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सप्टेम्बर २००८
जेवातेवाना गजा बहारनुं गणाय तेमना ग्रन्थ पर विवरण करवा माटे तेमना समानधर्मा होवु अनिवार्य छे. अने देवचन्द्रजी महाराज तेमना ओ हदे समानधर्मा छे लागे छे के तेमणे तत्त्वज्ञाननी तिजोरी जेवा आ-ज्ञानसार ग्रन्थमां सुदृढतापूर्वक स्वैर विहार कर्यो छे, अने आ तिजोरीमांनां सघळांय रत्नोनां, आपणे कल्पी पण न शकीओ तेवां, नवलां दर्शन कराव्यां छे.
बीजी, अर्वाचीन, कोई पण टीकाने आधारे आपणने लागे छे के ज्ञानसार तो सहेलो, समजी शकाय तेवो ग्रन्थ छे; तेनो गद्य-पद्य अनुवाद पण गमे ते भाषामां, करी ज शकाय तेम छे. पण ज्ञानमञ्जरी अवलोक्या पछी, ओछामां ओछु मने तो, प्रतीति थई गइ छे के आ ग्रन्थ समजवो सुगम के सहेलो जराय नथी. केटलीबधी सज्जता अने प्राथमिक भूमिकारूप तैयारी होय तो ज आ ग्रन्थमां, कांइक अंशे आपणी चांच डूबे तो डूबे.
देवचन्द्रजीअ आ ग्रन्थ उपर विवरण लखतां केवा अधिकारपूर्वक काम कर्तुं छे, ते समजाववा माटे अक-बे दाखला अहीं टांकुं छु. ज्ञानसारनो प्रथम श्लोक आ प्रमाणे प्रसिद्ध छे :
ऐन्द्र श्रीसुखमग्नेन लीलालग्नमिवाखिलम् । सच्चिदानन्दपूर्णेन पूर्ण जगदवेक्ष्यते ॥ १ ॥
आ श्लोकमा उत्तरार्धनो पाठ, अहीं आप्यो छे ते ज प्रमाणे उपाध्यायजीने खुदने संमत छे, अने तेथी ज तेओ, स्वोपज्ञ टबार्थमां- बालावबोधमां, ओ पंक्तिनो अर्थ आम करे छे : " सत् क० सत्ता, चित् क० ज्ञान, आनंद क० सुख, ए त्रण अंशइ पूर्ण क० युरो जे पुरुष तेणई । दर्शन ज्ञान चारित्र ए ऋण अंशे पूर्ण पूर्ण जगत् क० पूर्ण जग, अवेक्ष्यते क० देखई, ते अधूरो कही न देखई" ॥ अर्थात्, सत् चित् आनन्दथी पूर्ण ओवो पुरुष, ज्ञानादिकथी पूर्ण जगतने देखे छे : तेनी पूर्ण दृष्टि- निश्चय दृष्टिनी अपेक्षाओं आ जगत पूर्ण छे, अपूर्ण नथी.
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अने आ अर्थ ज आपणे त्यां मान्य छे, स्वीकार्य छे, अने ते रीते ज अध्ययन, व्याख्यान, विवरण बधुं थतुं होय छे. हवे देवचन्द्रजी महाराज अहीं साव जुदा पडे छे. तेओ आ पंक्तिनो अलग ज पाठ स्वीकारे छे : ओवो
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