Book Title: Angulsattari
Author(s): Munichandrasuri
Publisher: Mahavir Jain Sabha
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री आत्म-कमल-जैनलायब्रेरी-ग्रन्यांक (३) श्रीममुनिचन्द्रसूरिविरचिता * अंगलसत्तरी। अनुयोगाचार्यश्रीदानविजयगणिशिष्य मुनिश्रीशंकरविजयजीना सदुपदेशथी भरुचवाला शा. चुनीलाल मोहनलालनी पत्नी स्वर्गवासी बाई नेमकोरना स्मरणार्थ आवेल द्रव्यसाहायथी प्रसिद्ध कर्ताश्री महावीर जैनसभाना सेक्रेटरी अंबालाल जेठालाल शाह.-खंभात. NAGAR ... esama. अमदावाद-धीकांटावाडीमा आवेला श्रीजैनएडवोकेट प्री. प्रेसमा शा. चीमनलाल गोकलदासे छापी. श्रीवीरसं. २४४४. वि० सं० १९७४. सने १९१८. आवृत्ति १ ली. किम्मत बे आना. प्रत ४८०. HAMATKAARAMATA A नोट-अभ्यासि मुनिमहाराजोने तथा साध्वीजीने भेट. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat www.umaragyanbhandar.com Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगुल० ॥ अहम् । भा०सह ॥१॥ श्रीममुनिचन्द्रसूरिविरचिता अंगुलसत्तरी । * * GHOSHIRISHASHIOSAO3 उसभसमगमणमुसभजिणमणिमिससामिसंथुअगुणोहानमिऊणंगुललक्खणसंक्खेवमिणपवक्खामि ॥१॥ ६] अर्थ-ऋषम जिनने नत्वा नमिने आगे कहेवाता अंगुलोन लक्षण संक्षेपथी कहीश, ऋ० केवा छे ऋ०-वृषभ समान गमन छे जेहनु, वली केवा छे अनिमिष एटले देवता तेहना स्वामि इंद्र तेहने स्तुति करवा लायक गुणोछे जेहना. ॥१॥ ते आदिदेवमे नमस्कार करी ग्रंथकार 5 अंगुलोर्नु लक्षण बतावे छे उस्सेहंगुलमायंगुलं च तइयं पमाणनामं च । इय तिन्नि अंगुलाई वावारिज्जंति समयम्मि॥ २॥ अर्थ-उत्सेधांगुल, आत्मांगुल, प्रमाणांगुल आ त्रण प्रकारना अंगुलो मूत्रसिद्धांतमां वर्णवेलाछे.२। ग्रंथकार प्रथम उत्सेधांगुलनु स्वरूप बतावे छे. परमाणूइच्चाइक्कमेण उस्सेहअंगुलं भणियं । जं पुण मायंगुलमेरिसेणं तं भासियं विहिणा ॥३॥ - “परमाणू तसरेणू रहरेणू वालअग्गलिक्खा य। जू य जवो अद्वगुणो कमेण उस्सेहअंगुलयं॥” अर्थ-जेना छेदनभेदन करवाथी बे टुकडान थाय ते परमाणू कहीए, अनंता व्यवहारपरमाणू पुद्गलोनो समुह थाय त्यारे एक उल्लक्षणलै लक्ष्णिका, आठ उल्लक्षणश्लक्ष्णिकाए एक लक्ष्णश्लक्ष्णिका, आठ लक्ष्ण लक्ष्णिकाए एक उर्ध्वरेणू, आठ उर्ध्वरेणूकाए ला ॥