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भारतीय दर्शन :
चिन्तन की रूपरेखा
पं० देव कुमार जैन दर्शनाचार्य, साहित्यरत्न खजांची मोहल्ला
बीकानेर
तृतीय खण्ड : धर्म तथा दर्शन
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दर्शन का अर्थ
दर्शन का सामान्य अर्थ है, देखना और यह अर्थ सर्वजन प्रसिद्ध है । किन्तु प्रत्येक शब्द का व्यंजनात्मक एक विशिष्ट अर्थ और भी हुआ करता है । उसमें अर्थ- गाम्भीर्य भी अधिक होता है। यह लोक में प्रामाणिक भी माना जाता है। दर्शन शब्द की भी यही स्थिति है । वह अपने अन्तस् में विशेष और गम्भीर आशय गर्भित किये हुए है - सत्य का साक्षात्कार करना । क्योंकि लोक जीवन में प्रत्येक प्रवृत्ति की सत्यता का निर्धारण देखने वाले के कथन से किया जाता है, कानों सुनी बात अप्रामाणिक भी हो सकती है । दृश्य और अदृश्य, भौतिक व आध्यात्मिक आदि सभी क्षत्रों के लिये भी यही जानना चाहिये । अतएव यह सिद्ध हुआ कि सत्य का साक्षात्कार करना दर्शन शब्द का वाच्य व वास्तविक अर्थ है । सत्य का साक्षात्कार क्या है ?
इसी सन्दर्भ में यह ज्ञातव्य है कि सत्य क्या है और उसके साक्षाकार का अभिप्राय क्या है ?
प्रत्येक व्यक्ति अपने आपको सत्यवादी मानता है । अपने द्वारा प्रतिपादित अनुभूत के प्रति इतना आग्रहशील हो जाता है कि दूसरे के कथन का अपलाप करने में भी नहीं झिझकता है । इसको जन्मान्धों के हस्ति परीक्षण के उदाहरण से समझा जा सकता है । वे सभी हाथी के एक-एक अंग को समस्त हाथी मान रहे थे । समग्रता की दृष्टि से उनका कथन सत्य नहीं है । अतएव यह आशय हुआ कि सत्य वह है जो पूर्ण हो और पूर्ण होकर यथार्थ रूप से प्रतीत हो; तथा साक्षात्कार का अभिप्राय होगा कि जिसमें सन्देह, विपर्यय, मतभेद, भ्रम आदि न हों । सत्य - साक्षात्कार में भ्रान्ति क्यों ?
सत्य को जानने और समझने की वृत्ति मनुष्य मात्र में साहजिक है । साधारण - असाधारण सभी जन सत्य के उपासक हैं, सत्य का साक्षात्कार करने की साधना में तल्लीन रहते हैं । परन्तु सत्यान्वेषण, सत्य निरूपण और सत्य - प्रकाशन की पद्धति सबकी अपनी-अपनी होने से भ्रांति उत्पन्न हो जाती है । इसका पहला कारण है उनका एकपक्षीय विचार, जो सत्यांश तो हो सकता है, किन्तु संपूर्णता को स्पर्श
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साध्वीरत्न कुसुमवती अभिनन्दन ग्रन्थ
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