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भारतीय दर्शन :
चिन्तन की रूपरेखा
पं० देव कुमार जैन दर्शनाचार्य, साहित्यरत्न खजांची मोहल्ला
बीकानेर
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
दर्शन का अर्थ
दर्शन का सामान्य अर्थ है, देखना और यह अर्थ सर्वजन प्रसिद्ध है । किन्तु प्रत्येक शब्द का व्यंजनात्मक एक विशिष्ट अर्थ और भी हुआ करता है । उसमें अर्थ- गाम्भीर्य भी अधिक होता है। यह लोक में प्रामाणिक भी माना जाता है। दर्शन शब्द की भी यही स्थिति है । वह अपने अन्तस् में विशेष और गम्भीर आशय गर्भित किये हुए है - सत्य का साक्षात्कार करना । क्योंकि लोक जीवन में प्रत्येक प्रवृत्ति की सत्यता का निर्धारण देखने वाले के कथन से किया जाता है, कानों सुनी बात अप्रामाणिक भी हो सकती है । दृश्य और अदृश्य, भौतिक व आध्यात्मिक आदि सभी क्षत्रों के लिये भी यही जानना चाहिये । अतएव यह सिद्ध हुआ कि सत्य का साक्षात्कार करना दर्शन शब्द का वाच्य व वास्तविक अर्थ है । सत्य का साक्षात्कार क्या है ?
इसी सन्दर्भ में यह ज्ञातव्य है कि सत्य क्या है और उसके साक्षाकार का अभिप्राय क्या है ?
प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको सत्यवादी मानता है । अपने द्वारा प्रतिपादित अनुभूत के प्रति इतना आग्रहशील हो जाता है कि दूसरे के कथन का अपलाप करने में भी नहीं झिझकता है । इसको जन्मान्धों के हस्ति परीक्षण के उदाहरण से समझा जा सकता है । वे सभी हाथी के एक-एक अंग को समस्त हाथी मान रहे थे । समग्रता की दृष्टि से उनका कथन सत्य नहीं है । अतएव यह आशय हुआ कि सत्य वह है जो पूर्ण हो और पूर्ण होकर यथार्थ रूप से प्रतीत हो; तथा साक्षात्कार का अभिप्राय होगा कि जिसमें सन्देह, विपर्यय, मतभेद, भ्रम आदि न हों । सत्य - साक्षात्कार में भ्रान्ति क्यों ?
सत्य को जानने और समझने की वृत्ति मनुष्य मात्र में साहजिक है । साधारण - असाधारण सभी जन सत्य के उपासक हैं, सत्य का साक्षात्कार करने की साधना में तल्लीन रहते हैं । परन्तु सत्यान्वेषण, सत्य निरूपण और सत्य - प्रकाशन की पद्धति सबकी अपनी-अपनी होने से भ्रांति उत्पन्न हो जाती है । इसका पहला कारण है उनका एकपक्षीय विचार, जो सत्यांश तो हो सकता है, किन्तु संपूर्णता को स्पर्श
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नहीं करता है। जिससे वे सभी पूर्ण सत्य का भी चिन्तन के प्रति कदाग्रही बन जाते हैं। कदाग्रह से २ साक्षात्कार नहीं कर पाते हैं। आचार्य सिद्धसेन वस्तु स्वरूप में तो किसी प्रकार का परिवर्तन नहीं कर का निम्नोक्त कथन समग्र स्थिति स्पष्ट कर हुआ, किन्तु विचारकों के विचार अवश्य विकृत देता है।
होते हैं। ___"जावइया वयणपहा तावइया चेव हुन्ति कदाग्रह की उत्पत्ति का कारण नयवाया।"
विकृति का कारण कदाग्रह है। अतः यहाँ 15 -सन्म तितर्क ३/३७ -
३/३७ कदाग्रह की उत्पत्ति के कारण का भी विचार कर र अर्थात् जितने भी वस्तु स्वरूप के प्ररूपक कथन हैं, ये एक-एक सत्यांश के बोधक हैं । सत्यांशों का
वस्तु-विचार की परस्पर भिन्न मुख्य दो दृष्टियाँ ग्रहण करना उपादेय तो है, लेकिन किसी एक हैं-१. सामान्यगामिनी और २. विशेषगामिनी। विशिष्ट प्रणाली को ग्रहण करने से समग्र सत्य को सामान्यगामिनी धारा वस्तमात्र में समानता ही प्राप्त नहीं किया जाता है और अपने मान्य सत्य समानता और विशेषगामिनी असमानता असमाका भी निर्णय नहीं हो पाता है। दोनों के आंशिक नता ही देखती है। इन दोनों धाराओं का अस्तित्व व अपूर्ण निर्णय से भ्रम अवश्य उत्पन्न हो जाता परस्पराश्रित है और वस्तु का स्वभाव दोनों
धाराओं का समन्वित पिंड है। ये दोनों धारायें । भ्रम उत्पन्न होने का दूसरा कारण यह है कि स्वानुभव के अन्तिम निष्कर्ष रूप में वस्तु के शुद्ध | प्रत्येक वस्तु में अनन्त धर्मों की सत्ता है। उन स्वरूप पर पहुँचती हैं, लेकिन दोनों कथन शैली की अनन्त धर्मों की सत्ता की स्वीकृति के लिए प्रमाण भिन्नता के कारण आपस में विरोधी होकर अपने ! की जरूरत नहीं है। ये अनन्त धर्म ही वस्तु का आप तक सीमित रहती हैं और उसके आधार पर स्वरूप है। उनमें किसी प्रकार की न्यूनाधिकता परस्पर विरुद्ध अनेक विचारधारायें उत्पन्न होने से नहीं होती है। वस्तु की इस स्थिति को सभी ये विचारधारायें अलग-अलग दर्शन नाम से प्रसिद्ध विचारकों ने स्वीकार किया है
