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घाहिल की चार संधियों की रचना 'पउमसिरी चरिउ' में पंचाणुव्रत कथाओं में सहजरूप में प्राप्त हो जाती है। हिन्दी जैन साहित्य में का माहात्म्य बताया गया है।
संस्कृत और प्राकृत की कथाओं का अनेक लेखकों और कवियों ने अनुवाद किया है। एकाध लेखक ने पौराणिक कथाओं का आधार लेकर अपनी स्वतंत्र कल्पना के मिश्रण द्वारा अद्भुत कथा साहित्य का सृजन किया है। इन हिन्दी कथाओं की शैली बड़ी ही प्रांजल, सुबोध और मुहावरेदार है। ललित लोकोक्तियाँ, दिव्य दृष्टान्त और सरस मुहावरों का प्रयोग किसी भी पाठक को अपनी ओर आकृष्ट करने के लिए पर्याप्त है.”
अध्यात्मयोगी उपाध्याय श्री पुष्करमुनिजी द्वारा प्रणीत १११ भागों में संकलित कहानियाँ अनेक दृष्टिकोण से महनीय हैं। एक सौ ग्यारह भागों में विभक्त उपाध्यायश्री की ये जैन कथाएँ कथा साहित्य की महत्ता में चार चाँद लगाती है। व्यावहारिक जगत में वस्तु के सहीरूप को जानना, उस पर विश्वास करना और फिर उस पर दृढ़ता पूर्वक आचरण करना - जीवन निर्माण, सुधार और उन्नत बनाने का राजमार्ग प्रशस्त करती है। यदि ठाणं की शैली में कहूँ तो दर्शन एक है - सम्यग्दर्शन ९ ज्ञान एक है सम्यग्ज्ञान १. और चारित्र एक है सम्यक् चारित्र १ । इस प्रकार तीनों मिलकर बने १११ और सम्यग्दर्शन ज्ञान- चरित्र की त्रिपुटी सीधा मुक्ति का सर्वकर्मक्षय का मार्ग है, धार्मिक जगत में इस दृष्टि से जैन कथाओं के समस्त भागों में संकलित कथाएँ धार्मिक तो हैं ही, साथ ही जीवन निर्माण में भी भरपूर सहायक हैं।
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उपसंहार
अपभ्रंश जैन कथा साहित्य में श्रीचन्द का महनीयस्थान है। उनका तिरपन संधियों का उपदेश प्रधान कथा संग्रह 'कथाकोश' अपभ्रंश कथा साहित्य में मील का पत्थर सिद्ध होता है। बारहवीं शती के उत्तरार्ध और तेरहवीं के प्रारम्भ के रचयिता श्रीधर की तीन रचनाएँ- सुकुमाल चरिठ, पासणाह चरित, और भविसयत्तचरित भाषा, शैली और कथा की दृष्टि से परम्परा का अनुमोदन करती हैं। देवसेनगणि की अट्ठाइस संधियों की 'सुलोचनाचरिउ' कृति, सिंह की पन्द्रह सन्धियों की 'पज्जुण्णचरित' कृति हरिभद्र की 'गेमिणाहचरित', जिसमें संगृहीत 'सनत्कुमारचरित' दृष्टि पथ पर आता है जो कथानक की दृष्टि से पूर्ण स्वतंत्र रचना प्रतीत होती है५७ तथा धनपाल द्वितीय की 'बाहुबलिचरिउ ' आदि रचनाएँ उल्लेखनीय हैं। इसके अतिरिक्त पन्द्रहवीं शती के उत्तरार्थ तथा सोलहवीं शती के पूर्वार्ध के रचनाकार रद्दधू की कथात्मक रचनाएँ पासणाहचरिउ, सुकोसलचरिउ, धण्णकुमारचरिउ, सम्मितनाहचरिउ
महत्त्वपूर्ण हैं। नरसेन की 'सिखिलचरिउ', हरिदेव की मयणपराजयचरिउ; यशकीर्ति की चंदप्पहचरिउ, माणिक्यराज की 'णायकुमार चरिउ और अमरसेनचरिउ' कृतियाँ परम्परा से चली आ रही कथाओं पर आधृत हैं सिवाय 'मयणपराजयचरिउ' के ये प्रतीकात्मक और रूपकात्मक कथाकाव्य हैं।
