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श्री पार्श्वनाग विरचित 'आत्मानुशासन' - एक अध्ययन
जितेन्द्र बी० शाह
आत्महितोपलक्षित और नैतिक उपदेश से युक्त आत्मानुशासन एक अल्पज्ञात किन्तु महत्त्वपूर्ण कृति है। संस्कृत पद्यों में निबद्ध प्रस्तुत रचना सरल, सरस एवं मनोहर है, परन्तु प्रकाशित होते हुए भी अब दुष्प्राप्य है। निर्ग्रन्थों की मान्यतानुसार आत्मा कर्म से बद्ध है और उसके विपाक से जीव सुख-दुःख का अनुभव करता है। सुख में आसक्ति एवं दुःख में विषाद करता है। क्रोध, मान, माया तथा लोभादि कषाय से लिप्त है, जिस कारण आत्मा संसारचक्र में परिभ्रमण करता है। इस परिभ्रमण से मुक्त होने के लिए आत्मा को अनुशासित करना चाहिए। आत्मा पर अनुशासन करने के लिए उसको समभाव में स्थिर करने का उपदेश सांप्रत रचना में दिया गया है। तथा दुर्गुणों का त्याग, नैतिक सदाचार तथा संसार की असारता आदि का प्रासंगिक वर्णन भी समाविष्ट कर लिया गया है। आर्यावृत्त में ७७ पद्यों में निबद्ध आत्मानुशासन का नान्दीपद्य एवं अंतिम दो पद्य इस प्रकार हैं:
सकल त्रिभुवन तिलकं प्रथम देवं प्रणम्य सर्वज्ञम् । आत्मानुशासनमहं स्वपरहिताय प्रवक्ष्यामि ॥१॥ इति पार्श्वनाग विरचितमनुशासनमात्मनो विभावयताम् । सम्यग्भावेन नृणां न भवति दुःखं कथञ्चिदपि ॥७६॥ द्वयलचत्वारिंशत् समधिकवत्सर सहस्र सङ्ख्यायाम् ।
भाद्रपद पूर्णिमास्यां बुधोत्तरा-भाद्रपदिकायाम् ॥७७॥ . प्रथम पद्य में आत्मानुशासन की रचना की प्रतिज्ञा करते हुए स्वयं कर्ता ने ही इस लघुग्रन्थ का नाम सूचित किया है। ७६ वें पद्य में कर्ता ने अपना नाम - पार्श्वनाग प्रकट किया है। और आखरी पद्य में रचना संवत् दिया है, जिस पर आगे गौर किया जायेगा।
जैन प्रकरण साहित्य का अवलोकन करने से हमें आत्मानुशासन नामक तीन ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। यथा :
(१) गुणभद्र कृत आत्मानुशासन,' (२) पार्श्वनाग विरचित आत्मानुशासन' और (३) जिनेश्वराचार्य रचित आत्मानुशासन
प्रथम आत्मानुशासन के कर्ता गुणभद्र, पञ्चस्तूपान्वयी दिगम्बराचार्य जिनसेन के शिष्य एवं राष्ट्रकूट सम्राट अमोघवर्ष के समकालीन थे। उन्होंने ईस्वी० नवम शतक के प्राय: तृतीय चरण में आत्मानुशासन की रचना की है। यह विविध छंद युक्त २७० पद्यों में निबद्ध है एवं समास-बहुल होते हुए भी मनोहर रचना है। आत्मा को लक्ष्य बनाकर विनिर्मित किए जाने पर भी इसमें कहीं-कहीं दार्शनिक सिद्धान्तों का समावेश भी दृष्टिगोचर होता है । द्वितीय आत्मानुशासन के कर्ता पार्श्वनाग गुणभद्र के बाद हुए हैं। सम्भव हो सकता है कि प्रस्तुत कृति की रचना करने की प्रेरणा उन्हें आचार्य गुणभद्र के आत्मानुशासन से मिली हो । दोनों कृतियों का उद्देश्य एक ही है, तथापि शैली सर्वथा भिन्न है। प्रस्तुत प्रकरण एक ही छन्द में सरल एवं सुबोध भाषा में रचा गया है। नाम साम्य के अतिरिक्त और कोई समानता दिखाई नहीं देती। तृतीय आत्मानुशासन के कर्ता जिनेश्वराचार्य खरतरगच्छ की पूर्व-परम्परा में हुए, उसी अभिधान के तीन
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श्री पार्श्वनाग विरचित...