हो जाती हैं। 'यदीयं स्वयमर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् ।' सामान्यतः दर्शन कितने ? -धर्मकीति: प्रमाणवातिक २/२१
यद्यपि विश्व के मानवमात्र के चिन्तन का ये सभी धर्म स्व-पर के द्वारा विद्यमानता आधार उक्त दो धारायें होने से दर्शन के सामाअविद्यमानता का बोध कराते हैं । यथाप्रसंग मुख्य- न्यतः दो भेद हैं । किन्तु पश्चिम दृश्यमान विश्व गौण का भी उपचार करना पड़ता है। इसलिए का विचार करने वाला भौतिकवादी है। यदि उन अनन्त धर्मों को जानना कठिन नहीं है। वे किसी ने लीक से हटकर विचार किया तो हत्या
के विषय बनते हैं। ज्ञान के द्वारा जाने करने से भी नहीं चुका। यनान के प्रसिद्ध दार्शभी जाते हैं। किन्तु शब्दों द्वारा एक साथ एक निक सुकरात को इसलिए विष देकर मार दिया समय में उनका कथन नहीं किया जा सकता है। था कि उसने भौतिकवादी विचारों का विरोध सर्वज्ञ, सर्वदर्शी भी एक समय में वस्तु के एक धर्म किया था और दूसरे दार्शनिक अफलातूं (प्लेटो) को का कथन, वर्णन, प्रतिपादन करते हैं । उस स्थिति उसके ही भक्त शिष्य ने गुलाम बनाकर सरे बाजार में यथार्थता को नहीं समझने वाले अपने-अपने में बेच दिया था।
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परन्तु पूर्व और मुख्य रूप से भारत में तत्वों के पृथक् व्याख्या इसलिये नहीं की कि उसके तत्वों का अन्वेषण की प्रवृत्ति सुदूर अतीतकाल से है। इस विवेचन न्यायदर्शन में हो जाता है। प्रवृत्ति के दो रूप हैं-प्रज्ञामूलक और तर्कमूलक ।
___माधवाचार्य ने अपने सर्वदर्शनसंग्रह ग्रंथ में प्रज्ञा द्वारा तत्वों का विवेचन और तर्क द्वारा तत्वों
सोलह दर्शनों के नाम गिनाकर उनकी व्याख्या की का समीक्षण किया जाता है । इन दोनों का एक मात्र लक्ष्य है-आत्मानं-विद्धि, आत्मदर्शन, जो परोक्ष
है। उनमें वेदाश्रित दर्शन-भेदों के साथ अवैदिक न होकर अपरोक्ष-प्रत्यक्ष हो । आत्मा का अप
जैन, बौद्ध व चार्वाक दर्शनों का ग्रहण किया है। रोक्ष ज्ञान होना ही दर्शन का प्रयोजन है।
माधव सरस्वती के सर्वदर्शन कौमुदी ग्रंथानुसार ___ अतएव अब भारतीय दर्शन के मुख्य भेदों का योग, सांख्य, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा, नैयायिक संकेत करके उनके चिन्तन का विचार करते हैं। और वैशेषिक यह छह वेदाश्रित दर्शन हैं तथा अवैपूर्व में यह बताया है कि चिन्तन के प्ररूपक
दिक दर्शन के बौद्ध, चार्वाक व आर्हत यह तीन भेद जितने कथन हैं, उतने ही दर्शन हो सकते हैं । अतः । हमें यह तो स्वीकार करना पड़ेगा कि दर्शन के इसी प्रकार से अनेक विद्वानों ने अपनी-अपनी अनन्त प्रभेद हैं। फिर भी उन अनन्त भेदों में पाई दृष्टि से दर्शन-भेदों व उनके नामों का उल्लेख जाने वाली आंशिक समानताओं के आधार पर किया है। उन सबका परिचय स्वतन्त्र लेख का आगमों में पर-समय के रूप में विस्तार से ३६३ विषय है। (तीन सौ सठ) भेद गिनाये हैं । इन भेदों को भी
अतः प्रकृत में उन्हीं दर्शन-नामों का संकेत क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनय- करते हैं, जो वर्तमान में प्रसिद्ध हैं। वे नाम इस वादी इन चार में समाहित करके ३६३ भेदों में से ,
पर हैं१८०क्रियावादी के,८४ अक्रियावादी के, ६७ अज्ञान वादी के और ३२ विनयवादी के भेद बताये गये हैं।
१. जैन २. बौद्ध ३. सांख्य ४. नैयायिक ५.वैशे
षिक ६. जैमिनीय (मीमांसा)। इसी तरह वैदिक ऋषियों द्वारा भी दर्शनों की ये दर्शन दृश्य-अदृश्य. लोक-परलोक. जीव आदि सख्या व नाम निश्चित किये जाने के प्रयत्न हुए का अस्तित्व स्वीकार करने वाले होने से आस्तिकहैं। पुराणों में न्याय, सांख्य, योग, मीमांसा और वादी के रूप में प्रख्यात हैं और जीव का अस्तित्व
