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__ गूगो गोळतणा गुण गाय
- शी.
सार नाम धरावती रचनाओनो प्रारम्भ भगवान तीर्थङ्कर देवे ज कर्यो होवानु जणाय छे. आचाराङ्ग सूत्रना पांचमा अध्ययन, नाम भगवान महावीर देवे तथा गणधर श्रीसुधर्मास्वामी महाराजे 'लोकसार' अर्बु राख्युं छे, ते जोतां
आ विधान तद्दन वाजबी ठरे छे. आ अध्ययनमां प्रभुओ, गणधर देवे तथा नियुक्तकार तेमज वृत्तिकार महर्षिओओ तत्त्वज्ञाननो सार अतिअल्प पण अतिगम्भीर शब्दोमां आपणा माटे मूकी आप्यो छे. ए सार-लोकसार केवोक छे, तेनो स्वाद आपणे उपाध्यायजी महाराजनी ज वाणी द्वारा माणीओ :
लोकसार अध्ययनमां, समकित मुनिभावे मुनिभावे समकित का, निज शुद्ध स्वभावे....
(१२५ गाथानु स्तवन, ढाळ ३) मन्यते यो जगत्तत्त्वं स मुनिः परिकीर्तितः । सम्यक्त्वमेव तन्मौनं मौनं सम्यक्त्वमेव वा ।। (ज्ञानसार: १३/१)
तो जरा नियुक्तिकार श्रुतकेवली भगवंतना मुखे पण सार शब्दनुं भाष्य सांभळी लइओ :
लोगस्स उ को सारो ? तस्स य सारस्स को हवइ सारो ?। तस्स य सारो सारं जइ जाणसि पुच्छिओ साह ॥२४४।।
आ गाथा वांची त्यारे प्रथम क्षणे तो ओम ज थाय मनमां, के आ ते नियुक्तिनी गाथा छे के कोई प्रहेलिका (समस्या, उखाणुं) छे ? नियुक्तिकारे अत्यन्त प्रसन्नभावे पूछ्युं छे आ गाथामां के "लोकनो सार शो छ ? वळी ओ सारनो सार शो हशे ? अने ओ सारनाय सारनो पण सार शो होइ शके ? - तने जाण होय तो कहे !"
कृपानिधान नियुक्तिकार वळी आनो उत्तर/उकेल पण पोते ज आपी साध्वीदिव्यगुणाश्री-सम्पादित, प्रकाशनाधीन 'ज्ञानमञ्जरी'नी प्रस्तावनारूप लेख।
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अनुसन्धान ४५
लोगस्स सार धम्मो धर्म पि य नाणसारियं बिति । नाणं संजमसारं संजमसारं च निव्वाणं ॥२४५।।
(आचा. अध्य. ५, उ.१ नियुक्ति) अर्थात्, "लोकनो सार 'धर्म' छे; धर्मनो सार वळी 'ज्ञान' छे; ज्ञाननो सार छे 'संयम'; अने संयमनो सार छे 'निर्वाण' ।"
मारो ओक कल्पना छे के उपाध्यायजीने पोतानी आ उत्कृष्ट रचनानुं नाम 'ज्ञानसार' राखवानी प्रेरणा आ लोकसार अध्ययन अने तेना परनी आ बे नियुक्ति गाथाओ उपरथी ज सांपडी होवी जोईअ. अने आ गाथामां पण 'नाणसारियं' पद तो छ ज ! आ कल्पना निराधार भले होय, पण ओ रमणीय पण जेटली ज छे, अनो इन्कार कोई नहि करे.
वस्तुतः लोकसार अध्ययन तेमज आ गाथाओनो नशो उपाध्यायजी ना मानस पर केटली हदे छवायो हशे, के अध्यात्मसार प्रकरणमां पण तेमणे आ सारनो उल्लेख को छ :
सम्यक्त्वमौनयोः सूत्रे, गतप्रत्यागते यतः ।।
नियमो दर्शितस्तस्मात्, सारं सम्यक्त्वमेव हि ॥ (२/६/१९)
अरे ! ज्ञानाष्टकनो आ श्लोक जोई तो पण आ वातनो आपणने अंदाज अवश्य आवे :
निर्वाणपदमप्येकं भाव्य ते यन्मुहुर्मुहुः ।
तदेव ज्ञानमुत्कृष्टं निर्बन्धो नास्ति भूयसा ।। (५/२)
सार अटलो ज के सार नाम धरावती सर्वप्रथम रचना ते सर्वज्ञ-कथित लोकसार अध्ययन छे, ओम कही शकाय.
आ पछी तो श्रीकुन्दकुन्दाचार्यना समयसार, नियमसार, प्रवचनसार वगेरे ग्रन्थो आव्या, तो बीजा पण योगसार, तत्त्वसार जेवा प्राचीन तात्त्विक ग्रन्थो आव्या, तो उपदेशसार जेवा सामान्य औपदेशिक ग्रन्थो पण जोवा मळे ज छे. आ ज श्रेणीमा उपाध्यायजीना अध्यात्मसार तथा ज्ञानसार जेवा ग्रन्थो पण आवे.
