Book Title: Jain Katha Sahitya Ek Chintan
Author(s): Devendramuni Shastri
Publisher: Z_Jayantsensuri_Abhinandan_Granth_012046.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनकथा - साहित्य : एक चिन्तन (उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनिजी महाराज) विश्व के सर्वोत्कृष्ट काव्य की जननी कहानी है। कथा के प्रति मानव का आरम्भ से ही सहज आकर्षण रहा है। फलतः जीवन का कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं है जिसमें कहानी की मधुरिमा अभिव्यञ्जत न हुई हो। सत्य तो यह है कि मानव अपने जन्म के साथ साथ जो लाया है वह अपनी जिन्दगी की कहानी कहते हुए समाप्त करता आया है। कहने और सुनने की उत्कण्ठा सार्वभौम है। कथा के आकर्षण को सबल बनाने के लिए प्राकृतिक सुषमा कहानी साहित्य | में एक विशिष्ट उपकरण के रूप में स्वीकृत है। हमारे प्राचीनतम साहित्य में कथा के तत्त्व जीवित हैं। ऋग्वेद् में जो संसार का उपलब्ध सर्वप्रथम ग्रंथ है, स्तुतियों के रूप में कहानी के मूलतत्त्व पाये जाते हैं। अप्पला आमेयी के आदर्श नारी चरित्र ऋग्वेद् में आए हैं। ब्राह्मणग्रंथों में ही हमें अनेक कथाएँ उपलब्ध होती हैं। शतपथ ब्राह्मण की पुरुरवा और उर्वशी की कथा किस को ज्ञात नहीं है? ये कहानियाँ उपनिषदकाल के पूर्व की हैं। उपनिषद् के समय में इनका अभिनवतमरूप देखने को मिलता है। गार्गी याज्ञवल्क्य संवाद तथा सत्यकाम जाबाल आदि कथाएँ उपनिषद् काल की विख्यात कथाएँ हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में जनश्रुति के पुत्र राजा जानश्रुति की कथा का चित्रण मिलता है। पुराणों में कहानी के खुले रूप के अभिदर्शन होते हैं । पुराण वेदाध्ययन की कुञ्जी हैं। वेदों की मूलभूत कहानियाँ पुराणों की कथाओं में पल्लवित - प्रस्फुटित हुई हैं। पुराण कथाओं का आगार है। रामायण और महाभारत में भी बहुत से प्राख्यान संश्लिष्ट हैं। रामायण की अपेक्षा महाभारत में यह वृत्ति अधिक है। एक प्रकार से देखा जाय तो महाभारत कहानियों का कोष है। इस प्रकार कथा साहित्य की एक प्राचीन परम्परा है जिसमें वसुदेव हिंदी पंचतंत्र, हितोपदेश, बैताल पंचविंशतिका, सिंहासन द्वात्रिंशिका, शुकसनति, बृहत्कथामंजरी, कथासरित्सागर, आख्यानयामिनी, जातक कथाएँ आदि विशेषतः उल्लेख्य हैं। कथा साहित्य-सरिता की बहुमुखी धारा के वेग को क्षिप्रगामी और प्रवहमान बनाने में जैन कथाओं का योगदान महनीय है। जैन कथा उस पुनीत स्रोतस्विनी के समान है जो कई युगों से अपने मधुर सलिल से जाने-अनजाने धरती के अनन्तकणों को सिंचित कर रही है। इस कथा सरिता में सर्वत्र मानवता की ललित लोल लहरें शैली- शिल्प के मनोरम सामंजस्य से परिवेष्ठित है। यह इतनी विशद है कि इसके 'अथ' तथा 'इति' की परिकल्पना करना कठिन है। इसके 'जीवन' में आदर्शों के प्रति निष्ठा है और चिरपोषित संशयों एवं अविश्वासों के प्रति कभी मौन और कभी सन्तप्त विद्रोह है। इसके दो मनोरम तट हैं - भाव एवं कर्म। इन दोनों भव्य किनारों के सहारे इस प्रवाहिनी ने लोक जीवन की दूरी को नापा है, हर्ष-विषाद एवं श्रीमद् जयंतसेनरि अभिनंदन ग्रंथ वाचना EFF श्री देवेन्द्र मुनिजी महाराज संकीर्णता उदारता के अपरिमित मन्तव्यों को पहिचाना है, विरामहीन यात्रा के कटु अनुभवों को परखा है एवं दो विभिन्न युगों के अलगाव को भी समझा है। इस जैन-कथा-तटिनी की गाथा बड़ी सुहावनी है। " वस्तुतः जैन कथाओं की व्यापकता में विश्व की विभिन्न कथा वार्ताओं को प्रश्रय मिला है। फलतः जगत की कहानियों में जैन कथाओं की साँसें किसी न किसी रूप में संचरित होती रहती हैं। एक ओर इनमें विरक्ति और संचय सदाचार की प्रतिध्वनियाँ हैं तो दूसरी ओर जीवन के शाश्वत सुख स्वर-भी गहरी आस्था को लिए हुए यहाँ मुखर हैं। संस्कृति, जितनी अधिक कथाओं के अन्तराल में सन्निहित है, उतनी अधिक साहित्य की अन्य विधाओं में परिलक्षित नहीं हो पाई है। मानव जीवन के जिस सार्वजनिक सत्य की माटी में संस्कृति के चिरंतन तत्त्वों की प्रतिष्ठा मानी गई है उसका प्रथम उन्मेष इन्ही जैन कथाओं में सुलभ है। इन कहानियों की गरिमा एवं उपयोगिता को न काल-भेद क्षीणकर सके हैं और न व्यक्तिगत हठीला गुमान धूमिल बना सका है। प्रत्युत काल खंडों की प्राचीनता ने इन कथाओं को अधिक सफल बनाया है एवं वैयक्तिक अवरोधों ने उनकी व्यापकता को विशेषतः अपरिहार्य प्रमाणित कर दिया है। ६ जैन परम्परा को मूल आगमों में द्वादशांगी प्रधान और प्रख्यात है। उनमें नायाधम्मकहा, उवासगदसाओ, अन्तगडद्सा अनुत्तरोपपातिक, तथा विपाक सूत्र आदि समग्र रूप में कथात्मक हैं। इनके अतिरिक्त उत्तराध्ययन सूयगडांग, भगवती ठाणांग आदि में भी अनेक रूपक एवं कथाएँ है जो अतीव भावपूर्ण एवं प्रभावना पूर्ण हैं। तरंगवती, समराच्चकहा तथा कुवलयमाला आदि अनेकानेक स्वतंत्र कथाग्रंथ विश्व की सर्वोत्तम कथा विभूति हैं। इस साहित्य का सविधि अध्ययन- अनुशीलन किया जाए तो अनेक अभिनव एवं तथ्यपूर्ण उद्भावनाएँ तथा स्रोत दृष्टिपथ पर दृष्टिगत होंगे। जिससे जैन कथा वाङ्मय की प्राचीनता वैदिक कथाओं से भी अधिक प्राचीनतम परिलक्षित होगी। जैनों का पुरातन साहित्य तो कथाओं से पूर्णतः परिवेष्ठित है। प्रसिद्ध शोध मनीषी डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल 'लोककथाएँ और उनका संग्रहकार्य' शीर्षक निबन्ध में लिखते हैं- "बौद्धों ने प्राचीन जातकों की शैली के अतिरिक्त अवदान नामक नये कथा-साहित्य की रचना की जिसके कई संग्रह (अवदानशतक दिव्यावदान आदि) उपलब्ध हैं। किन्तु इस क्षेत्र में जैसा निर्माण जैन लेखकों ने किया वह विस्तार, २७ विषय वासना दिल बसी, काम भोग की दौड़ । जयन्तसेन पतंगवत, आखिर जीवन छोड़brary.org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विविधता और