लोकायत यह दर्शनों के नाम देखने में आते हैं। नहीं मानने से चार्वाक नास्तिकवादी कहलाता है। ॐ ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में न्याय, वैशेषिक, इसीलिए विद्वानों ने उसे दर्शन के रूप में तो स्वी
सांख्य, योग, मीमांसा वैदिक दर्शनों के रूप में माने कार नहीं किया किन्त दृष्टि को समझने के लिये । जाने लगे और मीमांसा के कम व ज्ञान यह दो भेद उसकी दलीलों का संग्रह कर दिया। हो गए। जो क्रमशः पूर्वमीमांसा और उत्तर
भारतीय दर्शनों की चितन प्रणालियाँ तो मीमांसा के नाम से प्रसिद्ध हुए।
भारतीय दर्शन के उक्त छह भेद प्रायः सर्वमान्य वेदाश्रित यह छह भेद भी स्वयं वैदिकों ने स्वो- हैं। प्रत्येक दर्शन के समर्थ आचार्यों ने अपने-अपने कार नहीं किये । यही कारण है कि वाचस्पति मिश्र ग्रन्थों में उनकी तात्विक व चिन्तन दृष्टि का जो
ने वैशेषिक दर्शन को छोड़कर शेष पाँच दर्शन-भेदों विस्तार से वर्णन किया है, उसकी रूपरेखा का 1 की अपनी ग्रन्थों में व्याख्या की तथा वैशेषिक की यहाँ उल्लेख करते हैं ।
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जैन दर्शन
काय द्रव्य कहलाते हैं और काल द्रव्य सिर्फ एक
प्रदेशी होने से अस्ति द्रव्य है, बहुप्रदेशी न होने से | यह दर्शन विश्व की संरचना, विकास, विनाश और व्यवस्था का आधार परस्पर विरोधी गुण
- अस्तिकाय द्रव्य नहीं है। धर्मोंवाले जीव (चेतन) और अजीव (अचेतन, जड़) यही छह द्रव्य लोकव्यवस्था के नियामक हैं। इन दो तत्वों को स्वीकार करता है। इन दोनों इनके सिवाय लोक में अन्य कुछ नहीं है। तत्वों में से न चेतन तत्व निष्क्रिय है और न अचे
द्रव्य का लक्षण सत् है, सत् उसको कहते हैं । तन तत्व सक्रिय है। दोनों का आरोपित सत्ता से ।
जिसमें उत्पाद (नवीन पर्याय, अवस्था का उत्पन्न : नहीं किन्तु अपने-अपने गुणधर्म, स्वभाव से अस्तित्व होना) व्यय (पर्वपर्याय का नाश होना) और ध्रौव्यहै, इनमें अपनी-अपनी स्थिति रूप से परिवर्तन होते रहने पर भी नित्यत्व हैं। ये न तो सर्वथा
- रूपता (उत्पाद और व्यय होते रहने पर भी द्रव्य ,
का अपने मूल स्वभाव में स्थिर रहना) हो। नित्य हैं और न सर्वथा अनित्य ही । उनमें वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि अनेक गुण विद्यमान रहते हैं। द्रव्य के उक्त लक्षण का तात्पर्य यह है कि सत्
प्रतिक्षण परिवर्तनशील होकर भी नित्य है। उसकी जीव और अजीव तत्वों में से अजीव तत्व के श्रा
पूर्व व्यय और उत्तर उत्पाद की धारा अनादि १.धर्मास्तिकाय २. अधर्मास्तिकाय ३. आकाशस्ति
अनन्त है, कभी विच्छिन्न नहीं होती है। उत्पादकाय ४. पुद्गलास्तिकाय और ५. काल यह पाँच
व्यय ध्रौव्य द्रव्य का स्वभाव है, मौलिक धर्म है कि भेद हैं। जीव का कोई भेद नहीं है । इनके लक्षण
उसे प्रतिक्षण परिणमन करते रहना चाहिए और इस प्रकार हैं
मूल स्वभाव को न छोड़कर परिणत होते रहना १. धर्मास्तिकाय-यह जीव और पुद्गलों की चाहिए। मगर ये परिणमन सदृश, विसदृश एक-13 गतिक्रिया में सहायक द्रव्य हैं।
दूसरे के निमित्त से भी और स्वतः भी होते रहते २. अधर्मास्तिकाय-जीव और पुदगलों की हैं। परिवर्तन कितना भी हो जाये किन्तु द्रव्य की स्थिति में सहयोगी कारण रूप द्रव्य ।
सत्ता कभी नष्ट नहीं होती है । अनन्त प्रयत्न करने ३. आकाशस्तिकाय-सभी पदार्थों को आश्रय,
पर भी द्रव्य के एक भी अंश को नष्ट नहीं किया
जा सकता है। आधार पर देने रूप गुण वाला द्रव्य ।
प्रत्येक द्रव्य में अपनी गुणात्मक स्थिति के ४. पुद्गलास्तिकाय-जिसमें रूप, रस, गंध, कारण ध्रुवता है और पर्यायरूपता के कारण उसमें वर्ण पाये जाएँ, वह पुद्गल द्रव्य हैं।
उत्पत्ति विनाश रूप अवस्थायें हैं । इस नियम का ५. काल-समस्त द्रव्यों के वर्तना, परिणमन कोई अपवाद नहीं है । गुण त्रिकालवर्ती सहभावी आदि के सामान्य कारण को काल कहते हैं।
हैं और पर्यायें एक समयवर्ती क्रमभावी हैं। प्रत्येक |
द्रव्य अपने अनेक सहभावी गुणों का आधार है। ६. जीवास्तिकाय-जिसमें चेतना शक्ति हो।