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ओक वात बहु स्पष्ट छ : कोई पण बाबतनो सार शुं ते समजवानी तेमज तेने पामी लेवानी मानवमननी झंखना छेक आदिकाळ जेटली पुराणी छे. आचाराङ्गनियुक्तिनी ज वात करीओ, तो नियुक्तिनां मंडाण करतां ज नियुक्तिकार सारनी शोध करतां फरमावे छे के - "अंगसूत्रोनो सार शो ?"; "आचाराङ्ग", "तेनो सार ?"; "अनुयोग-अर्थ", "तेनो सार ?"; "प्ररूपणा'', "प्ररूपणानो सार ?"; "चारित्र"; "चारित्रनो सार ?"; "निर्वाण'', "अने निर्वाणनो सार ?"; तो कहे "अव्याबाध सुख". (आचा. अध्य.१, उ.१, नि.गा. १६-१७)
तो उपाध्यायजी पण सारनी खोजमां क्यां पाछा पड्या छ ? तेमणे पण पोतानी ओ शोध परिणाम नोंध्यु ज छे :
सारमेतन्मया लब्धं श्रुताब्धेरवगाहनात् ।
भक्तिर्भागवती बीजं परमानन्दसम्पदाम् ॥
अटले आपणे अम कहीओ के ज्ञानसार ओ जिन-प्रवचन- सारदोहन तो छ ज, पण साथे साथे ओ उपाध्यायजीओ करेली, प्रवचनना सारनी-अर्कनी, ऊंडी खोजनुं तत्त्वरसछलकतुं सुमधुर परिणाम पण छे, तो ते बिलकुल उचित पण छे अने महत्त्वपूर्ण पण छे, अमां कोई शंका नथी.
ज्ञानसार अ ज्ञानना अमृतरसनो महासागर छे. उपाध्यायजी भले लखे के “पीयूषमसमुद्रोत्थं' - समुद्र थकी नहि प्रगटेलुं अमृत ते ज्ञान ! आपणी अपेक्षाओ तो श्रुतज्ञानना महासागरनुं मन्थन करीने उपाध्यायजीओ मेळवी आपेलु अमृत ज छे आ ज्ञानसार !
___ अमारा मोटा महाराज पूज्यपाद आचार्य महाराज श्री विजयनन्दनसूरीश्वरजी महाराज, श्रीहारिभद्रीय 'अष्टक प्रकरण' ना सन्दर्भमां, कहेता के "माणस, जीवनमां, ३२ भूलो करे. जेम के पहेली 'देव'ना विषयमां भूल करे; अम् ३२ भूल करे. आ ओक ओक अष्टक ओ ओक ओक भूल दूर करी आपनारु अष्टक छे. 'महादेवाष्टक' भणो अटले देवविषयक मान्यता बदलाय, शुद्ध थाय. आम ३२ अष्टके ३२ भूलो सुधरे."
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अनुसन्धान ४५
ज्ञानसार - अष्टकना सन्दर्भमां पण आ वात ओटली ज साची- वास्तविक जणाय छे. धर्मतत्त्वना सन्दर्भमां थती भूलो जो हारिभद्रीय अष्टक थकी दूर थाय, तो अध्यात्म-तत्त्वना सन्दर्भमां थती क्षतिओनुं निवारण करवा माटे ज्ञानसार - अष्टक से सुयोग्य आलम्बन होवानुं अवश्य स्वीकारी शकाय
जाणकारोना कथनानुसार, अध्यात्मसार तेमज ज्ञानसार - ओ बन्ने प्रकरणोमां उपाध्यायजीओ, आवश्यकता प्रमाणे दिगम्बर मन्तव्योनुं निरसन अथवा शुद्धीकरण भले कर्तुं होय; परंतु ते सिवाय, समग्रपणे तपासीओ तो, श्री हरिभद्राचार्य तेमज श्रीकुन्दकुन्दाचार्यनां तात्त्विक प्रतिपादनोनो अद्भुत निचोड तारवीने, तेओए, आ बे प्रकरणोने, निश्चय - व्यवहारनां परम रहस्योथी छलकावी दीधां छे. तत्त्वविचारनो अर्क तारववानी अने सूक्ष्मेक्षिका थकी विरोधी भासता मतोमां समन्वय साधवानी आवी सूझ असामान्य ज गणी शकाय
ज्ञानसारनी ज वात करीओ तो तेनो पहेलो श्लोक ज केटलो बधो मार्मिक अने अर्थपूर्ण छे ! आपणे, संसारवासी वैरागी गणाता जीवो, संसारने तुच्छ, असार अने अपूर्ण मानीने चालीओ छीओ त्यारे, ओक पूर्ण ज्ञानी आत्मानी नजरमां जगतनुं स्वरूप केवुं होय तेनो अणसार- Outline उपाध्यायजी, प्रथम श्लोकमां आपणने आपे छे. ते श्लोक लखती - रचती वेळाओ, कदाच, तेमनामां, परमज्ञानीने ज लाधती कोई अनिर्वचनीय अनुभूति संक्रान्त थई होय तो ना नहि ! तेओ लखे छे के "सच्चिदानन्द-घन ओवा पूर्ण परम तत्त्वनी दृष्टिमां तो आ विश्व पूर्ण ज भासतुं होय छे." अर्थात् आपणने जगत अधूरुं भासतुं होय तो ते आपणी अधूरपनी निशानी गणाय; पूर्ण जानीनी नजरमां तो जगतमां कशुं ज अधूरुं नथी होतुं.