बहुभाषाओं के माध्यम की दृष्टि से भारतीय साहित्य जैन कथाओं का वर्गीकरण में अद्वितीय है। विक्रम संवत् के आरम्भ से लेकर उन्नीसवीं शती जैन कथा वाङ्मय एक विशाल आगार है जिसे किसी निश्चित तक जैन साहित्य में कथा ग्रंथों की अविच्छिन्नधारा पायी जाती है। परिधि में निबद्ध करना सहज नहीं है तथापि कथा साहित्य के विशारदों यह कथा साहित्य इतना विशाल है कि इसके समुचित सम्पादन और ने अपने भगीरथ यत्न-प्रयल किए हैं। दीर्घ निकाय के ब्रह्मजाल सुत्र प्रकाशन के लिए पचास वर्षों से कम समय की अपेक्षा नहीं होगी। में एक स्थान पर कथाओं के अनेक भेद किए हैं - (१) राजकथा जैन साहित्य में लोक-कथाओं का खुलकर स्वागत हुआ। भारतीय (२) चोरकथा (३) महामात्यकथा (४) सेन कथा (५) भयकथा लोक-मानस पर मध्यकालीन साहित्य की जो छाप आज अभी तक (६) युद्धकथा (७) अन्नकथा (८) पानकथा (९) वस्त्रकथा सुरक्षित है उसमें जैन कहानी साहित्य का पर्याप्त अंश है। सदयवच्छ (१०) शयनकथा (११) मालाकथा (१२) गंधकथा (१३) ज्ञातिकथा सावलिंग की कहानी का जायसी ने 'पद्मावत' में और उससे भी पहले (१४) यान कथा (१५) ग्रामकथा (१६) निगमकथा (१७) नगरकथा अब्दुल रहमान ने संदेशरासक में उल्लेख किया है। यह कहानी बिहार (१८) जनपदकथा (१९) स्त्रीकथा (२०) पुरुषकथा (२१) शूरकथा से राजस्थान और विंध्य प्रदेश के गाँव-गाँव में जनता के कंठ-कंठ (२२) विशिखा कथा (बाजारू गणे) (२३) कुंभस्थान कथा (पनघट में बसी है। कितने ही ग्रंथों के रूप में भी वह जैन साहित्य का अंग की कहानियाँ) (२४) पूर्वप्रतकथा (गूजरों की कहानियाँ) (२५) निरर्थक कथा (२६) लोकाख्यायिका (२७) समुद्राख्यायिका। कथा के भेदों जैन कथा को कथाकारों ने संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश आदि कई का निरूपण करते हुए आगमों में अकथा, विकथा, कथा तीन भेद भाषाओं में प्रणयन कर एक ओर भाषा को समृद्ध किया है तो दूसरी किए गए हैं। उनमें कथा तो उपादेय हैं, शेष त्याज्य! उपादेयकथा ओर जनता की भावना को परिष्कृत-प्रतिष्ठित किया है। जनपदीय के विभिन्न रूपों का वर्गीकरण विषय, शैली, पात्र, एवं भाषा के बोलियों में भी जैन लेखकों ने कथासाहित्य को पर्याप्त मात्रा में आधार पर किया गया है। रचा-लिखा है। जैनाचार्यों ने इन कथाओं के माध्यम से गहन सैद्धान्तिक साधारणतया जैन कथाओं को अग्रांकित चार भागों में विभक्त तत्त्वों को सुगम बनाया है तथा श्रावकों एवं साधारण जनता ने इनके किया जा सकता है१२- (१) धर्म सम्बन्धी कथाएँ (२) अर्थ सम्बन्धी द्वारा अपनी सहज प्रवृत्तियों को विशुद्ध बनाने का सतत् प्रयल किया कथाएँ (३) काम सम्बन्धी कथाएँ (४) मोक्ष सम्बन्धी कथाएँ। इस है। जैन विद्वानों ने इन आख्यानों में मानवजीवन के कृष्ण और शुक्ल वर्गीकरण में भी मोक्षविषयक भावना सर्वत्र विद्यमान है। इसके अन्तर्गत पक्षों को उजागर किया है लेकिन आख्यान का समापन शुक्ल पक्ष विरक्ति, त्याग, तपस्या, पूजा, आदि धार्मिक चिंतन एवं कृत्य स्वयं की प्रधानता दिग्दर्शित कर आदर्शवाद को प्रतिष्ठित किया है। कथा ही सन्निहित हैं क्योंकि जैन कथाओं का लक्ष्य धर्म की महिमा को साहित्य की दृष्टि से जैन साहित्य बौद्ध साहित्य की अपेक्षा अधिक बताना तथा धर्मानुमोदित आचार का प्रचार करना है। प्रकारान्तर से सफल और समृद्ध है जैन कथाओं में भूत, वर्तमान दुःख सुख की जैनकथाओं को इस प्रकार से भी वर्गीकृत किया जा सकता है। व्याख्या या कारण निर्देश के रूप में आता है। वह गौण है। मुख्य यथा - (१) धार्मिक (२) ऐतिहासिक (३) सामाजिक (४) उपदेशात्मक है वर्तमान। जबकि बौद्ध जातकों में वर्तमान अमुख्य है। वहाँ बौधिसत्व (4) मनोरंजनात्मक (६) अलौकिक (७) नैतिक (८) पशु-पक्षी सम्बन्धी की स्थिति विगत काल में ही रहती है। इसमें अनेक रूपक कहानियाँ (९) गाथाएँ (१०) शाप-वरदान विषयक (११) व्यवसाय सम्बन्धी भी हैं। एक उदाहरण देना पर्याप्त होगा। एक तालाब है। उसमें खिले (१२) विविध (१३) यात्रा सम्बन्धी (१४) गुरु शिष्य सम्बन्धी (१५) हुए कमल भरे हैं। मध्य में एक बड़ा कमल है। चार ओर से चार देवीदेवता सम्बन्धी (१६) शकुनापशकुन सम्बन्धी (१७) मंत्र-तंत्रादि मनुष्य आते हैं और वे उस बड़े कमल को हथियाना चाहते हैं। प्रयल सम्बन्धी (१८) बुद्धि परीक्षण सम्बन्धी (१९) विविध जातिवर्ग सम्बन्धी करते हैं परन्तु सफल नहीं होते। एक भिक्षु तालाब के किनारे से कुछ (२०) विशिष्ट न्याय विषयक (२१) काल्पनिक कथाएँ (२२) प्रकीर्णक। शब्द बोलकर उस बड़े कमल को प्राप्त कर लेता है। यह सूयगड (सूत्रकृतांग) आगम की रूपक-कहानी है। इस रूपक के द्वारा यह मा लेकिन मेरी दृष्टि से सम्पूर्ण भारतीय कथा साहित्य को चार समझाया गया है कि विषयभोग का त्यागी-साधु राजा-महाराजा आदि प्रमुख वर्गों में विभाजित किया जा सकता है. अनुर का संसार से उद्धार कर देता है। इस प्राचीन कथा साहित्य से. (१) नीतिकथा (Didatic tales) जिसका ऊपर वर्णन हुआ है, तत्त्वग्रहण कर आगे के लेखकों ने (२) धर्मकथा (Religious tales) संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश में अनेक कहानियाँ रची हैं। अपभ्रंश (३) लोककथा (Folk or Popular tales) के 'पउमचरिउ' एवं 'भविसयत्तकहा' नामक ग्रंथ कहानी साहित्य की (४) रूपक कथा (Allegorical tales) अमूल्य निधि है। इनमें अनेक उपदेश प्रद कहानियाँ उपलब्ध होती स्थानांग सूत्र में कथा के तीन भेद बताए गए हैं - तिविहाकहा हैं। अधिक क्या कहा जाए, कथाओं के समूह के समूह जैन आचार्यों - अत्थकहा, कामकहा, धम्मकहा। - सूत्र १८९। इन भेदों के पश्चात् ने रच डाले हैं जिनके द्वारा जैनधर्म का प्रचार भी हुआ है और धार्मिक स्थानांग सूत्र २९२ में धर्मकथा के उपभेद भी बताए गए हैं। इसका सिद्धान्तों को बल भी मिला है। इन कथाओं में जीवन के उदात्त प्रमुख कारण यह है कि