आचार्यों में से एक हो सकते हैं। यदि वे प्रथम जिनेश्वरसूरि हों तो रचना का समय ईस्वी० ११वीं शती पूर्वार्ध कहा जा सकता है । इस आत्मानुशासन की भाषा प्राकृत है और ४० पद्यों में बद्ध किया गया है । यह कृति अद्यावधि अप्रकाशित होने से इसकी पार्श्वनाग के आत्मानुशासन के साथ तुलना करना सम्भव नहीं ।
प्रस्तुत लेख में अनुलक्षित आत्मानुशासन के उपरोक्त ७६ वें पद्य में कर्त्ता ने अपना नाम पार्श्वनाग बताया है, यदि वह मुनि रहे हों तो उनके गुरु परम्परा, गण, कुल या गच्छ आदि के विषय में कोई भी निर्देश नहीं मिलता है। श्वेताम्बर परम्परा के ईस्वी० नवम- दशम शतक में हुए सैद्धान्तिक यक्षदेवसूरि के शिष्य का नाम पार्श्व है। उन्होंने वि० सं० ९६९ अर्थात् ई० सं० ९०५ में वंदित्सुसूत्र की वृत्ति रची है; परन्तु समय स्थिति देखते हुए दोनों भिन्न प्रतीत होते हैं। एक अन्य पार्श्वनाग का उल्लेख हमें जम्बू कवि के जिनशतक पर विरचित शाम्ब मुनि की पब्जिका में इस प्रकार मिलता है :
ख्यातो 'भट्टिक' देश संधिषु सदा (5) भूत पार्श्वनागाभिदः (धः) । श्री (श्रावस्तस्य सुतेच (न) मल्हन इति ख्यातिं गतः सर्वतः । तत्पुत्रेण व (च) दुग्गर्गकेण सुधिया प्रोत्साहिते नादराब्री (च्छ्री) नागेन्द्र कुलोद्भवेन मुनिना सांबेन वृत्तिः कृताः ॥८॥
शाम्ब मुनि ने यह पञ्जिका वि० सं० १०२५ अर्थात् ईस्वी० ९६९ में पूर्ण की है और वह पार्श्वनाग के पौत्र के हितार्थ रची गई है। प्रस्तुत आत्मानुशासन के कर्ता पार्श्वनाग के समय से उनका समय प्रायः तीन दशक पूर्व का है। अतः वे भी आत्मानुशासन के कर्त्ता नहीं हो सकते।
कुछ हस्तप्रतों में रचनावर्ष निर्देशक गणित-शब्द 'द्वयग्रल' के बदले 'द्व्यङ्गुल' भी मिलता है। यदि उसको स्वीकारा जाय तो रचना समय संवत् १०५२ प्राप्त होता है। लेकिन प्राचीनतम एवं ताडपत्रीय पाण्डुलिपि में तो 'इचग्रल' ही पाठ मिलता है, इसलिए रचना संवत् १०४२ (ईस्वी ९८६) को ही मानना विशेष उपयुक्त होगा ।
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कृति के आधार पर कर्त्ता के सम्प्रदाय का निर्णय करना कठिन कार्य है। मंगलाचरण को देखने पर दिगम्बराचार्य की कृति का आभास होता है परन्तु पार्श्वनाग या नावान्त नाम के कोई दिगम्बर कर्त्ता हुए हों ऐसा ज्ञात नहीं है। दूसरी ओर श्वेताम्बर परम्परा में नागान्त अभियान वाले आचार्य एवं मुनि मिल जाते है अन्तरंग साक्ष्य के आधार पर उसमें कहीं भी सम्प्रदाय निर्देशक संकेत का स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता है तथा इस कृति की एक भी प्रति दिगम्बर भण्डारों से प्राप्त नहीं होती है; दूसरी ओर श्वेताम्बर आम्नाय के अनेक संग्रहों के विपुल संख्या में उसकी प्रतियाँ मिल जाती है; अतः सम्भव है कि कर्ता श्वेताम्बर परम्परा के ही रहे हो।
