Book Title: Dakshin Bharatiya ka Jain Puratattva
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Z_Yatindrasuri_Diksha_Shatabdi_Smarak_Granth_012036.pdf
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दक्षिण भारत का जैन-पुरातत्त्व डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर'.....) - आन्ध्रजान्ध्रप्रदेश में जैनधर्म मगध से पहुँचा। नयसेन ने धर्मामृत में पुनः कीलभद्राचार्य और उनकी परंपरा को अर्हत जिनपूजा के "जैन राजा को अंगदेश से आंध्र के भत्तिपोल में पहुँचने की लिए दिया जाता है। विजयवाड़ा में अब यह सब मात्र ऐतिहासिक कथा को तीर्थंकर वासुपूज्य तथा इक्ष्वाकु काल में माना है। उल्लेख रह गए हैं। गुण्डिवाड़ा और धर्मावरम में अवश्य कुछ हरिषेण के वृहत्कथाकोष (९३१ ई.) में कुछ और ही लिखा है। जैनमूर्तियाँ इस काल की पाई जाती हैं। जो भी हो, पर इतना निश्चित है कि वहाँ जैनधर्म महावीर से पहले राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष जैन-धर्मावलम्बी था। उसने अस्तित्व में था। विरुदंकर्यपोलु में एक जैनमंदिर बनवाया। यहाँ की तीर्थंकर आचार्य कुन्दकुन्द आंध्र और कर्नाटक के सीमावर्ती महावीर की मूर्ति मद्रास संग्रहालय में रखी गई है। भीम शल्कि कोण्डकुन्द नगर के ही थे, जिनका समय ल. प्रथम शती है। ने हनुमानकोंड दुर्ग में जैन मंदिर बनवाए, यहाँ के पद्माक्षि जैन जैनसंस्कृति में महावीर के बाद उन्हीं का नाम लिया जाता है। मंदिर में यक्ष-यक्षी की सुंदर प्रतिमा मिली है। वेंगि के गुणग कुन्दकुन्दाम्नाय नाम से जैनधर्म को पहचाना जा सकता है। विजयादित्य ने भी जल्लुर में कोण्डकुन्द पहाड़ी पर एक छोटी सी गुफा है जो उनकी तपस्या. रामतीर्थम में दो जैन-गुफाएँ हैं। यहीं पास में गुरुभक्त पहाड़ी पर स्थली मानी जाती है। गोदावरी जिले के आर्यवतम में एक जैन- एक जैनगफा है, जिसमें अनेक जैन तीर्थंकरों की मर्तियाँ रखी टेराकोट मिला है जिसकी पूजा की जाती है। मथुरा में भी प्रथम हुई हैं। शती का ऐसा ही टेराकोट प्राप्त हुआ है। यहा छह जैन मूतिया दनवलपद (चटपट जिला) में नित्यवर्ष इन्द्र ततीय (८१४मिली है, लगभग इसी समय की। आर्यावतम से मिलती-जुलती १७ ई.) के काल की एक वृहदाकार जैन-वसदि मिली है, मूर्तियाँ गौतमी और ककिनद में भी पाई गई हैं। जिसमें दो मंदिर, चार तोरण, दो चौमुख, एक तीर्थंकर पादपीठ, कुन्दकुन्दाम्नाय में ही उमास्वाति और समन्तभद्र हुए जो दो दसफटी पार्श्व प्रतिमायें और एक पद्मावती-प्रतिमा खुदाई में दक्षिण के ही थे। नन्दि, देव, सिंह, सेन आदि के नाम से बाद में प्राप्त हुई है। दुर्गराज ने कटकाभरण नामक जिनालय बनवाया गणगच्छ बने और सभी जैनाचार्य इन्हीं गणगच्छों की परिधि में और उसके साथ ही व्यय के लिए एक ग्राम दान में दिया। इस आ गए। समन्तभद्र के बाद सिंहनन्दि पेरूर (आंध्र) में ही हुए मंदिर के मुख्य आचार्य थे कोटिमदुवगणी और यापनीयसंघ के वक्रगच्छ में। पूज्यपाद, अकलंक, वासवचंद्र, बालसरस्वती, श्रीमंदिर देव। गोपनन्दि आदि प्रमुख आचार्य आंध्र से ही रहे हैं। पश्चिम गोदावरी जिले में पेदिमिरम में एक जैन पल्लि है, ६०९ ई. में पश्चिमी चालुक्यवंशी पुलकेशी द्वितीय ने कलिंग यहाँ.जैनमूर्ति मिली है। अम्मराज द्वितीय के काल में भी कचमारू पिष्टपुर वेंगि आदि पर विजय पाते हुए आगे दक्षिण में बचा वेंगि में जैनधर्म लोकप्रिय था। अरहनन्दि के आग्रह पर अम्मराज ने का राज्य अपने छोटे भाई कुब्जविष्णुवर्धन को दिया ६२७ ई. में। कलचम्बरू गाँव का दान किया जैनमंदिर के लिए, जो आज नष्ट इस मल्लिकार्जुन पहाड़ी का संबंध श्वेताम्बर संप्रदाय से भी रहा हो गया है। ताम्रपत्र इसका मिला है। एक अन्य लेख भी मिला है। चद्दपट्ट जिले में दिगंबर आचार्य वृषभ के आवास की सूचना है, जिसमें विजयवाडा में इसी राजा द्वारा निर्मित दो जिनालयों सन्यसिगुण्डि गुफा से मिलती है। विष्णुवर्धन तृतीय (७१८- का उल्लेख है। वहीं बोधन में श्रमणबेलगोल से भी बड़ी बाहबली ७५५ ई.) का एक शिलालेख मिला है, जिसमें कहा गया है कि मूर्ति की स्थापना की गई थी पर वह भी आज नहीं मिलती। यह मुनिसिकोन्द्र जिस पर किसी और ने अधिकार कर लिया था, बोधन शायद पोदनपुर रहा होगा। बड्डेग ने विमुलवाड़ा में और Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासउसके पुत्र ओमकेशरी तृतीय ने सोमदेवसूरि को एक जिनालय विक्रमादित्य के काल में भी जैन बस्तियां बनती रही हैं यहाँ। भेंट किया था। यहाँ अनेक जैन मूर्तियाँ मिली है, इस काल की। वेलन्तिचोल-काल भी जैन संप्रदाय के लिए अनुकूल हैदराबाद से लगभग १५० कि.मी. दूर कुलचारम ग्राम में ऋषभदेव साग मितीय और गला दव रहा है। गोंक द्वितीय जैन राजा था। उसने गुन्तूर जिले में मुनुगोडु रेता की एक प्राचीन भव्य प्रतिमा मिली है। गाँव में पृथ्वीतिलक नामक जैन वसति बनवाई थी। गोंक प्रथम कल्याणी चालुक्य में तैलप द्वितीय ने जैनधर्म को अच्छा ने भी यहाँ एक जैनमंदिर बनवाया था। जिसमें अनेक जैनाचार्य प्रश्रय दिया। पोटलचेरूव (पाटनचेरू) में हैदराबाद से लगभग रहते थे। तेनालि में भी एक जैन वसति थी। गोदावरी और कृष्णा १६ कि.मी. दूर है, जहाँ अनेक जैनमंदिर और मूर्तियाँ आज भी नदियों के बीच कोलानियों का भी राज्य रहा है। उन्होंने भी जैन सुरक्षित हैं। वर्धमानपुर (वड्डमानु) शायद यही रहा होगा। यहाँ मंदिरों को दान दिया। अछन्त आदि अनेक वसतियाँ है, यहां भी मूर्तियाँ मिली हैं। बड्डमानु के आगे पेदतुंबलम में एक बड़ी पेनुगोण्डा आदि गाँवों में। जैन बसदि के चिह्न मिलते हैं, जो वीरशैवों द्वारा विनष्ट कर दी हैहयकाल में गोदावरीडेल्टा में अनेक जैनमंदिरों का निर्माण गई। यहीं एक पार्श्वनाथ मूर्ति भी मिली है। गडबल के पास पुडुल । हुआ। ततिपाक में एक बड़ा जिनालय है। नेडनुरू में भी में भी जैन-पुरातत्त्व पाया जाता है। जैनपुरातत्त्व मिलता है। लोल्ला में एक अंबिका की मूर्ति मिली हनुमानकोण्डा के समान अडोनी में एक जैन-गुफा मिली है। हैहय वंश वस्तुत: जैनधर्मावलंबी था। इसलिए इस काल में है। जिसमें पार्श्वनाथ आदि तीर्थंकरों की अनेक मूर्तियाँ मिलती जैन वसदियों का निर्माण खूब हुआ। पीठपुर में उनकी बनवाई हैं। पुदुर से भी बड़ा जैन केन्द्र नायकल्लु रहा है, जहाँ एक बड़ी दो जैन मूर्तियां मिली हैं। गौतमी के किनारे बसे सिला, काजुलुरू जैन वसदि के चिह्न बिखरे पड़े हैं। पाँच फीट ऊँची एक सुंदर आदि अनेक स्थानों पर जैन-मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। ककिनद के पार्श्वनाथ मूर्ति भी यहाँ मिली है। रायदुर्गम पहाड़ी पर भी चालुक्य पास नेमम् में अनेक जैनमंदिरों के अवशेष मिले हैं।