अर्थ-कथा और कामकथा संसार विवर्द्धक एवं शाश्वत सत्यों का निरूपण हुआ है। सांसारिक वैभव-विलास से होने के कारण जैन आचार्यों को उसका वर्ण अभिप्रेत ही नहीं था। विरक्ति में जैन कथाएँ प्रयोजनासद्ध हेतु का काम करती हैं। उनकी प्रमुख रुचि धर्मकथा की ओर ही थी। इसलिए उन्होंने स्थानाग सून श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन अंथ/वाचना भोगी बन कर मानवी, पाता कष्ट महान । जयन्तसेन तन बल धन, तीनों खोवत जान । : Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) आक्षेपिणी (२) विक्षेपणी (३) संवेगिनी (४) निर्वेदिनी - धर्मकथा अभीप्सा मानव में आदिकाल से रही। है। वेद, उपनिषद् महाभारत के ये चार भेद बताए हैं। आगम और त्रिपिटक की हजारों लाखों कहानियाँ इस बात की साक्षी औपदेशिक कथा संग्रह हैं कि मानव कितने चाव से कहानी को कहता व सुनता आया है चरणकरणानुयोग विषयक साहित्य धर्मोपदेश या औपदेशिक और उसके माध्यम से धर्म और दर्शन, नीति और सदाचार, प्रकरणों के रूप में उद्भूत एवं विकसित हुआ है। धर्मोपदेश में संयम, बौद्धिक-चतुराई और प्रबल पराक्रम, परिवार और समाज सम्बन्धी शील, तप, त्याग और वैराग्य आदि भावनाओं को प्रमुखता दी गई गहन समस्याओं को सुन्दर रीति से सुलझाता रहा है। है। जैन साधु प्रवचनारम्भ में कुछ शब्दों या श्लोकों में अपनी धर्मदेशना काश्रमण भगवान महावीर जहाँ धर्म-दर्शन व अध्यात्म के गम्भीर का प्रसंग बता देता है और फिर एक लम्बीसी मनोरंजक कहानी कहने प्ररूपक थे, वहाँ एक सफल कथाकार भी थे। वे अपने प्रवचनों में लगता है जिसमें अनेक रोमांचक घटनाएँ होती है और अनेक बार जहाँ दार्शनिक विषयों की गम्भीर चर्चा-वार्ता करते थे वहाँ लघु रूपकों कथा के भीतर कथा निकलती जाती है। इस प्रकार ये औपदेशिक एवं कथाओं का भी प्रयोग करते थे। प्राचीन निर्देशिका से परिज्ञात प्रकरण अत्यन्त महनीय कथा साहित्य से आपूर्ण हैं जिसमें उपन्यास, होता है कि नायाधम्म कहा में किसी समय भगवान महावीर द्वारा दृष्टान्तकथा, प्राणिनीतिकथा, पुराण कथा, परिकथा नानाविध कौतुक कथित हजारों रूपक व कथाओं का संकलन था। और अद्भुत कथाएँ उपलब्ध होती हैं। जैन मनीषियों ने इस प्रकार स आर्यरक्षित ने अनुयोगों के आधार पर आगमों को चार भागों के विशाल औपदेशिक कथा साहित्य का सृजन किया है। धर्मोपदेश में विभक्त किया था। उसमें धर्मकथानुयोग भी एक विभाग था। प्रकरण के अन्तर्गत जो उपदेश माला, उपदेश प्रकरण, उपदेश दिगम्बर साहित्य में धर्मकथानुयोग को ही प्रथमानुयोग कहा है। रसायन, उपदेश चिन्तामणि, उपदेश कन्दली, उपदेशतरंगिणी, प्रथमानयोग में क्या-क्या वर्णन है,उसका भी उन्होंने निर्देश किया भावनासागर आदि अर्धशतक रचनाओं का विवरण 'जैन साहित्य के बृहद् इतिहास' चतुर्थमाग में संकलित है। दिगम्बर साहित्य में यद्यपि बताया जा चुका है कि तीर्थंकर महावीर एक उच्च कोटिके ऐसे औपदेशिक प्रकरणों की कमी है जिनपर कथा-साहित्य रचा गया सफल कथाकार भी थे। उनके द्वारा कही गई कथाएँ आज भी हो फिर भी कुन्दकुन्द के षटप्राभृत की टीका में, वट्टकेर के 'मूलाचार' आगम-साहित्य में उपलब्ध होती हैं। कुछ कहानियाँ ऐसी भी हैं जो मे, शिवार्य की भगवती आराधना तथा रत्नकरण्डश्रावकाचारादि की भिन्न नामों से या रूपान्तर से वैदिक व बौद्ध साहित्य में ही उपलब्ध टीकाओं में औपदेशिक कथाओं के संग्रह सुलभ होते हैं। नहीं होती अपितु विदेशी साहित्य में भी मिलती हैं। उदाहरणार्थ - कतिपय कथाकोशों का विवरण ज्ञाताधर्म कथा की ७ वीं चावल के पाँच दाने वाली कथा कुछ रूपान्तर औपदेशिक कथा साहित्य के अनुकरण पर अनेक कथाकोशों के साथ बौद्धों के सर्वास्तिवाद के विनयवस्तु तथा बाइबिल में भी का सृजन हुआ है। इनमें कतिपय कथाकोशों का संक्षिप्त नाम देना प्राप्त होती है। इसी प्रकार जिनपाल और जिनरक्षित की कहानी यहाँ समीचीन होगा। वलाहस्सजातकर व दिव्यावदान में नामों के हेर फेर के साथ कही (१) बृहत्कथा कोष (२) आराधना सत्कथा प्रबंध (३) कथाकोष गई है। उत्तराध्ययन के बारह वें अध्ययन हरि केशबल की कथावस्तु (४) कथा कोष प्रकरण (५) कथारत्न कोश (६) कथामणि कोश मातंग जातकच में मिलती है। तेरहवें अध्ययन चित्र संभूत की (७) कथा महोदधि (८) भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति (९) कल्पमंजरी कथावस्तु चित्तसंभूत जातक' में प्राप्तहोती है। चौदहवें अध्ययन (१०) ब्रतकथा कोश (११) कथावली (१२) कथा समास इषुकार की कथा हत्थिपाल जातक व महाभारत के शांतिपर्व में (१३) कथार्णव (१४) कथा रत्नाकर (१५) कथानक कोश उपलब्ध होती है। उत्तराध्ययन के नौवें अध्ययन 'नमिप्रवज्या' की (१६) कथा संग्रह (१७) पुण्याश्रव कथा कोश (१८) कुमारपाल आंशिक तुलना महाजन जातक' तथा महाभारत के शान्तिपर्व से प्रतिबंध (१९) धर्माभ्युदय (२०) सम्यक्त्व कौमुदी (२१) धर्मकल्पद्रुम होती है। इस प्रकार महावीर के कथा साहित्य का अनुशीलन परिशीलन (२२) दान प्रकाश (२३) उपदेश प्रासाद (२४) धर्मकथा। करने से स्पष्ट परिज्ञात होता है कि ये कथा कहानियाँ आदिकाल से प्राकृत जैन कथा साहित्य १६ ही एक सम्प्रदाय से दूसरे सम्प्रदाय में एक देश से दूसरे देश में कथा-कहानी साहित्य की एक प्रमुख विधा है जो सबसे अधिक यात्रा करती रही हैं। कहानियों की यह विश्वयात्रा उनके शाश्वत और लोकप्रिय और मनमोहक है। कला के क्षेत्र में कहानी से बढ़कर सुन्दर रूप की साक्षी दे रही है; जिसपर सदा ही जनमानस मुग्ध होता अभिव्यक्ति का इतना सुन्दर एवं सरस साधन अन्य नहीं है। कहानी रहा है। विश्व की सर्वोत्कृष्ट काव्य की जननी है और संसार का सर्वश्रेष्ठ मूल आगम साहित्य में कथा-साहित्य का वर्गीकरण अर्थकथा, सरस साहित्य है। कहानी के प्रति मानव का सहज व स्वाभाविक धर्मकथा और कामकथा के रूप में किया गया है। परवर्ती साहित्य आकर्षण है। फलतया जीवन का ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं जिसमें में विषय, पात्र, शैली और भाषा की दृष्टि से भेद-प्रभेद किए गए कहानी की मधुरिमा अभिव्यञ्जित न हुई हो। सच तो यह है कि हैं। आचार्य हरिभद्र ने विषय की दृष्टि से अर्थकथा, कामकथा, धर्मकथा मानव का जीवन भी एक कहानी है जिसका प्रारम्भ जन्म के साथ और मिश्रकथा ये चार भेद किए हैं। विद्यादि द्वारा अर्थ प्राप्त करने और मृत्यु के साथ अवसान होता है। कहानी कहने और सुनने की की जो कथा है वह अर्थकथा है जिस श्रृंगारपूर्ण वर्णन को श्रवणकर श्रीमद् जयंतसेनसरि अभिनंदन ग्रंथावाचना अज्ञानी बन कर फंसा, किया बहुत संभोग । जयन्तसेन बिना दमन, उदित हो कई रोग ॥ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हृदय में विकार भावनाएँ उद्बुद्ध हों वह कामकथा है। और जिससे आ जाने से मनोरंजन व कुतूहल का प्रायः अभाव था किन्तु व्याख्या अर्थ व काम दोनों भावनाएँ जाग्रत हों, वह मिश्रकथा है। ये तीनों साहित्य की कथाओं में यह बात नहीं है। आगमयुग की कथाएँ चरित्र प्रकार की कथाएँ आध्यात्मिक अर्थात् संयमी जीवन को दूषित करने प्रधान होने से विशेषविस्तार वाली होती थीं पर व्याख्या साहित्य की वाली होने से विकथा है। विकथा के स्त्रीकथा. भक्तकथा, देशकथा कथाएँ संक्षिप्त, ऐतिहासिक, अर्द्ध ऐतिहासिक, पौराणिक सभी प्रकार और राजकथा ये चार भेद और भी मिलते हैं। जैनश्रमण के लिए की हैं। विकथा करने का निषेध किया गया है। जैसा कि मैं ऊपर बता आया विमलसूरि का पउमचरिय और हरिवंसचरिय, शीलांकाचार्य का हूँ। उसे वही कथा कहनी चाहिए जिसको श्रवण कर श्रोता के अन्तर्मानस चउप्पण महापुरिसचरियं, गुणपालमुनि का जम्बूचरियं, धनेश्वर का में वैराग्य का पयोधि उछालें मारने लगे, विकार भावनाएँ नष्ट हों एवं सुरसुन्दरी चरियं, नेमिचन्द्र का रयणचूडरायचरियं, गुणचन्द्रगणि का संयम की भावनाएँ जाग्रत हों। तप संयमरूपी सद्गुणों को धारण पासनाहचरियं और महावीर चरिय, देवेन्द्र सूरि का सुंदसणचरिय और करने वाले, परमार्थी महापुरुषों की कथा, जो सम्पूर्ण जीवों का हितकरने कहाचरिय, मानतुंग सुरि का जयन्ती प्रकरण, चन्द्रप्रभमहत्तरि का वाली है, वह धर्मकथा कहलाती है। २५ पात्रों के आधार से दिव्य, चन्दकेवली चरिय, देवचन्द्रसूरि का संतिनाहचरिय, शान्तिसूरि का मानुष और दिव्यमानुष, ये तीनभेद कथा के किए गए हैं। जिन कथाओं पुहबीचन्दचरिय, मलधारी हेमचन्द्र का नेमिनाहचरिय, श्रीचन्द्र का में दिव्यलोक में रहनेवाले देवों के क्रिया कलापों का चित्रण हो और मुणिसुव्वयसामिचरिय, देवेन्द्रसूरि के शिष्य श्री चन्द्रसूरि का सणंकुमार उसी के आधार से कथावस्तु का निर्माण हो, वे दिव्य कथाएँ हैं। चरिय, सोमप्रभसूरि का सुमतिनाहचरिय, नेमचन्द्रसूरि का अनन्तग्राह मानुष कथा के पात्र मानव लोक में रहते हैं। उनके चारित्र में मानवता चरिय एवं रत्नप्रभ का नेमिनाहचरिय प्रसिद्ध चरितात्मक काव्यग्रंथ हैं।" के प्रतिनिधि होते हैं। किसी-किसी मानुष कथा में ऐसे मनुष्यों का इनमें कथा और आख्यानिका का अपूर्व संमिश्रण हुआ है। इनमें बुद्धि चित्रण भी होता है जिनका चरित्र उपादेय नहीं होता। दिव्य मानुषी माहात्म्य, लौकिक आचार-विचार, सामाजिक परिस्थिति और राजनैतिक कथा अत्यन्त सुन्दर कथा होती है। कथानक का गुंफन कलात्मक होता वातावरण का सुन्दर चित्रण हुआ है। इन चरित ग्रंथों में “कथारस" है। चारित्र और घटना परिस्थियों का विशद् व मार्मिक चित्रण, की अपेक्षा "चरित” की ही प्रधानता है। हास्य-व्यंग्य आदि मनोविनोद, सौन्दर्य के विभन्न रूप, इस कथा में मा प्राकृत साहित्य में विशुद्ध कथा साहित्य का प्रारम्भ तरंगवती एक साथ रहते हैं। इसमें देव और मनुष्य के चरित्र का मिश्रित से होता है। विक्रम की तीसरी शती में पादलिप्त सरि ने प्रस्तत कथा वर्णन होता है। शैली की दृष्टि से सकलकथा, खण्डकथा, उल्लापकथा, का प्रणयन किया। करुण, श्रृंगार और शांतरस की त्रिवेणी इसमें एक परिहासकथा और संकीर्णकथा ये पाँच भेद किय गए हैं। सकलकथा साथ प्रवाहित हुई है। इसी प्रकार की दूसरी कृति आचार्य हरिभद्र की में चारों पुरुषार्थ, नौ रस, आदर्श चरित्र और जन्म जन्मान्तरों के समराइच्च कहा है। इस कथा में प्रतिशोध भावना का बड़ा ही हृदयग्राही संस्कारों का वर्णन रहता है। जैनकथा साहित्य गुण और परिणाम चित्रण किया गया है। धाख्यान भी इरिभदसरि की एक महत्त्वपर्ण दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। जन जीवन का पूर्णतया चित्रण कृति है। भारतीय कथा साहित्य में लाक्षणिक शैली में लिखी गई उसमें किया गया है। इस वृति का स्थान मूर्धन्य है। इसप्रकार की व्यंग्यप्रधान अन्य रचनाएँ आगम साहित्य में बीजरूप से कथाएँ मिलती हैं तो नियुक्ति दृष्टिगोचर नहीं होती। भाष्य, चूर्णि और टीका साहित्य में उसका पूर्ण निखार दृष्टिगोचर कवलयमाला हरिभदसर के शिष्य उद्योतन सरि के द्वारा रचित होता है। हजारो लघु व वृहत् कथाए उनम आया ह। आगमकालान है। क्रोध, मान, माया लोभ और मोह इन विकारों का दुष्परिणाम कथाओं की यह महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि उसमें उपमाओं और बतलाने के लिए अनेक अवान्तर कथाओं के द्वारा विषय का निरूपण दृष्टान्तों का अवलंबन लेकर जन-जीवन को धर्म सिद्धान्तों की ओर अधिकाधिक आकर्षित किया गया है। उन कथाओं की उत्पत्ति, उपमान, 7 समराइच्च कहा और कुवलयमाला की परम्परा को आगे बढ़ाते रूपक और प्रतीकों के आधार से हुई है। यह सत्य है कि आगमकालीन हुए शीलांकाचार्य ने चउपन्न महापुरिसचरिय की रचना की है। इसमें कथाओं में संक्षेप करने के लिए यत्र-तत्र 'वण्णओ' के रूप में संकेत जैनधर्म के चौवन महापुरुषों के जन्मजन्मान्तर की कथाएँ गुम्फित की किया गया है जिससे कथा को पढ़ते समय उसके वर्णन