कार्योत्पत्ति के सम्बन्ध में जैन दर्शन का मत इन्द्रिय, बल, आयु एवं श्वासोच्छ्वास रूप प्राणों से OL जो जीता है, वह जीव है।
सत्-असत् कार्यवादी है। इसका कारण यह है कि
कि प्रत्येक पदार्थ में मूलभूत द्रव्य योग्यता के होने __ इन छह द्रव्यों में से काल को छोड़कर शेष पाँच पर भी कुछ तत्पर्याय योग्यतायें भी होती हैं । प्रत्येक द्रव्य बहुप्रदेशी होकर अस्तित्व वाले होने से अस्ति- द्रव्य की अपनी क्रमिक अवस्थाओं में अमुक उत्तर २६८
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पर्याय का उत्पन्न होना केवल द्रव्य योग्यता पर स्याद्वाद से भी । स्याद्वाद में स्यात् शब्द की प्रधा- II निर्भर नहीं है। किन्तु कारणभूत पर्याय की तत्प- नता है और अनेकान्तवाद में अनेकान्त की । परन्तु र्याय योग्यता पर निर्भर है। प्रत्येक द्रव्य के प्रति दोनों का आशय समान ही है कि स्यावाद जिस समय स्वभावतः उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप से परि- वस्तु का कथन करता है, वह अनेकान्तात्मक, अनेक णामी होने के कारण सब व्यवस्थायें सदसत् धर्मात्मक है । और स्याद्वाद द्वारा जिस वस्तु का कार्यवाद के आधार से व्यवस्थित होती हैं । क्योंकि कथन किया जा रहा है, वह वस्तु अनेकान्तात्मक, विकसित कार्य अपने कारण में कार्य आकार से अनेक धर्मात्मक है, इसका बोध अनेकान्तवाद द्वारा 0 असत् होकर भी योग्यता या शक्ति रूप से सत् हैं। होता है। यदि कारण द्रव्य में यह शक्ति न हो तो उससे वह दसरे शब्दों में यह कह सकते हैं कि अनेकान्तकार्य उत्पन्न ही नहीं हो सकता है । जैन दर्शन के वादपर्वक स्यादवाद होता है। अनेकान्त वाच्य है अनुसार यह लोक-व्यवस्था व द्रव्य-व्यवस्था का और स्यादवाद उसका वाचक । स्यादवाद कथन र रूप है। कोई ईश्वर आदि इसका निर्माता या की निर्दोष प्रणाली है और अनेकान्तवाद निश्चित ७ नियामक नहीं है।
वस्तु स्वरूप का बोधक है। यह जैन दर्शन की म ये जीवादि द्रव्य अनेकान्तात्मक होने से प्रमेय- चिन्तन प्रणाली की संक्षिप्त रूप-रेखा जानना बनते हैं। इसी पृष्ठभूमि के आधार पर जैन दर्शन चाहिये। ने अपने चिन्तन, मनन व कथन को स्पष्ट करने के बौद्ध दर्शन-इसे सुगतदर्शन भी कहते हैं । १. ATHA लिए स्याद्वाद का सिद्धान्त प्रस्तुत किया है । प्रमेय- सौत्रान्तिक, २. वैभाषिक, ३. माध्यमिक ४. योगाभूत पदार्थ के एक-एक अंश में नयों की प्रवृत्ति होती चार-ये बौद्धों के चार भेद है। है तथा समग्र वस्तु का निरूपण प्रमाण द्वारा किया ।
१. सौत्रान्तिक बुद्ध के सूत्रों को अधिक महत्व ) जाता है।
देते हैं। ये बाह्य जगत् के अस्तित्व को मानते हैं स्याद्वाद का अर्थ है-विभिन्न दृष्टिकोणों का और बाद्य व अन्तः के भेद से सब पदार्थों को दो 27 तटस्थ बुद्धि व दृष्टि से समन्वय करना । स्याद्वाद विभागों में विभक्त करते हैं। बाह्य पदार्थ भौतिक
में स्यात् शब्द का अर्थ एक अपेक्षा, अपेक्षाविशेष, रूप और आन्तर चित-चैत्य रूप हैं। इनके मता* कथंचित् अर्थ का द्योतक हैं और वाद का अर्थ है नुसार पाँच स्कन्धों को छोड़कर आत्मा स्वतन्त्र
कथन करना अर्थात अपेक्षाविशेष से पदार्थ में पदार्थ नहीं है। पांचों स्कन्ध (विज्ञान, वेदना, संज्ञा, । विद्यमान अन्य अपेक्षाओं का निराकरण न करते संस्कार, रूप) ही परलोक जाते हैं । अतीत्, अना
हए भिन्न-भिन्न विचारों का एकीकरण करना। गत्, सहेतुक, विनाश, आकाश और पुद्गल (नित्य, इसीलिये स्याद्वाद को पद्धति का आग्रह नहीं होता व्यापक आत्मा) ये संज्ञामात्र, प्रतिज्ञामात्र, संवृतिहै, किन्तु सत्य प्राप्ति का आग्रह है, जहाँ भी सत्य मात्र और व्यवहार मात्र हैं। तदुत्पत्ति तदाकारता है, उसे ग्रहण करना है।
से पदार्थों का ज्ञान होता है और वह प्रत्यक्ष से न A जैनाचार्यों ने पदार्थ निरूपण के प्रसंग में स्याद्- होकर अन्यथा उपपत्ति रूप अनुमान से होता है।
