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परन्तु पूर्व और मुख्य रूप से भारत में तत्वों के पृथक् व्याख्या इसलिये नहीं की कि उसके तत्वों का अन्वेषण की प्रवृत्ति सुदूर अतीतकाल से है। इस विवेचन न्यायदर्शन में हो जाता है। प्रवृत्ति के दो रूप हैं-प्रज्ञामूलक और तर्कमूलक ।
___माधवाचार्य ने अपने सर्वदर्शनसंग्रह ग्रंथ में प्रज्ञा द्वारा तत्वों का विवेचन और तर्क द्वारा तत्वों
सोलह दर्शनों के नाम गिनाकर उनकी व्याख्या की का समीक्षण किया जाता है । इन दोनों का एक मात्र लक्ष्य है-आत्मानं-विद्धि, आत्मदर्शन, जो परोक्ष
है। उनमें वेदाश्रित दर्शन-भेदों के साथ अवैदिक न होकर अपरोक्ष-प्रत्यक्ष हो । आत्मा का अप
जैन, बौद्ध व चार्वाक दर्शनों का ग्रहण किया है। रोक्ष ज्ञान होना ही दर्शन का प्रयोजन है।
माधव सरस्वती के सर्वदर्शन कौमुदी ग्रंथानुसार ___ अतएव अब भारतीय दर्शन के मुख्य भेदों का योग, सांख्य, पूर्वमीमांसा, उत्तरमीमांसा, नैयायिक संकेत करके उनके चिन्तन का विचार करते हैं। और वैशेषिक यह छह वेदाश्रित दर्शन हैं तथा अवैपूर्व में यह बताया है कि चिन्तन के प्ररूपक
दिक दर्शन के बौद्ध, चार्वाक व आर्हत यह तीन भेद जितने कथन हैं, उतने ही दर्शन हो सकते हैं । अतः । हमें यह तो स्वीकार करना पड़ेगा कि दर्शन के इसी प्रकार से अनेक विद्वानों ने अपनी-अपनी अनन्त प्रभेद हैं। फिर भी उन अनन्त भेदों में पाई दृष्टि से दर्शन-भेदों व उनके नामों का उल्लेख जाने वाली आंशिक समानताओं के आधार पर किया है। उन सबका परिचय स्वतन्त्र लेख का आगमों में पर-समय के रूप में विस्तार से ३६३ विषय है। (तीन सौ सठ) भेद गिनाये हैं । इन भेदों को भी
अतः प्रकृत में उन्हीं दर्शन-नामों का संकेत क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनय- करते हैं, जो वर्तमान में प्रसिद्ध हैं। वे नाम इस वादी इन चार में समाहित करके ३६३ भेदों में से ,
पर हैं१८०क्रियावादी के,८४ अक्रियावादी के, ६७ अज्ञान वादी के और ३२ विनयवादी के भेद बताये गये हैं।
१. जैन २. बौद्ध ३. सांख्य ४. नैयायिक ५.वैशे
षिक ६. जैमिनीय (मीमांसा)। इसी तरह वैदिक ऋषियों द्वारा भी दर्शनों की ये दर्शन दृश्य-अदृश्य. लोक-परलोक. जीव आदि सख्या व नाम निश्चित किये जाने के प्रयत्न हुए का अस्तित्व स्वीकार करने वाले होने से आस्तिकहैं। पुराणों में न्याय, सांख्य, योग, मीमांसा और वादी के रूप में प्रख्यात हैं और जीव का अस्तित्व
लोकायत यह दर्शनों के नाम देखने में आते हैं। नहीं मानने से चार्वाक नास्तिकवादी कहलाता है। ॐ ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में न्याय, वैशेषिक, इसीलिए विद्वानों ने उसे दर्शन के रूप में तो स्वी
सांख्य, योग, मीमांसा वैदिक दर्शनों के रूप में माने कार नहीं किया किन्त दृष्टि को समझने के लिये । जाने लगे और मीमांसा के कम व ज्ञान यह दो भेद उसकी दलीलों का संग्रह कर दिया। हो गए। जो क्रमशः पूर्वमीमांसा और उत्तर
भारतीय दर्शनों की चितन प्रणालियाँ तो मीमांसा के नाम से प्रसिद्ध हुए।
भारतीय दर्शन के उक्त छह भेद प्रायः सर्वमान्य वेदाश्रित यह छह भेद भी स्वयं वैदिकों ने स्वो- हैं। प्रत्येक दर्शन के समर्थ आचार्यों ने अपने-अपने कार नहीं किये । यही कारण है कि वाचस्पति मिश्र ग्रन्थों में उनकी तात्विक व चिन्तन दृष्टि का जो
ने वैशेषिक दर्शन को छोड़कर शेष पाँच दर्शन-भेदों विस्तार से वर्णन किया है, उसकी रूपरेखा का 1 की अपनी ग्रन्थों में व्याख्या की तथा वैशेषिक की यहाँ उल्लेख करते हैं ।
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। तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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