की समग्रता गई हैं। जैनधर्म में महापुरुषों की संख्या तिरसठ कही गई है। लेकिन का जो आनंद आना चाहिए, उसमें कमी रह जाती है। व्याख्या साहित्य शीलांकाचार्य ने उस परम्परा से अलग यह संख्या चौवन मानी है। में यह प्रवृत्ति नहीं अपनाई गई। कथाओं में जहाँ आगम साहित्य में सुरसुन्दरीचरित्र के रचयिता धनेश्वरसूरि ने लीलावई कहा के केवल धार्मिक भावना की प्रधानता थी, वहाँ व्याख्या साहित्य में रचयिता कौतूहल के मार्ग का अनुसरण किया है। ग्रंथ की चार साहित्यिकता भी अपनायी गई। एकरूपता के स्थान पर विविधता और हजार गाथाओं में जैनधर्म के सिद्धान्तों के निरूपण की आधार शिला नवीनता का प्रयोग किया जाने लगा। पात्र, विषय, प्रवृत्ति, वातावरण, पर प्रेमकथा का प्रस्तुतिकरण विशेष महत्त्व रखता है। उद्देश्य, रूपगठन, एवं नीति संश्लेष प्रवृति सभी दृष्टियों से आगमिक कथाओं की अपेक्षा व्याख्या साहित्य की कथाओं में विशेषता व संवेग रंगशाला जिनचन्द्र रचित रूपक कथा है। संवेग भाव के नवीनता आयी है। आगमकालीन कथाओं में धार्मिकता का पुट अधिक निरूपण हेतु अनेक कथाएँ इसमें गुम्फित की गई हैं। जिनदत्ताख्यान श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथावाचना भोगी मत बन मनुज तू, मत कर जीवन नाश । जयन्तसेन समझ बिना, मानवता की लाश ॥ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और अन्तिम भविसयत्त का संग्रह में बारह कथासंकलन दृष्टियों का करती है। पात स्वयंभू से हो की कथा का प्रणयन आचार्य सुमतिसूरि ने किया है। कथा अत्यन्त से तो प्राप्त थी। इसमें प्रयुक्त कथाओं के सूत्र भारतीय पुराणों से रसप्रद है। मिलते-जुलते हैं। अपभ्रंश के प्रबन्धकाव्य को कथा काल कहना अधिक महेश्वसूरि ने ज्ञानपंचमी कथा में श्रुतपंचमीव्रत का माहात्म्य बताने उपयुक्त है क्योंकि इसमें कथा की मुख्यता रहती है चाहे कथा पौराणिक के लिए रस कथाओं का सृजन किया है। इन कथाओं में प्रथम जयसेन हो या काल्पनिक। जैन अपभ्रंश.की प्रायः समस्त प्रबन्धात्मक कथाकहा और अन्तिम भविसयत्त कहा महत्त्वपूर्ण है। नर्मदा सुन्दरीर के कृतियाँ पद्यबद्ध हैं और प्राय: सबके चरित नायक या तो पौराणिक रचयिता महेन्द्रसूरि हैं। 'प्राकृत कथा संग्रह' में बारह कथाओं का सुंदर हैं या जैनधर्म के निष्ठापूर्ण अनुयायी। भाषा, छंद, कवित्व, सभी संकलन हुआ है। लेखक का नाम अज्ञात है। सिरिवालकहा का संकलन दृष्टियों से कथा कृतियाँ अपभ्रंश साहित्य का उत्कृष्ट और महनीय रत्लशेखर सूरि ने किया है। संकलन समय सं. १४२८ है। आधुनिक रूप प्रदर्शित करती हैं। उपन्यास के सभी गुण प्रस्तुत कथानक में विद्यमान हैं। अप्रभंश कथा साहित्य का सूत्रपात स्वयंभू से होता है उनका जिनहर्षसूरि ने विक्रम संवत् १४८७ में 'रयणसेहर निवकहा' 'पउमचरिउ' रामकथा का जैनरूप दर्शाता है। यह संस्कृत के 'पद्मपुराण' अर्थात् रलशेखर नृपति कथा का प्रणयन किया। जायसी के 'पद्मावत' (रविषेणकृत) और प्राकृत के विमलसूरिकृत 'पउमचरिउ' से उत्प्रेरित की कथा का मूल प्रस्तुत कथा है। डॉ. नेमीचन्द्र जैन शास्त्री इस कथा है। स्वयंभू ने इसमें अपनी मौलिक घटनाओं को भी निबद्ध किया को 'पद्मावत' का पूर्वरूप स्वीकारते हैं। महिवाल कथा के रचयिता वीरदेव गणि हैं। इस ग्रंथ की प्रशस्ति या पुष्पदंत प्रणीत 'तिसट्ठि महापुरिसगुणालंकारु' अर्थात् त्रिषष्टि से अवगत होता है कि देवभद्रसूरि चन्द्रगुच्छ में हुए थे। इनके शिष्य शलाका पुरुष गुणालंकार 'महापुराण' ही संज्ञा से विख्यात है। आदि सिद्धसेनसरि और सिद्धसेनसरि के शिष्य मनिचन्द्रसरि थे। वीरदेवगणि पुराण और उत्तरपुराण इन दो खण्डों में त्रेसठ शलाका पुरुषों के मुनिचन्द्र के शिष्य थे।" विण्टरनित्स ने एक संस्कृत 'महिपालचरित' चरित शब्दित हैं। इसका श्लोक परिमाण बीस हजार है। पुष्पदंत की का भी उल्लेख किया है जिसके रचयिता चरित्र सुन्दर बतलाये हैं। दूसरी कृति ‘णायकुमारचरिठ' में नौ सन्धियाँ हैं। 'जसरहचरिउ' पुष्पदंत उक्त प्रमुख कथा रचनाओं के अतिरिक्त संघ तिलक सरि द्वारा की चार संधियों की रचना है जो मुनि यशोधर की जीवन कथा को विरचित आरामसोहा कथा, पंडिअघणवाल कहा, पुण्यचूल कहा, प्रस्तुत करती है। आरोग्यदुजकहा, रोहगुत्तकहा, वज्जकण्णनिवकहा, सुहजकहा और तेइसवें तीर्थकर पार्श्वनाथ के चरित्र को पद्मकीर्ति ने अपनीकृति मल्लवादी कहा, भद्दबाहुकहा, पादलिप्ताचार्य कहा, सिद्धसेन दिवाकर 'पासचरिउ' में उनके पूर्वभवों (जन्मों) की कथा के साथ चित्रित किया कहा, नागयत्र कहा, बाह्याभ्यन्तर कामिनी कथा, मेतार्य मुनिकथा, है। धवल की विशाल अपभ्रंशकृति 'रिट्ठणेमिचरिउ' अर्थात् द्रवदंत कथा, पद्मशेखर कथा, संग्रामशूर कथा, चन्द्रलेखा कथा एवं 'हरिवंशपुराण' में एक सो बाइस संधियाँ है। नरसुन्दर कथा आदि बीस कथाएँ उपलब्ध हैं। देवचन्द्रसूरिका SE अपभ्रंश के मध्यकालीन अर्थात् दसवीं शती के धनपाल विरचित कालिकाचार्य कथानक एवं अज्ञातनामक कवि की मलया सुन्दरी कथा कथाकाव्य ‘भविसयत्तकहा' आध्यात्मिक चरितकाव्य है। डॉ. आदित्य विस्तृत कथाएँ हैं। प्राकृत कथा साहित्य में कुछ ऐसी कथा कृतियाँ प्रचंडिया 'दीति' इस कथा काव्य में धार्मिक बोझिलता न मानते हुए उपलब्ध होती हैं जिनका लक्ष्य कथा को मनोरंजक रूप में प्रस्तुत लैकिक जीवन के एक नहीं अनेक चित्र गुम्फित होना स्वीकारते हैं। करना न होकर जैन मुनियों द्वारा पाठकों को उपदेश प्रदान करना रहा इस कृति को 'सुयपंचमीकहा' अर्थात् श्रुतपंचमी कथा भी कहते हैं। है। इस प्रकार की उपदेशप्रद कथाओं में धर्मदास गणि की उपदेशमाला, इसमें ज्ञानपंचमी के फल-वर्णन स्वरूप भविसयत्त की कथा बाइस जयसिंह सूरि की धर्मोपदेशमाला, जयकीर्ति की शीलोपदेशमाला, संधियों में है। कथा का मूलस्वर व्रतरूप होते हुए भी जिनेन्द्रभक्ति से विजयसिंहसूरि की मुक्त सुन्दरी, मलधारी हेमचन्द्रसूरि की उपदेशमाला, अनुप्राणित है।