वाद और अनेकान्तवाद इन दोनों शब्दों का प्रयोग अन्यापोह (अन्य व्यावृत्ति) ही शब्द का अर्थ है। एक ही अर्थ को अभिव्यक्त करने के लिये किया है। नैरात्म्य भावना से जिस समय ज्ञान संज्ञान का उसके पीछे हेतु यह है कि वस्तु की अनेकान्तात्मकता उच्छेद हो जाता है, उस समय निर्वाण होता है। अनेकान्त शब्द से भी अभिव्यक्त होती है और २. वैभाषिक अभिकर्म की टीका विभाषा तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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Cil को सबसे अधिक महत्व देते हैं । भूत, भविष्य और आत्मा के सम्बन्ध में बौद्धदर्शन की चार मान्य
वर्तमान को अस्तिरूप मानते हैं। ज्ञान-ज्ञ य दोनों तायें हैं
वास्तविक हैं । बाह्य पदार्थों का अस्तित्व स्वीकार १. पाँच स्कन्धों को छोड़कर आत्मा कोई 6 करते हैं । प्रत्येक पदार्थ, उत्पत्ति, स्थिति, जरा पृथक् पदार्थ नहीं है । और मरण इन चार क्षयों तक अवस्थित रहता है।
२. पाँच स्कन्धों के अतिरिक्त आत्मा प्रथक् इसीलिए ये सर्वास्तिवादी कहलाते हैं ।
पदार्थ है। ३. माध्यमिक शून्यवादी अथवा नैरात्मक
३. आत्मा का अस्तित्व तो है, किन्तु उसे अस्ति वादी कहलाते है। इनका कथन है कि पदार्थ का
और नास्ति दोनों नहीं कह सकते हैं। निरोध, उत्पाद, उच्छेद नहीं होता है, न गमन व आगमन होता है । अतः संपूर्ण धर्म माया के समान ४. आत्मा है या नहीं, यह कहना असंभव है। होने से निस्स्वभाव हैं। जो जिसका स्वभाव है, बौद्धदर्शन में प्रमाण और प्रमाण का फल भिन्न
वह उससे कभी अलग नहीं होता है, और अन्य की नहीं है । क्योंकि पदार्थों को जानने के सिवाय GAIB अपेक्षा नहीं रखता । दृश्यमान सभी पदार्थ अपनी- प्रमाण का कोई दूसरा फल नहीं कहा जा सकता है
अपनी हेतु-प्रत्यय सामग्री से उत्पन्न होते हैं । संपूर्ण है। इसलिए प्रमाण और उसके फल को सर्वथा पदार्थ परस्पर सापेक्ष हैं। कोई भी पदार्थ सर्वथा अभिन्न मानना चाहिए। निरपेक्ष दृष्टिगोचर नहीं होता है । जो पदार्थ भाव
। प्रत्येक पदार्थ क्षणिक है। प्रत्येक वस्तु अपने या अभाव रूप से हमें प्रतीत होते हैं, वे केवल - संवृत्ति अथवा लोक सत्य की दृष्टि से प्रतीत होते
उत्पन्न होने के दूसरे क्षण में ही नष्ट हो जाती है।
___ यदि पदार्थों का स्वभाव नष्ट होना न माना जाए हैं । परमार्थ सत्य की अपेक्षा से निर्वाण ही सत्य
तो घड़े और लाठी का संघर्ष होने पर घड़े का नाश
र है । यह परमार्थ सत्य बुद्धि के अगोचर, अनभि
__नहीं होना चाहिये । अवयवों को छोड़कर अबयवी लाप्य अनक्षर है। अभिधेय-अभिधान से रहित है,
__ कोई भिन्न वस्तु नहीं है। किन्तु भ्रम के कारण फिर भी संसार के प्राणियों को निर्वाण का मार्ग
अवयव ही अवयवी रूप प्रतीत होते हैं। बताने के लिए संवृत्ति सत्य का उपयोग करना पड़ता है।
विशेष को छोड़कर सामान्य कोई वस्तु नहीं | ४. योगाचार को विज्ञानवादी भी कहते हैं। है । क्षणिक पदार्थों का ज्ञान उनके असाधारण रूप इसके मत से भी सभी पदार्थ निस्स्वभाव है। से ही होता है । इसलिए सम्पूर्ण पदार्थ स्वलक्षण विज्ञान को छोड़कर बाह्य पदार्थ कोई वस्तु नहीं। (विशेष रूप) है। अनादि वासना के कारण पदार्थों का एकत्व, अन्यत्व यह बौद्धदर्शन के चिन्तन की सामान्य रूपरेखा उभयत्व और अनुभयत्व रूप ज्ञान होता है। के। वास्तव में तो समस्त भाव स्वप्नज्ञान, माया और
सांख्यदर्शन-शुद्ध आत्मा के तत्वज्ञान को गंधर्व नगर के समान असत् हैं। परमार्थ सत्य से
अथवा सम्यग्दर्शन का प्रतिपादन करने वाले अथवा स्वप्रकाशक विज्ञान ही सत्य है। दृश्यमान जगत्
प्रकृति पुरुष आदि पच्चीस तत्वों का वर्णन करने EV) विज्ञान का ही परिणाम है और संवृत्तिसत्य से ही
वाले शास्त्र को सांख्यदर्शन कहते हैं। दृष्टिगोचर होता है । चित्त वासना का मूल कारण है। चित्त में सम्पूर्ण धर्म कार्य रूप से उप- सांख्य वेदों व यज्ञ-यागादि को नहीं मानते हैं। निबद्ध होते हैं।
तत्वज्ञान और अहिंसा पर अधिक भार देते हैं।
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चेतनत्व आदि की परन्तु कुछ विद्वानों के