आ श्लोक वांचतां ज चित्तमां उपनिषदनो पेलो मन्त्र झबकी ऊठे छे :
ॐ पूर्णमिदं पूर्णमदः पूर्णात् पूर्णमुदच्यते ।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते ॥
- बधुं ज पूर्ण छे : आ पण, ते पण; ओटले पूर्णमां ज पूर्ण ठलवाय छे; अने पूर्णमांथी ज्यारे पूर्णनी बादबाकी करीओ, त्यारे पण बाकी रहे ते पूर्ण ज होय छे.
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ओक उदाहरणथी आ वात समजवानी कोशीश करीओ : Glogal Summit मळे त्यारे, तेमां भारतनो प्रतिनिधि आवे अथवा जाय, त्यारे 'भारत आव्यु', अथवा 'भारत ग\' ओम ज व्यवहार थतो होय छे. वळी, ओ प्रतिनिधि भारत छोडीने जाय त्यारे, Summit मां ते 'भारत' तरीके ओळख पामतो होवा छतां, भारत ओछु थतुं नथी; पूर्ण भारत ज रहे छे; अने ते भारत पाछो फरे त्यारे पण, तेना आववाथी भारतनो कोई तूटेलो अंश पूराय छे तेवू नथी; ते तो यथावत् पूर्ण भारत ज रहे छे.
बहु ऊंची अने ऊंडी वात छे आ. ज्ञानसारनो पहेलो श्लोक, मारी दृष्टि, उपनिषदना आ सूक्तनी ऊंचाईने आंबे छे.
___ ज्ञानसार प्रकरण विषे आq तो घj घणुं कही शकाय. केटलुं कहेवू? उपाध्यायजी महाराजे आ ग्रन्थ रची आपीने तत्त्वपिपासुओ पर जे उपकार को छे तेनो बदलो वाळवानी आपणामां क्षमता नथी, अटलुं ज कहीने वात आटोपी लउं छु.
जेवा उपाध्याय यशोविजयजी तेवा ज उपाध्याय देवचन्द्रजी. बन्ने समान तात्त्विक पुरुषो. बन्ने समान अनुभवज्ञानी. बन्ने समान अध्यात्मपथना पथिक. बन्नेय पूज्य पुरुषो प्रमाण, नय अने निश्चय-व्यवहारना समान अभ्यासीओ, समान प्ररूपको अने समान ग्रन्थकारो. आगम अर्थात् जिन-प्रवचन, तेना अक ओक शब्दमां अनन्त अर्थक्षमता अने अनेक रहस्यो संतायां-समायां होय छे, तेनुं भान अने तेनुं मर्मोद्घाटन करवामां निपुण ओवी असाधारण प्रतिभा धरावता आ बन्ने पूज्यो हता. उपाध्यायजी पछी सात-आठ दायका पछी देवचन्द्रजी भले थया होय, पण ते बन्ने वच्चेना भौतिक अन्तरनो छेद, तेमनी वच्चे सधायेला तात्त्विक अने अनुभूतिना साहचर्य-साम्य-सामीप्य थकी, ऊडी जतो जणाय छे.
योगीराज आनन्दधनना पारस-स्पर्शे पोतानी धातुने वधु विशुद्ध बनावीने उपाध्यायजी जे साधनापथ उपर विहर्या अने आगळ वध्या, ते ज साधनापथ उपर विचरवानुं श्रीदेवचन्द्रजीओ पण पसंद कर्यु होइ, बन्ने ऋषितुल्य साधको
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अनुसन्धान ४५
बच्चे जे सख्य कहो के साम्य सधायुं, ते जोतां, उपाध्यायजीना आलेखेला, मन्त्राक्षरसमा रहस्यमय शब्दो उपर देवचन्द्रजी महाराज विवरण लखे, ते अकदम उचित, बल्के न्यायोचित बनी रहे छे. मात्र शास्त्रो भणी लईओ के शब्दोना व्युत्पत्ति अने निरुक्ति प्राप्त अर्थ करतां आवडी जाय तेटला मात्रथी आवा ग्रन्थो पर विवरण करवानो के चर्चा करवानो अधिकार नथी मळी जतो. तेवो अधिकार तो त्यारे ज मळी शके, ज्यारे तमे, कोई ने कोई अंशे के रूपे, तेमना जेवा हो.
आत्मसाधक संत मुनि श्री अमरेन्द्र विजयजीने अकवार विनंति करेली : योगदृष्टि विशे आप कांइक विवरण आपो, तो अमारा जेवाने तेनां साधनालक्षी रहस्यो मळे. जवाबमां तेमणे जणावेलुं : "आ विषय पर विवरण करवा जेटली क्षमता तथा कक्षा हजी में मेळवी नथी, माटे हुं नहि लखी शकुं.'
"
आ उपरथी आपणने समजाय के विवरणनो अधिकार ओटले शुं ? अ प्राप्त करवो केटलो आकरो होय छे, अने से प्राप्त करवा माटे केटली आकरी साधना जरूरी होय छे ?
