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अनुसन्धान ४५
पाठ कां तो तेमनी सामे होवो जोई; कां तेमनी स्वतन्त्र प्रतिभाओ ए पाठनी कल्पना/रचना करी होवी जोई. जे होय ते, तत्त्वनी आपणने खबर नथी, पण तेमणे आ जुदो पाठ स्वीकार्यो छे अने ते पाठ प्रमाणे ज तेमणे टीका पण लखी छे, ते आपणी समक्ष उपलब्ध छे. जुओ :
ऐन्द्र श्रीसुखमग्नेन लीलालग्नमिवाखिलम् । सच्चिदानन्दपूर्णेनाऽपूर्णं जगदवेक्ष्यते ॥
सुज्ञ जिज्ञासुओ अहीं- उत्तरार्धमा करवामां आवेला फेरफारने नोंधी शकया हशे. हवे ते अंशनी टीका जोइओ :
"सत्-शुभं शाश्वतं वा चित्-ज्ञानं तस्य य आनन्दः तत्र पूर्णेन ज्ञानानन्दभृतेन मुनिना जगत् मिथ्यात्वासंयममग्नं मूढं विलोक्यते । पूर्णाः अपूर्ण जगद् भ्रान्तं जानन्ति ॥"
आ टीकांशमां कुल त्रण फेरफारो जोवा मळे छे. १. सत् पदनो अर्थ उपाध्यायजीओ सत्ता कर्यो छे, श्रीमदे शुभं शाश्वतं वा अवो कर्यो छे. २. उपाध्यायजीओ सत्-चित्-आनन्द (सुख) अम त्रण अंशोथी परिपूर्ण अवा द्रष्टा पुरुषनी वात वर्णवी छे, जेनुं तात्पर्य आपणा चित्तमां 'केवलज्ञानी' के 'सिद्ध परमेष्ठी' अq होवान समजाय छे. ज्यारे श्रीमद्जी सत्-शुभं शाश्वतं वा, चित्-ज्ञानं, तस्य (अर्थात् शुभ के शाश्वत अर्बु जे ज्ञान, तेनो) आनन्दः अवो अर्थ समजावी, ते आनंदमां पूर्ण (तत्र पूर्णेन)- ज्ञानानन्दभृत जे मुनि - आवो तात्पर्यार्थ आपे छे. अने ३. त्रीजो महत्त्वनो, ध्यानपात्र फेरफार तो आ छे : उपाध्यायजी ज्यां पूर्ण जगत् अवो पाठ आलेखीने दर्शन-ज्ञान-चारित्रधी (निश्चय दृष्टिओ) पूर्ण जगतनां दर्शननी वात वर्णवे छे, त्यां श्रीमद्जी अपूर्ण ओवो पाठ स्वीकारीने [ अपूर्ण ] जगत् - मिथ्यात्वासंयममग्नं मूढं अवो अर्थ आपे छे. अने तेनो स्पष्ट सार पण आ शब्दोमां तेओ आपे छे : "पूर्णाः अपूर्ण जगद् भ्रान्तं जानन्ति'" ।
मूळ ग्रन्थकारथी, तेमना स्वोपज्ञ अर्थघटनथी, साव जुदा पाडवा- अने पोतानी स्वतन्त्र प्रतिभा द्वारा उपसावेल अर्थनुं वर्णन करवानुं गजु, उपाध्यायजीना समानधर्मा अर्थात् उपाध्यायजी जेटली ज आध्यात्मिक अने अनुभवज्ञाननी
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