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________________ चेतनत्व आदि की परन्तु कुछ विद्वानों के आत्मबहुत्ववाद और परिणामवाद को मानते हैं ! जाते हैं । वैशेषिक, इस नामकरण के सम्बन्ध में 7 प्रकति आदि पच्चीस तत्वों का ज्ञान होने से मुक्ति मान्यता है कि इसमें आत्मा और अनात्मा । हो सकती है। प्रत्यक्ष, अनुमान और शब्द ये तीन विशेष की ओर विशेष ध्यान दिया गया है और प्रमाण हैं। परमाणुवाद का विशेष रूप से वर्णन किया है। ___सांख्य और योग ये दोनों प्रायः समानतंत्रीय हैं वैशेषिक द्रव्य, गण, कर्म, सामान्य, विशेष और I परन्तु कतिपय भिन्नता भी हैं। सांख्य निरीश्वर समवाय डन न्द्ध पदार्थों और प्रत्यक्ष : सांख्य और योग सेश्वर सांख्य कहलाते हैं। इसका इन दो प्रमाणों को स्वीकार करते हैं। कुछ विद्वानों का आशय यह है कि ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं है, किन्तु ने अभाव को सातवाँ पदार्थ स्वीकार किया है। ये एक पुरुष विशेष को ईश्वर माना है। यह पुरुष अभाव को तुच्छरूप नहीं मानते हैं। विशेष सदा क्लेश, कर्म, कर्मफल और वासना से वैशेषिक सूत्रों में ईश्वर का नाम नहीं है। 100 अस्पृष्ट रहता है। सांख्य असत् की उत्पत्ति और छ विद्वानों का मत है कि वैशेषिक दर्शन सत् कान अपेक्षा सम्पूर्ण आत्माएँ समान हैं तथा देह, इन्द्रिय, __ अनीश्वरवादी नहीं है, किन्तु ईश्वर के विषय में मौन रहने का कारण यह है कि वैशेषिक दर्शन का मन और शब्द में, स्पर्श आदि के विषयों में और 51 देह आदि के कारणों में विशेषता होती है। योग 3 __ मुख्य ध्येय आत्मा और अनात्मा की विशेषताओं र सम्पूर्ण सृष्टि को पुरुष के कर्म आदि द्वारा मानते काम __ का प्ररूपण करना रहा है। हैं । दोष और प्रवृत्ति को कर्मों का कारण बताते वैशेषिक मोक्ष को निश्रेय अथवा मोक्ष नाम से कहते हैं और शरीर से सदा के लिए सम्बन्ध सांख्यदर्शन तत्वज्ञान पर अधिक भार देता छूट जाने पर मोक्ष मानते हैं। तथा बुद्धि, सुख, हुआ तत्वों की खोज करता है और तत्वों के ज्ञान दुख, इच्छा, धर्म, अधर्म, प्रयत्न, संस्कार और द्वेष से हो मोक्ष की प्राप्ति स्वीकार करता है। योग. इन आत्मा के नो विशेष गुणों का अत्यन्त उच्छेद दर्शन यम, नियम आदि योग की अष्टांगी प्रक्रिया होना मोक्ष का लक्षण है। का विस्तृत वर्णन कर योग की सक्रियात्मक प्रक्रि- वैशेषिक पीलुपाक के सिद्धान्त को मानते हैं । याओं के द्वारा चित्तवृत्तिनिरोध होने से मोक्ष की सिद्धि मानता है। नैयायिक दर्शन-इस दर्शन के मूलप्रवर्तक अक्षपाद गौतम कहे जाते हैं । न्याय सूत्र इस दर्शन सामान्य से योग के दो भेद हैं-राजयोग और का मल ग्रन्थ है। अतः इसे न्याय दर्शन भी कहा हठयोग । पतंजलि ऋषि के योग को राजयोग तथा जाता है। न्याय और वैशेषिक ये दोनों दर्शन प्राणायाम आदि से परमात्मा के साक्षात्कार करने समान तंत्रीय माने जाते हैं । बहुत से विद्वानों ने को हठयोग कहते हैं । ज्ञान, कर्म और भक्ति ये इस न्यायदर्शन के सिद्धान्तों की व्याख्या करने के योग के तीन भेद हैं तथा योगतत्व उपनिषद् में लिये वैशेषिक सिद्धान्तों का उपयोग किया है । फिर मंत्रयोग, लययोग, हठयोग, राजयोग यह चार भी जो भिन्नतायें हैं, उनका यहाँ उल्लेख करते हैं । भेद किये हैं। न्यायदर्शन के अनुसार ईश्वर जगत् का सृष्टि ___वैशेषिक दर्शन-इस दर्शन का मूल ग्रन्थ वैशे- कर्ता और संहारक है, वह व्यापक, नित्य, एक षिक सूत्र है और आद्य प्रणेता कणाद ऋषि माने और सर्वज्ञ है और इसकी बुद्धि शाश्वती रहती है। है तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन OR 0 साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ 500 Jain Education International For Private Personalillse. Only www.jamemorary
SR No.211549
Book TitleBharatiya Darshan Chintan ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherZ_Kusumvati_Sadhvi_Abhinandan_Granth_012032.pdf
Publication Year1990
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Philosophy
File Size2 MB
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