भोगपुर के कालीन जैनमंदिर है। कम्बदुर (अनन्तपुर), योगरकुन्त, अमरपुरम्, पास मन्नमनयक द्वारा निर्मित (११८७ ई.) एक राज्य जिनालय कोट्टशिवरम आदि स्थानों पर भी बहुत जैन-पुरातत्व प्राप्त हैं। मिलता है। आंध्र के दक्षिण में चित्तोर जिले में निद्र और निदथुर यहाँ तैलप द्वितीय द्वारा लेख भी ताडिपर्ति में दो जिनालय थे। जैनमंदिर खड़े हैं। चन्द्रप्रभ और पार्श्वना के जिन्हें १२०८ ई. में उदयादित्य ने ११६२ ई. में विज्जल कलचरी राजा ने छिपगिरि में एक बनवाया था, उसने कुछ गाँव भी इन मंदिरों को दिए थे। पर अनि आज उनका कोई चिह्न नहीं मिल रहा है। वारंगल किले में चार विज्जल ने अपने एक मंत्री के दामाद वासववीर को जैनमंदिर हैं। काकतीय राजाओं की राजधानी बनने के पहले ही कोषाध्यक्ष बनाया। वासव पक्का शैव था। उसने विज्जल की यहाँ एक बड़ी जैन वसदि थी। हत्या करा दी और वहाँ से भाग गया। बाद में उसने हजारों की तेलंगाना प्रदेश में और भी अन्य जैन वसदियां है। तेलंगाना संख्या में जैनों को मारा और उनके मंदिरों को नष्ट किया अकेले शिलालेखों में ३५ शिलालेख हैं, जो जैन पूजादान की बात करते ओट्टवछेरुवु में ५०० वसदियों को नष्ट किया। पालकुरुकि सोमनाथ हैं उज्जिलिकिले के बडिड जिनालय में। उसी पाषाण पर एक कवि के अनसार कोलनपाक के सारे जैन मंदिर वीर-शैवों ने अन्य लेख खुदा है जो इन्द्रसेन पंडित नाम से दान का उल्लेख हथिया लिए और अन्य जैन-मंदिरों को धल में मिला दिया। करता है। यह दान (१०९७ ई.) जैनालय को चलाने के लिए दिया गया था। वीरशैवों ने इस जिनालय को बाद में अपने आन्ध्र के इतिहास और संस्कृति के निर्माण में जैनों का अधिकार में कर लिया। अन्य शिलालेखों में नं. दो का शिलालेख बहुत बड़ा योगदान रहा है। यद्यपि तेलगू में जैनसाहित्य अधिक राजा बेक्कल्लु का है, जिसने गुणसेन को ग्राम दान दिया। नं. तो नहीं मिलता पर उनके द्वारा किए गए कल्याण-कार्य आज भी देखे जा सकते हैं। सिवग्गण, आर्यावतम, ३२ का कल्याण चालुक्य का है, जिसने १११९ ई. में ब्रह्मेश्वर पेनुकोण्डा, देव को पार्श्वनाथ जिनालय के खर्च के लिए ग्रामदान दिया। राजा भोगपुरम्, हनुमानकोण्डा, वारंगल किला आदि स्थानों पर बनाए aroorrarironironiromaniramidnironiorbrdnirordNG-१२२6drirbrdworkdoorsansaroritaridroraridrionianer Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासगए तालाब आज भी जनता के उपयोग में आ रहे हैं। वीर शैवों शिलप्पधिकारं (पहली, दूसरी शती) के रचयिता इलंगोवडिगल द्वारा नष्ट किए जाने के बावजूद जैनधर्म आन्ध्र में जीवित रहा, चेरनाडु के युवराज थे। शिलप्पधिकारं के गंभीर अध्ययन से यह उसके लोकमांगलिक कार्यों का ही फल कहा जाना चाहिए। पता चलता है कि इलंगोवडिगल पक्के जैन थे। केरल के जैनधर्म को समाप्त करने में शंकराचार्य का विशेष हाथ रहा है। केरल पुरातत्त्व विभाग यदि प्राचीन स्थलों की खुदाई करे और वैदिक केरल में जैनधर्म कर्नाटक या तमिलनाडु से गया होगा। मंदिरों और मस्जिदों की गहराई से छानबीन करे तो जैनधर्म के वह यहाँ ई.पू. तृतीयचतुर्थ शताब्दी तक तो पहुँच ही गया था। इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ सकता है। अन्य प्रदेशीकी तरह यहाँ भी जैनधर्म अच्छी स्थिति में रहा है पर मसलमानों ने भी जैनों पर कम अत्याचार नहीं किए। अनेक कारणों से उसका सम्यक् अध्ययन नहीं हो पाया। कभी अत्याचारों के कारण ही जैन परिवर्तित होकर शैव, वैष्णव और जैन-स्थानों को बौद्ध बता दिया गया तो कभी वैदिक बना लिया मुस्लिम बन गए। 'जैन अल्लाउदीन' जैसे नाम यह तथ्य प्रस्तुत गया, कभी उन्हें नष्ट कर दिया गया तो कभी मस्जिदों के रूप में करते हैं कि परिवर्तित जैन-समुदाय आज भी जैनधर्म को अपने परिवर्तित कर दिया गया। कुणवसिस कोट्टम का प्रसिद्ध जैनमंदिर में समाए हुए है। हैदरअली की विनाशलीला का शिकार बन गया। टीपू सुल्तान ने भी ऐसे ही घृणात्मक कार्य किए हैं। दसों जैन-मंदिरों ने कर्नाटक मस्जिदों का रूप ले लिया। दक्षिण भारत में जैनधर्म के प्रचार प्रसार में ई.पू. चतुर्थ वर्तमान तमिलनाडु के दो जैनस्थल चित्रल और शती के अंतिम चरण के आसपास श्रुतकेवली भद्रबाहु और नागरकोविल प्राचीन त्रावनकोर के भाग थे। अब कोचीन और चन्द्रगुप्त के आगमन से तेजी अधिक आई। श्रीलंका में तो मलाबार को मिलाकर केरल राज्य बना दिया गया। यहाँ प्राकृतिक जैनधर्म इसके पूर्व था ही। भद्रबाहु-संघ का प्रवेश कर्नाटक में गुहामंदिर मिलते हैं, जिन्हें समाधि-स्थल का रूप दे दिया गया कदाचित्, उत्तर भारत के मालवा क्षेत्र से हुआ होगा। कर्नाटक -मूनिमडा कहकर या फिर नए मंदिर बना लिए गए। अरियन्नूर से ही फिर जैन धर्म तमिल क्षेत्र में पहुंचा होगा। श्रवणवेलगोल कदाचित् प्राचीनतम स्थल है, जहाँ पर्वत को काटकर समाधि के शिलालेखों से इस परंपरा की पुष्टि होती है। चालुक्य, के योग्य स्थान बनाया गया था। राष्ट्रकूट, गंग आदि वंशों ने जैन धर्म का राज्याश्रय और उसका इसी तरह कल्लिल का गुहा मंदिर है, जिसमें महावीर, अच्छा प्रसार-प्रसार किया। सारा प्रदेश जैनमय सा हो गया। यहाँ पार्श्वनाथ और पद्मावती की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं। महावीर की की कुरुम्बर जाति मूलतः जैन थी जो सारे दक्षिण में फैली थी। मूर्ति अपरिपूर्ण है। लोगों की धारणा है कि देवगण उसे पूरा करने मद्रास के पास पुलाल में उसका प्रथम शती ई.पू. का आदिनाथ आते रहते हैं। महावीर मूर्ति गुफा की पृष्ठभाग की दीवार पर खुदी का एक भव्य मंदिर है। ऐसे ही अनेक उदाहरण मिलते हैं। का एक है, सिंहासन में बीच में सिंहलांछन है, ऊपर त्रिछत्र है. चारों के चामुंडराय, इरगप्पन तथा हुल्लर जैसे अमात्यों और राजाओं ने साथ गंधर्व है, दायीं ओर पद्मावती है, और बायीं ओर पार्श्वनाथ o कर्नाटक में जैन-पुरातत्व को काफी समृद्ध कर दिया है। मूर्ति है। इसका समय लगभग आठवीं शती होना चाहिए। पर डॉ. राजमल जैन इसे और भी प्राचीन मानना चाहते हैं। वायनाड जिले के सुल्तान बत्तारी में एक ध्वस्त जैन मंदिर ऐहोल (बीजापुर) में मेगुटिनाक जिनालय में सुरक्षित यह देखा जा सकता है, जहाँ के स्तम्भों पर बडी संदर सर्पाकृतियाँ शिलालेख शक सं.५६१ (६३४ ई.) का है, जिसे कवि रविकीर्ति उकेरी गई है। ये आकतियाँ आज भी देखी जा सकती हैं। ने बड़ी प्रांजल संस्कृत भाषा में कन्नड़ लिपि में लिखा। इसमें प्राचीनकाल में केरल में जैनधर्म काफी लोकप्रिय था। केरल चालुक्यवंश की कीर्ति का वर्णन करते हुए सत्याभय पुलकेशि को, उस समय चेरनाडू कहा जाता था। तमिल महाकाव्य की जैनयात्रा और जिनमंदिर निर्माण का वर्णन है। दिग्विजय का an d idrohidibidroidrotonianbrdinidroid१२३Hamiraramiridwordridridoravarsamirmiriamirritories मैसूर Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्ध - इतिहास - वर्णन करने वाला यह एक सुंदर काव्य है। इसके अतिरिक्त का शिलालेख है, पुलकेशी द्वितीय के संदर्भ में। अकलंक इन्हीं मरोल (१०२४ ई.) अरसिबिदि में प्राप्त आलेख भी महत्त्वपूर्ण रविकीर्ति के शिष्य थे। वादामी का मेगण वसदि और लक्कुडि है। अक्कादेवी, जयसिंह द्वितीय की बहिन ने जैनधर्म का अच्छा का ब्रह्मजिनालय और पट्टदकल की जैनवसदि कला की दृष्टि से प्रसार किया। होनवाड व हुंगुण्ड जैनसंस्कृति के गढ़ थे। बड़े महत्त्वपूर्ण हैं, जहां मध्यकालीन गुफाएँ और जैनमंदिर हैं। बेलगाँव क्षेत्र प्राचीन काल में कुण्डी या कहन्डी मण्डल रायपुर जिले में हम्पी का गानिगिति मंदिर बड़ा प्रसिद्ध है। कहा जाता था जो शिलाहार और रट्ट परिवारों के अधिकार में हम्पी के महल-क्षेत्र के आसपास खुदाई की गई थी, जिससे दो था। कोन्नुर हलसी (खानपुर) और सौनदत्ती अच्छे जैन-केन्द्र जैनमंदिर प्रकाश में आए हैं। वैसे यहाँ काफी मंदिर हैं। पान थे। गोक्का प्लेट देज्जा महाराज के दान का उल्लेख करता है सुपारी जैन मंदिर में एक संस्कृत शिलालेख मिला है। जिसके आर्हत पूजा के लिए। यहाँ के किले में जैन-पुरातत्त्व दर्शनीय है। अनुसार देवराज द्वितीय ने सं. १४२६ में पार्श्वनाथ चैत्यालय यहाँ १०८ जैनमंदिर रहे हैं। कमलवसदि दर्शनीय है। बनवाया था। बल्लादी जिले में हरपनहल्ली की होस-वसदि में ___ अदूर में दो शिलालेख मिले हैं, जो जैनमंदिर के लिए कलात्मक नाग प्रतीक दर्शनीय है। यहाँ का उज्जिम जैन-मंदिर भूमिदान का उल्लेख करते हैं। नारायण-मंदिर के दो शिलालेख शैवों के अधिकार में है। हुवली का अनन्तवसदि मंदिर कलात्मक जैनों के हैं। मूलगुण्ड और लक्कुण्डि उत्तम जैनकेन्द्र थे। है, जहाँ दसवीं शती की धरणेन्द्र