________________
हृदय में विकार भावनाएँ उद्बुद्ध हों वह कामकथा है। और जिससे आ जाने से मनोरंजन व कुतूहल का प्रायः अभाव था किन्तु व्याख्या अर्थ व काम दोनों भावनाएँ जाग्रत हों, वह मिश्रकथा है। ये तीनों साहित्य की कथाओं में यह बात नहीं है। आगमयुग की कथाएँ चरित्र प्रकार की कथाएँ आध्यात्मिक अर्थात् संयमी जीवन को दूषित करने प्रधान होने से विशेषविस्तार वाली होती थीं पर व्याख्या साहित्य की वाली होने से विकथा है। विकथा के स्त्रीकथा. भक्तकथा, देशकथा कथाएँ संक्षिप्त, ऐतिहासिक, अर्द्ध ऐतिहासिक, पौराणिक सभी प्रकार
और राजकथा ये चार भेद और भी मिलते हैं। जैनश्रमण के लिए की हैं। विकथा करने का निषेध किया गया है। जैसा कि मैं ऊपर बता आया विमलसूरि का पउमचरिय और हरिवंसचरिय, शीलांकाचार्य का हूँ। उसे वही कथा कहनी चाहिए जिसको श्रवण कर श्रोता के अन्तर्मानस चउप्पण महापुरिसचरियं, गुणपालमुनि का जम्बूचरियं, धनेश्वर का में वैराग्य का पयोधि उछालें मारने लगे, विकार भावनाएँ नष्ट हों एवं सुरसुन्दरी चरियं, नेमिचन्द्र का रयणचूडरायचरियं, गुणचन्द्रगणि का संयम की भावनाएँ जाग्रत हों। तप संयमरूपी सद्गुणों को धारण पासनाहचरियं और महावीर चरिय, देवेन्द्र सूरि का सुंदसणचरिय और करने वाले, परमार्थी महापुरुषों की कथा, जो सम्पूर्ण जीवों का हितकरने कहाचरिय, मानतुंग सुरि का जयन्ती प्रकरण, चन्द्रप्रभमहत्तरि का वाली है, वह धर्मकथा कहलाती है। २५ पात्रों के आधार से दिव्य, चन्दकेवली चरिय, देवचन्द्रसूरि का संतिनाहचरिय, शान्तिसूरि का मानुष और दिव्यमानुष, ये तीनभेद कथा के किए गए हैं। जिन कथाओं पुहबीचन्दचरिय, मलधारी हेमचन्द्र का नेमिनाहचरिय, श्रीचन्द्र का में दिव्यलोक में रहनेवाले देवों के क्रिया कलापों का चित्रण हो और मुणिसुव्वयसामिचरिय, देवेन्द्रसूरि के शिष्य श्री चन्द्रसूरि का सणंकुमार उसी के आधार से कथावस्तु का निर्माण हो, वे दिव्य कथाएँ हैं। चरिय, सोमप्रभसूरि का सुमतिनाहचरिय, नेमचन्द्रसूरि का अनन्तग्राह मानुष कथा के पात्र मानव लोक में रहते हैं। उनके चारित्र में मानवता चरिय एवं रत्नप्रभ का नेमिनाहचरिय प्रसिद्ध चरितात्मक काव्यग्रंथ हैं।" के प्रतिनिधि होते हैं। किसी-किसी मानुष कथा में ऐसे मनुष्यों का इनमें कथा और आख्यानिका का अपूर्व संमिश्रण हुआ है। इनमें बुद्धि चित्रण भी होता है जिनका चरित्र उपादेय नहीं होता। दिव्य मानुषी माहात्म्य, लौकिक आचार-विचार, सामाजिक परिस्थिति और राजनैतिक कथा अत्यन्त सुन्दर कथा होती है। कथानक का गुंफन कलात्मक होता वातावरण का सुन्दर चित्रण हुआ है। इन चरित ग्रंथों में “कथारस" है। चारित्र और घटना परिस्थियों का विशद् व मार्मिक चित्रण, की अपेक्षा "चरित” की ही प्रधानता है। हास्य-व्यंग्य आदि मनोविनोद, सौन्दर्य के विभन्न रूप, इस कथा में
मा प्राकृत साहित्य में विशुद्ध कथा साहित्य का प्रारम्भ तरंगवती एक साथ रहते हैं। इसमें देव और मनुष्य के चरित्र का मिश्रित से होता है। विक्रम की तीसरी शती में पादलिप्त सरि ने प्रस्तत कथा वर्णन होता है। शैली की दृष्टि से सकलकथा, खण्डकथा, उल्लापकथा, का प्रणयन किया। करुण, श्रृंगार और शांतरस की त्रिवेणी इसमें एक परिहासकथा और संकीर्णकथा ये पाँच भेद किय गए हैं। सकलकथा