आत्मबहुत्ववाद और परिणामवाद को मानते हैं ! जाते हैं । वैशेषिक, इस नामकरण के सम्बन्ध में 7 प्रकति आदि पच्चीस तत्वों का ज्ञान होने से मुक्ति मान्यता है कि इसमें आत्मा और अनात्मा ।
हो सकती है। प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द ये तीन विशेष की ओर विशेष ध्यान दिया गया है और प्रमाण हैं।
परमाणुवाद का विशेष रूप से वर्णन किया है। ___सांख्य और योग ये दोनों प्रायः समानतंत्रीय हैं वैशेषिक द्रव्य, गण, कर्म, सामान्य, विशेष और I परन्तु कतिपय भिन्नता भी हैं। सांख्य निरीश्वर समवाय डन न्द्ध पदार्थों और प्रत्यक्ष : सांख्य और योग सेश्वर सांख्य कहलाते हैं। इसका इन दो प्रमाणों को स्वीकार करते हैं। कुछ विद्वानों का आशय यह है कि ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं है, किन्तु ने अभाव को सातवाँ पदार्थ स्वीकार किया है। ये एक पुरुष विशेष को ईश्वर माना है। यह पुरुष अभाव को तुच्छरूप नहीं मानते हैं। विशेष सदा क्लेश, कर्म, कर्मफल और वासना से
वैशेषिक सूत्रों में ईश्वर का नाम नहीं है। 100 अस्पृष्ट रहता है। सांख्य असत् की उत्पत्ति और
छ विद्वानों का मत है कि वैशेषिक दर्शन सत् कान अपेक्षा सम्पूर्ण आत्माएँ समान हैं तथा देह, इन्द्रिय,
__ अनीश्वरवादी नहीं है, किन्तु ईश्वर के विषय में
मौन रहने का कारण यह है कि वैशेषिक दर्शन का मन और शब्द में, स्पर्श आदि के विषयों में और 51 देह आदि के कारणों में विशेषता होती है। योग 3
__ मुख्य ध्येय आत्मा और अनात्मा की विशेषताओं र सम्पूर्ण सृष्टि को पुरुष के कर्म आदि द्वारा मानते काम
__ का प्ररूपण करना रहा है। हैं । दोष और प्रवृत्ति को कर्मों का कारण बताते वैशेषिक मोक्ष को निश्रेय अथवा मोक्ष नाम
से कहते हैं और शरीर से सदा के लिए सम्बन्ध सांख्यदर्शन तत्वज्ञान पर अधिक भार देता छूट जाने पर मोक्ष मानते हैं। तथा बुद्धि, सुख, हुआ तत्वों की खोज करता है और तत्वों के ज्ञान दुख, इच्छा, धर्म, अधर्म, प्रयत्न, संस्कार और द्वेष से हो मोक्ष की प्राप्ति स्वीकार करता है। योग. इन आत्मा के नो विशेष गुणों का अत्यन्त उच्छेद दर्शन यम, नियम आदि योग की अष्टांगी प्रक्रिया होना मोक्ष का लक्षण है। का विस्तृत वर्णन कर योग की सक्रियात्मक प्रक्रि- वैशेषिक पीलुपाक के सिद्धान्त को मानते हैं । याओं के द्वारा चित्तवृत्तिनिरोध होने से मोक्ष की सिद्धि मानता है।
नैयायिक दर्शन-इस दर्शन के मूलप्रवर्तक
अक्षपाद गौतम कहे जाते हैं । न्याय सूत्र इस दर्शन सामान्य से योग के दो भेद हैं-राजयोग और का मल ग्रन्थ है। अतः इसे न्याय दर्शन भी कहा हठयोग । पतंजलि ऋषि के योग को राजयोग तथा जाता है। न्याय और वैशेषिक ये दोनों दर्शन प्राणायाम आदि से परमात्मा के साक्षात्कार करने समान तंत्रीय माने जाते हैं । बहुत से विद्वानों ने को हठयोग कहते हैं । ज्ञान, कर्म और भक्ति ये इस न्यायदर्शन के सिद्धान्तों की व्याख्या करने के योग के तीन भेद हैं तथा योगतत्व उपनिषद् में लिये वैशेषिक सिद्धान्तों का उपयोग किया है । फिर मंत्रयोग, लययोग, हठयोग, राजयोग यह चार भी जो भिन्नतायें हैं, उनका यहाँ उल्लेख करते हैं । भेद किये हैं।
न्यायदर्शन के अनुसार ईश्वर जगत् का सृष्टि ___वैशेषिक दर्शन-इस दर्शन का मूल ग्रन्थ वैशे- कर्ता और संहारक है, वह व्यापक, नित्य, एक षिक सूत्र है और आद्य प्रणेता कणाद ऋषि माने और सर्वज्ञ है और इसकी बुद्धि शाश्वती रहती है।
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ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानने के सम्बन्ध में मुख्य मार्ग के अनुयायी हैं। यज्ञ आदि के द्वारा देवताओं तीन युक्तियां हैं
को प्रसन्न करके स्वर्ण प्राप्ति को ही अपना मुख्य १. कार्यकारण भाव मलक-जितने भी कार्य कार्य समझते हैं। वैदिकी हिंसा को हिंसा नहीं होते हैं वे किसी बुद्धिमानकर्ता की अपेक्षा रखते हैं,
AH मानते हैं। जैसे घट । पृथ्वी, पर्वत आदि भी कार्य हैं, इसलिये किन्तु अर्वाचीन मीमांसक पूर्वोक्त मान्यताओं
ये भी किसी कर्ता के बनाये हुए हैं। यह कर्ता के विरोधी हैं । ये वेदों के उत्तरवर्ती उपनिषदों के या ईश्वर ही है।
