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जैन दर्शन
काय द्रव्य कहलाते हैं और काल द्रव्य सिर्फ एक
प्रदेशी होने से अस्ति द्रव्य है, बहुप्रदेशी न होने से | यह दर्शन विश्व की संरचना, विकास, विनाश और व्यवस्था का आधार परस्पर विरोधी गुण
- अस्तिकाय द्रव्य नहीं है। धर्मोंवाले जीव (चेतन) और अजीव (अचेतन, जड़) यही छह द्रव्य लोकव्यवस्था के नियामक हैं। इन दो तत्वों को स्वीकार करता है। इन दोनों इनके सिवाय लोक में अन्य कुछ नहीं है। तत्वों में से न चेतन तत्व निष्क्रिय है और न अचे
द्रव्य का लक्षण सत् है, सत् उसको कहते हैं । तन तत्व सक्रिय है। दोनों का आरोपित सत्ता से ।
जिसमें उत्पाद (नवीन पर्याय, अवस्था का उत्पन्न : नहीं किन्तु अपने-अपने गुणधर्म, स्वभाव से अस्तित्व होना) व्यय (पर्वपर्याय का नाश होना) और ध्रौव्यहै, इनमें अपनी-अपनी स्थिति रूप से परिवर्तन होते रहने पर भी नित्यत्व हैं। ये न तो सर्वथा
- रूपता (उत्पाद और व्यय होते रहने पर भी द्रव्य ,
का अपने मूल स्वभाव में स्थिर रहना) हो। नित्य हैं और न सर्वथा अनित्य ही । उनमें वस्तुत्व, प्रमेयत्व आदि अनेक गुण विद्यमान रहते हैं। द्रव्य के उक्त लक्षण का तात्पर्य यह है कि सत्
प्रतिक्षण परिवर्तनशील होकर भी नित्य है। उसकी जीव और अजीव तत्वों में से अजीव तत्व के श्रा
पूर्व व्यय और उत्तर उत्पाद की धारा अनादि १.धर्मास्तिकाय २. अधर्मास्तिकाय ३. आकाशस्ति
अनन्त है, कभी विच्छिन्न नहीं होती है। उत्पादकाय ४. पुद्गलास्तिकाय और ५. काल यह पाँच
व्यय ध्रौव्य द्रव्य का स्वभाव है, मौलिक धर्म है कि भेद हैं। जीव का कोई भेद नहीं है । इनके लक्षण
उसे प्रतिक्षण परिणमन करते रहना चाहिए और इस प्रकार हैं
मूल स्वभाव को न छोड़कर परिणत होते रहना १. धर्मास्तिकाय-यह जीव और पुद्गलों की चाहिए। मगर ये परिणमन सदृश, विसदृश एक-13 गतिक्रिया में सहायक द्रव्य हैं।
दूसरे के निमित्त से भी और स्वतः भी होते रहते २. अधर्मास्तिकाय-जीव और पुदगलों की हैं। परिवर्तन कितना भी हो जाये किन्तु द्रव्य की स्थिति में सहयोगी कारण रूप द्रव्य ।
सत्ता कभी नष्ट नहीं होती है । अनन्त प्रयत्न करने ३. आकाशस्तिकाय-सभी पदार्थों को आश्रय,
पर भी द्रव्य के एक भी अंश को नष्ट नहीं किया
जा सकता है। आधार पर देने रूप गुण वाला द्रव्य ।
प्रत्येक द्रव्य में अपनी गुणात्मक स्थिति के ४. पुद्गलास्तिकाय-जिसमें रूप, रस, गंध, कारण ध्रुवता है और पर्यायरूपता के कारण उसमें वर्ण पाये जाएँ, वह पुद्गल द्रव्य हैं।
उत्पत्ति विनाश रूप अवस्थायें हैं । इस नियम का ५. काल-समस्त द्रव्यों के वर्तना, परिणमन कोई अपवाद नहीं है । गुण त्रिकालवर्ती सहभावी आदि के सामान्य कारण को काल कहते हैं।
हैं और पर्यायें एक समयवर्ती क्रमभावी हैं। प्रत्येक |
द्रव्य अपने अनेक सहभावी गुणों का आधार है। ६. जीवास्तिकाय-जिसमें चेतना शक्ति हो।
कार्योत्पत्ति के सम्बन्ध में जैन दर्शन का मत इन्द्रिय, बल, आयु एवं श्वासोच्छ्वास रूप प्राणों से OL जो जीता है, वह जीव है।
सत्-असत् कार्यवादी है। इसका कारण यह है कि
कि प्रत्येक पदार्थ में मूलभूत द्रव्य योग्यता के होने __ इन छह द्रव्यों में से काल को छोड़कर शेष पाँच पर भी कुछ तत्पर्याय योग्यतायें भी होती हैं । प्रत्येक द्रव्य बहुप्रदेशी होकर अस्तित्व वाले होने से अस्ति- द्रव्य की अपनी क्रमिक अवस्थाओं में अमुक उत्तर २६८
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन कि साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ x Jain Education International
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