५२ साहड की विवेक मञ्जरी, मुनिसुन्दर सूरि का उपदेशरत्नाकर, शुभवर्धन वीर कवि की अपभ्रंश कृति “जंबूसामिचरिउ' में जैनधर्म के गणि की वर्धमान देशना एवं सोमविपल की दशद्दष्टान्त गीता आदि अंतिम केवली जंबूस्वामी का चरित ग्यारह सन्धियों में कहा गया है। रचनाएँ महत्त्वपूर्ण हैं। ५ उपदेश कथाओं में उपदेश की प्रधानता है। इसका रचनाकाल विक्रम संवत् १०७६ है। वीर कवि की इस कृति अन्य विषय गौण हैं। में ऐतिहासिक महापुरुष जंबूस्वामी के पूर्वभवों तथा उनके विचारों और युद्धों का वर्णन अभिव्यज्जित है। इसमें समाविष्ट अन्तर्कथाएँ अपभ्रंश जैन कथा साहित्य मुख्यकथावस्तु के विकास में सहायक बन पड़ी है।३।। अपभ्रंश कथाकाव्य के वस्तुतत्त्व के विकास और अलंकरण पंचपरमेष्ठि नमस्कार महामंत्र के महत्त्व को दर्शाया है विक्रम संवत ११०० के प्रणेता नयनंदी ने अपनी बारह संधियों वाली रचना उपलब्ध हैं। अपभ्रंश कथा-काव्य के निर्माता एक विशेष युग और 'मदंसणचरिउ' में। सुदर्शन का चरित शीलमाहात्म्य के लिए जैनजगत दृष्टि से प्रभावित थे। कथा कहकर कुतूहल जगाना या मात्र मनोविनोद में विख्यात है।५४ ग्यारहवीं शती के दिगम्बर मुनि कनकामर की कृति करना इनका लक्ष्य नहीं था। वे ऐसे कथा साहित्य की रचना करना 'करकण्डचरिउ' दस संधियों की रचना है। जिसमें करकंडु की मुख्य चाहते थे, जिससे काव्यकला के विधान और उद्देश्य की पूर्ति के साथ कथा के साथ साथ नौ अवांतर कथाएँ हैं जो जैनधर्म के सदाचारमय नैतिकता और धार्मिक उद्देश्य भी प्रतिफलित हो जाएं। कोरे साहित्यकारों जीवन को तथा राजा को नीति की शिक्षा देने के लिए वर्णित हैं। या धर्मवादियों की अपेक्षा इनका दृष्टिकोण कुछ उदार और कथा के प्रसार और वर्णन में व्यापकता है। इस कृति की कथा में लोककल्याणकारी था। कथा साहित्य की यह विरासत इन्हें परम्परा लोक कथाओं की झलक द्रष्टव्य है।५ व्य सभी कथा काव्यों में समानरूप स मसणचरित' में। सुदर्शन का चरित शाबर मुनि कनकामर की कृति ३१ श्रीमद्बयंतसेनसरिअभिनंदन ग्रंथावाचना Jain Education Interational विषय विलासी जीव को, नहीं धर्म का राग anelibrary.org जयन्तसेन पतंग को, दीपक से अनुराग ॥ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घाहिल की चार संधियों की रचना 'पउमसिरी चरिउ' में पंचाणुव्रत कथाओं में सहजरूप में प्राप्त हो जाती है। हिन्दी जैन साहित्य में का माहात्म्य बताया गया है। संस्कृत और प्राकृत की कथाओं का अनेक लेखकों और कवियों ने अनुवाद किया है। एकाध लेखक ने पौराणिक कथाओं का आधार लेकर अपनी स्वतंत्र कल्पना के मिश्रण द्वारा अद्भुत कथा साहित्य का सृजन किया है। इन हिन्दी कथाओं की शैली बड़ी ही प्रांजल, सुबोध और मुहावरेदार है। ललित लोकोक्तियाँ, दिव्य दृष्टान्त और सरस मुहावरों का प्रयोग किसी भी पाठक को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए पर्याप्त है.” अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी द्वारा प्रणीत १११ भागों में संकलित कहानियाँ अनेक दृष्टिकोण से महनीय हैं। एक सौ ग्यारह भागों में विभक्त उपाध्यायश्री की ये जैन कथाएँ कथा साहित्य की महत्ता में चार चाँद लगाती है। व्यावहारिक जगत में वस्तु के सहीरूप को जानना, उस पर विश्वास करना और फिर उस पर दृढ़ता पूर्वक आचरण करना - जीवन निर्माण, सुधार और उन्नत बनाने का राजमार्ग प्रशस्त करती है। यदि ठाणं की शैली में कहूँ तो दर्शन एक है - सम्यग्दर्शन ९ ज्ञान एक है सम्यग्ज्ञान १. और चारित्र एक है सम्यक् चारित्र १ । इस प्रकार तीनों मिलकर बने १११ और सम्यग्दर्शन ज्ञान- चरित्र की त्रिपुटी सीधा मुक्ति का सर्वकर्मक्षय का मार्ग है, धार्मिक जगत में इस दृष्टि से जैन कथाओं के समस्त भागों में संकलित कथाएँ धार्मिक तो हैं ही, साथ ही जीवन निर्माण में भी भरपूर सहायक हैं। - उपसंहार अपभ्रंश जैन कथा साहित्य में श्रीचन्द का महनीयस्थान है। उनका तिरपन संधियों का उपदेश प्रधान कथा संग्रह 'कथाकोश' अपभ्रंश कथा साहित्य में मील का पत्थर सिद्ध होता है। बारहवीं शती के उत्तरार्ध और तेरहवीं के प्रारम्भ के रचयिता श्रीधर की तीन रचनाएँ- सुकुमाल चरिठ, पासणाह चरित, और भविसयत्तचरित भाषा, शैली और कथा की दृष्टि से परम्परा का अनुमोदन करती हैं। देवसेनगणि की अट्ठाइस संधियों की 'सुलोचनाचरिउ' कृति, सिंह की पन्द्रह सन्धियों की 'पज्जुण्णचरित' कृति हरिभद्र की 'गेमिणाहचरित', जिसमें संगृहीत 'सनत्कुमारचरित' दृष्टि पथ पर आता है जो कथानक की दृष्टि से पूर्ण स्वतंत्र रचना प्रतीत होती है५७ तथा धनपाल द्वितीय की 'बाहुबलिचरिउ ' आदि रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त पन्द्रहवीं शती के उत्तरार्थ तथा सोलहवीं शती के पूर्वार्ध के रचनाकार रद्दधू की कथात्मक रचनाएँ पासणाहचरिउ, सुकोसलचरिउ, धण्णकुमारचरिउ, सम्मितनाहचरिउ महत्त्वपूर्ण हैं। नरसेन की 'सिखिलचरिउ', हरिदेव की मयणपराजयचरिउ; यशकीर्ति की चंदप्पहचरिउ, माणिक्यराज की 'णायकुमार चरिउ और अमरसेनचरिउ' कृतियाँ परम्परा से चली आ रही कथाओं पर आधृत हैं सिवाय 'मयणपराजयचरिउ' के ये प्रतीकात्मक और रूपकात्मक कथाकाव्य हैं। है/ ५८ . अपभ्रंश का कथा साहित्य प्राकृत की ही भांति प्रचुर तथा समृद्ध अनेक छोटी-छोटी कथाएँ व्रत सम्बन्धी आख्यानों को लेकर या धार्मिक प्रभाव बताने के लिए लोकाख्यानों को लेकर रची गई हैं। अकेली रविव्रत कथा के सम्बन्ध में अलग-अलग विद्वानों की लगभग एक दर्जन रचनाएँ मिलती हैं। केवल भट्टारक गुणभद्र रचित सत्रह कथाएँ उपलब्ध हैं। इसी प्रकार पंडित साधारण की आठ कथाएँ तथा मुनि बालचन्द्र की तीन एवं मुनि विनयचन्द्र की तीन कथाएँ मिलती ५९ अपभ्रंश की इन जैन कथाओं के अनुशीलन से मध्यकालीन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का