आ साधना अने आ अधिकार बन्ने श्रीमद् देवचन्द्रजी पासे हता; अने आपणा परम सद्भाग्ये, तेओए ते अधिकारनो उपयोग पण कर्यो; जेनुं परिणाम छे ज्ञानमञ्जरी. केवुं मीठडुं नाम ! साधना गमे तेटली कठोर भले होय, पण तेनुं लक्ष्य जो चिदानन्दनी मौज होय, तो तेनो साधक ज्ञानमञ्जरी सरजी शके; अतो, ते सर्जन, टीकाग्रन्थ होवा छतां, स्वतन्त्र ग्रन्थरचनानुं गौरव पामी शके.
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हा, ज्ञानमञ्जरी से श्रीमद् देवचन्द्रजीनुं ओक आगवुं ग्रन्थसर्जन छे. व्यवहारमां भले ते ज्ञानसारनी टीकानुं नाम होय- टीका गणाती होय, पण तेमणे ग्रन्थना पदार्थोंने जे रीते खोल्या छे, विकसाव्या छे; जे रीते ओकओक पद्य अने तेना ओक ओक पदना मर्मने तेमणे पकड्यो छे, ते जोतां तेमनी आ टीकाने स्वतन्त्र - मौलिक ग्रन्थसर्जन कहेवामां लेश पण अत्युक्ति नथी थती. वस्तुतः तो उपाध्यायजीना रचेला शब्दो साथै काम पाडवुं ए ज
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जेवातेवाना गजा बहारनुं गणाय तेमना ग्रन्थ पर विवरण करवा माटे तेमना समानधर्मा होवु अनिवार्य छे. अने देवचन्द्रजी महाराज तेमना ओ हदे समानधर्मा छे लागे छे के तेमणे तत्त्वज्ञाननी तिजोरी जेवा आ-ज्ञानसार ग्रन्थमां सुदृढतापूर्वक स्वैर विहार कर्यो छे, अने आ तिजोरीमांनां सघळांय रत्नोनां, आपणे कल्पी पण न शकीओ तेवां, नवलां दर्शन कराव्यां छे.
बीजी, अर्वाचीन, कोई पण टीकाने आधारे आपणने लागे छे के ज्ञानसार तो सहेलो, समजी शकाय तेवो ग्रन्थ छे; तेनो गद्य-पद्य अनुवाद पण गमे ते भाषामां, करी ज शकाय तेम छे. पण ज्ञानमञ्जरी अवलोक्या पछी, ओछामां ओछु मने तो, प्रतीति थई गइ छे के आ ग्रन्थ समजवो सुगम के सहेलो जराय नथी. केटलीबधी सज्जता अने प्राथमिक भूमिकारूप तैयारी होय तो ज आ ग्रन्थमां, कांइक अंशे आपणी चांच डूबे तो डूबे.
देवचन्द्रजीअ आ ग्रन्थ उपर विवरण लखतां केवा अधिकारपूर्वक काम कर्तुं छे, ते समजाववा माटे अक-बे दाखला अहीं टांकुं छु. ज्ञानसारनो प्रथम श्लोक आ प्रमाणे प्रसिद्ध छे :
ऐन्द्र श्रीसुखमग्नेन लीलालग्नमिवाखिलम् । सच्चिदानन्दपूर्णेन पूर्ण जगदवेक्ष्यते ॥ १ ॥
आ श्लोकमा उत्तरार्धनो पाठ, अहीं आप्यो छे ते ज प्रमाणे उपाध्यायजीने खुदने संमत छे, अने तेथी ज तेओ, स्वोपज्ञ टबार्थमां- बालावबोधमां, ओ पंक्तिनो अर्थ आम करे छे : " सत् क० सत्ता, चित् क० ज्ञान, आनंद क० सुख, ए त्रण अंशइ पूर्ण क० युरो जे पुरुष तेणई । दर्शन ज्ञान चारित्र ए ऋण अंशे पूर्ण पूर्ण जगत् क० पूर्ण जग, अवेक्ष्यते क० देखई, ते अधूरो कही न देखई" ॥ अर्थात्, सत् चित् आनन्दथी पूर्ण ओवो पुरुष, ज्ञानादिकथी पूर्ण जगतने देखे छे : तेनी पूर्ण दृष्टि- निश्चय दृष्टिनी अपेक्षाओं आ जगत पूर्ण छे, अपूर्ण नथी.
