri_Abhinandan_Granth_012048.pdf
Publication Year1980
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Tirth Pratima
File Size3 MB
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