१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RECE ॐ एक रथरेणू, आठ रथरेणूए देवकुरु उत्तरकुरु मनुष्यनो एक वालाग्र, आठ देवकुरुउत्तरकुरुमनुष्यना वालाग्रे हरिवास रम्यक्वासमनुष्यनो एक वालाग्र, आठ हरिवासरम्यश्वासक्षेत्रना मनुष्यना वालाग्रे हेमवंतएरण्यवंत जुगलीयानो एक वालाग्र, आठ हेमवंतएरण्यवंत मनुप्यना वालाग्रे पूर्वमहाविदेह पश्चिममहाविदेह मनुष्यनो एक वालाग्र थाय, आठ पूर्वविदेह पश्चिमविदेहना मनुष्यना वालाग्रे भरत ऐरवत क्षेत्रना मनुष्यनो एक वालाग्र थाय, आठ भरत ऐवन मनुष्यना वाला एक लिख थाय, आठ लिखनी एक ज़, आठ जए एक यवमध्य, आठ यवे एक उत्सेधांगुल थाय । ३ ॥ हवे आत्मांगुलनु म्वरूप ग्रंथकार बतावे छेजे जम्मि जुगे पुरिसा अट्ठसयांगुलसमूच्छिया हुन्ति। तेसिं जं नियमंगुलमायंगुलमित्थ तं होई ॥४॥ जे पुण एय पमाणं ऊणा अहिया व तेसिं मेयं तु । आयंगुलं न भण्णइ किंतु तदाभासमेवत्ति ॥५॥ अर्थ-जे युगने विषे पुरुष एकसोआठ अंगुल उंचो होय तेनो जे अंगुल ते आत्मांगुल कहेवाय (भरतचक्रवत्ती विगेरेनो)।४ाजे पुनः वली ए प्रमाण १०८ अंगुलरूप थकी उना अथवा अधिका होय तेहने आत्मांगुल न कहीये. किंतु आत्मांगुलाभास कहीए एटले आत्मांगुल सरिखं दीसे छे पण आत्मांगुल नहि. ॥ ८ ॥ हवे प्रमाणांगुल वखाणे छे. जं भरहस्सायंगुलमेयं तु पमाणअंगुलं होइ । उस्सेहंगुलचउसयमाणा सूई इहं भणिया ॥६॥ अर्थ-भरतचक्रीन आत्मांगुल ते प्रमाण अंगुल थाय. चारसो उन्सेधांगुले एक मूची प्रमाणांगुल होय. इह प्रमाणअंगुलने विषे मृची कही ते लांबपणे चारसो उत्सेधांगुल जेटलं लांवपणु थाय तेटल प्रमाणअंगुलनु लांबपणुं थाय. ए प्रमाणअंगुलनी लंबाइ कही.॥६॥ हवे प्रमाणांगुलनु जाडपणु तथा पहोलाइ कहे छे. एगंगुलबाहुल्लं अड्ढाइयमंगुलाई तं पिहुलं । एवं च खित्तगणिए उस्सेहंगुलसहस्सं तं ॥७॥ SCARRIER ARSASARAS545k Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat www.umaragyanbhandar.com Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भासह अंगुल. अर्थ-ते प्रमाणांगुल एक अंगुल जाडं होय अढी उत्सेवांगुल पहोलुं होय. हवे लांबु तथा पहोलुथइ प्रमाणांगुलने विषे उत्सेधांगुल केटला थाय ? ते कहे छे एवं आ प्रकारे क्षेत्रगणित कहेता लांबपण तथा पहोलपण एकहुँ करतां एक प्रमाणांगुले सहस्र उत्सेधांगुल होय ॥२॥ ॥७॥ एक प्रमाणांगुले सहस्र (१०००) उत्सेधांगुल केम थाय ? ते बतावे छे. . जम्हा चत्तारि सया अड्ढाइय संगुणा हवइ सहसो। अस्सुवओगो तिविहो जहक्कमेणं इमो होइ॥८॥ अर्थ-चारसोने अढीगुणा करीये तो सहस्र थाय जेहनु कारण एक प्रमाणांगुल चारसो उत्सेधांगुल लांबुछे. अने अढी अंगुल पहोल छे. चार अढी दस एतला माटे एक प्रमाणांगुले लंबाइ तथा पहोलाइ थइ सहस्र उत्सेधांगुल थाय. ए प्रमाणअंगुलनो उपयोग त्रण प्रकारे यथाक्रमे आ प्रमाणे छे.॥