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अने आ अर्थ ज आपणे त्यां मान्य छे, स्वीकार्य छे, अने ते रीते ज अध्ययन, व्याख्यान, विवरण बधुं थतुं होय छे. हवे देवचन्द्रजी महाराज अहीं साव जुदा पडे छे. तेओ आ पंक्तिनो अलग ज पाठ स्वीकारे छे : ओवो
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पाठ कां तो तेमनी सामे होवो जोई; कां तेमनी स्वतन्त्र प्रतिभाओ ए पाठनी कल्पना/रचना करी होवी जोई. जे होय ते, तत्त्वनी आपणने खबर नथी, पण तेमणे आ जुदो पाठ स्वीकार्यो छे अने ते पाठ प्रमाणे ज तेमणे टीका पण लखी छे, ते आपणी समक्ष उपलब्ध छे. जुओ :
ऐन्द्र श्रीसुखमग्नेन लीलालग्नमिवाखिलम् । सच्चिदानन्दपूर्णेनाऽपूर्णं जगदवेक्ष्यते ॥
सुज्ञ जिज्ञासुओ अहीं- उत्तरार्धमा करवामां आवेला फेरफारने नोंधी शकया हशे. हवे ते अंशनी टीका जोइओ :
"सत्-शुभं शाश्वतं वा चित्-ज्ञानं तस्य य आनन्दः तत्र पूर्णेन ज्ञानानन्दभृतेन मुनिना जगत् मिथ्यात्वासंयममग्नं मूढं विलोक्यते । पूर्णाः अपूर्ण जगद् भ्रान्तं जानन्ति ॥"
आ टीकांशमां कुल त्रण फेरफारो जोवा मळे छे. १. सत् पदनो अर्थ उपाध्यायजीओ सत्ता कर्यो छे, श्रीमदे शुभं शाश्वतं वा अवो कर्यो छे. २. उपाध्यायजीओ सत्-चित्-आनन्द (सुख) अम त्रण अंशोथी परिपूर्ण अवा द्रष्टा पुरुषनी वात वर्णवी छे, जेनुं तात्पर्य आपणा चित्तमां 'केवलज्ञानी' के 'सिद्ध परमेष्ठी' अq होवान समजाय छे. ज्यारे श्रीमद्जी सत्-शुभं शाश्वतं वा, चित्-ज्ञानं, तस्य (अर्थात् शुभ के शाश्वत अर्बु जे ज्ञान, तेनो) आनन्दः अवो अर्थ समजावी, ते आनंदमां पूर्ण (तत्र पूर्णेन)- ज्ञानानन्दभृत जे मुनि - आवो तात्पर्यार्थ आपे छे. अने ३. त्रीजो महत्त्वनो, ध्यानपात्र फेरफार तो आ छे : उपाध्यायजी ज्यां पूर्ण जगत् अवो पाठ आलेखीने दर्शन-ज्ञान-चारित्रधी (निश्चय दृष्टिओ) पूर्ण जगतनां दर्शननी वात वर्णवे छे, त्यां श्रीमद्जी अपूर्ण ओवो पाठ स्वीकारीने [ अपूर्ण ] जगत् - मिथ्यात्वासंयममग्नं मूढं अवो अर्थ आपे छे. अने तेनो स्पष्ट सार पण आ शब्दोमां तेओ आपे छे : "पूर्णाः अपूर्ण जगद् भ्रान्तं जानन्ति'" ।
मूळ ग्रन्थकारथी, तेमना स्वोपज्ञ अर्थघटनथी, साव जुदा पाडवा- अने पोतानी स्वतन्त्र प्रतिभा द्वारा उपसावेल अर्थनुं वर्णन करवानुं गजु, उपाध्यायजीना समानधर्मा अर्थात् उपाध्यायजी जेटली ज आध्यात्मिक अने अनुभवज्ञाननी
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पहोंच धरावनार आवा देवचन्द्रजी सिवाय, बीजा कोर्नु होय ?
ओक वातनी चोखवट अहीं ज करवी जोईओ. ज्ञानमञ्जरीनां विदुषी सम्पादिकाओ आ सम्पादनमां, देवचन्द्रजी-संमत पाठ (पूर्णेनाऽपूर्ण) नथी राख्यो, पण उपाध्यायजीसंमत (पूर्णेन पूर्ण) पाठ ज राख्यो छे. तेमनी समक्ष उपस्थित हस्तप्रतो पैकी अक के बे ज प्रतमां अपूर्ण पाठ होइ तेमणे बहुमतप्रतोनो-ते परम्परामान्य होवाने कारणे - पाठ ज राख्यो छे. परंतु आम करवा जतां मुसीबत मे आवी पडेल छे के श्रीमद्जीओ टीकामां अपूर्ण पाठ स्वीकारीने ज विवरण कर्यु छे. तेमणे वैकल्पिक रूपे, पहेला पूर्ण पाठy विवरण कर्यु होय अने पछी अथवा कहीने अपूर्ण पाठ दर्शावी तेनुं विवरण कर्यु होय तेवू तो टीकाग्रन्थमा जोवा नथी मळतुं ! फलतः मूळ ग्रन्थनो आ सम्पादनमा स्वीकृत पाठ अने ते परनो टीकाग्रन्थ - बन्ने साव नोखां पडी जाय छे; जे ग्रन्थथी अजाण जिज्ञासु माटे सन्दिग्धता सर्जी शके. अस्तु.
बीजुं उदाहरण जोइओ : प्रथम अष्टकना पांचमा श्लोकमा पूर्वार्धनो पाठ आ प्रमाणे छे : "पूर्यन्ते येन कृपणास्तदुपेक्षैव पूर्णता" । आनो टबार्थ :- "पूराई जेणई धनधान्यादिक परिग्रहे हीनसत्त्व लोभीओ पुरुष, [ते] धन-धान्यादि परिग्रहनी उपेक्षा ज पूर्णता कहीइं" - आवो छे. अहीं श्री देवचन्द्रजी महाराज जरा जुदा पडे छे, अने आ श्लोकगत 'तदुपेक्षव' ओ पदना बे अलग अलग अर्थ आपे छे. जुओ : (१) "पूर्यन्ते' 'येन' प्रचुरा भवन्ति 'सा' -पूर्णता उपाधिजा 'उपेक्ष्या एव' - अनङ्गीकारयोग्या एव । (२) अथवा तदुपेक्षा एव, न हि एषा पूर्णता, किन्तु पूर्णतात्वेन उपेक्षते - आरोप्यते इत्यर्थः ॥" (अहीं उपेक्ष्यते-आरोप्यते होइ शके.)