पद्मावती के साथ तीर्थंकर पार्श्वनाथ की सुंदर प्रतिमा कला सुरक्षित है। उत्तर कन्नड जिले में १५ से १७ वीं शती तक का जैन पुरातत्त्व मिलता है। दक्षिण कन्नड जिला तो और भी समृद्ध है धारवाड के लक्ष्मेश्वर नगर में ५३ शिलालेख हैं, जिनमें इस दिशा में। बेल्लरी जिले में गुफा-जैन-मंदिर है, जिसमें बहुत इस नगर के अनेक नाम मिलते हैं। यहाँ के शंख वसदि मंदिर में सारी मूर्तियाँ रखी हुई हैं। कोगाली जैन शिलालेख (१० वीं शती) प्राप्त ७०० ई. के शिलालेख के अनुसार अकलंक परंपरा के है नन्दि बेवरू मन्नेरा मसलेलाद कुदतनी आदि स्थान ऐसे हैं, जो पंडित उदयदेव चालुक्य राजा विजयादित्य द्वितीय के राजगुरु जैनकेन्द्र माने जाते हैं। थे। महाकवि पम्प का आदिपुराण इसी मंदिर में लिखा गया था। यहीं के अनन्तनाथ वसदि में पद्मावती और सरस्वती की सुंदर वस्तुत: कर्नाटक का चप्पा-चप्पा जैन-संस्कृति का परिचय मूर्तियाँ है। लक्ष्मेश्वर के समीपवर्ती बंकापुर में गुणभद्राचार्य ने देता है। यहाँ सभी स्थानों के पुरातत्त्व के विषय में लिखना अपना उत्तर पुराण पूरा किया था। यहाँ के कुछ जैनमंदिर आज संभव नहीं है। पर कतिपय महत्त्वपूर्ण स्थलों का उल्लेख करना मस्जिदों के रूप में विद्यमान हैं। कोटमचगी का पार्श्वनाथ मंदिर अत्यावश्यक है। उदाहरणत: बीदर जिले का मलखंड राष्ट्रकूट नरेडिल का नारायण मंदिर, बंदरसिंगी की आदिनाथ प्रतिमा, राजाओं का प्राचीन मान्यखेटनगर है, जो अमोघवर्ष के समय कलस्नयु का जैन वसदि, आरट्टकाल का पार्श्वनाथ वसदि,गुडिगेरी जैन-संस्कृति का महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गया था। लगभग २०० का महावीर वसदि, हवेरी का मुद्ददु माणिक्य वसदि, अम्मिनवाबी वर्षों तक यह नगर जैनकेन्द्र बना रहा है। यहाँ सोमदेव, पुष्पदन्त का पार्श्वनाथ वसदि आदि मंदिरों का पुरातत्त्व भी अत्यन्त जैसे मूर्धन्य आचायों ने साहित्य सृजन किया। यहाँ नेमिनाथ महत्त्वपूर्ण है। वसति नाम का लगभग ८वीं शताब्दी का एक जैनमंदिर है। कारथीड जिले का उत्तर कनाड़ा भाग कभी वनवासी बीजापुर का विशाल जैनमंदिर १५वीं शताब्दी में मस्जिद प्रदेश कहा जाता था। पुष्पदंत भूतबलि द्वारा की गई षटखण्डागम के रूप में परिवर्तित कर दिया गया। यहाँ पार्श्वनाथ मंदिर कुछ की रचना का श्रेय इसी प्रदेश को जाता है। ग्रेल्सोप्पा में समय पहले जमीन से निकाला गया है। यहाँ की करामुद्दीन ज्वालामालिनी की मूर्ति, हाडुवल्ली में त्रिकाल चौबीसी की मस्जिद भी मूलत: जैनमंदिर ही है। इसी जिले में ऐहोल एक कांस्यमूर्ति, गुंडबल की पार्श्वनाथ की मूर्ति विशेष उल्लेखनीय गाँव है, जो किसी समय चालुक्य की राजधानी रहा है। यहाँ के हैं। हमचा का इतिहास लगभग १५०० वर्ष पुराना है। इसे अतिशय म मेगटी मंदिर में जैनाचार्य रविकीर्ति द्वारा लिखित सन् ६३४ ई. क्षेत्र कहा जाता है। यहाँ २२ शिलालेख हैं, जिनमें सान्तर राजवंश Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि मारक नदिध - इतिहासका इतिहास दिया हुआ है। तदनुसार जिनदत्त राजा को पद्मावती साथ। विद्यादेवी की भी मूर्ति यहाँ मिलती है। मद्रास से २५ मील की कृपा से लोहे को भी सोना बनाने की शक्ति प्राप्त हुई थी। दूर उत्तर पश्चिमवर्ती पुलाल में आदिनाथ का प्रथम शती ई.पू. इसी तरह बकोड दन्दलि के चिक्कमागुडि, उद्रि आदि स्थानों का एक भव्य जैनमंदिर है। की वसदियाँ भी पुरातत्त्व की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। दक्षिण आरकोट जिले में पाटलिपुर नगर है, जहाँ प्रथम चिक्कमंगलूर जिले के नरसिंह राजपुर में अनेक जैनमंदिर शती में द्राविड संघ रहा करता था। छठी शती तक वह यहाँ बना हैं, जिनमें चन्द्रप्रभ की यक्षी ज्वालामालिनी की कलात्मक प्रतिमाएँ रहा। यह तथ्य बिल्लुपुर तिरुन हैं। यहीं समीप में शृंगेरी मठ है, जो किसी समय जैनों का गढ़ सिद्ध होता है। चोलवंदिपुर में अन्दिमलै के आसपास अनेक जैन । था। यहाँ शारदा मंदिर में एक जैन स्तम्भ पड़ा हुआ है। यहीं पास स्थापत्य है। जहाँ महावीर आदि तीर्थंकरों की मूर्तियाँ मिली हैं। ही आचार्य कुन्दकुन्द की जन्मभूमि कुन्दकुन्दबेट्ट है, जहाँ कुन्दाद्रि और चट्टानों पर खुदी भी हैं। गिन्जी तालुका तो आज भी जैन पर उनके चरण बने हुए हैं। इस पर्वत पर खण्डहर, मूर्तियाँ एवं पुरातत्त्व को सहेजे हुए। यहां एक जैनमठ भी है। चित्रकुट में दो कलात्मक शिलाखण्ड बिखरे पड़े हैं। जैन. मंदिर भी है, मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ के। तमिलनाडु तिरुपरुट्टिकुनरम (जिनकाञ्ची)-- जिनकाञ्ची मद्रास से लगभग ६० कि.मी. दूर कान्ची का एक भाग है, जो तमिलनाडु में जैन धर्म ने कर्नाटक से प्रवेश किया होगा। तिरुपरुट्टिकुनरम ग्राम से संबद्ध है। बॅगेस ने इसे दक्षिण के अर्काट श्रीलंका में महावंश के अनुसार पाण्डुकाभय (३३७-३०७ जिले के चित्र जिले के चित्रामूर ग्राम से समीकृत किया था, जो सही नहीं है। ई.पू.) ने निर्ग्रन्थ ज्योतिय के लिए अनुराधापुर में एक मंदिर दक्षिण में चार विद्यास्थान माने जाते थे-जिनकान्चीपुर कोल्हापुर, बनवाया था। इसका तात्पर्य है ई.प. चतर्थ शती तक जैन धर्म पेनुकोण्डा और देहली। जिनकांचीपुर प्रारंभ से ही जैन, बौद्ध दक्षिण में पहुँच चुका था। देवचन्द्र ने राजवलिकषे में लिखा है ह और वैष्णव संस्कृति का गढ़ रहा है। ह्यूनसांग ६४० ई. के लगभग कि भद्राबाहु ने विशाखाचार्य (चन्द्रगुप्त मौर्य २९७ ई. पू.) को यहाँ पहुँचा था। उसने यहाँ के जैनों की बहुसंख्या का उल्लेख न निर्देश दिया था कि वे चोल पांडदेशों में और आगे जाय। किया है और अस्सी जैन मंदिरों के अस्तित्व की सचना दी है। रत्ननंदि के भद्राबाहुचरित (१५ वीं शती) में उनके चोल देश में जाने का उल्लेख भी है। ___यहाँ प्राप्त शिलालेखों से पता चलता है कि यहाँ मुख्यतः दिगंबर-जैनधर्म का प्रचार-प्रसार हआ है। दिगंबर जैनों के चार ___ मद्रास के समीपवर्ती तिरुनेलबेली, रामानंद, त्रिची, संघ हैं-मूल, द्राविड, काष्ठा और यापनीय। इनमें दक्षिण में द्राविड पुदुक्कोट्टई, मदुराई और तिनबेलि जिलों में जैन-पुरातत्त्व बहुतायत . संघ का प्रभाव अधिक रहा है। जिनकांची के शिलालेखों में गुरु में मिलता है। यहाँ के अधिकांश जैन-शिलालेख ततीय शती यि शता और शिष्य की व्यवस्थित धर्मसत्ता मिलती है। कुन्दकुन्दाचार्य ई.पू. के हैं। यहाँ तथा आरकोट जिले में शताधिक जैनगुफाएँ समन्तभद्र, सिंहनन्दी पूज्यपाद, अकलंक आदि आचार्यों का हैं, उत्तरी आरकोट में पंच पाण्डवमलई और तिरुमलई पहाड़ियाँ सम्बन्ध यहाँ से रहा है। अकंलक की शास्त्रीय वादविवाद परंपरा हैं, जहाँ जैनपुरातत्त्व भरा पड़ा हुआ है। विलपक्कम में एक जैन । कांची से लगभग २० कि.