अब हम कुछ ऐसे प्रमाण प्रस्तुत करेंगे जिससे उपरोक्त सम्भावना की पुष्टि हो जाती है।
(१) चार गति रूप संसार में अल्पमात्र सुख नहीं है, ऐसे भाव को प्रदर्शित करते हुए २७वें पद्य में चार गति का क्रम इस प्रकार रखा गया है :
तिर्यक्त्वे मनुष्यत्वे, नारक भावे तथा च देवत्वे |....॥२७॥
यहाँ नारक एवं देवगति का क्रम श्वेताम्बरीय तत्त्वार्थाधिगमसूत्र की परम्परा का अनुसरण करते हुए रखा गया है। जब कि दिगम्बरीय परम्परा के तत्त्वार्थसूत्र में प्रथम देव गति के बाद नारक गति का उल्लेख करता हुआ सूत्र प्राप्त होता हैं ।
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जितेन्द्र वी० शाह
Nirgrantha
(२) उत्तराध्ययनसूत्र के तृतीय अध्याय 'चाउरंगिज (प्राय: मौर्यकाल) में कहा गया है कि:
चत्तारि परमंगानि दुल्लहाणीह जंतुना।
मानुसत्तं सुती सद्धा, संजमंहि य वीरियं ॥४१॥ तथा दशम अध्ययन “दुमपत्तयं" में :
लडून वि मानुसत्तनं आरिअत्तं, पुनरवि दुल्लहं.....॥१६।। लक्षून वि आरियत्तन, अहीन पंचिंदियया हु दुल्लहा.....॥१७॥ अहीनपंचिंदियत्तं पि से लहे, उत्तम धम्म सुती हु दुल्लहा.....॥१८॥ लद्भून वि उत्तम सुती, सद्दहना पुनरवि दुल्लहा.....।।१९।। धम्म पि हु सद्दहंतया, दुल्लहया काएन फासता।
इह काम गुणेहि मुच्छिया, समयं गोतम ! मा पमादए.....॥२०॥ अर्थात् मनुष्यत्व, आर्यत्व, पंचेन्द्रियत्व, धर्मश्रुति, श्रद्धा एवं आचरण क्रमशः दुर्लभ हैं अतः एक क्षण का भी प्रमाद नहीं करना चाहिए। करीब इसी प्रकार का कथन करने वाली आर्या, आत्मानुशासन में भी प्राप्त होते हैं। यथा:
मानुषतामायुष्कं बोधिं च सुदुर्लभां सदाचारं । नीरोगतां च सुकुले जन्म पटुत्वं च करणानाम् ॥५५।। आसाद्यैवं सकलं प्रमादतो मा कृथा वृथा हन्त ।
स्वहितमनुतिष्ठ तूर्णं येन पुनर्भवसि नो दुःखी ॥५६॥ अत: यह स्पष्ट है कि कर्ता उत्तराध्ययन से परिचित थे।
(३) सूत्रकृतांग अंतर्गत वीरत्थव (प्राय: ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी) में अर्हत् वर्धमान की उत्तमता सिद्ध करने के लिए
जिस प्रकार अलग-अलग उपमा दृष्टान्त दिये गये हैं उसी प्रकार प्रस्तुत कृति में भी धर्म की उत्तमता सिद्ध करने. के लिए उपमा दृष्टान्त दिए गये हैं। यथा :
जोधेसु नाते जथ वीरसेने पुप्फेसु वा जथ अरविन्द माह । खत्तीन सेठे जथ दंतवक्के इसीन सेठे तथ वद्धमाने ॥२२॥
- वीरत्थवो यद्वदुडूनां शशभृत्, शैलानां मेरूपर्वतो यद्वत् । तद्वद्धर्माणामिह धर्मप्रवरो दयासारः ।।
- आत्मानुशासन-६१ यद्यपि दृष्टान्त एक नहीं लेकिन दोनों के बीच शैली का साम्य स्पष्ट है। इन सबके आधार पर श्वेताम्बर कर्तृत्व पुष्ट होता है।
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श्री पार्थनाग विरचित...
