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सप्टेम्बर २००८
__ गूगो गोळतणा गुण गाय
- शी.
सार नाम धरावती रचनाओनो प्रारम्भ भगवान तीर्थङ्कर देवे ज कर्यो होवानु जणाय छे. आचाराङ्ग सूत्रना पांचमा अध्ययन, नाम भगवान महावीर देवे तथा गणधर श्रीसुधर्मास्वामी महाराजे 'लोकसार' अर्बु राख्युं छे, ते जोतां
आ विधान तद्दन वाजबी ठरे छे. आ अध्ययनमां प्रभुओ, गणधर देवे तथा नियुक्तकार तेमज वृत्तिकार महर्षिओओ तत्त्वज्ञाननो सार अतिअल्प पण अतिगम्भीर शब्दोमां आपणा माटे मूकी आप्यो छे. ए सार-लोकसार केवोक छे, तेनो स्वाद आपणे उपाध्यायजी महाराजनी ज वाणी द्वारा माणीओ :
लोकसार अध्ययनमां, समकित मुनिभावे मुनिभावे समकित का, निज शुद्ध स्वभावे....
(१२५ गाथानु स्तवन, ढाळ ३) मन्यते यो जगत्तत्त्वं स मुनिः परिकीर्तितः । सम्यक्त्वमेव तन्मौनं मौनं सम्यक्त्वमेव वा ।। (ज्ञानसार: १३/१)
तो जरा नियुक्तिकार श्रुतकेवली भगवंतना मुखे पण सार शब्दनुं भाष्य सांभळी लइओ :
लोगस्स उ को सारो ? तस्स य सारस्स को हवइ सारो ?। तस्स य सारो सारं जइ जाणसि पुच्छिओ साह ॥२४४।।
आ गाथा वांची त्यारे प्रथम क्षणे तो ओम ज थाय मनमां, के आ ते नियुक्तिनी गाथा छे के कोई प्रहेलिका (समस्या, उखाणुं) छे ? नियुक्तिकारे अत्यन्त प्रसन्नभावे पूछ्युं छे आ गाथामां के "लोकनो सार शो छ ? वळी ओ सारनो सार शो हशे ? अने ओ सारनाय सारनो पण सार शो होइ शके ? - तने जाण होय तो कहे !"
कृपानिधान नियुक्तिकार वळी आनो उत्तर/उकेल पण पोते ज आपी साध्वीदिव्यगुणाश्री-सम्पादित, प्रकाशनाधीन 'ज्ञानमञ्जरी'नी प्रस्तावनारूप लेख।
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