मी. दूर तिरुप्पनकूट से संबद्ध है, जहाँ मर्ति मिली है। यहीं नागनाथेश्वर मंदिर में ८४५ ई. का एक लेख एक चित्र में ओखल है, और सामने जैनमुनि उपदेश दे रहे हैं। मिला है, जिसमें लिखा है कि यहाँ पास में वल्लिमलै और तिरुमलै जैन गुफाएँ हैं। तिरुमलै में धर्मचक्र आदि को दर्शाती अकलंक के बाद जिनकांची का संबंध आचार्य चन्द्रकीर्ति, अच्छी पटिग हैं। वेदोल के पास विदल और विदरपल्ली है. जो अनन्तवीर्य, भावनन्दि, पुष्पसेन आदि आचार्यों से रहा है। पयसेन जैन-वसतियाँ मानी जाती हैं। पोन्नर में आदिनाथ का बड़ा मंदिर का राजनीतिक प्रभाव बुक्का द्वितीय (१३८५-१४०६ ई.) के है। यहां ज्वालामालिनी की अच्छी मूर्ति है। इसी के पास नीलगिरि । सेनापति और मंत्री इरुगप्पा के ऊपर अधिक था। उसी के पहाड़ी है, जिस पर हेलाचार्य की सुंदर मूर्ति है, ज्वालामालिनी के परिणामस्वरूप विजयनगर के राजाओं ने उन्हें संरक्षण दिया। पार यहीं उनका भी समाधि-स्थल है, मंदिर के भीतर मनिवास में। Forcibiwbrowonitoriwarawbrowonitorionitoniromirid6d[१२५/6drabdriradabaditoriuduirirdwaranorrordition Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहासयहाँ के मंदिरो में चित्रकला के अवशेष भी दृष्टव्य हैं। कणकचंद्र पण्डित का शिष्य था, जिसे सुंदर पाण्ड्या के काल में उड़ीसा में रामगढ़ पहाड़ी की जोगी मेर गुफा में भित्तिचित्रों के भूमिदान भी मिला था। १३वीं शती तक यह स्थान जैन-श्रमण अवशेष को प्राथमिक स्तर का कह सकते हैं, सित्तन्नवासल चित्र वसति बना रहा। भी इसी कोटि के हैं। धर्मप्रचार की दृष्टि से जैनों ने चित्रकला का बोम्मइमलइ में भी एक गहा मंदिर है. जिसमें उल्लेख है अच्छा उपयोग किया है। कि जैन-श्रमणों के लिए यहाँ ७५३ ई. सन् में भूमिदान मिला पुटुक्कोत्तई था। सदियरपइ में ८वीं शती की महावीरमूर्ति है एक गुहामंदिर में। इसे सुंदर पांड्या के ही समय काफी भूमिदान दिया गया था। पटक्कोत्तई (तमिलनाड) जिले में काफी जैन-पुरातत्व 1वीं से १३वीं शती तक यह भी एक जैनकेन्द्र रहा है। मिलता है। लगभग १६ कि.मी. पर सित्तनवसल प्रधान केन्द्र है। इसमें एक जैनगुफा, जैनमंदिर और भित्तिचित्र है। जैनगुफा लगभग मलयक्कोइ पुटुक्कोत्तइ से १८ कि.मी. दूर है। यहाँ एक द्वितीय शती ई. पू. की मानी जाती है। ब्राह्मीलिपि में लेख भी है। गुफामंदिर में गुणसेन नामक जैन मुनि का उल्लेख है शिलालेख ७-८ वीं शती तक यहाँ श्रमणों का आवास रहा है। समीपवर्ती में। यहाँ से १२ कि.मी. दूर पोत्तम्बुर में एक जिनमूर्ति मिली है । पहाड़ी पर गुहा-मंदिर है जो लगभग ७वीं शती का है। इसमें तीन जो गणेश के नाम से पूजी जाती है। इसे ग्रामवासी मोत्तईपिल्लयर तीर्थंकरों की मूर्तियाँ हैं--ऋषभदेव, नेमिनाथ और महावीर। कहते हैं। यह मूर्ति १२वीं शती की है। आदित्यचोल (८८८ ई.) मंडप की एक दीवार पर पार्श्वनाथ का चित्र है, जिस पर श्री के शिलालेख से पता चलता है कि यह एक जैनकेन्द्र था ८वीं तिरुवसिरियम लिखा है, जिसका अर्थ है महान् आचार्य। समवशरण शती में। इसी के पास चेत्तियति है जो समनर कुण्डु कहा जाता आदि के भी संदर भित्तिचित्र हैं। समणरमेड, तेक्कादर आदि है। यह भी एक जैनकेन्द्र रहा है। यहाँ एक मंदिर है, जिसमें - पार्श्वनाथ और महावीर की सुंदर मूर्तियाँ हैं १० वीं शती की स्थानों पर भूगर्भ से जैन मूर्तियाँ निकली है। अम्बिका की भी एक अच्छी मूर्ति है। यहाँ के लेख में मतिसागर तेणिमलइ की समीपवर्ती पहाड़ी पर जैनसाधुओं के लिए। मुनि का उल्लेख है, दयापाल और वादिराज उनके शिष्य थे। एक आवास स्थान-सा बना है, जो लगभग प्रथम शती का । होगा। ब्राह्मीलेख भी है। यहाँ ८वीं शती तक श्रमण रहा करते थे। चेत्तिपत्ति के पास कयममत्ति है, जहाँ जैनमंदिर के अवशेष पड़े हुए हैं। इसे 'समदर तिदल' कहा जाता है । सिद्धासन में एक यहाँ तीन जिनमूर्तियाँ भी हैं। मूर्ति मिली है। यहाँ इसी के साथ एक जैनमठ भी था जिसे ___ पुट्टक्कोत्तई से १८ कि.मी. दूर नारन्तमलइ पहाड़ी है जो तिरुवयतलमदरम कहा जाता था। जिसे नगरत्तर आदि श्रेष्ठियों ने समतटकुडग के नाम से जानी जाती है। यहाँ दो मंदिर हैं, एक बनवाया था। शिव का और दूसरा अर्हतजिन का। अर्हतजिन का मंदिर १३वीं शती में वैष्णव-मंदिर के रूप में परिवर्तित कर दिया गया और सित्तनवसल के पास ही अन्नवसल है, जो किसी समय समर्थ जैनकेन्द्र रहा है। यद्यपि यहाँ एक मंदिर ध्वस्त हो गया है फिर उसे पतिनेनभूमि विन्न गरूलवार केलि कहा जाने लगा। अर्धमंडप में जैनाचार्य नेमिचंद का उल्लेख है शिलालेख में। र पर तीर्थंकर मूर्तियाँ अच्छी हालत में मिली हैं। कोनगुडु में महावीर १२वीं शती में इस मंदिर को भूमिदान भी दिया गया था। लगभग की मनोरम मूर्ति मिली है ११वीं शती की। सोमपत्तुर में एक १२२८ ई. में वैष्णवों ने इसे अपने अधिकार में ले लिया मरवरमन तालाब के किनारे जैनमंदिर है जो ध्वस्त हो गया है इसके स्तम्भ सुन्दर पांडवा के काल में। यहां के अर्धमण्डप को ही महामण्डप वगैरह, तेन्नगुडि के शिवमंदिर में लगे है। यहाँ तीर्थंकर और यक्षी के रूप में बदल दिया गया। मूर्तियाँ मिली हैं। आलुरुंदरमलइ नरतमलइ के पास ही है। इसमें भी लगभग पदक्कोत्तइ में एक जैन-मूर्ति-संग्रहालय है, जहाँ आसपास प्रथम सदी का गुहामंदिर है। जिसमें ध्यानमद्रा में तीर्थंकरों की का मूर्तियों को एकत्रित कर दिया गया है। मोसक्कडि से प्राप्त मूर्तियाँ हैं। यहीं१०वीं शती का लेख भी है। तदनसार धर्मदेवाचार्य मूर्तियां कलात्मक दृष्टि से बहुत अच्छी हैं। आदिनाथ पार्श्वनाथ dardiariordarbaridroidisardaridrsariridroid१२६binirdinidiadiansaxsridododiaries Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्दमूरिस्मारक - इतिहासऔर महावीर की भी अलंकृत मूर्तियाँ है,१० से १५वीं शती के अरिष्टनेमि आचार्यों के उल्लेख मिलते हैं। इसके साथ ही माघनदि बीच तक की। गुणसेन, वर्धमान काकनन्दी आर्यनन्दी आदि आचार्यों के उल्लेख तामिलनाड में ५३० जैन-शिलालेख मिले हैं जिनसे पता हैं। इनका समय ७-८वीं शती है। ज्ञानसम्बन्धर राजा के शैव चलता है कि यहाँ ८-१०वीं शती के पूर्व जैनधर्म अच्छी स्थिति बन जाने पर जैनधर्म को अनेक आघात सहना पड़े। यानै मलै, में था। द्वितीय शती ई. पू. से मदराई तिरुनेलवेली. रामानद नागमले, समणमले आदि नगर भी पुरातत्त्व की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण आदि जिलों में जैन अवशेष मिलने लगते हैं। चंद्रगुप्त का संघ तामिलनाडु में ई.पू. तृतीय शती में ही फैल गया था। श्रमण - सातवीं शती के बाद तमिलनाडु में जैनधर्म के लिए कड़ा वेलगोला यात्राकाल में ही संगमकाल में चेर, चोल और पांड्य संघर्ष करना पड़ा है। संत अप्परै ने कांची में और सम्बन्दर ने नरेशों ने जैन धर्म के प्रचार-प्रसार में खूब सहयोग दिया। मदुरै में जैनधर्म के विरोध में तीव्र आन्दोलन चलाया, फिर भी तिरुप्परकुनर और मुत्तुपत्ति रिकार्ड से पता चलता है कि श्रीलंका अज्जनन्दी जैनधर्म का प्रचार-प्रसार करते रहे। आदि से जैन-साधु वहाँ आते रहते थे। प्रथम शती में आर्यनन्दी तिन्नेवेल्लि क्षेत्र में कलगमले में द्वितीय शती ई.प. के और बालचन्द्रदेव ने मदुराई में १२३ वीं शती में जैनधर्म का लेखादि मिलते है। यहाँ की जैनकला देखने लायक है। आगे प्रचार किया। दान और सल्लेखना के आलेख पचासों हैं। त्रावनकोर क्षेत्र में तिरुच्चरणत्तु मलै पहाड़ी पर जैन-मंदिर है, जो जिनसे जैनधर्म की लोकप्रियता का पता चलता है। आज वैदिक समुदाय के अधिकार में है। यहाँ की महावीर और मदुरै में तीन प्रकार का जैन पुरातत्त्व मिलता है-(१) पार्श्वनाथ की मूर्तियाँ आज भी वैदिक देवता के रूप में पूजी जा शिलालेखों सहित जैनगुफाएँ, (२) पाषाण चट्टानों पर उत्कीर्ण रही हैं। नगर कोइलका जैनमंदिर नागराजस्वामी पर भी उन्हीं का जैन-देवी-देवताओं की मूर्तियाँ और (३) वत्तेलुत्तु लिपि में लिखे अधिकार है। पार्श्वनाथ महावीर पद्मावती आदि तीर्थंकरों और तमिल लेख। पांड्य राजाओं के शासनकाल में मदुरै एक सशक्त शासनदेवी-देवताओं की मूर्तियाँ मुख्य मण्डल के स्तम्भों पर जैन केन्द्र रहा होगा। तेवरमतथा स्थल पुराण के अनुसार अनैमलै अभी भी उत्कीर्ण हैं। मूलरूप से वस्तुत: यह जैनमंदिर था जो नागमलै और पथुमलै आदि पहाड़ियों पर प्राप्त जैन-पुरातत्त्व इसका यहाँ के लेखों से भी पुष्ट होता है। इनके अतिरिक्त कलुगुमलै, प्रमाण है। अरिट्रपट्टि, मंगलं, मुत्तपट्रि, कोंगर पलियंकुलं, तिरप्परे नागलापुर,कायल, धर्मपुरी, विजयमंगलं,मह कुंजरं, वरिच्चयु, अलगरमलै, करुंगलकुडि, किलुवलजू, विक्किर