आधार पर से अपने सिद्धान्तों के प्ररूपक होने से ___ २. सत्तामूलक-यदि ईश्वर की सत्ता नहीं।
ही उत्तरमीमांसक वेदान्ती या ज्ञानमीमांसक कहलाते होती तो हमारे हृदय में ईश्वर के अस्तित्व की हैं। इनके भी प्रमुख दो भेद हैं-भाट्ट (कुमारिल भावना नहीं उपजती।
भट्ट) मीमांसक और प्राभाकर (प्रभाकर) मीमां
सक । वेदान्ती मात्र अद्वत ब्रह्म को मानते हैं । ३. प्रयोजनमूलक-हमें सृष्टि में एक अद्भुत
भाट्ट प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, व्यवस्था दृष्टिगोचर होती है। यह व्यवस्था और ,
__ अर्थापत्ति और अभाव इन छह प्रमाणों को और इसका सामंजस्य केवल परमाणु आदि के संयोग
प्राभाकर अभाव को प्रत्यक्ष द्वारा ग्राह्य मान कर का फल नहीं, इसलिये अनुमान होता है कि कोई
अर्धापत्ति पर्यन्त पाँच ही प्रमाण स्वीकार करते हैं। ऐसी शक्तिशाली महान शक्ति अवश्य है, जिसने इस सृष्टि की रचना की है।
पूर्वमीमांसकों का मत है कि वेद ही प्रमाण
और अपौरुषेय हैं क्योंकि कर्तव्य रूप धर्म अतीनैयायिक प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन,
न्द्रिय हैं, प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से नहीं जाना जा दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प
सकता है। धर्म का ज्ञान वेद वाक्यों की प्रेरणा वितण्डा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान
(मोदना) से ही होता है। उपनिषद भी वेद वाक्यों के इन सोलह तत्वों के ज्ञान से दुःख का नाश होने पर
समर्थक हैं । अतः वेदों को ही प्रमाण मानना चाहिए मुक्ति मानते हैं और मोक्ष के लिए अपवर्ग शब्द
" श०५ तथा वेदों का कोई कर्ता प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से । का प्रयोग करते हैं।
सिद्ध नहीं होता है। जिन शास्त्रों का कोई कर्ता ) नैयायिक दर्शन में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान देखा जाता है, उनको प्रमाण नहीं कहा जा सकता और आगम (शब्द) इन चार प्रमाणों को माना है। है। इसलिए अपौरुषेय होने के कारण वेद ही आगम के रूप में वेदों के प्रामाण्य को स्वीकार प्रमाण हैं, वेद नित्य हैं, अबाधित हैं, और धर्म के किया है। अर्थापत्ति, संभव और एतिह्य आदि का प्रतिपादक होने से ज्ञान के साधन में तथा अपौरुप्रत्यक्ष, अनुमान आदि उक्त चार प्रमाणों अन्तर्भाव षेय होने के कारण स्वतः प्रमाण हैं।
किया है । नैयायिक दर्शन पिठरपाक के सिद्धान्त वेद शब्दात्मक हैं, इसलिए जैसे वेद नित्य और C को मानता है।
अपौरुषेय हैं, वैसे ही शब्द भी नित्य व सर्वव्यापक मीमांसादर्शन-इसके आद्य प्रस्तावक जैमिनी है। शब्द को नित्य मानने का कारण यह है कि ऋषि माने जाने से इसे जैमिनीय दर्शन भी कहते एक स्थान पर प्रयुक्त गकार आदि वर्गों का उसी है । यह दर्शन उपनिषदों के पूर्ववर्ती वेद को प्रमाण रूप में सर्वत्र ज्ञान होता है तथा एक शब्द का एक मानता है । यह मान्यता प्राचीन है। इसलिये इस बार संकेत ग्रहण कर लेने पर कालान्तर में भी
मान्यता वाले पूर्वमीमांसक कहलाते हैं। ये धूम- उसी संकेत से शब्द के अर्थ का ज्ञान होता है। 5.२७२
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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__ ईश्वर को सृष्टि व संहार कर्ता न मानने के न्तिक रूप से नाश होने को मोक्ष कहते हैं। जिसका बारे में मीमांसकों का मन्तव्य है कि अपर्व ही यज्ञ समय शम. दम, ब्रह्मचर्य आदि आदि का फल देने वाला है । अतः ईश्वर को जगत् होने से देह का अभाव हो जाता है, उस समय का कर्ता नहीं माना जा सकता है। वेदों को बनाने मोक्ष की प्राप्ति होती है। मोक्ष की अवस्था के लिए भी ईश्वर की आवश्यकता नहीं है, वे तो आनन्द रूप नहीं है, क्योंकि निर्गुण आत्मा में अपौरुषेय होने से स्वतः प्रमाण है।