आत्मानुशासन का संक्षिप्त परिचय :
आत्मा पूर्वार्जित अशुभ कर्म के फल स्वरूप अनेक प्रकार के दुःख का अनुभव करता है, फिर भी असार संसार में वैराग्य भाव प्राप्त नहीं करता है, यही सबसे बड़ा आश्चर्य है, यह कह कर इस ग्रन्थ का प्रारम्भ किया गया है। संसार में जीव किसी भी प्रकार के दुख का भोग करता है, तो वह सब पूर्वकृत अशुभ कर्मों के फल स्वरूप करता है। अत: दुःख के निमित्त अन्य के प्रति द्वेष करना, दुःखी होना और दैन्यभाव का आचरण करना केवल मूर्खता है। धीर पुरुष को ऐसे समय में समताभाव का ही आश्रय लेना चाहिए, अपने अशुभ कर्म को स्वयं ही धैर्य पूर्वक भोग करके नष्ट करना चाहिए। मन में शोक करना उचित नहीं है, "जो होना होता है, वह अवश्य होता हैं"- ऐसा मानकर समभाव रखने का उपदेश प्रस्तुत ग्रन्थ में दिया गया है। ____ मनुष्य सुख, सम्पत्ति, ऐश्वर्य आदि भाग्य (पूर्वकृत कर्मानुसार) से ही प्राप्त करता है किन्तु भाग्य जब विपरीत होता है तब सब नष्ट होने लगता है। मित्र शत्रु बन जाते हैं, स्वजन पराये होते हैं, बन्धु भी छोड़कर चले जाते हैं एवं सेवक आज्ञा का उल्लंघन करने लगते हैं। समान परिश्रम करने पर भी भाग्यवश एक को लाभ मिलता है और दूसरे को हानि होती है। यह सब विधि की विचित्रता है, यह बात मानकर उसका पुन: पुन: चिन्तन करके विषम परिस्थिति में भी दुःखी नहीं होना चाहिए।
देव-देवेन्द्र भी विपत्ति से परे नहीं है, तब मनुष्य की तो बात ही क्या ? अतः विपत्ति से डरना नहीं चाहिए। अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों में समभाव रखते हुए जो कर्तव्य है, उसे अवश्य करना चाहिए, कर्तव्य से विमुख नहीं होना चाहिए । लक्ष्मी, बल, रूप एवं तारुण्य, शरीर, आयु आदि क्षणभंगुर है, अतः उसमें आसक्त होना निरर्थक है। मनुष्यभव दुर्लभ है और शुभाशुभ कर्म ही उसके शरण रूप हैं। शुभ कर्म अर्थात् पुण्य कर्म करने योग्य हैं और अशुभ कर्म यानि पाप से दूर हो कर केवल आत्महित में रत रहना चाहिए।
परस्त्री, परधन, पीडाकारक वचन, मात्सर्य, पैशुन्य, निपुणता, कुटिलता, असन्तोष, कपट और अहंकार का त्याग करके परोपकार, धर्मपरायणता, समभाव और निर्मल हृदय रखना चाहिए, जिससे मुक्ति-सुख के निकट पहुंचना सहज हो जाये। सत्य, दया, दान, लजा, जितेन्द्रिय, गुरुभक्ति, श्रुत, विनय आदि मनुष्य के आभूषण हैं।
इस प्रकार धर्म का आश्रय ग्रहण करके मनुष्य-जीवन को सार्थक करने की बात प्रस्तुत कृति में कही गई है। आत्मानुशासन के कर्ता ने कुछ पद्यों में वर्णानुप्रास का प्रयोग करके उसके गेयतत्त्व को पुष्ट किया है । यथा :
न गजैन हयैर्न रथैर्न भटैर्न धनैर्न साधनैर्बहुभिः । न च बन्धुभिषग्देवैर्मृत्योः परिरक्ष्यते प्राणी ॥३३॥ न गृहे न बहिर्न जने, न कानने नान्तिकेन वा दरे ।
न दिने च क्षणदायां, पापानां भवति रतिभावः ।।४७।। प्रस्तुत कृति में यूँ तो कोई विशेष अलंकार का प्रयोग नहीं, फिर भी लक्ष्मी, रूप, बल, आयु, तारुण्य एवं जीवन के उपलक्ष में भिन्न-भिन्न उपमाओं का प्रयोग किया गया है जो इस प्रकार है :