__आ बन्ने विकल्पोमां 'तदुपेक्षा' पदनो 'तस्य उपेक्षा-तदुपेक्षा' अम मानीने विवरणकार चालता नथी. पहेला अर्थमां सा उपेक्ष्या ओवो तदुपेक्षानो अर्थ दर्शावे छे, अने बीजामां सा उपेक्ष्यते अवो अर्थ तेमना मनमा छे. प्रतिभानो आ उन्मेष, उपाध्यायजीना शब्दोमां अने तेनां अगाध रहस्योमां श्रीमद् केवा तो गरकाव थई जता हशे तेनी, गवाही आपी जाय छे.
हजी ओक उदाहरण जोइ लईओ : २४मा शास्त्राष्टकना त्रीजा श्लोकमां ग्रन्थकारे शास्त्र शब्दनी निरुक्ति आपी छे : "शासनात् त्राणशक्तेश्च बुधैः
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शास्त्रं निरुच्यते" । अर्थात् हित शीखवे अने रक्षण करवानी शक्ति धरावे ते शास्त्र हवे आ श्लोक उपरनी टीका जोइशुं तो श्रीमद्जीनी विलक्षण प्रज्ञानो मजानो उन्मेष जोवा मळशे. तेमणे करेलो अर्थ कांईक आ प्रमाणे छे : "त्राणंरक्षणं तस्य शक्तिः - सामर्थ्यं यस्य सः, तस्य शासनात् - शिक्षणात् शास्त्रं निरुच्यते - व्युत्पाद्यते । अटपटो लागे तेवो पण आ अर्थ श्रीमद्जीनी क्षमताने समजवा माटे उपकारक छे.
तो आ त्रणेक उदाहरणोथी ज्ञानसार पर विवरण करवा माटे देवचन्द्रजीनो पूर्ण अधिकार होवानुं सिद्ध थाय छे; ज्ञानमञ्जरी ओ केवळ टीकाग्रन्थ न बनी रहेतां ते श्रीमद्जीनुं आगवुं सर्जनकर्म छे ओम पण पुरवार थई शके छे; अने तेरी श्रीमद्जी ते उपाध्यायजीना समानधर्मा होवानुं पण सुदृढ थाय छे. अने साथै ज आ ग्रन्थनां मर्म पामवानुं, आपणा बधा माटे, धारीओ छोओ तेटलुं सरळ नथी, ते वात पण निश्चित थई जाय छे.
*
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उपाध्यायजी महाराज अने देवचन्द्रजी महाराज आ बन्नेनी रुचि नय अने निक्षेपनी विचारणामां अक समान वर्तती जोवा मळे छे. दरेक पदार्थने आ बन्ने ग्रन्थकारो नयवादनी दृष्टि सतत मूलवता रहे छे, अने ते रीते क्यांय अकान्तवादनो गंध पण प्रवेशे नहि, तेनी चांपती काळजी राखता रहे छे. उपाध्यायजीना तर्कप्रधान ग्रन्थो नयप्रदीप, नयरहस्य, अनेकान्तव्यवस्था, नयोपदेश वगेरे; अने श्रीमद्जीना तत्त्वप्रधान ग्रन्थो नयचक्रसार वगेरे, आ बाबतनी साख पूरे छे.
ज्ञानमञ्जरीनुं अवगाहन करीओ तो त्यां पण आ बाबत आंखे ऊडीने वळगशे ज. लगभग के महर्दशे दरेक अष्टकनी टीका आरंभतां शरुआतनी भूमिका के अवतरणिकामां, जे ते अष्टकनो विषयनिर्देश करनारो जे शब्द होय, तेना ४ निक्षेपा श्रीमद्जीओ दर्शाव्या छे; अटलुं ज नहि, ते पदार्थ कया नयना मते क्या - क्यारे - केवी रीते संभवे, ते पण प्रायः साते नयोने आश्रयीने दर्शावता रह्या छे.
दा.त. पहेलुं पूर्णता - अष्टक छे, तो पूर्णना निक्षेप अने विविध नयमते पूर्ण कोण गणाय तेनी चर्चा प्रथमाष्टकना आठमा श्लोकनी टीकामां विस्तारथी
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करी छे. अ ज रीते, बीजूं मग्नता अष्टक छे, तो ते मग्न पदना ज निक्षेपर्नु तेमज नयोनी दृष्टिो मग्न कोण तेनुं निरूपण बीजा अष्टकना प्रथम श्लोकमां जोवा मळे छे. अने आवं प्रतिपादन अनेक स्थळे जोवा मळे छे. कोई पण मुद्दाने नय-निक्षेपनी दृष्टिथी तोलवा-मूलववानी श्रीमद्जीनी विलक्षण प्रतिभानो तथा स्याद्वादप्रीतिनो, आथी, अंदाज आवी शके छे.