आनन्द नहीं रह सकता है। मीमांसा दर्शन में पहले नहीं जाने हुए पदार्थों कुमारिल के अनुसार परमात्मा की प्राप्ति के जानने को प्रमाण का लक्षण माना है, तथा की अवस्था ही मोक्ष है। कुमारिल भी मोक्ष को 22 स्मति ज्ञान के अतिरिक्त सम्पूर्ण ज्ञान स्वतः प्रमाण आनन्द रूप नहीं मानते हैं। है। क्योंकि ज्ञान की उत्पत्ति के समय ही हमें
यह मीमांसा के चिन्तन की रूपरेखा है । पदार्थों का ज्ञान (ज्ञप्ति) होता है। अतएव ज्ञान अपनी उत्पत्ति में और पदार्थों के प्रकाश करने में उपसंहार रूप में यह जानना चाहिए उपयुक्त किसी दूसरे की अपेक्षा नहीं रखता है।
समग्र कथन भारतीय दर्शनों के चिन्तन-सिन्धु का 12 मीमांसा दर्शन में आत्मा के अस्तित्व को माना
बिन्दु और इस बिन्दु का भी शतांश भाग जैसा है । || है तथा उसे शरीर, इन्द्रिय और बुद्धि से भिन्न मान
पाठकगण इस अंश को पढ़कर समग्र दर्शन साहित्य
का अध्ययन करने की ओर प्रयत्नशील हों यही कर आत्मबहत्ववाद के सिद्धान्त को स्वीकार
अपेक्षा है। क्योंकि यहाँ बहुत ही आवश्यक अंश किया गया है। कुमारिल ने आत्मा को कर्ता, भोक्ता, ज्ञान शक्ति वाला, नित्य, विभु, परिणामी
" का वर्णन नहीं भी किया जा सका है। किन्तु आर अहंप्रत्यय का विषय माना है। प्रभाकर ने सुविधानुसार विस्तार से भारतीय दर्शनों के आत्मा को कर्ता, भोक्ता और विभ स्वीकार करने चिन्तन को प्रस्तुत करने की आकांक्षा है। भी आत्मा में परिवर्तन नहीं माना है, इनके मत से इसी प्रसंग में यह भी स्पष्ट कर देना चाहते हैं आत्मा ज्ञाता है और पदार्थ ज्ञेय हैं । ज्ञाता और कि प्रत्येक दर्शन के चिन्तन की धारा अपनी-अपनी ज्ञय एक नहीं हो सकते हैं, इसलिए आत्मा कभी है । परन्तु देखा जाय तो सत्य एक है, परन्तु प्रत्येक स्वसंवेदन का विषय नहीं हो सकती है। यदि दार्शनिक भिन्न-भिन्न देश और काल की परिस्थिति स्वसंवेदक माना जाये तो गाढ़ निद्रा में भी ज्ञान के अनुसार सत्य के अंश मात्र को ग्रहण करता है। मानना चाहिए।
परन्तु ध्येय सबका एक है-पूर्ण सत्य की उपलब्धि । मीमांसा दर्शन में मोक्ष पुरुषार्थ की मान्यता
अध्यात्मयोगी आनन्दधन ने इसी मन्तव्य को सरल
सुगम शब्दों में स्पष्ट कर दिया है-- 32| अर्वाचीन आचार्यों की देन है। प्राचीन आचार्यों ने धर्म, अर्थ, काम इन तीन पुरुषार्थों को मानकर
षट दरसन जिन अंग भणीजे, धर्म को ही मुख्य पुरुषार्थ स्वीकार किया है। वे
न्याय षडंग जो साधे रे। धर्म को सम्पूर्ण सुखों का कारण मानकर स्वर्ग की
नमि जिनवरना चरण उपासक, प्राप्ति करना ही अन्तिम ध्येय समझते थे।
षट्दर्शन आराधे रे ॥ __ प्रभाकर संसार के कारण भूतकालीन धर्म और अधर्म के नाश होने पर हमारे शरीर के आत्य
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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________________ जीने के दो तरीके हैं-अंगार और राख / तुम्हें जीना है तो अन्तरंग की उष्मा को बनाये रखो, अंगार की तरह तेजस्वी और प्रकाशमान बनकर जीओ ! राख की तरह निस्तेज, रूक्ष और मलिन बनकर नहीं ! ___ जीवन एक दर्पण है, दर्पण के सामने जैसा बिम्ब आता है, उसका प्रतिबिम्ब दर्पण में अवश्य पड़ता है, जब आप दूसरों के दोषों का दर्शन करेंगे, चिन्तन और स्मरण करेंगे तो उनका प्रतिबिम्ब आपके मनोरूप दर्पण पर अवश्य चित्रित होता रहेगा। प्रकारान्तर से वे ही दोष चुपचाप आपके जीवन में अंकुरित हो जायेंगे। इसीलिए भगवान महावीर का यह अमरसूत्र हमें सर्वदा स्मरण रखना चाहिए-“संपिक्खए अप्पगमप्पएण" सदा अपने से अपना निरीक्षण करते रहना चाहिए / दृष्टि को मूदकर अन्तर्दृष्टि से देखना चाहिए / आत्मा का अनन्त सौन्दर्य दिखलाई पड़ेगा। जीवन के चार स्तर हैंजो विकार व वासनाओं का दास है-वह पशु है / जो विकारों पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है-वह मनुष्य है। जिसने विकारों पर यत्किंचित् विजय प्राप्त करली-वह देव है / जो सम्पूर्ण विकारों पर विजय प्राप्त कर चुका-वह देवाधिदेव है। -उपाचार्य श्री देवेन्द्र मुनि तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन 6 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ Code For private & Personal use only