साथ प्रवाहित हुई है। इसी प्रकार की दूसरी कृति आचार्य हरिभद्र की में चारों पुरुषार्थ, नौ रस, आदर्श चरित्र और जन्म जन्मान्तरों के
समराइच्च कहा है। इस कथा में प्रतिशोध भावना का बड़ा ही हृदयग्राही संस्कारों का वर्णन रहता है। जैनकथा साहित्य गुण और परिणाम चित्रण किया गया है। धाख्यान भी इरिभदसरि की एक महत्त्वपर्ण दोनों ही दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। जन जीवन का पूर्णतया चित्रण
कृति है। भारतीय कथा साहित्य में लाक्षणिक शैली में लिखी गई उसमें किया गया है।
इस वृति का स्थान मूर्धन्य है। इसप्रकार की व्यंग्यप्रधान अन्य रचनाएँ आगम साहित्य में बीजरूप से कथाएँ मिलती हैं तो नियुक्ति दृष्टिगोचर नहीं होती। भाष्य, चूर्णि और टीका साहित्य में उसका पूर्ण निखार दृष्टिगोचर कवलयमाला हरिभदसर के शिष्य उद्योतन सरि के द्वारा रचित होता है। हजारो लघु व वृहत् कथाए उनम आया ह। आगमकालान है। क्रोध, मान, माया लोभ और मोह इन विकारों का दुष्परिणाम कथाओं की यह महत्त्वपूर्ण विशेषता है कि उसमें उपमाओं और बतलाने के लिए अनेक अवान्तर कथाओं के द्वारा विषय का निरूपण दृष्टान्तों का अवलंबन लेकर जन-जीवन को धर्म सिद्धान्तों की ओर अधिकाधिक आकर्षित किया गया है। उन कथाओं की उत्पत्ति, उपमान,
7 समराइच्च कहा और कुवलयमाला की परम्परा को आगे बढ़ाते रूपक और प्रतीकों के आधार से हुई है। यह सत्य है कि आगमकालीन
हुए शीलांकाचार्य ने चउपन्न महापुरिसचरिय की रचना की है। इसमें कथाओं में संक्षेप करने के लिए यत्र-तत्र 'वण्णओ' के रूप में संकेत
जैनधर्म के चौवन महापुरुषों के जन्मजन्मान्तर की कथाएँ गुम्फित की किया गया है जिससे कथा को पढ़ते समय उसके वर्णन की समग्रता
गई हैं। जैनधर्म में महापुरुषों की संख्या तिरसठ कही गई है। लेकिन का जो आनंद आना चाहिए, उसमें कमी रह जाती है। व्याख्या साहित्य
शीलांकाचार्य ने उस परम्परा से अलग यह संख्या चौवन मानी है। में यह प्रवृत्ति नहीं अपनाई गई। कथाओं में जहाँ आगम साहित्य में
सुरसुन्दरीचरित्र के रचयिता धनेश्वरसूरि ने लीलावई कहा के केवल धार्मिक भावना की प्रधानता थी, वहाँ व्याख्या साहित्य में
रचयिता कौतूहल के मार्ग का अनुसरण किया है। ग्रंथ की चार साहित्यिकता भी अपनायी गई। एकरूपता के स्थान पर विविधता और
हजार गाथाओं में जैनधर्म के सिद्धान्तों के निरूपण की आधार शिला नवीनता का प्रयोग किया जाने लगा। पात्र, विषय, प्रवृत्ति, वातावरण,
पर प्रेमकथा का प्रस्तुतिकरण विशेष महत्त्व रखता है। उद्देश्य, रूपगठन, एवं नीति संश्लेष प्रवृति सभी दृष्टियों से आगमिक कथाओं की अपेक्षा व्याख्या साहित्य की कथाओं में विशेषता व
संवेग रंगशाला जिनचन्द्र रचित रूपक कथा है। संवेग भाव के नवीनता आयी है। आगमकालीन कथाओं में धार्मिकता का पुट अधिक
निरूपण हेतु अनेक कथाएँ इसमें गुम्फित की गई हैं। जिनदत्ताख्यान
श्रीमद् जयंतसेनसूरि अभिनंदन ग्रंथावाचना
भोगी मत बन मनुज तू, मत कर जीवन नाश । जयन्तसेन समझ बिना, मानवता की लाश ॥
www.jainelibrary.org
Jain Education International
For Private & Personal Use Only