परिज्ञान होता है। हैं। हिन्दी जैन कथाओं के दो रूप हमें प्राप्त होते हैं प्रथम रूप है विभिन्न भाषाओं से अनूदित कथाएँ और दूसरा रूप है मौलिकता, जो पौराणिक कथाओं के माध्यम से अभिव्यज्जित हुआ है। आज बहुत से सुविज्ञों ने जैन पुराणों की कथाओं को अभिनव शैली में प्रस्तुत किया है और इस दिशा में सतत निमग्न हैं। डॉ. नेमिचन्द्र जैन के कथनानुसार "जैन आख्यानों में मानव जीवन के प्रत्येक रूप का सरस और विशद् विवेचन है तथा सम्पूर्ण जीवन चित्र विविध परिस्थिति रंगों से अनुरंजित होकर अंकित है। कहीं इन कथाओं में ऐहिक समस्याओं का समाधान किया गया है तो कहीं पारलौकिक समस्याओं का अर्थ नीति, राजनीति, सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियों कला कौशल के चित्र, उत्तुंगिनी अगाध नद नदी आदि भूवृत्तों का लेखा, अतीत के जल-स्थल मार्गों के संकेत भी जैन कथाओं में पूर्णतया विद्यमान हैं। ये कथाएँ जीवन को गतिशील, हृदय को उदार और विशुद्ध एवं बुद्धि को कल्याण के लिए उत्प्रेरित करती हैं। मानव को मनोरंजन के साथ जीवनोत्थान की प्रेरणा इन श्रमदव अभिनंदनाचा is विश्व के वाङ्मय में कथा साहित्य अपनी सरसता और सरलता के कारण प्रभावक और लोकप्रिय रहा है भारतीय साहित्य में भी कथाओं का विशालतम साहित्य एक विशिष्ट निधि है। भारतीय कथा साहित्य में जैन एवं बौद्ध कथा साहित्य अपना विशिष्ट महत्व रखते हैं। श्रमण परम्परा ने भारतीय कथा साहित्य की न केवल श्रीवृद्धि की है अपितु उसको एक नई दिशा दी है। जैन कथा साहित्य का तो मूललक्ष्य ही रहा है कि 'कथा के माध्यम से त्याग, सदाचार, नैतिकता आदि की कोई सत्प्रेरणा देना।' आगमों से लेकर पुराण. चरित्र, काव्य, रास एवं लोककथाओं के रूप में जैन धर्म की हजारों-हजार कथाएँ विख्यात हैं। अधिकतर कथा साहित्य प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, गुजराती एवं राजस्थानी भाषा में होने के कारण और वह भी गद्य-बद्ध होने से बहुसंख्यक पाठक उससे लाभ नहीं उठा सकता जैनकथा साहित्य की इस अमूल्य निधि को आज की लोक भाषा राष्ट्रभाषा हिन्दी के परिवेश में प्रस्तुत करना अत्यन्त आवश्यक है। इस दिशा में एक नहीं कई सुन्दर प्रयास भी प्रारम्भ हुए हैं पर अपार अथाह कथा-सागर का आलोड़न किसी एक व्यक्ति द्वारा सम्भव नहीं है। जैसे जगन्नाथ के रथ को हजारों हाथ मिलकर खींचते हैं, उसी प्रकार प्राचीन कथा-साहित्य के पुनरुद्धार के लिए अनेक मनस्वी चिन्तकों के दीर्घकालीन प्रयत्नों की अपेक्षा है। लेकिन इसी आवश्यकता की पूर्ति हेतु पूज्य गुरुदेव श्री पुष्करमुनि जी महाराज ने वर्षोंतक इस दिशा में महनीय प्रयास किया है। ३२ क्रोध भयंकर आग है, समझो जयन्तसेन । हिंसा ताण्डव यह करे, तन मन सब बेचैन ॥ www.jaihelibrary.org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 ऋग्वेद के मंत्र 1 सूक्त 24/25, मंत्र 30 // 2 छान्दोग्य उपनिषद 4/1/3 3 हरियाना प्रदेश का लोकसाहित्य, डॉ. शंकरलाल यादव, पृष्ठ 339 तथा 340 / जैन कथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन, श्रीचन्द्र जैन, पृष्ठ 28 / वही, पृष्ठ 11 अभ्यर्थना, जैन कथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन श्रीचन्द्रजैन, पृष्ठ 11 // आजकल, लोककथा अंक, पृष्ठ 11 // हरियाना प्रदेश का लोकसाहित्य, डॉ. शंकरलाल यादव, पृष्ठ 346 / दीर्घ निकाय 18 10 (क) लोक कथाएँ और उनका संग्रहकार्य, डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल, आजकल, लोककथा अंक, पृष्ठ 9 / (ख) जैन कथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन, श्री चन्द्रजैन, पृष्ठ 33 / 11 जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 6, डॉ. गुलाबचन्द्र चौधरी, पृष्ठ 231 // 12 जैनकथाओं का सास्कृतिक अध्ययन, श्री चन्द्रजैन, पृष्ठ 33 // 13 जैनकथाओं का सांस्कृतिक अध्ययन, श्री चन्द्रजैन, पृष्ठ 34 / 14 नौका और नाविक, देवेन्द्र मुनिशास्त्री, पृष्ठ 8-9 / 15 जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग 6, डॉ. गुलाबचन्द्र चौधरी, पृष्ठ२३३-२३४। 16 साहित्य और संस्कृति, देवेन्द्र मुनिशास्त्री, पृष्ठ 76-88 / 17 नन्दीसुत्र 5, पृष्ठ 128, पू. हस्तीमलजी महाराज 18 दोविये आगम साहित्य : रणू वयवेक्षण का 51 वा टिप्पण। 19 (अ) पदम मिच्छादिडिढ अव्वदिकं आसिदूण पडिवज्ज। अणुयोगो अहियारो युत्तो पढमाणुयोगो सो॥ चउबीसं तित्थयरा पइगो बारह छखंडमरहस्स। णव बलदेवा किण्हा णव पडिसूत्र पुराणाई। तेसि वणंति पियामाई णयाणि तिण्ह पुत्वभवे। पंचसहस्सपयाणि य जत्थ हु सो होदि आहियाये। -अंगपण्णती - द्वितीय अधिकार गाथा 35-37 दिगम्बर आचार्य शभचन्द्र प्रणीत। (ब) तित्थयर चक्कवट्टी बलदेवा वासुदेव पडिसत्तू। पचसहस्सपयाण एस कहा पढम अणिओगो। - श्रुतस्कंध गा. 31 आचार्य ब्रह्महेमचन्द्र। 20 सेंट मेंथ्यू की सुवार्ता 25, सेंट ल्यूक की सुवार्ता 19 // 21 ज्ञाता धर्मकथा 9 22 वलाहस्स जातक पृष्ठ 196 // 23 जातक (चतुर्थखण्ड) 497 मातंगजातक पृष्ठ 583-97 / 24 जातक (चतुर्थखण्ड) 498 चित्रसंभूतजातक, पृष्ठ 598-608 / 25 हस्थिपाल जातक 509 / 26 शान्तिपर्व अध्याय 175 एवं 277 / 27 महाजन जातक, 539 तथा सोतक जातक सं. 529 // 28 महाभारत, शान्तिपूर्व अध्याय 179 एवं 276 / 29 तिविहा कहा पणता तं जहा - अत्थकहा - धम्मकहा कामकहा। -ठाणांग 3 ठाणासूत्र 189 / 30 (क) अत्थकहा कामकहा धम्मकहा चेव मीसिया य कहा। एतो एक्केक्कवि य योगविहा होइ नायव्या॥ - दशवैकालिक हारिभद्रीय वृत्ति गा 188 पृ. 212 / (ख) एत्थ सामनओ चत्तारि कहाओ हवंति। ते जहा - अत्थकहा, कामकहा, धम्म कहा, संकिग्णकहा। - समराइच्चकहा, याकोबी संस्करण, पृष्ठ 2 // 31 विद्यादिमिरचस्तप्रधाना कथा अर्यकथा। - अभिधान राजेन्द्रकोश भाग-३, पृष्ठ 402 / 32 सिंगारसुतुइया, मोहकुविय फुफुगाहसहसिं ति। जं सुणमाणस्स कहं, समणेण ना सा कहेयव्वा // 218 // - अभिधान राजेन्द्रकोष 33 (i) जो संजओ पमत्तो, रागदोसवसगओ परिकहेइ। साउ विकहापवयणे, पणता धीरपूरीसेहि।