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- यतीन्द्रसूरि मारक नदिध - इतिहासका इतिहास दिया हुआ है। तदनुसार जिनदत्त राजा को पद्मावती साथ। विद्यादेवी की भी मूर्ति यहाँ मिलती है। मद्रास से २५ मील की कृपा से लोहे को भी सोना बनाने की शक्ति प्राप्त हुई थी। दूर उत्तर पश्चिमवर्ती पुलाल में आदिनाथ का प्रथम शती ई.पू. इसी तरह बकोड दन्दलि के चिक्कमागुडि, उद्रि आदि स्थानों का एक भव्य जैनमंदिर है। की वसदियाँ भी पुरातत्त्व की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं।
दक्षिण आरकोट जिले में पाटलिपुर नगर है, जहाँ प्रथम चिक्कमंगलूर जिले के नरसिंह राजपुर में अनेक जैनमंदिर शती में द्राविड संघ रहा करता था। छठी शती तक वह यहाँ बना हैं, जिनमें चन्द्रप्रभ की यक्षी ज्वालामालिनी की कलात्मक प्रतिमाएँ रहा। यह तथ्य बिल्लुपुर तिरुन हैं। यहीं समीप में शृंगेरी मठ है, जो किसी समय जैनों का गढ़ सिद्ध होता है। चोलवंदिपुर में अन्दिमलै के आसपास अनेक जैन । था। यहाँ शारदा मंदिर में एक जैन स्तम्भ पड़ा हुआ है। यहीं पास स्थापत्य है। जहाँ महावीर आदि तीर्थंकरों की मूर्तियाँ मिली हैं। ही आचार्य कुन्दकुन्द की जन्मभूमि कुन्दकुन्दबेट्ट है, जहाँ कुन्दाद्रि और चट्टानों पर खुदी भी हैं। गिन्जी तालुका तो आज भी जैन पर उनके चरण बने हुए हैं। इस पर्वत पर खण्डहर, मूर्तियाँ एवं पुरातत्त्व को सहेजे हुए। यहां एक जैनमठ भी है। चित्रकुट में दो कलात्मक शिलाखण्ड बिखरे पड़े हैं।
जैन. मंदिर भी है, मल्लिनाथ और पार्श्वनाथ के। तमिलनाडु
तिरुपरुट्टिकुनरम (जिनकाञ्ची)-- जिनकाञ्ची मद्रास
से लगभग ६० कि.मी. दूर कान्ची का एक भाग है, जो तमिलनाडु में जैन धर्म ने कर्नाटक से प्रवेश किया होगा।
तिरुपरुट्टिकुनरम ग्राम से संबद्ध है। बॅगेस ने इसे दक्षिण के अर्काट श्रीलंका में महावंश के अनुसार पाण्डुकाभय (३३७-३०७ जिले के चित्र
जिले के चित्रामूर ग्राम से समीकृत किया था, जो सही नहीं है। ई.पू.) ने निर्ग्रन्थ ज्योतिय के लिए अनुराधापुर में एक मंदिर
दक्षिण में चार विद्यास्थान माने जाते थे-जिनकान्चीपुर कोल्हापुर, बनवाया था। इसका तात्पर्य है ई.प. चतर्थ शती तक जैन धर्म
पेनुकोण्डा और देहली। जिनकांचीपुर प्रारंभ से ही जैन, बौद्ध दक्षिण में पहुँच चुका था। देवचन्द्र ने राजवलिकषे में लिखा है
ह और वैष्णव संस्कृति का गढ़ रहा है। ह्यूनसांग ६४० ई. के लगभग कि भद्राबाहु ने विशाखाचार्य (चन्द्रगुप्त मौर्य २९७ ई. पू.) को
यहाँ पहुँचा था। उसने यहाँ के जैनों की बहुसंख्या का उल्लेख
न निर्देश दिया था कि वे चोल पांडदेशों में और आगे जाय। किया है और अस्सी जैन मंदिरों के अस्तित्व की सचना दी है। रत्ननंदि के भद्राबाहुचरित (१५ वीं शती) में उनके चोल देश में जाने का उल्लेख भी है।
___यहाँ प्राप्त शिलालेखों से पता चलता है कि यहाँ मुख्यतः
दिगंबर-जैनधर्म का प्रचार-प्रसार हआ है। दिगंबर जैनों के चार ___ मद्रास के समीपवर्ती तिरुनेलबेली, रामानंद, त्रिची,
संघ हैं-मूल, द्राविड, काष्ठा और यापनीय। इनमें दक्षिण में द्राविड पुदुक्कोट्टई, मदुराई और तिनबेलि जिलों में जैन-पुरातत्त्व बहुतायत .
संघ का प्रभाव अधिक रहा है। जिनकांची के शिलालेखों में गुरु में मिलता है। यहाँ के अधिकांश जैन-शिलालेख ततीय शती
यि शता और शिष्य की व्यवस्थित धर्मसत्ता मिलती है। कुन्दकुन्दाचार्य ई.पू. के हैं। यहाँ तथा आरकोट जिले में शताधिक जैनगुफाएँ
समन्तभद्र, सिंहनन्दी पूज्यपाद, अकलंक आदि आचार्यों का हैं, उत्तरी आरकोट में पंच पाण्डवमलई और तिरुमलई पहाड़ियाँ
सम्बन्ध यहाँ से रहा है। अकंलक की शास्त्रीय वादविवाद परंपरा हैं, जहाँ जैनपुरातत्त्व भरा पड़ा हुआ है। विलपक्कम में एक जैन ।
कांची से लगभग २० कि.मी. दूर तिरुप्पनकूट से संबद्ध है, जहाँ मर्ति मिली है। यहीं नागनाथेश्वर मंदिर में ८४५ ई. का एक लेख एक चित्र में ओखल है, और सामने जैनमुनि उपदेश दे रहे हैं। मिला है, जिसमें लिखा है कि यहाँ पास में वल्लिमलै और तिरुमलै जैन गुफाएँ हैं। तिरुमलै में धर्मचक्र आदि को दर्शाती
अकलंक के बाद जिनकांची का संबंध आचार्य चन्द्रकीर्ति, अच्छी पटिग हैं। वेदोल के पास विदल और विदरपल्ली है. जो अनन्तवीर्य, भावनन्दि, पुष्पसेन आदि आचार्यों से रहा है। पयसेन जैन-वसतियाँ मानी जाती हैं। पोन्नर में आदिनाथ का बड़ा मंदिर
का राजनीतिक प्रभाव बुक्का द्वितीय (१३८५-१४०६ ई.) के है। यहां ज्वालामालिनी की अच्छी मूर्ति है। इसी के पास नीलगिरि ।
सेनापति और मंत्री इरुगप्पा के ऊपर अधिक था। उसी के पहाड़ी है, जिस पर हेलाचार्य की सुंदर मूर्ति है, ज्वालामालिनी के
परिणामस्वरूप विजयनगर के राजाओं ने उन्हें संरक्षण दिया। पार
यहीं उनका भी समाधि-स्थल है, मंदिर के भीतर मनिवास में। Forcibiwbrowonitoriwarawbrowonitorionitoniromirid6d[१२५/6drabdriradabaditoriuduirirdwaranorrordition
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