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. अपभ्रंश का कथा साहित्य प्राकृत की ही भांति प्रचुर तथा समृद्ध अनेक छोटी-छोटी कथाएँ व्रत सम्बन्धी आख्यानों को लेकर या धार्मिक प्रभाव बताने के लिए लोकाख्यानों को लेकर रची गई हैं। अकेली रविव्रत कथा के सम्बन्ध में अलग-अलग विद्वानों की लगभग एक दर्जन रचनाएँ मिलती हैं। केवल भट्टारक गुणभद्र रचित सत्रह कथाएँ उपलब्ध हैं। इसी प्रकार पंडित साधारण की आठ कथाएँ तथा मुनि बालचन्द्र की तीन एवं मुनि विनयचन्द्र की तीन कथाएँ मिलती ५९ अपभ्रंश की इन जैन कथाओं के अनुशीलन से मध्यकालीन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का परिज्ञान होता है।
हैं।
हिन्दी जैन कथाओं के दो रूप हमें प्राप्त होते हैं प्रथम रूप है विभिन्न भाषाओं से अनूदित कथाएँ और दूसरा रूप है मौलिकता, जो पौराणिक कथाओं के माध्यम से अभिव्यज्जित हुआ है। आज बहुत से सुविज्ञों ने जैन पुराणों की कथाओं को अभिनव शैली में प्रस्तुत किया है और इस दिशा में सतत निमग्न हैं। डॉ. नेमिचन्द्र जैन के कथनानुसार "जैन आख्यानों में मानव जीवन के प्रत्येक रूप का सरस और विशद् विवेचन है तथा सम्पूर्ण जीवन चित्र विविध परिस्थिति रंगों से अनुरंजित होकर अंकित है। कहीं इन कथाओं में ऐहिक समस्याओं का समाधान किया गया है तो कहीं पारलौकिक समस्याओं का अर्थ नीति, राजनीति, सामाजिक और धार्मिक परिस्थितियों कला कौशल के चित्र, उत्तुंगिनी अगाध नद नदी आदि भूवृत्तों का लेखा, अतीत के जल-स्थल मार्गों के संकेत भी जैन कथाओं में पूर्णतया विद्यमान हैं। ये कथाएँ जीवन को गतिशील, हृदय को उदार और विशुद्ध एवं बुद्धि को कल्याण के लिए उत्प्रेरित करती हैं। मानव को मनोरंजन के साथ जीवनोत्थान की प्रेरणा इन
श्रमदव अभिनंदनाचा Jain Education Internationalis
विश्व के वाङ्मय में कथा साहित्य अपनी सरसता और सरलता के कारण प्रभावक और लोकप्रिय रहा है भारतीय साहित्य में भी कथाओं का विशालतम साहित्य एक विशिष्ट निधि है। भारतीय कथा साहित्य में जैन एवं बौद्ध कथा साहित्य अपना विशिष्ट महत्व रखते हैं। श्रमण परम्परा ने भारतीय कथा साहित्य की न केवल श्रीवृद्धि की है अपितु उसको एक नई दिशा दी है। जैन कथा साहित्य का तो मूललक्ष्य ही रहा है कि 'कथा के माध्यम से त्याग, सदाचार, नैतिकता आदि की कोई सत्प्रेरणा देना।' आगमों से लेकर पुराण. चरित्र, काव्य, रास एवं लोककथाओं के रूप में जैन धर्म की हजारों-हजार कथाएँ विख्यात हैं। अधिकतर कथा साहित्य प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, गुजराती एवं राजस्थानी भाषा में होने के कारण और वह भी गद्य-बद्ध होने से बहुसंख्यक पाठक उससे लाभ नहीं उठा सकता जैनकथा साहित्य की इस अमूल्य निधि को आज की लोक भाषा राष्ट्रभाषा हिन्दी के परिवेश में प्रस्तुत करना अत्यन्त आवश्यक है। इस दिशा में एक नहीं कई सुन्दर प्रयास भी प्रारम्भ हुए हैं पर अपार अथाह कथा-सागर का आलोड़न किसी एक व्यक्ति द्वारा सम्भव नहीं है। जैसे जगन्नाथ के रथ को हजारों हाथ मिलकर खींचते हैं, उसी प्रकार प्राचीन कथा-साहित्य के पुनरुद्धार के लिए अनेक मनस्वी चिन्तकों के दीर्घकालीन प्रयत्नों की अपेक्षा है। लेकिन इसी आवश्यकता की पूर्ति हेतु पूज्य गुरुदेव श्री पुष्करमुनि जी महाराज ने वर्षोंतक इस दिशा में महनीय प्रयास किया है।
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क्रोध भयंकर आग है, समझो जयन्तसेन । हिंसा ताण्डव यह करे, तन मन सब बेचैन ॥
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