श्रीर्जलतरङ्गतरला, सन्ध्यारागस्वरूपमथ रूपम् । ध्वजपटचपलं च बलं, तडिल्लतोद्योतसममायुः ।।३१|
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जितेन्द्र बी० शाह
Nirgrantha
तारुण्ये नलिनीदल - संस्थितजलबिन्दगत्वरे दृष्टे । वाताहतदीपशिखातरलतरे जीवितव्ये च ।।३५।।
इस प्रकार साधारण शैली में विरचित प्रस्तुत कृति आत्मा को समभाव में स्थिर रखने के लिए एवं अध्यात्म का उपदेश देने वाली सुन्दर कृति है। दो भिन्न स्थान पर प्रकाशित इस कृति के पाठ में कहीं-कहीं अन्तर है। प्राचीनतम प्रतियों का मिलान करके इसका विशेष विश्वसनीय पाठ हम तैयार कर रहे हैं, वह यथा समय प्रकाशित होगा।
संदर्भसूची :
१. आत्मानुशासन, आचार्य गुणभद्र, जैन संस्कृति संरक्षक संघ, शोलापुर वि० सं० २०१८ (ई० स० १९६८). २. आत्मानुशासन, पार्श्वनागगणि विरचित, श्री सत्यविजय जैन ग्रन्धमाला नं० ११, अहमदाबाद १९२८. ३. अप्रकाशित। ४. मोहनलाल दलीचन्द देशाई, जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास, जैन श्वेताम्बर कान्फरन्स, मुम्बई १९३३, पृ० २८२. 4. Descriptive Catalogue of Goverment Collections of Manuscripts, Jain Literature and Philosophy,
Vol. XIX, pt. 1, Svetambar Works, cd. Hiraial Rasiklal Kapadia, Bhandarkar Oriental Research Institute, Poona 1957, p. 230. &. Catalogue of Palm Leaf Manuscripts in the Santinatha Jain Bhandara Cambay, pt. 1, Gackwad's
Oriental Series, pt. I, No. 135, Baroda 1961, p. 138. ७. नारकदेवानामुपपात:- तत्त्वार्थाधिगमसूत्र भाषानुवाद, पं० खूबचंदजी, श्रीमद् राजचंद्र आश्रम, अगास १९३२, २/३५. ८. देवनारकाणामुपपादः २/३५ तत्त्वार्थसूत्र, उमास्वामि, सं० पं० ए. शान्तिराज शास्त्री, Government Oriental Library, मैसूर १९४४.
प्रस्तुत लेख तैयार करने की प्रेरणा प्रा. मधुसूदन ढांकी से मिली और लेख को आद्यन्त देखकर उन्होंने योग्य सूचन दिए, जिसके लिये मैं उनका आभारी हूँ।
श्री पार्श्वनागविरचितम्
॥ आत्मानुशासनम् ॥ सकलत्रिभुवनतिलक, प्रथमं देवं प्रणम्य सर्वज्ञम् । आत्मानुशासनमहं, स्वपरहिताय प्रवक्ष्यामि ॥२॥ समविषमभित्तियोगे, विविधोपद्रवपुतेऽतिबीभत्से । अहिवृश्चिकगोधेरक-कृकलासगृहोलिकाकीर्णे ॥२॥ कारावेश्मनिवासो, भूशयनं जनविमईसङ्कोचः । साधिक्षेपालापाः, शीतातपवातसन्तापाः ॥३॥ मूत्रपुरीषनिरोधः, क्षुत्तृपीडाविनिद्रताभीतिः । अर्थक्षतिरन्यदपि च, चित्तवपुः क्लेशकृत्प्रचुरम् ॥४॥
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श्रीपार्थनाग विरचित...
अनुभूतं सकलमिदं, पूर्वार्जितकर्मपरिणतिवशेन । संसारे संसरता, प्रत्यक्षं जीव ! भवतेह ॥१॥ मनसापि न वैराग्य, व्रजसि मनागपि तथापि मूढात्मन् !। गुरुकर्मप्रारभारा-वेष्टित ! निर्नेष्टसचेष्ट ! ॥६॥ उद्विजसे दुःखेभ्यः, समीहसे सर्वदेव सौल्यानि। अथ च न करोति तत्त्वं, येन भवत्यभिमतं सकलम् ॥७॥ यज्जीव ! कृतं भवता, पूर्व तदुपागतं तवेदानीम् । किं कुरुषे परितापं, सह मनसः परिणतिं कृत्वा ॥८॥ यदि भोः पूर्वाचरितैरशुभैः, संदीकितं तवाशर्म । तत्किं परे प्रकुप्यसि, सम्यग्भावेन सह सर्वम् ॥