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दक्षिण भारत का जैन-पुरातत्त्व
डॉ. भागचन्द्र जैन 'भास्कर'.....)
- आन्ध्रजान्ध्रप्रदेश में जैनधर्म मगध से पहुँचा। नयसेन ने धर्मामृत में पुनः कीलभद्राचार्य और उनकी परंपरा को अर्हत जिनपूजा के "जैन राजा को अंगदेश से आंध्र के भत्तिपोल में पहुँचने की लिए दिया जाता है। विजयवाड़ा में अब यह सब मात्र ऐतिहासिक कथा को तीर्थंकर वासुपूज्य तथा इक्ष्वाकु काल में माना है। उल्लेख रह गए हैं। गुण्डिवाड़ा और धर्मावरम में अवश्य कुछ हरिषेण के वृहत्कथाकोष (९३१ ई.) में कुछ और ही लिखा है। जैनमूर्तियाँ इस काल की पाई जाती हैं। जो भी हो, पर इतना निश्चित है कि वहाँ जैनधर्म महावीर से पहले
राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष जैन-धर्मावलम्बी था। उसने अस्तित्व में था।
विरुदंकर्यपोलु में एक जैनमंदिर बनवाया। यहाँ की तीर्थंकर आचार्य कुन्दकुन्द आंध्र और कर्नाटक के सीमावर्ती महावीर की मूर्ति मद्रास संग्रहालय में रखी गई है। भीम शल्कि कोण्डकुन्द नगर के ही थे, जिनका समय ल. प्रथम शती है। ने हनुमानकोंड दुर्ग में जैन मंदिर बनवाए, यहाँ के पद्माक्षि जैन जैनसंस्कृति में महावीर के बाद उन्हीं का नाम लिया जाता है। मंदिर में यक्ष-यक्षी की सुंदर प्रतिमा मिली है। वेंगि के गुणग कुन्दकुन्दाम्नाय नाम से जैनधर्म को पहचाना जा सकता है। विजयादित्य ने भी जल्लुर में कोण्डकुन्द पहाड़ी पर एक छोटी सी गुफा है जो उनकी तपस्या. रामतीर्थम में दो जैन-गुफाएँ हैं। यहीं पास में गुरुभक्त पहाड़ी पर स्थली मानी जाती है। गोदावरी जिले के आर्यवतम में एक जैन- एक जैनगफा है, जिसमें अनेक जैन तीर्थंकरों की मर्तियाँ रखी टेराकोट मिला है जिसकी पूजा की जाती है। मथुरा में भी प्रथम हुई हैं। शती का ऐसा ही टेराकोट प्राप्त हुआ है। यहा छह जैन मूतिया दनवलपद (चटपट जिला) में नित्यवर्ष इन्द्र ततीय (८१४मिली है, लगभग इसी समय की। आर्यावतम से मिलती-जुलती
१७ ई.) के काल की एक वृहदाकार जैन-वसदि मिली है, मूर्तियाँ गौतमी और ककिनद में भी पाई गई हैं।
जिसमें दो मंदिर, चार तोरण, दो चौमुख, एक तीर्थंकर पादपीठ, कुन्दकुन्दाम्नाय में ही उमास्वाति और समन्तभद्र हुए जो दो दसफटी पार्श्व प्रतिमायें और एक पद्मावती-प्रतिमा खुदाई में दक्षिण के ही थे। नन्दि, देव, सिंह, सेन आदि के नाम से बाद में प्राप्त हुई है। दुर्गराज ने कटकाभरण नामक जिनालय बनवाया गणगच्छ बने और सभी जैनाचार्य इन्हीं गणगच्छों की परिधि में और उसके साथ ही व्यय के लिए एक ग्राम दान में दिया। इस आ गए। समन्तभद्र के बाद सिंहनन्दि पेरूर (आंध्र) में ही हुए मंदिर के मुख्य आचार्य थे कोटिमदुवगणी और यापनीयसंघ के वक्रगच्छ में। पूज्यपाद, अकलंक, वासवचंद्र, बालसरस्वती, श्रीमंदिर देव। गोपनन्दि आदि प्रमुख आचार्य आंध्र से ही रहे हैं।
पश्चिम गोदावरी जिले में पेदिमिरम में एक जैन पल्लि है, ६०९ ई. में पश्चिमी चालुक्यवंशी पुलकेशी द्वितीय ने कलिंग यहाँ.जैनमूर्ति मिली है। अम्मराज द्वितीय के काल में भी कचमारू पिष्टपुर वेंगि आदि पर विजय पाते हुए आगे दक्षिण में बचा वेंगि में जैनधर्म लोकप्रिय था। अरहनन्दि के आग्रह पर अम्मराज ने का राज्य अपने छोटे भाई कुब्जविष्णुवर्धन को दिया ६२७ ई. में। कलचम्बरू गाँव का दान किया जैनमंदिर के लिए, जो आज नष्ट इस मल्लिकार्जुन पहाड़ी का संबंध श्वेताम्बर संप्रदाय से भी रहा हो गया है। ताम्रपत्र इसका मिला है। एक अन्य लेख भी मिला है। चद्दपट्ट जिले में दिगंबर आचार्य वृषभ के आवास की सूचना है, जिसमें विजयवाडा में इसी राजा द्वारा निर्मित दो जिनालयों सन्यसिगुण्डि गुफा से मिलती है। विष्णुवर्धन तृतीय (७१८- का उल्लेख है। वहीं बोधन में श्रमणबेलगोल से भी बड़ी बाहबली ७५५ ई.) का एक शिलालेख मिला है, जिसमें कहा गया है कि मूर्ति की स्थापना की गई थी पर वह भी आज नहीं मिलती। यह मुनिसिकोन्द्र जिस पर किसी और ने अधिकार कर लिया था, बोधन शायद पोदनपुर रहा होगा। बड्डेग ने विमुलवाड़ा में और
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