देवचन्द्रजी कोरा शास्त्रज्ञ नथी, पण अनुभवज्ञानी पण छे. श्रुतमय बोध तीव्र होवानी साथे साथे तेमनो भावनामय बोधना प्रदेशमां पण प्रवेश होवान, तेमनां सहजभावे थये जतां, मार्मिक अने वेधक प्रतिपादनो परथी, कळी शकाय तेम छे. आने कारणे कोइ पण विषयनी विशद प्रस्तुति तेमने सहज छे. पोते ते ते प्रतिपाद्य मुद्दा परत्वे कोइ प्रकारना सन्देहनो के द्विधानो भोग नथी बन्या; स्पष्ट छे, अने तेथी तेमना द्वारा थतुं स्पष्ट प्रतिपादन आपणने पण असन्दिग्ध समजण आपी शके छे. अमनी अनुभवज्ञान-प्लावित वालीना थोडाक स्फुल्लिंगो अहीं नोंधीओ :
- मग्नाष्टक (के मग्नताष्टक)ना पांचमा श्लोकमां भगवतीसूत्रना हवाला साथे तेजोलेश्यानी वृद्धिनी वात उपाध्यायजी महाराजे निरूपी छे. भगवतीजीमां केटला संयम-पर्यायवाळा साधुनी तेजोलेश्या केवी होय तेनुं प्रतिपादन आवे छे. ते केवा प्रकारना साधुने होय, तेनो खुलासो 'मग्नता'ना सन्दर्भमा 'इत्यम्भूतस्य' कहोने उपाध्यायजीओ आप्यो छे. पण श्रीदेवचन्द्रजी तेनुं विशदीकरण करतां, १. तेजोलेश्यानी व्याख्या अने २. सूत्रगत आ प्रतिपादन कोने लागु पडे तेनी चोखवट जेटली सरळ सहजपणे करी आपे छे के आपणा मनमां ते विषे कोइ ननु न च न रहे. जुओ
१. तेजोलेश्या सुखासिका ॥ २. एतच्च श्रमणविशेषमेवाश्रित्योच्यते, न पुनः सर्व एवंविधो भवति ।।
आ ज प्रसंगमां तेमणे संयमस्थान-प्ररूपणा लंबाणपूर्वक करी छे, तेमां पण शास्त्रानुसारी एक मार्मिक विधान करीने प्ररूपणाने खूब विशद बनावी दीधी छे. आ रह्यं ते विधान :
आदितः अनुक्रमसंयमस्थानारोही नियमात् शिवपदं लभते । प्रथममेव उत्कृष्ट-मध्यम-संयमस्थानारोही नियमात् पतति ।
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अनुसन्धान ४५
तो आ प्रसंगनो ज उपसंहार करतां तेमणे संयमस्थान अने संयमपर्यायनो समन्वय साधीने साधुना सुखनुं माप वर्णवता सम्प्रदायनो जे उल्लेख कर्यो छे, ते पण जोवा जेवो छ :
अत्र परम्परा-सम्प्रदाय:-जघन्यत: उत्कृष्टं यावत् असंख्येयलोकाकाशप्रमाणेषु संयमस्थानेषु क्रमाक्रमवर्तिनिर्ग्रन्थेषु मासतः द्वादशमाससमयप्रमाणसंयमस्थानोल्लङ्घनोपरितने वर्तमान: साधुरीदृग्देवतातुल्यं सुखमतिक्रम्य वर्तते इति ज्ञेयम् ॥
- प्रशस्त कषायनी चर्चा आपणे त्यां घणीवार थती होय छे. पोताना कषायादिकने 'प्रशस्त'- विशेषण आपीने तेनो बचाव करवानी, बल्के तेनुं समर्थन करवानी वृत्ति पण क्यारेक क्यारेक जोवा मळे छे. आवा प्रसंगोए आपणने घणी द्विधा अनुभवाती होय छे. आवी द्विधानो छेद उडाडतां श्रीमद्जी लखे छे :
प्रशस्तमोह: साधने असाधारणहेतुत्वेन पूर्णतत्त्वनिष्पत्तेः अर्वाक् क्रियमाणोऽपि अनुपादेयः । श्रद्धया विभावत्वेनैवावधार्य: । यद्यपि परावृत्तिस्तथापि अशुद्धपरिणतिः, अत: साध्ये सर्वमोहपरित्याग एव श्रद्धेयः ॥
(मोहत्यागाष्टक-प्रथम श्लोक-अवतरणिका ।) - इन्द्रियो सदा अतृप्त रहे छे; कदापि ते तृप्त नथी थती; आ मुद्दाने बहु अल्प शब्दोमां श्रीमद्जी हृदयवेधी रीते रजू करे छे : "अभुक्तेषु ईहा, भुज्यमानेषु मग्नता, भुक्तपूर्वेषु स्मरणं, इति त्रैकालिकी अशुद्धा प्रवृत्तिः । इन्द्रियार्थरक्तस्य तेन तृप्तिः क्व ? ॥" (इन्द्रियजयाष्टक-३).