भी ऐसे हैं, जहाँ जैनमंदिर और मूर्तियाँ भूगर्भ से प्राप्त हुई हैं। मंगलं, मेत्तुपेत्तु (सिद्धरमलइ) आदि स्थल भी उदाहरणीय हैं। कालीकट और पालघाट जिलों में और भी जैनकेन्द्र हैं। मदुरै के पास तिरुपरकुनर में सरस्वती तीर्थ है, जहाँ पार्श्व गणपतिवत्तम में एक बस्तीमंदिर है केरल-मैसूर रोड पर। एडक्कल । और सपार्श्व की फण सहित संदर मूर्तियाँ हैं। पास ही गुफा के ऊपर बना मंदिर भी जैनमंदिर होना चाहिए। पालघाट में अन्नामलै पहाड़ी है, जिस पर जैन-पुरातत्त्व सामयी प्रचुर परिमाण एक छोटा-सा मंदिर है। इसके अतिरिक्त मृत्तपत्तन और मचलापट्टन में मिलती है। यह स्थान अब ब्राह्मण समुदाय के अधिकार में है। में भी जैन मंदिर हैं। अलातूर में भी एक पुराना मंदिर है, जिसमें यहाँ तीर्थंकर और शासन देवताओं की मूर्तियाँ मिलती हैं और महावीर पर्यकासन में हैं दूसरी मूर्ति पार्श्वनाथ की है, जिस पर लेखों में अज्जनन्दी आदि आचार्यों का उल्लेख है। पास ही तीन फण है, वह कायोत्सर्ग मद्रा अलगरमले पहाडी पर भी जैन-लेख है, जिनमें अज्जनन्दी का तीसच्चारणटमले में एक संदर गहा मंदिर है जिसमें लगभग उल्लेख है। उसी के पास उत्तमपलैयं मुत्तषत्ति, कोंगर, पुलियंगुल तीस मर्तियाँ उत्कीर्ण है। एक अन्य गुफा का नाम श्रान्तनपाडा किलक्कडि.पेच्छिपल्लं, पोयगैमलै, पंचपाण्डवमलै आदि अनेक है। इन गफाओं को देखने के बाद मंदिरों की संरचना पर ध्यान स्थान हैं, जहाँ जैनपुरातत्त्व सामग्री बहुतायत में मिलती है। यहाँ जाता है। सिलप्पदिकारम से कुणिवायिलकोंट्टम नामक जैन मंदिर तिरुक्कतम्बले करंदी नामक एक जैनकेन्द्र है। उत्तमपलियम का पता चलता है जिसे हैदरअली ने नष्ट कर दिया था। बिहार भी इसी के अंतर्गत रहा होगा. जहाँ अस्टोपवासी और Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - तान्द्रसूरि माइ कोडगन्लुर के जैनमंदिर द्राविड शैली के हैं, ग्रेनाइट पाषाण इस प्रकार पिछले लगभग दो हजार वर्षों से तमिलनाडु में के हैं। पर आज वे वैष्णवों के हाथ में हैं। इसी तरह कहा जाता है जैनसंस्कृति अस्तित्व में बनी रही है। अस्तित्व में ही नहीं बल्कि कि वहाँ की मस्जिद वस्तुतः प्राचीन जैनमंदिर है। इरिजालकुडा वहाँ के साहित्य और संस्कृति को भी प्रभावित किया है। प्रारंभिक का कूडल माणिक्यं नामक विशाल जैनमंदिर भी उल्लेखनीय है, तमिल-साहित्य मूलत: जैनों का अधिक रहा है। वह वीरशैवों और जहाँ भरत की मूर्ति है और लेख भी। वैदिकों द्वारा नष्ट किए जाने के बावजूद अपना योगदान बनाए त्रिचूर में बडक्कन्नाथ है. जो शायद मल रूप में जैनमंदिर रखे रहा। अब अधिकांश मंदिरों पर वैदिकों का अधिकार है। रहा होगा। कोडिक्कोड में तुक्कोविल नामक एक श्वेताम्बरमंदिर पल्लव महेन्द्रवर्मन और पांड्यराजा कुनपाड्यन जैन थे है, जिसका निर्माण लगभग ५०० वर्ष पहले हुआ था। बंगर पर वे बाद में शैव अप्पार और ज्ञान संबन्धर द्वारा बाह्मणधर्म में मंजेश्वर में एक चतुर्मुखी मंदिर है, जिसे सर्वतोभद्र कहा जाता है। प्रविष्ट कर लिए गए। यह प्रक्रिया होयसल राज्यकाल तक चलती वायनाड में मानदवाड़ी में एक आदीश्वर मंदिर है, जो प्राचीन रही। होयसल सम रही। होयसल सम्राट विट्ठीगा जैन था पर रामानुज ने उसे वैष्णव मंदिर को ध्वस्तकर खड़ा किया गया है। फिर भी कहीं-कहीं न या है। फिर भा कहा-कहा बना लिया। प्राचीनता के निशान बचे रह गए। सुल्तान बत्तारी का जैनमंदिर भी आज खण्डहर के रूप में पड़ा हुआ है। ऐसे ही प्राचीन जैन - . दक्षिण जैन-स्थापत्य-कला की यह विशेषता रही है कि मंदिरों में पालक्काड और नागरकोविल के तथा गोदपर अलातर. यहाँ के जैनमंदिर और गुफाएँ जैन-साधुओं के निवास स्थान थे, मंडर किण्णालर आदि स्थानों के जैन - मंदिर भी उल्लेखनीय जिन्हें इतनी उत्कृष्टता से ग्रेनाइट के विशाल पत्थरों पर चिकनाई हैं। उनमें अलातूर मंदिर विशेष उल्लेखनीय है जो कांगदेश से सहित तराशा गया है कि हमें मौर्यकालीन बलुआ पत्थरों को संबद्ध है। यह कांगदेश और उसके राजगण जैन धर्म के संरक्षक चमकाने की दक्षता का स्मरण हो आता है। चट्टान काटकर रहे हैं। यहाँ प्राप्त लेखों में जैन-मंदिरों को दान देने के उल्लेख मंदिर निर्माण किए जाने की प्रथा जैनों में लगभग सातवीं शती हैं। ये लेख ११०२ ई. के हैं। तक रही है। त्रिचिरापल्लै जिले के पुगलुर गाँव के आसपास पाई गई यहाँ हम कुछ और विशेषस्थानों का उल्लेख कर रहे है जो गुफाएँ और अरुनत्तुर की पहाडियाँ तथा कोयम्बतूर जिले की पुरातत्त्व की दृष्टि से और भी महत्त्वपूर्ण हैं। चेंगलपट्ट जिले के अरच्चलूर (नागमलै) की पहाड़ियाँ भी जैन-संस्कृति की दृष्टि मगरल में एक अजैन मंदिर में दो जैन मूर्तियां रखी हुई हैं। इसी से अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं। दक्षिण उत्तर अर्काट जिले के विदुर, तरह आरपाक्क विषार, विल्लिवाक्कम, पेरुनगर आदि स्थानों पोत्रुर तिरुनलंगोंडई, चित्तमुर, तोण्डईमंडल आदि नगरों में प्राप्त पर जैनमूर्तियाँ और स्थापत्य असुरक्षित सा पड़ा हुआ है। उत्तर जैन- मंदिर, मूर्तियाँ और गुफाएँ भी अनेक कालों की कला को अर्काड जिले के कच्चूर,नंवाक्क, कावनूरु, कुट्टैनवल्लूर, तिरुमणि, समाहित किए हुए हैं। यहां प्राप्त जैन शिलालेख दिगम्बर जैन सेवूर, अनन्तपुर, आरणि, पुनताकै, तिरुवोत्तूर, तिरुप्पननूर, करन्दै, संप्रदाय के इतिहास की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। मद्रास पूण्डि, पोन्नर, पोन्नरमलै, तिरुक्कोनि वेणुकुन्ट जैसे कुछ ऐसे जैन का तिरुवल्लुवर मंदिर वह है, जहाँ तिरुवकुरल काव्य लिखा गया स्थल है, जहाँ जैन मूर्तियाँ और मंदिर हैं पर अच्छी स्थिति में नहीं था। तिरुमलै और मैलापोट तथा पुदुक्कोट्टई, तेनिमलै, नस्तमलै, है। नंवाक्क, पुनताक्कै, तिरुवोत्तूर, वल्लिमलै, मयिलापुर आदि अनुरुत्तुमलै, बोम्मईमलै, मलयक्कोइल, पुत्तम्बर, छेत्तिपत्ति, कयम्पत्ति, ऐसे स्थान है, जहाँ के जैनमंदिरों को वैदिक मंदिरों में परिवर्तित अन्नवसल, कनगुडि, छित्तिर सेम पचुर आदि स्थान भी जैन इतिहास कर दिया गया है। और संस्कृति की दृष्टि से विशेष दृष्टव्य हैं। पुझल कोटलं, जिंगिरि, दक्षिण आर्काड जिले में कीलकुप्प स्थान से एक सुंदर मेलचित्तमुर, पोलुन्नुरमलै मुनिगिरि, मन्नरगुडी, विजयमंगलं आदि जैन-मूर्ति जमीन से निकली थी, कुछ समय पहले। तिरुमदिक सैकड़ों ऐसे स्थल है, जहाँ ईसा पूर्व से लेकर १५वी शताब्दी तक और तिरुप्पापलियर में गणधरवीच्चर जैसे अनेक शैव मंदिर ऐसे का समृद्ध जैन-पुरातत्त्व मिलता है। तमिलनाडु वस्तुत: जैन-पुरातत्त्व हैं जो मलतः जैनमंदिर थे। यहाँ धर्मसेन ने किसी कारणवश की दृष्टि से बहुत ही समृद्ध है। शैव बनकर जैनधर्म पर बडा अत्याचार किया। toroorkarianitoriandarmanoramoniamorowokarina १२८dmiriamirrorionidmoonindianarmadardarodar Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -चन्द्रसार मारा इतिहास सिरुकडवूर में एक तालाब की चट्टान पर 28 तीर्थंकरों अनेक वसदियाँ है जो पुरातत्त्व की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। की सौम्य मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। तृतीय शती की एक प्राचीन गुफा भी है यहाँ। मेलचित्तामूर में एक पुरातन मंदिर है, जिसमें प्राचीन अच्छा स्थान है। कहा जाता है यहाँ भगवान पार्श्वनाथ और जैन मूर्तियाँ हैं। कूष्माण्डनी देवी की भी मूर्ति है। यहाँ के मठ में महावीर ने भी बिहार किया था। लगभग ५वीं शताब्दी से यहाँ समृद्ध शास्त्रभंडार भी है। तोण्डूर, तायनूर, पेरुम्बुर्गे, सनुक्के, जैनधर्म का अस्तित्व मिलता है। वैसे यहाँ की जैनपरंपरा तो मुदलूर, सातमंगल, गुडलूर, सीयमंगल,सीदमंगल, विलुक्कं, बहुत पुरानी है। हेमांगद देश यहीं था, जिसके जैन राजा जीवन्धर वोल्लिमेडुपेट्टै, पेरणी, तिरुनंरुकन्डं, सोलवाण्डिपुरं आदि कतिपय थे और सलुववंशीय अनेक राजा भी जैन थे। यहाँ अनेक बसदियाँ ऐसे प्राचीन स्थान हैं, जहाँ पुराने जैनमंदिर तो हैं ही साथ ही हैं, जिनमें त्रिभुवन तिलकमणि मंदिर विशेष उल्लेखनीय है। इसी भूगर्भ से मूर्तियाँ भी निकली हैं।