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श्री पार्श्वनाग विरचित 'आत्मानुशासन' - एक अध्ययन
जितेन्द्र बी० शाह
आत्महितोपलक्षित और नैतिक उपदेश से युक्त आत्मानुशासन एक अल्पज्ञात किन्तु महत्त्वपूर्ण कृति है। संस्कृत पद्यों में निबद्ध प्रस्तुत रचना सरल, सरस एवं मनोहर है, परन्तु प्रकाशित होते हुए भी अब दुष्प्राप्य है। निर्ग्रन्थों की मान्यतानुसार आत्मा कर्म से बद्ध है और उसके विपाक से जीव सुख-दुःख का अनुभव करता है। सुख में आसक्ति एवं दुःख में विषाद करता है। क्रोध, मान, माया तथा लोभादि कषाय से लिप्त है, जिस कारण आत्मा संसारचक्र में परिभ्रमण करता है। इस परिभ्रमण से मुक्त होने के लिए आत्मा को अनुशासित करना चाहिए। आत्मा पर अनुशासन करने के लिए उसको समभाव में स्थिर करने का उपदेश सांप्रत रचना में दिया गया है। तथा दुर्गुणों का त्याग, नैतिक सदाचार तथा संसार की असारता आदि का प्रासंगिक वर्णन भी समाविष्ट कर लिया गया है। आर्यावृत्त में ७७ पद्यों में निबद्ध आत्मानुशासन का नान्दीपद्य एवं अंतिम दो पद्य इस प्रकार हैं:
सकल त्रिभुवन तिलकं प्रथम देवं प्रणम्य सर्वज्ञम् । आत्मानुशासनमहं स्वपरहिताय प्रवक्ष्यामि ॥१॥ इति पार्श्वनाग विरचितमनुशासनमात्मनो विभावयताम् । सम्यग्भावेन नृणां न भवति दुःखं कथञ्चिदपि ॥७६॥ द्वयलचत्वारिंशत् समधिकवत्सर सहस्र सङ्ख्यायाम् ।
भाद्रपद पूर्णिमास्यां बुधोत्तरा-भाद्रपदिकायाम् ॥७७॥ . प्रथम पद्य में आत्मानुशासन की रचना की प्रतिज्ञा करते हुए स्वयं कर्ता ने ही इस लघुग्रन्थ का नाम सूचित किया है। ७६ वें पद्य में कर्ता ने अपना नाम - पार्श्वनाग प्रकट किया है। और आखरी पद्य में रचना संवत् दिया है, जिस पर आगे गौर किया जायेगा।
जैन प्रकरण साहित्य का अवलोकन करने से हमें आत्मानुशासन नामक तीन ग्रन्थ प्राप्त होते हैं। यथा :
(१) गुणभद्र कृत आत्मानुशासन,' (२) पार्श्वनाग विरचित आत्मानुशासन' और (३) जिनेश्वराचार्य रचित आत्मानुशासन
प्रथम आत्मानुशासन के कर्ता गुणभद्र, पञ्चस्तूपान्वयी दिगम्बराचार्य जिनसेन के शिष्य एवं राष्ट्रकूट सम्राट अमोघवर्ष के समकालीन थे। उन्होंने ईस्वी० नवम शतक के प्राय: तृतीय चरण में आत्मानुशासन की रचना की है। यह विविध छंद युक्त २७० पद्यों में निबद्ध है एवं समास-बहुल होते हुए भी मनोहर रचना है। आत्मा को लक्ष्य बनाकर विनिर्मित किए जाने पर भी इसमें कहीं-कहीं दार्शनिक सिद्धान्तों का समावेश भी दृष्टिगोचर होता है । द्वितीय आत्मानुशासन के कर्ता पार्श्वनाग गुणभद्र के बाद हुए हैं। सम्भव हो सकता है कि प्रस्तुत कृति की रचना करने की प्रेरणा उन्हें आचार्य गुणभद्र के आत्मानुशासन से मिली हो । दोनों कृतियों का उद्देश्य एक ही है, तथापि शैली सर्वथा भिन्न है। प्रस्तुत प्रकरण एक ही छन्द में सरल एवं सुबोध भाषा में रचा गया है। नाम साम्य के अतिरिक्त और कोई समानता दिखाई नहीं देती। तृतीय आत्मानुशासन के कर्ता जिनेश्वराचार्य खरतरगच्छ की पूर्व-परम्परा में हुए, उसी अभिधान के तीन
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