९॥ मा ब्रज खेदं मागच्छ, दीनसां मा कुरु कचित्कोपम् । तत्परिणमत्यवश्यं, यदात्मनोपार्जितं पूर्वम् ॥१०॥ सुखदुःखानां कर्ता, हर्ताऽपिन कोऽपि कस्यचिजन्तोः इति चिन्तय सद्भुद्ध्या, पुराकृतं भुज्यते कर्म ॥११॥ तत्प्रार्थितमपि यत्नान्, न भवेदिह यन्न पूर्वविहितं स्यात् । मनसि न कायः शोको, यद्भाव्यं तबलाद्भवति ॥१२॥ क्रियते नैव विषादो, विपत्सु हर्षो न चैव सम्पत्सु । इत्येष सतां मार्गः, अयणीयः सर्वदा धरिः॥१३॥ पूर्वकृतसुकृतदुष्कृतदशेन, यदिह हंत सम्पदो विपदः । आयान्ति तदन्यस्मिन, कृतेन किं तोषदोषेण ॥१४॥ यदिपूर्वकर्मवशवर्तिनो, जनाः प्राप्नुवन्ति सुखदुःखे। तो निमित्तमात्रं, परो भवत्पत्र का प्रान्तिः ॥१५॥ मित्रं भवत्यमित्रं, स्वजनोऽपि परोन बन्धुरपि बन्धुः। कर्मकरोऽप्यविधेयः, पुंसां हि परामुखे दैवे ॥१६॥ न स्वामिनो न मित्रान्न, बान्धदात्पक्षपातिनो न परात् । किंबहुना कस्मादपि, न सरति कार्य विधौ विमुखे ॥१७॥ यदि गम्यते सकाशे, परस्य चाटूनि यदि विधीयन्ते। तदपि सुकृतेन विना, केनापि भवेत्परित्राणम् ॥१८॥
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जितेन्द्र बी० शाह
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आयान्ति बलवतामपि, यदि विपदो देवदानवादीनाम् । तदहो स्वल्पतरायुषि, नरजन्मनि को विषादस्ते ॥१९॥ कस्य स्यान्न स्खलितं पूर्णाः, सर्वे मनोरथाः कस्य । कस्येह सुखं नित्यं, देवेन न खण्डितः को वा ॥२०॥ स्वच्छाशयाः प्रकृत्या, परहितकरणोयता रता धर्मे। सम्पदि नहि सोत्सेका, विपदि न मुह्यन्ति सत्पुरुषाः ॥२१॥ .न सवाष्पं बहुरुदितैन, पूत्कृतैर्नव चित्तसन्तापैः । न कृतैर्दीनालापैः, पुराकृतात् कर्मणो मुक्तिम् ॥२२॥ बहुविविधापन्मध्ये, क्षणमपि यजीव्यते तदाश्चर्यम् । न चिरं क्षुधितमुखस्थं, सरसफलमचर्चितं तिष्ठेत् ॥२३॥ नूनं समेऽपि यत्ने, भाव्यं यद् यस्य तस्य तद् भवति । एकस्य विभवलाभच्छेदः प्रत्यक्षमपरस्य ॥२४॥ विकटादन्यामटनं, शैलारोहणमपांनिधेस्तरणं । क्रियते गुहाप्रवेशो, विहितादधिकं कुतस्तदपि ॥२५॥ यदयपि पुरुषाकारो, निरर्थको भवति पुण्यरहितानाम् । तत् कर्तव्यो नैवन, यथोचितं तदपि करणीयम् ॥२६॥ तिर्यक्त्वे मनुजत्वे, नारकभावे तथा च देवत्वे । न चतुर्गतिकेऽपि सुखं, संसारे तत्त्वतः किश्चित् ।।२७॥ अस्मिन्निष्टवियोगो, जन्मजरामरणपरिभवा रोगाः। त्यक्तो यतिभिरसङ्गै-रत एव ह्येष संसारः ॥२८॥ पस्य कृते त्वं मोहा-द्विदधास्यविवेकपातकं सततम् । न भविष्यति तत् शरणं, कुटुम्बकं घोरनरकेषु ॥२९॥ न विधीयतेऽनुबन्धो, येनापगमेऽपि भवति नो दुःखम् । आयाति याति लक्ष्मी-र्यतोऽहिचपलास्वभावेन ॥३०॥ श्रीर्जलतरङ्गन्तरला, सन्ध्यारागस्वरूपमय रूपम् । ध्वजपटचपलं च बलं, तडिल्लतोयोतसममायुः ॥३॥ ये चान्येऽपि पदार्था, दृश्यन्ते केपि जगति रमणीयाः । तेषामपि चारुत्वं, न विदयते क्षणविनाशित्वात् ॥३२॥ न गर्न हयैर्न रध-र्न भटै धनैर्न साधनैर्बहुभिः । न च बन्धुभिषग्देवै-र्मत्योः परिरक्ष्यते प्राणी ॥३३॥
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श्री पार्श्वनाग विरचित...