यहाँ शासन देवी-देवताओं की तरह चंद्रनाथ वसदि का भैरोदेवी मण्डप, अम्मनवार वसदि की / भी मर्तियाँ प्राप्त होती हैं। उनमें कृष्णाण्डी और पद्मावती देवी पंक्तिबद चौबीस तीर्थंकरों की मर्तियाँ, चोटार महल में काष्ठ की मूर्तियाँ अधिक लोकप्रिय रही है। स्तम्भ पर उत्कीर्ण नवनारीकुंजर, सिद्धांत वसदि विशेष उल्लेखनीय तंजाऊर जिले के तंजाऊर नगरमें आदिनाथ का प्राचीन है। इसके साथ ही धर्मस्थल की 39 फीट की बाहुबली मूर्ति, जिनालय है, जिसमें सरस्वती, ब्रह्मदेव, ज्वालामालिनी और हलेबिड की शान्तलेश्वर वसदि और होयसलेश्वर वसदि भी कूष्मांडिनी देवियों के मंदिर हैं। तिरुप्पपुगलूर का शैवमंदिर मूलतः पुरातत्त्व की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी हैं। यहाँ सुरक्षित कन्नड और जैनमंदिर था। तिरुनाकेश्वर के भी शैवमंदिर जैनमंदिरों के परिवर्तित संस्कृत के शिलालेख इतिहास की दृष्टि से आकलनीय हैं। रूप हैं। मन्नारगुडि और दीपंगुडि का ज्वालामालिनी मंदिर भी श्रमणबेलगोल कर्नाटक का प्रमुखतम स्थल है, जहां दर्शनीय है। रामनाथपुर जिले के कोविलंकुल में किडार, पुरातत्त्व का हर भाग लहराता रहा है। इसलिए हम यहाँ इसे कुछ पेरिथपट्टन्नं, मंजियूर, सेलवनूर, तिरुनेलवेली जिले के एरुवाडि, विस्तार के साथ प्रस्तुत करना चाहेंगे। अरुगमंगलं, कुलुगुमले, कायल, बलियूर, कोयंपुत्तूर जिले के कर्नाटक धर्मपुरी, विजयमंगल, तिरुमूर्तिमलै, कडुलर (ओटी), कुंभकोण आदि स्थानों पर जैनमूर्तियाँ और मंदिर बिखरे पडे हए हैं। प्राकृतिक सौन्दर्य से हरा-भरा स्थल, लंबे-चौड़े मैदानों तमिलनाडु वस्तुत: कर्नाटक के बाद ऐसा दक्षिणवर्ती जैन से घिरी पहाड़ियाँ, श्वेत सरोवर (बेलगोला) को गोद में समेटे समन्तभद्र, अकलंक जैसे दार्शनिक हुए और संलप्पदिकारं, दबाए रोड मानो गोमटेश मूर्ति की ओर निष्पलक निहार रहे हैं। नीलकेशि तिरुक्करल आदि जैसे ग्रंथ लिखे गए। बेंगलौर से 145 कि.मी. और मैसूर से 110 कि.मी. पर बसे ____ मंगलूर जिले का कारकल एक प्रसिद्ध जैन केन्द्र रहा है। इस छोटे परंतु रमणीय कस्बे में प्राचीन जैन संस्कृति की गहरी यहाँ के सान्तर राजा जैनधर्म के अनुयायी रहे हैं। यह शिलालेखों छाप दिखाई देती है। लगता है, लगभग ई.पू. तीसरी सदी के से प्रमाणित है। कहा जाता है पद्मावती देवी ने उनकी सहायता श्रुतकेवली भद्रबाहु और उनके शिष्य चंद्रगुप्त ससंघ आज भी की थी, भैरवी का रूप धारण कर। तबसे इन राजाओं के नाम के कहीं श्रवणबेलगोला के आसपास रहकर नेमिचंद सिद्धांत चक्रवर्ती साथ भैरव जुड़ गया। यहाँ की प्रसिद्ध मूर्ति भगवान गोमटेश के शिष्य चामुण्डराय द्वारा निर्मित विश्वविश्रुत भगवान् बाहुबली बाहुबली की है, जो 42 फीट ऊँची है। यह मूर्ति एक छोटी श्रवणबेलगोला परिकर में चार स्मारक हैं-(१) छोटा पहाड़ मूर्ति बड़ी कलात्मक और मनोहर है। उसके सामने ब्रह्मदेव (चिक्क बेट्ट)-चंद्रगिरि, (2) बड़ा पहाड़ (दोडवेट)-विन्ध्यगिरि, मानस्तम्भ है, जिसके ऊपर लिखा है इसे जिनदत्त के वंशज (3) नगर और (4) जिननाथपुर। भैरवपुत्र वीर पाण्डव नृपति ने बनवाया। इसी स्थान पर और भी Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरिस्मारक ग्रन्थ - इतिहास(१) छोटा पहाड़ (चंद्रगिरि) में 90 चित्र फलक हैं (१२वीं सदी) जिनका संबंध चंद्रगुप्त और भद्रबाहु के जीवन से है। कत्तले वसदि (1.118 ई. में अपर नाम इंद्रगिरि, कटवप्र, कालवप्प, तीर्थगिरि, ऋषगिरि निर्मित) में आदिनाथ की मूर्ति है। अब इस मंदिर में अंधेरा आदि। अनेक साधुओं का समाधिस्थल। ७वीं सदी तक घने जंगल से घिरी पहाड़ी पर ९-१०वीं सदी से उसका रूप परिवर्तित। (कत्तले) नहीं है, प्रकाश की व्यवस्था है। प्रदक्षिणा पथ इसकी विशेषता है। गंगराज सेनापति ने इसे बनवाया था। मज्जिगण आचार्य भद्रबाहु और उनके शिष्य प्रभाचंद्र (सम्राट चंद्रगुप्त वसदि में १४वें तीर्थंकर अनन्तनाथ की प्रतिमा प्रतिष्ठित है। मौर्य) की तपोभूमि और समाधिस्थल। 271 शिलालेख प्राप्त। इसकी पश्चिम दिशा में शासन वसदि है। जिसका निर्माण 1118 उनमें प्राचीनतम वह शिलालेख (छठी सदी) जिसमें इन दोनों ई. में होय्यसल नरेश विष्णुवर्धन के सेनापति गंगराज ने कराया। आचार्यों का उल्लेख। यहीं वह भी स्थल जहां से चामुण्डराय ने शासन वसदि और चामुण्डराय वसदि के बीच एक-दो स्मारक विन्ध्यगिरि पर बाण छोड़कर गोमटेश मूर्ति के शीर्ष भाग को हैं, जिन्हें गंगराज मंडप कहते हैं। उसके पश्चिम में चंद्रप्रभ वसदि प्रकट किया था। है, जिसका निर्माण गंगनरेश शिवमार द्वितीय ने ८वीं शती में नगर की बायीं और बड़ी-बड़ी चट्टानों से भरा 240 सीढ़ियां किया। इसमें अम्बिका और ज्वालामालिनी की आकर्षक मर्तियाँ और 935 फुट की समानान्तर भूमि के बाद मुत्तालय स्मारकों हैं। इस वसदि के बायीं ओर सपार्श्वनाथ वसदि है, जिसमें का प्रारंभ। बीच में लगभग १६वीं सदी का तोरण। सुत्तालय के सप्तफणयुक्त सुपार्श्वनाथ की मूर्ति है। पूर्व प्राकृतिक भद्रबाहु गुहा जिसमें भद्रबाहु और चंद्रगुप्त के पद चंद्रगिरि पर्वत पर सर्वाधिक संदर द्रविड शैली में निर्मित चिह्न ११वीं सदी में निर्मित। बाद में वह मंदिर में परिवर्तित। चामुण्डराय वसदि है, जिसमें तीर्थंकर नेमिनाथ की 5 फीट की सुत्तालय के पास एक तालाब। सुत्तालय में 13 मंदिर, 7 मंडप, मनोज्ञ प्रतिमा है। गर्भगृह के दोनों और अलंकृत यक्ष सर्वाहण 2 स्तम्भ और एक विराट मूर्ति। दक्षिण प्रवेश द्वार पर गंगकला और दक्षिणी कूष्मण्डिनी निर्मित है। चामुण्डराय ने इसका निर्माण का मनोहारी नमूना कूगे ब्रह्मदेव मानस्तम्भ। दायीं और शांतिनाथ कराया जिसका अनुकरण होय्यसल नरेशों ने हेलिबिड आदि वसदि में ११वीं सदी में निर्मित शांतिनाथ की 13 फीट ऊंची मंदिरों के निर्माण में किया। इसे चामुण्डराय के पुत्र जिनदेव ने मूर्ति। इसके उत्तर में लोहे के घेरे में खड़ी बाहुबली के भाई भरत ९९५ई. में बनवाया। यहां के एक अन्य लेख से पता चलता है की 9 फीट की विशालकाय मूर्ति। कलाकार अरिष्टनेमि का कि बेलगोला के चेलोक्यरंजन नामक जैन मंदिर का निर्माण कदाचित् प्रारंभिक प्रयोग। इसके पूर्व युगल महानवमि मंडप (१२वीं सदी में होयसल राजा नरसिंह प्रथम द्वारा निर्मित)। दोनों गंगराज के पुत्र एचन्ना ने ११३८ई. में कराया था। गंगाचारि इसका कलाकार था। इस तरह यह वसदि कई चरणों में बनाई गई। वसदियों के बीच छठी सदी का प्राचीनतम शिलालेख जिसमें भद्रबाहु, चंद्रगुप्त, द्वादशवर्षीय अकाल आदि का वर्णन है। इसी वसदि के समीप एडकट्टे वसदि है, जिसका निर्माण गंगराज की पत्नी लक्ष्मी ने 1118 ई. में किया। इसके दायीं और द्राविड़ शैली में निर्मित पार्श्वनाथ वसदि। उसके गर्भगृह में सबतिगंधवारण वसदि है। जिसे होयसल नरेश विष्णुवर्धन की 15 फीट ऊंची पार्श्वनाथ सप्तफण युक्त श्यामवर्ण की मनोज्ञ सर्वाधिक प्रिय जैन पत्नी शान्तला देवी ने 1123 ई. में निर्मित मूर्ति (११वीं सदी)। सामने मानस्तम्भ (1750 ई.), दायीं ओर किया। इसमें शांतिनाथ की पाँच फीट की मूर्ति और यक्ष पद्मावती की मूर्ति और आसपास यक्षमूर्ति, कूष्माण्डिनी देवी और घुड़सवार की मूर्ति। इस वसदि के उत्तर में चंद्रगुप्त