२१७ अभिधान रा.को. (ii) विरूद्धा विलष्टा वा कया विकथा। आचार्य हरिभद्रा 34 पडिक्कमामि चउहि विकहाहि - इत्थी कहाए, भत्तकहाएं, देश कहाए रायकहाए। -आवश्यक सूत्र 35 समणेण कहेयव्वा, तव नियम कहा विरागसंजुत्ता। जं सोऊण मणूसो, वच्चइ संवेगाणिव्वेयं॥ - अभिधान राजेन्द्रकोष भा.३ पृष्ठ 402. गा. 219 36 तव संजमगुणधारी, चरणरया कहिंति सम्भाव। सव्वजगजीवहियं सा उ कहा देसिया समए॥ अभिधान राजेन्द्रकोष गा. 216, पृष्ठ 402 / भाग 3 () दिव्य, दिव्बमाणुस, माणुस च। तत्थ दिव्य नाम जत्व केवलमेव देवचरिअं वणिज्जई समराइच्चकहा याकोवी संस्करण पृ. 21 (ii) तं जहा दिव्य - माणसी तहच्चेय। लीलावई गा. 35 // (iii) एमेय मुद्ध जुयई भणोहरं पय्ययाए भासाए। पविरलदेसिसुलक्खं कहसु कह दिव्व माणुसियं॥ -लीलावई गा. 41, पृष्ठ 11 / / 38 ताओ पुण पंचकहाओ। तं जहा - सयलकहा खंडकहा, उल्लावकहा, परिहासकहा, तहावरा कहिय त्रि संकिण्ण कहति। - कुवलयमाला पृष्ठ 4, अनुच्छेद 7 // 39 समस्तफलान्तेति वृत्तवर्णाना समादित्यवत् सरलकथा। - हेमकाव्यशब्दानुशासन 5/9| पृष्ठ 465 / 40 मरुकेसरी अभिनन्दन ग्रंथ, खण्ड 4 पृष्ठ 194 41 प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डॉ. नेमिचन्द्रशास्त्री पृष्ठ 486-488 42 नम्मया सुन्दरी कहा, सिंधी अंथमाला से ग्रंथांक 48 में प्रकाशित। 43 सिरिवज्जसेण गणहरपट्टपरहेम विलय सूरिण। सीसेहिं रयणसेहर सूरीहिं इमाहु संकलिया। चउदस अट्टाठीसो....... सिरिवाल कहा प्रशस्ति। 44 इतिहास. डॉ. नेमिचन्द्रशासी, पृष्ठ 510-513 / प्राकृत कथा साहित्य, प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, डॉ. नमिचन्द्र जैनशास्त्री, 513-515 46 प्राकृत कथा साहित्य, प्राकृत भाषा और साहित्य 24 आलोचनात्मक इतिहास, डॉ. नेमिचन्द्र जैन शास्त्री, पृष्ठ 517 / 47 अपभ्रंश भाषा और साहित्य, डॉ. देवेन्द्र कुमार जैन, पृष्ठ 85-86 / 48 अपभ्रंश भाषा का पारिभाषिक कोश, आगरा विश्वविद्यालय की डी. लिटू,, उपाधि का शोधप्रबन्ध, सन 1988, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया 'दीति' पृष्ठ 42-44 // 49 अपभ्रंश वाङ्मय में भगवान पार्श्वनाथ डॉ. आदित्य प्रचंडिया 'दीति' तुलसी प्रज्ञा, जैन विश्वभारती लाडनू, खण्ड 12 अंक 2 सितम्बर 86 पृष्ठ 45 / / केटेलोग आव संस्कृत एण्ड प्राकृत मेन्युस्क्रिप्टस्, ईन द सी. पी. एण्ड बरार, सम्पा. डॉ. हीरालाल जैन, पृष्ठ 716, 762, 767 तथा भूमिका, पृष्ठ 48-49 / जैन साहित्य और इतिहास, नाथुराम प्रेमी, पृष्ठ 423 / / अपभ्रंश भाषा का पारिभाषिक कोश, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया दीति, पृष्ठ 47-48 / भविसयत्त कहा का साहित्यिक महत्त्व, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया दीति, जैनविद्या, अंक 4, 1986, पृष्ठ 30 अपभ्रंश भाषा का पारिभाषिक कोश, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया दीति, पृष्ट 48 / जंबू सामिचरिउ का साहित्यिक मूल्यांकन, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया दीति, जैन विद्या, अप्रेल 1987, पृष्ठ 33-40 / सुंदरणचरिउ का साहित्यिक मूल्यांकन, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया दीति, जैन विद्या, अक्टूबर 1987, पृष्ठ 1-11 // 55 मुनि कनकामर व्यक्तित्त्व और कृतित्व, डॉ. (श्रीमती) अलका प्रचण्डिया दीति; जैनविद्या, मार्च 1988, पृष्ठ 1-7 / 56 अपभ्रंश भाषा का पारिभाषिक कोश, डॉ. आदित्य प्रचण्डिया दीति; पृष्ठ 52-53 / 57 वही, पृष्ठ 55 से 56 तक। 58 भविसयत्त कहा तथा अपभ्रंश कथा काव्य, डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री 59 अपभ्रंश और साहित्य की शोधप्रवृत्तियाँ, डॉ. देवेन्द्र कुमार शास्त्री, पृष्ठ 34 // 60 हिन्दी जैन साहित्य - परिशीलन, भाग 2, डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री, पृष्ठ 77 / (पृष्ठ 19 का शेष भाग) अहिंसा के महान् व्रत और असाधारण सिद्धांत का मानव जीवन के लिये व्यवहारिक तथा क्रियात्मक रूप देने के लिये दैनिक क्रियाओं संबंधी और जीवन संबंधी अनेकानेक नियमों तथा विविध विधानों का भी जैन धर्म ने संस्थापन एवं समर्थन किया है, जो महावीर की देन है। जिन्हें बारह व्रत एंव पंच महाव्रत भी कहते हैं। जिनका तात्पर्य यही है कि सम्पूर्ण मनुष्य जाति में इस प्रकार मानव शांति बनी रहे और सभी को अपना विकास करने का सुन्दर एवं समुचित संयोग प्राप्त हो। उन्होंने साध धर्म व गृहस्थ धर्म का अलग-अलग निरूपण किया। जाति भेद व लिंग, रंग, भाषा, वेश, नस्ल, वंश और काल का कृत्रिम भेद होते हुए भी मूल में मानव-मात्र एक ही है, यह है महावीर की अप्रतिम और अमर घोषणा, जो कि जैन धर्म की महानता को सर्वोच्च शिखर पर पहुंचा देती है। भगवान् महावीर के ये सिद्धान्त भारत के लिए ही नहीं, किन्तु समस्त विश्व के लिए एक अनोखी देन हैं। इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर मनुष्य जाति के सुखी भविष्य की आशा की जा सकती है। सामाजिक विषमताओं का उन्मूलन, धार्मिक कदाग्रहों व संघर्षों का शमन एवं राजनैतिक तनावों की कमी केवल इन्हीं आदर्श सिद्धान्तों के सहारे की जा सकती है। इन सिद्धान्तों का प्रचार भगवान् महावीर ने भारत भूमि पर किया। इसलिये हम उस युग को - महावीर युग को - भारतीय जीवन दर्शन का स्वर्णयुग कह सकते हैं। आज महावीर के उपदेशों पर चलें तो विश्व में शांति हो सकती है। * श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथावाचना 33 क्रोध अग्नि को दूर कर, बनो सदा तुम धीर / जयन्तसेन सुखद जीवन, पूर्ण तया गंभीर //