विषयन्याकुलितमना, यस्य निकृष्टस्य कारणे वपुषः । पीडयसि प्राणगणं, तदपि न तव शाश्वतं मन्ये || ३४ || तारुण्ये नलिनीदल, संस्थितजलबिन्दुगत्वरे दृष्टे । वाताहतदीपशिखा तरलतरे जीवितव्ये च ॥३५॥ विभवे च मत्तकरिवर- कर्णचले चञ्चले शरीरेऽपि । पापमशर्मकरं तब, क्षणमपि नो युज्यते कर्त्तुम् ॥ ३६ ॥ जननी जनको भ्राता, पुत्रो मित्रं कलत्रमितरो वा । दूरीभवन्ति निधने, जीवस्य शुभाशुभं शरणम् ॥३७॥ यत्परलोकविरुद्धं, यन्निन्दाकरमिहैव जनमध्ये | अन्त्यावस्थायामपि, तदकरणीयं न करणीयम् ॥ ३८॥
सम्प्राप्येतरजन्मनि, सुदुर्लभे निजहितं परित्यज्य । किं कल्मषाणि कुरुषे दृढानि निजबन्धनानीह ||३९|| भवकोटीष्वपि दुर्लभ-मिदमुपलभ्येह मानुषं जन्म येन न कृतमात्महितं निरर्थकं हारितं तेन ॥४०॥
मा चिन्तय परदारान्, परविभवं माभिवाञ्छ मनसापि । मा ब्रूहि परुषवचनं, परस्य पीडाकरं कटुकम् ॥४१॥ पैशून्यं मात्सर्यं निघृणतां कृटिलतामसन्तोषम् । कपटं साहंकारं, ममत्वंभावं च विजहीहि ||४२॥ ये विदधत्युपपाएं, परस्य लुब्धा धने कृतान्यायाः । जीवितयौवनविभवा स्तेषामपि शाश्वता नैव ॥४३॥ इष्टं सर्वस्य सुखं दुःखमनिष्टं विभान्य मनसीदम् । मा चिन्तय परपापं क्वचिदप्यात्मनि यथा तद्वत् ॥४४॥ कायेन मानसेन च, वचनेन च तद्रदेव कर्त्तव्यम् । येन भवेदुद्वैराग्यं, प्रशान्तता तापशमनं च ||४५॥ व्याधिर्धनस्य हानिः प्रियविरहो दुर्भगत्वमुद्रेगः | सर्वत्राशाभङ्गः, स्फुटं भवत्यकृतपुण्यस्य ||४६ ॥ न गृहे न बहिर्न जने, न कानने नान्तिकेन वा दूरे | न दिने च क्षणदायां, पापानां भवति रतिभावः ॥४७॥
दिवसं गतं न रजनी, रजनी याता न याति दिवस तु । दुष्कृतिनां पुरुषाणा - मनन्तदुःखौघतप्तानाम् ॥४८॥
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जितेन्द्र बी० शाह
Nirgrantha
इह जीवतां परिभवो, घोरे नरके गतिर्मतानान्तु । किंबहुना जीवानां, पापात्सर्वाणि दुःखानि ॥४९॥ ये स्वामिनं गुरुं वा, मित्रं वा वचयन्ति विश्वस्तम् । अपरं तु नास्ति तेषां, नूनं सुखमुभयलोकेऽपि ॥५०॥ सत्यं जीवेषु दया, दानं लज्जा जितेन्द्रियत्वं च । गुरुभक्तिः श्रुतममलं, विनयो नृणामलङ्कारः ॥५१॥ पद्भक्तिः सर्वज्ञे, ययत्नस्तत्प्रणीतसिद्धान्ते । यत्पूजनं यतीनां, फलमेतज्जीवितन्यस्य ||२|| 'चिन्तयतां शुचित्वं, हितवचनं जल्पतां शमं दधताम् । सन्मानयतां मुनिजन-महानि यान्तीह पुण्यवताम् ॥५३॥ परिहतपरिनिन्दानां, सर्वस्योपकृतिकरणनिरतानाम् । धन्यानां जन्मेदं, धर्मपराणां सदा व्रजति ॥५४॥ मानुषतामायुष्कं, बोधि च सुदुर्लभां सदाचारम् । नीरोगतां च सुकुले, जन्म पटुत्वं च करणानाम् ॥५५॥ आसादयेदं सकलं, प्रमादतो मा कृथा वृथा हन्त । स्वहितमनुतिष्ठ तूर्णं, येन पुनर्भवसि नो दुःखी ।।