वसदि किम्बपुरुष तथा यक्षी महामानसी की मूर्तियां हैं। इसके पूर्व तेरिन वसदि है, जिसे 1117 ई. में माचिकब्बे और शांतिकब्बे ने (९वीं सदी)। उसमें तीन कोठरियाँ जिसमें पार्श्वनाथ, पद्मावती बनवाया। इसमें 4 फीट ऊंची बाहुबलिस्वामी की मूर्ति है, जिसे और कूष्माण्डिनी देवी की विशाल मूर्तियाँ १२वीं सदी की होयसल कलाकारी में निर्मित। बरामदे में गंग कलाकारी में निर्मित कर्नाटक परंपरा ने तीर्थंकर के समान पूजना प्रारंभ किया। अंत धरणेन्द्र और सर्वाण्ह यक्ष की मूर्तियां। सामने सभा भवन में में शांतीश्वर वसदि है, जिसे गंगराज बोम्मण के पुत्र एचिमय्य ने क्षेत्रपाल की मूर्ति। अलंकृत द्वार के दोनों ओर जालीदार पाषाण बनवाया। सर्वाग्रह और अंबिका की भी मूर्तियां यहां है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -यतीन्द्रसूरि स्मारक ग्रन्थ - इतिहासपरकोटे के कोने में राष्ट्रकूट-काल (982 ई.) में निर्मित ११वीं सदी में विष्णुवर्धन के सेनापति भरतमय्य ने कराया। एक मण्डप है, जिसमें राजा इंद्र चतुर्थ का समाधिलेख है। कुछ बाद में उनसे लगा हुआ खुला मण्डप जोड़ा गया। अन्य लेखों में गंगराज के परिवार के नामोल्लेख है। ऐसे कुछ अखण्ड बागिल से कुछ आगे बढ़ने पर तीसरा तोरण और भी यहां मण्डप है, जहां समाधिलेख उत्कीर्ण है। परकोटे के आता है जो कचिन गुब्बि बागिलु कहलाता है और 21 सीढ़ियों बाहर ब्रह्मदेव मंदिर है, जिसमें १०वीं सदी के कुछ महत्त्वपूर्ण बाद एक और तोरण आता है जिसे गुल्लेकायि अज्जि बागिल नामोल्लेख हैं। कहा जाता है। यहाँ से प्राकार प्रारंभ होता है, जिसे होयसल नरेश (2) बड़ा पहाड़ (विन्ध्यगिरि) विष्णुवर्धन के सेनापति एवं अमात्य गंगराज ने 1117 ई. के लगभग बनवाया था। इस प्राकार के भीतर विभिन्न देव-देवियों विन्ध्यगिरि उल्टे कटोरे की आकृति में 650 सीढ़ियों को। की 43 मूर्तियाँ हैं। परकोटा बनने के पूर्व यहाँ गोम्मटेश्वर मूर्ति समेटे 435 फीट ऊँचा सिर उठाए लगभग 58 फीट ऊँची भ.. का निर्माण हो चुका था। इस मूर्ति के सामने खड़े होने पर बायीं बाहुबलि की मनोज्ञ मूर्ति को समाहित किए हुए है। इसका इतिहास और सिद्धर वसदि है, जिसमें सिद्ध भगवान की तीन फीट ऊँची ई. सन् 980 से प्रारंभ होता है। मूर्ति के निर्माण के साथ। बाद में मूर्ति है और उसके दोनों ओर दो कलात्मक छह फीट ऊँचे स्तम्भ है। १२वीं सदी में परकोटा, मूर्ति के समीप दो परिचारक, अष्टदिक्पाल, द्वारमण्डप, मानस्तम्भ और दो कोठरियाँ जोड़ी गईं। अनन्तर पश्चिमी ओर ओडेया मण्डप है, जिसमें पत्थर के आधार अन्य वसदियां भी। पर तीन मूर्तियाँ खड़ी है-नेमिनाथ, आदिनाथ और शांतिनाथ। इसमें कुछ महत्त्वपूर्ण लेख भी हैं। सामने गुल्लेकायि अज्जि सीढ़ियों पर चढ़ते ही बाईं और ब्रह्मदेव का मंदिर (1878 मण्डप है, जिसमें पाँच स्तम्भ, एक शिलालेख और एक वृद्धा ई.) है। बाद में कुछ ऊपर चढ़कर तोरणपथ मिलता है, जिसे की मूर्ति है। यह अज्जि कुरती और चुनरे वाली साड़ी पहने है। १४वीं सदी में बनाया गया। उस पर धरणेन्द्र और गजलक्ष्मी के इसका निर्माण १७वीं सदी में हुआ है। कहा जाता है, अज्जि की चित्र उकेरे गए हैं। यहीं बाहरी किले का प्रवेश द्वार (१८वीं सदी) ही मूल भूमिका थी बाहुबलि स्वामी के मस्तकाभिषेक करनेमिलता है। भीतर जाने पर दायीं ओर एक मंदिर है जो 24 कराने में। दन्तकथा के अनुसार यक्षि पद्मावती ने चामुण्डराय तीर्थंकरों को समर्पित है (१७वीं सदी)। वहीं ओदेगल वसदि ___ का दर्द दलन करने के लिए वृद्धा का रूप धारण किया। नगर (त्रिकूट वस्ती) है, जो सबसे ऊँचा है। 12 स्तम्भों वाला द्वारमण्डप, को भी बिलिगुल्ल (बेंगन) नाम दिया गया। वृद्धा ने इसी फल तीन गर्भगृहों में तीन विशाल मूर्तियाँ और होयसल कला की के खोल से भगवान का अभिषेक किया था। अभिव्यक्ति यहाँ है। इसमें 27 अभिलेख हैं। अज्जिमण्डप के साने वाले खुले प्रांगण में गोम्मटेश्वर की इसके पश्चिम में चागद कंभ (कलात्मक त्यागद स्तम्भ है / भव्य मूर्ति खड़ी है। बाह्य द्वारमण्डप में १७-१८वीं सदी में (१०वीं सदी) जहाँ चामुण्डराय ने संसार त्याग किया था। यह निर्मित दो द्वारपाल शोभित हैं। प्रवेश-द्वार के बायी ओर १२वीं स्तम्भ गंग कारीगरी का उत्कृष्ट नमना है। इसके दायीं ओर दो सदी के कवि बोप्पण पंडित का शिलालेख है, जो गोम्मटेश की मूर्तियाँ हैं, जो शायद चामुण्डराय और नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्ती मूर्ति की चमत्कारात्मकता का वर्णन करता है। भीतरी मण्डप में की है। यहीं पास ही दो तलैया हैं और एक खुला भवन बारह अष्टदिक्पाल हैं और खले प्रांगण में गोम्मटेश की मूर्ति अपनी स्तम्भों वाला। इसका निर्माण चेत्रण ने किया १७वीं सदी में। भव्यता को प्रकट कर रही है। 58'8" ऊँची इस मूर्ति को ई. इसी चेन्नण व सदि में एक संदर मानस्तम्भ भी है। 980 में गंगराज सेनापति चामुण्डराय ने प्रतिष्ठापित किया था। चागद कंभ से आगे चढ़ने पर अखण्ड बागिलु (द्वार) है इस विराट मर्ति को चट्टान से काटकर कुशल शिल्पी अरिष्टनेमि जो एक ही शिला को काटकर बनाया गया है। इसके ऊपर ने गोम्मटेश का रूप दिया। इसके घुघराले केश, नुकीली नासिका, गजलक्ष्मी का बहुत सुंदर चित्र है, पास ही दो कोठरियाँ हैं, जिनमें अर्धनिमीलित नेत्र, सुंदर ओंठ, व्यवस्थित ठुड्डी, 26' चौड़ा भरत बाहुबलि की मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। यह सब निर्माण १०वीं- वक्षस्थल देखते ही बनता है। इस मूर्ति के माप के बारे में andramodroinodriwariwarirandisarowarduariwariritonira[131droidnirodeoromaniramirroriramidnirmirandir Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15' 2" 16' 2" 0. - चीन्द्रमूरिमारक इतिहासविद्वानों में मतैक्य नहीं है। पर 1980 में भारतीय कला इतिहास गोमटेश की मूर्ति के वल्मीक पर विशाल चरणों के चारों संस्थान, कर्नाटक विश्वविद्यालय, धारवाड़ ने थियोडलैट उपकरण ओर कन्नड़, तमिल और मराठी में शिलालेख उत्कीर्ण हैं, जो यह के माध्यम से जो माप प्रस्तुत की है, वह अधिक विश्वसनीय घोषित करते हैं कि इस मूर्ति का प्रतिष्ठापक चामुण्डराय है। इसी है। तदनुसार उसका कुल माप 58' 8" आता है, जो इस मूर्ति के बायें चरण के पास एक गोल पत्थर का कुंण्ड है, जो प्रकार है-- कदाचित् गन्धोदक को इकट्ठा करने के निमित्त बनाया गया है। पाँव की ऊँचाई 28" यहीं १२वीं सदी में दो द्वारपालों की मूर्तियाँ गंगराज ने बनवाई साथ ही परकोटे की दीवार और जालान्ध्र का निर्माण कराया। पाँव के आदि से घुटने तक दूसरे द्वारमण्डप में यक्ष मूर्ति और मानस्तम्भ को बलदेव ने पाँव के आदि से कमर रेखा तक 31' 4' बनवाया। लगभग 500 वर्षों के बाद स्तम्भों को अलंकृत . पाँव के आदि से नाभि तक 35' 1" किया गया ओर फर्श बनाया गया। सुत्तालय में गोमटेश मूर्ति के पाँव के आदि से गर्दन रेखा तक 57'8" तीनों और चौबीसी मूर्तियाँ तथा अंबिका की मूर्ति है, जिन्हें घुटने से कमर रेखा तक समय-समय पर अनेक श्रेष्ठियों ने प्रतिष्ठापित कराया था। कमर रेखा से नाभि तक 2'9" (3) श्रवणबेलगोल नगर नाभि से गर्दन रेखा तक 20' 11" गर्दन रेखा से गर्दन तक गोमटेश मूर्ति की स्थापना के बाद इस नगर को गोम्मटपुर कहा जाने लगा लगभग १२वीं सदी में। इसके पूर्व वह 'बेल्गोल' गर्दन से सिर की चोटी तक के नाम से जाना जाता था, क्योंकि यहां धवल सरस् या तालाब बाहुओ की लम्बाई था। धीरे-धीरे श्रद्धालु भक्तों और यात्रियों में वृद्धि होने लगी। शिश्न की लम्बाई 4'." फलतः पानी की कमी को दूर करने के लिए तालाब खोदे गए। कानों से की लम्बाई 1120 और 1159 ई. के बीच भंडार वसदि