– मुनिओ पंचाचारनुं पालन क्यां सुधी-केटलुं करवू जोइ ? खास करीने छठ्ठा गुणठाणाथी आगळ वधवा- आवे त्यारे क्यां केटलुं आचारपालन होय ? आ मुद्दाने देवचन्द्रजी ओ आवीं रीते विशद करी आप्यो छे :
"क्षायिकसम्यक्त्वं यावनिरन्तरं निःशङ्काद्यष्टदर्शनाचारसेवना । केवलज्ञानं यावत् कालविनयादिज्ञानाचारता । निरन्तरं यथाख्यातचारित्रादर्वाक् चारित्राचारसेवना। परमशुक्लध्यानं यावत् तपआचारसेवना । सर्वसंवरं यावद् वीर्याचारसाधना अवश्यंभावा । नहि पञ्चाचारमन्तरेण मोक्षनिष्पत्तिः । ....गुणपूर्णतानिष्पत्तेः
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सप्टेम्बर २००८
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अर्वाग् आचरणा करणीया । .... पूर्णगुणानां तु आचरणा परोपकाराय ॥" (क्रियाष्टकनी अवतरणिका).
आवां तो अनेक स्थानो ज्ञानमञ्जरीमां जडे, जे आपणा बोधने विशद करे, अने आपणी शंका, भ्रमणा अने विकल्पजाळने भेदी नाखे; अने देवचन्द्रजीना अनुभवज्ञाननी शाख पूरे.
पदार्थोनी व्याख्याओ पण देवचन्द्रजी भारे मार्मिक आपे छे. जेवी मार्मिक तेवी ज हृदयंगम पण. उपाध्यायजी महाराजनो वारसो, आ बाबतमा पण, तेमणे बराबर जाळव्यो छे. थोडीक व्याख्याओ नोंधीओ :
"कर्तृत्वम् - एकाधिपत्ये क्रियाकारित्वम् ।" (२/३) ।।
"लोभपरिणामः परभावग्रहणेच्छापरिणामः, आत्मगुणानुभवविध्वंसहेतुः ।" (३/२)॥
"क्रिया हि वृत्तिरूपा, भावपरिणतिस्तु आत्मगुणशुद्धिरूपा ।" (३/४) ।।
"परभावकरणे कर्तृतारूपो अहंकारः अहम् । सर्व-स्वपदार्थतः भिन्नेषु पुद्गलजीवादिषु 'इदं ममे'ति परिणामो ममकारः ।" (४/१) ।।
"अन्तर्मुहूर्त यावत् चित्तस्य एकत्रावस्थानं ध्यानम् ।"
"आज्ञाया अनन्तत्व-पूर्वापराविरोधित्वादिस्वरूपे चमत्कारपूर्वकचित्तविश्रामः आज्ञाविचयधर्मध्यानम् । एवमपायादिष्वपि सानुभवचित्तविश्रान्तः ध्यानम् ।" (६/४) ॥
"यस्य सम्यग्दर्शनादिगुणक्षयोपशम: स्वरूपनिर्धार- भासन-रमणात्मकः अन्यनिमित्ताद्यालम्बनं ऋते स तात्त्विकः (क्षयोपशमः) ।"
"यच्चोपादेयत्वेन स्वतत्त्वनिर्धार-भासन-रमणरूपं, हेयबुद्ध्या परभावत्यागनिर्धार-भासन-रमणयुक्तं रत्नत्रयोपरिणमनं भवति तद् भेदरत्न-त्रयीरूपम्।"
“यच्च सकलविभावहेयतयाऽप्यवलोकनादिरहितं विचरण-स्मृतिध्यानादिमुक्तमेकसमयेनैव सम्पूर्णात्मधर्मनिर्धार-भासन-रमणरूपं निर्विकल्पसमाधिमयं [तद्] अभेदरत्नत्रयीस्वरूपम् ।" (८/४) ||
- आवी तो अगणित व्याख्याओ आ टीकाग्रन्थमां अभरे भरी छे. तेथी
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________________ 104 अनुसन्धान 45 ज जेने तात्त्विक समजणनो खप छे तेने माटे तो आ टीका गोळनु गाडं ज बनी रहे तेम छे. श्रीमद्जीओ प्रसंगोपात्त वेरेला बोधदायक वचनो पण अहीं अनेक स्थाने जोवा मळे छे. एक-बे अवां वचनो आपणे पण वागोळी : "अहह ! बन्धसत्तातोऽपि उदयकालः दारुणः / येनात्मनो गुणावरणता / अतः स्वरूपसुखे रुचिः कार्या / " (1/7) // "कर्तृत्वकाले न अरत्यनादरौ तर्हि भोगकाले को द्वेषः ? उदयागतभोगकाले इष्टनिष्टतापरिणतिरेव अभिनवकर्महेतुः / अतोऽव्यापकतया भवितव्यम् / शुभोदयोऽपि आवरणम्, अशुभोदयोऽप्यावरणम्, गुणावरणत्वेन तुल्यत्वात् का इष्टानिष्टता ? / " (4/4) || आम, ज्ञानमञ्जरीनी अने तेना परिप्रेक्ष्यमां देवचन्द्रजीनी केटलीक, आपणी अल्प मतिओ समजाइ तेवी खूबीओ अहीं नोंधी छे. अलबत्त, आ तो मात्र आछेरी झलक ज गणाय. अनो वास्तविक अने ऊंडाणभर्यो परिचय तथा लाभ पामवो होय तो तो आखी ज्ञानमञ्जरीनुं अवगाहन ज करवू पडे. आमां डूबकी मारे तेने अध्यात्म-विश्वना अद्भुत अने अवनवा भावो मळे एमां कोई शंका नथी.