५६॥ सामग्री परिपूर्णा-मवाप्य विदुषा तदेव कर्त्तव्यम् । संसारगहन भूमी, भूयोऽपि न भूयते येन ॥५॥ यावच्छरीरपटुता यावन्न जरा तथेन्द्रियबलानि । तावन्नरेण तूर्णं स्वहितं प्रत्युदयमः कार्यः॥५८॥ त्पज हिंसां कुरु करुणां, सम्यक् सर्वज्ञशासनेऽभिहिताम् । विजहीहि मानमाया-लोभानृतरागविद्वेषाँश्च ।।५९।। धर्मपराणां पुंसां जीवितमरणे सदैव कल्याणे । इह जीवतां बहुतपः सद्गतिगमनं मृतानां तु ॥६०॥ यद्वदुडूनां शशभृत् शैलानां मेरूपर्वतो यद्धत् । तद्धर्माणामिह, धर्मप्रवरो दयासारः ॥६॥ अपि लभ्यते सुराज्यं, लभ्यन्ते पुरवराणि रम्याणि । नहि लभ्यते विशुद्धः, सर्वज्ञोक्तो महाधर्मः ॥६२।। लागलसहमभिन्नेऽपि, नास्ति धान्यं यथोपरे क्षेत्रे । तद्वज्जन्तूनामिह, धर्मेण विना कुतः सौख्यम् ।।६३॥
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________________ Vol. 1-1995 श्रीषार्थनाग विरचित... यद्वन्न तृषः शान्ति-र्जलं विना नक्षुधो विना ऽन्नेन / जलदं विना न सलिलं न, शर्म धर्मादृते तद्वत् // 6 // सत्स्वामी सन्मित्रं, सहन्धुः सत्सुतः सत्कलत्रं च / सत्स्वजनः समृत्यो धर्मादन्यदपि सत्सर्वम् / / 6 / / अतिनिर्मला विशाला, सकलजनानन्दकारिणी प्रवर / कीर्तिर्विदया लक्ष्मी-धर्मेण विजृम्भते भुवने // 66 // आरोग्यं सौभाग्य, धनाढ्यता नायकत्वमानन्दः / कृतपुण्यस्य स्यादिह, सदा जयो वाञ्छिताऽवाप्तिः / / 6 / / सरभससुरगणसहितः, सुरयोषिजनितनृत्यसङ्गीतः / सुरलोके सुरनाथो, भवति हि धर्मानुभावेन // 6 // न करिष्यसि चेद्धर्म, पुनराप्स्यसि दुर्गतिं विशेषेण / दहनच्छेदनभेदन-ताडनरूपाणि दुःखानि // 65 // गच्छद्भिरपि प्राणै-बुद्धिमतां तन्न युज्यते कर्तुम् / उभयत्र यद्विरुद्धं, दीर्घभवभ्रमणकृदपथ्यम् // 7 // अविवेकिनां नराणां, पुनरिह जननं पुनर्भवे न्मरणम् / कुर्वन्ति पण्डितास्तद् भूयोऽपि न भूयते येन // 71 // कुरु भक्तिं गुणजगदीशे, सदागमे गुरुषु विदिततत्त्वेषु / अपवर्गप्रति रागं; संसारोपरि विरागं च // 72 // तत्किमपि कुरु विदित्वा, सद्गुरुतो ज्ञानमुत्तमं ध्यानम् / यत्र न जरा न मरणं, न भवं न च परिभवो न संक्लेशः। योगक्रियया ज्ञानात्, ध्यानादासादयते मुक्तिः // 74|| मत्वैवं निस्सारं, संसारमनित्यतां च जगतोऽस्य / ज्ञानयुतं ध्यानं कुरु, लभसे येनाक्षयं मोक्षम् // 7 // इति पार्श्वनागविरचित-मनुशासनमात्मानो विभावयताम् / सम्यग्भावेन नृणां, न भवति दुःखं कथञ्चिदपि // 76 / / यङ्लचत्वारिंशत्, समधिकवत्सरसहस्रसङ्यायाम् / भाद्रपदपूर्णिमास्यां बुधोत्तरा भाद्रपदिकायाम् / / 77 // // इति श्री आत्मानुशासनं समाप्तम् //