बनाई गई। समीप नाक की लम्बाई ही आवास स्थल बनवाए गए और छोटे पहाड़ के अधोभाग से हाथ की लम्बाई अक्कन वसदि तक नगर फैल गया १२वीं सदी में। यहीं उत्तर (क) कलाई से बीच की अंगुली लम्बाई 8' 0" की ओर 1117 ई. में गंगराज के भतीजे हिरिएचिमप्प ने जिननाथपुर की स्थापना की और अरेगल वसदि की स्थापना की। पश्चिम (ख) कलाई से तर्जनी तक लम्बाई की ओर 1200 ई. में रेचण्ण दण्डनायक ने शान्तीश्वर वसदि (ग) कलाई अंगूठा तक 5'0" बनाई। बाद में सिद्धांत वसदि और मांगायि वसदि जैसी अन्य कुल ऊँचाई 58'8" वसदियाँ भी जुड़ती गईं और श्रवणबेलगोला नगर की सुंदरता बढ़ती चली गई। एक ही पत्थर से बनी निराधार खड़ी इतनी विशाल मूर्ति निश्चित ही दुनिया में अद्वितीय कही जासकती है। बामियान भण्डार वसदि-- श्रवणबेलगोला का यह सबसे बड़ा (अफगानिस्तान) की बुद्ध मूर्तियां 120, और 175' अवश्य है, जिनालय है। इसे होयसल राजा नरसिंह के भंडारी हुल्लमप्प ने पर वे एक शिलाखण्ड से निर्मित नहीं है। रयाम्सीज 2 की मूर्ति 1159 ई. में बनवाया था। इसके गर्भगृह में एक ही पंक्ति में (ईजिप्ट) लगभग गोमटेश की ऊँचाई के बराबर है, पर वह मूर्ति चौबीस तीर्थंकरों की मनोज्ञ मूर्तियाँ विराजमान है। प्रवेशद्वार पर न देवता की है और न ही निराधार खडी है। मेम्नान की मूर्ति इन्द्र नृत्य की कलात्मक मूर्तियाँ है। नवरंग आकर्षक है और तीस और चाप्रोन का स्फिंक्स भी भले ही लगभग दस फीट बडे हों फीट ऊँचे परकोटे में भी सुंदर आकृतियां उकेरी गई हैं। मंदिर के पर वे एक ही पाषाण खण्ड से बनी कलाकृति नहीं हैं। सामने भव्य मानस्तम्भ है जो उत्तरकाल में बनाया गया है। deg 5' 10" Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -चतान्द्रसूरि स्मारक ग्रन्या इतिहास - भंडार-वसदि में ईशान्य में जैनमठ है, जिसे मूलतः १२वीं युक्त ग्यारह फणयुक्त पद्मासन मूर्ति संस्थापित है। इसे गंगराज सदी में बनाया गया था, पर उसका 300-400 वर्ष पूर्व नवीनीकरण के भाई हिरि एचिमय्य ने बनवाया था। हुआ है। इस मठ के भीतर के भित्तिचित्र और गर्भगृह की धातु श्रवणबेलगोल के दक्षिण-पश्चिम में एक चौकोर समाधि मूर्तियाँ तथा द्वार-मण्डप की गजाकृतियाँ विशेषतः दृष्टव्य हैं। मण्डप है जो आचार्य नेमिचन्द्र के शिष्य की निषध्या है (1213 जो इनकी संरचना 17-18 वीं सदी में हुई है। ज्वालामालिनी, शारदा ई.)। यहीं एक और निषध्या है, जो चारुकीर्ति की समाधि है और कूष्माण्डिनी देवियों की भी यहाँ कलात्मक मूर्तियां हैं। (1643 ई.)। अक्कन-वसदि-- भण्डार वसदि सेहमसीधे अंत में अक्कन श्रवणबेलगोल से 6 कि.मी. दूर उत्तर में हेलेवेलगोल है, वसदि पहुँचते हैं, यहाँ होयसल शैली में निर्मित गर्भगृह और प्रवेश जिसमें होयसल शैली का एक ध्वस्त जैनमंदिर है। एक अन्य मण्डप निर्मित मिलते हैं। अलंकृत गर्भगृह में पार्श्वनाथ की सप्तफण ग्राम साहल्ली 5 कि.मी. दूर तथा कम्बदहल्ली 18 कि.मी. यक्त मर्ति है, साथ ही मंदिर की प्रभावली में चौबीस तीर्थंकरों की दर है. जहाँ गंगराज परिवार द्वारा निर्मित अनेक कलात्मक जैन - मर्तियाँ और सुखनासि में यक्ष, धरणेन्द्र, यक्षिणी और पद्मावती मंदिर दर्शनीय हैं। की मूर्तियाँ प्रतिष्ठित हैं। इसका निर्माण 1103 ई. में होयसल परिवार श्रवणबेलगोल और उसके परिकर के मंदिरों का इतिहास ने कराया। इस वसदि के घंटाकार स्तम्भ, कीर्तिमुख, शिखर आदि नवीं सदी से प्रारंभ होता है। चन्द्रगिरि पर्वत पर 1125 ई. के की अलंकृत द्राविड शैली की आकर्षक कलाकृतियाँ है। बाद का कोई मंदिर नहीं है पर विन्ध्यगिरि पर नवीं से १८वीं सदी इसके समीप ही मांगायि-वसदि है जिसे 1315 में राजनर्तकी तक की कलाकतियाँ उपलब्ध होती हैं। चन्द्रगिरि स्थित चामण्डराय मांगायि ने बनवाया था। इसमें तीर्थंकर की रमणीय प्रतिमाएँ वसदि सर्वाधिक अलंकत है। इस नगर में लगभग 530 शिलालेख विराजित हैं। पश्चिम में सिद्धान्तवसदि है, जिसमें हमारे जैन - मिलते हैं। इनमें 274 चन्द्रगिरि पर, 172 विन्ध्यगिरि पर और सिद्धान्त-ग्रन्थ धवला, जयधवला, महाधवला, भूवलय आदि शेष नगर के आसपास मिले हैं। इनमें मराठी का एक प्राचीनतम सुरक्षित रखे गए थे। इसी के पास दानशाला-वसदि है। शिलालेख भी है। ये सभी शिलालेख जैनधर्म और संस्कति से श्रवणबेलगोला नगर के बीच एक कल्याण सरोवर है. संबद्ध है। चन्द्रगिरि की पार्श्वनाथ बस्ती में प्राप्त दो शिलालेख जिसका जीर्णोद्धार चिक्कदेव राजेन्द्र महास्वामी ने लगभग 1700 विशेष उल्लेखनीय है, जो भद्रबाह और चन्द्रगप्त की दक्षिण - ई. में किया। भण्डार-वसदि के दक्षिण में एक जक्की कटे यात्रा का विवरण देते हैं। और उनकी समाधि-स्थली होने का नामक सरोवर है, जिसका निर्माण जक्कीम्मव्वे ने 1120 ई. में संकेत करते हैं। कराया था। दक्षिण में एक चेनड कुण्ड भी उल्लेखनीय है, जिसे श्रवणबेलगोल का संबंध समाधिमरण से अधिक रहा है। चेनण्ण ने 1673 में बनवाया था। यहाँ पर साधक आध्यात्मिक मरण की कामना लेकर आते हैं। (4) जिननाथपुर यह सिलसिला १२वीं सदी तक चलता रहा, पर उसके बाद वह विरल हो गया। ऐसे स्मारक यहाँ लगभग 100 मिलते हैं। चन्द्रगिरि पर्वत के पीछे ब्रह्मदेव मंदिर के पास लगभग डेढ़ किलोमीटर दूर जिननाथपुर नगर है, जिसे गंगराज सेनापति यह नगर दिगम्बर जैन-संस्कृति का जीवन्त केन्द्र रहा है। ने 1118 ई. में बसाया था। उसमें शांतिनाथ-वसदि होयसल इसमें गंगकला का उत्कृष्ट नमूना देखने को मिलता है। साथ ही कला की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। इस मंदिर के गर्भगह में शांतिनाथ भरत और बाहुबली की अनूठी प्रतिमाएँ; कलात्मक, ऐतिहासिक, की साढ़े पाँच फीट ऊँची भव्य मूर्ति तथा बाह्य दीवारों पर यक्ष पौराणिक और सामाजिक महत्त्व वाले भित्तिचित्र, यक्ष-यक्षणियों धरणेन्द्र, सरस्वती, अंबिका, मन्मथ, चक्रेश्वरी आदि की अनेक की मूर्तियां भी दृष्टव्य है। कलात्मक मूर्तियाँ अंकति हैं। इसी वसदि के समीप एक अरेगल्ल- इस नगर की जैन-संस्कृति का संरक्षण करने का वसदि है, जिसमें पार्श्वनाथ की पाँच फीट ऊँची प्रभावली - उत्तरदायित्व चारुकीर्ति भट्रारक को रहा है। सर्वप्रथम इसका Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - यतीन्द्रसूरि स्मारक इतिहासउल्लेख 1131 ई. के शिलालेखों में मिलता है। बाद में 1313 आदिनाथ और उनके पुत्र भरत बाहुबली से रहा है। राज्य के ई. तक उसका उल्लेख नहीं है। १४वीं सदी के प्रारंभिक काल में बँटवारे के समय भरत को अयोध्या और बाहुबली को पोदनपुर उसका उल्लेख मिलने लगता है। 1398 ई. में चारुकीर्ति परंपरा का राज्य दिया गया। यह पोदनपुर भारत के उत्तरी भाग में था या में आने वाला व्यक्ति श्रुतकीर्तिदेव का शिष्य था। यह परंपरा दक्षिणापथ के किसी अंचल में, यह विषय विवादग्रस्त है। बाबू 1856 ई. तक चली। बाद में कदाचित् मुनि के स्थान पर कामताप्रसाद जी ने उसे दक्षिणापथ में माना हैदराबाद के आसपास। भट्टारक का समावेश हुआ। 1858 ई. के बाद के शिलालेखों में शायद इसी धारणा से बंबई में वोरवली में पोदनपुर की स्थापना चारुकीर्ति मुनियों का उल्लेख नहीं मिलता। उसी परंपरा में वर्तमान हुई। कतिपय विद्वान उसे अफगानिस्तान में रखते हैं। भट्टारक चारुकीर्ति स्वामीजी दीक्षित हुए हैं। इस प्रकार जैनधर्म दक्षिण भारत में खूब पनपा और उसकी श्रवणबेलगोल इसी परंपरा में आज भी जैन-संस्कृति के कला-सम्पदा अनोखी रही। पुरातत्त्व में उसके जो चिह्न हमें संरक्षण का केन्द्र बना हुआ है। उसका मूल संबंध प्रथम तीर्थंकर मिलते हैं, उनका आलेखन हमने यहाँ संकेत में किया है। శిరంగంగయందురురురురురురుసారంగారరసారం రంగారరసాయరుగారుసారసాదశరువారం