८॥ __उस्सेहंगुलमेगं हवइ पमाणंगुलं सहस्सगुणं । एयस्स खित्तगुणियं पडुच्च परिभासियं एयं ॥ ९ ॥ अर्थ-एक प्रमाणांगुले उत्सेधांगुल सहस्र थाय. ए प्रमाणांगुलने क्षेत्रगुणित प्रतीत्य आश्रीने कयु.॥९॥ ए प्रमाणांगुलनु प्रथम उपयोगपणुं का. हवे प्रमाणअंगुलनुं त्रण गाथाथी बीजं उपयोगपणुं कहे . है सुत्तम्मि जत्थ भणिओ उसभसुओ भरहनामगो चक्की। आयंगुलेण वीसा समहिय अंगुलसयपमाणो॥१०॥ अर्थ-जिहां मूत्रने विषे श्री ऋषभ स्वामीना पुत्र भरतचक्रीना आत्मांगुलनु अंगुल १२० प्रमाण कयुं छे. ॥१०॥ BI सो सूइअंगुलेणं चउसयमाणेण होइ चित्तव्वो। कहमन्नह पंचसया उस्सेहंगुलधणूणं सो ॥११॥ अर्थ-स ते भरत सूची प्रमाणांगुल लेवू. ते केवु छे. सूची प्रमाणांगुल चारसें गुणु की छे. अन्यथा एह जो सूची प्रमाणांगुल न मानिये अने चोथी गाथामा आत्मांगुल का छे तेने मानीये तो छन्नु उत्सेधांगुले धनुष छे जिहां. एहवां पांचसे धनुष प्रमाण शरीर -959555555 ॥ २ ॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ESTOS CASOSAHAHAHA जैन एवा भरतचक्री केम बने ॥ ११ ॥ पांचसे धनुष प्रमाण शरीर केम होय ते बतावे छे.है। वीसाहियसय चउसयगुणणे जाया सहस्स अडयाला। छन्नवइभागहारे लब्भंते धणुसया पंच ॥१२॥ | अर्थ-एकसोवीस उत्सेधांगुलने चारसी गुणा करिये तो अडतालिससहस्र (४८०००) उत्सेधांगुल थाय. अने तेने छन्नुए भाग करीये त्यारे पांचसो धनुष थाय. एटले पांचसो धनुपर्नु भरतचक्रीन शरीर थाय ॥१२॥ हये त्रीजा अंगुलर्नु स्वरूप कहे छे. जे पुढवाइपमाणा तविक्खंभेण ते मिणिज्जंति । अणुओगदारचुन्नीवित्तोसु य भणियमेयं ति ॥१॥ अर्थ-जे पृथिवी आदिकनां प्रमाण ते प्रमाणांगुलनु जे विष्कंभ अढीउत्सेधांगुलरूप तेणे ते पृथ्यादिक मापवां ए प्रमाणे अनुयोगद्वारनीचूर्णिवृत्तिमां कहुं छे. ॥१३॥ जे कारणे अनुयोगद्वारनीचूर्णिवृत्तिमा कयुं छे, ते ग्रंथकार पोते बतावे छे.जे अपमाणंगुलाओ पुढवाइप्पमाणा आणिज्जंति । ते अ पमाणंगुलविक्खभेण आणेयव्वा ण पुण सूइअंगुलेणं ति॥ १४॥ अर्थ-जे प्रमाणअंगुलथी पृथीवी आदिकनां प्रमाण आणे छे. ते प्रमाणांगुलनु जे विष्कम तेणे आणवां पण सूची प्रमाणभंगुले ते पृथ्वी आदिकनां प्रमाण न आणवां एहवु अनुयोगबारसूत्रचूर्णिवृत्तिमां कहथु छे ॥ १४ ॥ एयंच खित्त गणिएण केइ एअस्स जं पुण मिणति। अन्ने उ सूइ अंगुलमाणेण नसुत्तभणिअंतं॥१५॥ | अर्थ-केटलाक आचार्य कहे छे एअ-कहेतांएपृथिव्यादिकनुं प्रमाण एअस्स-कहेतांए प्रमाणांगुलने क्षेत्र गुणितमानस्यु एभाव एक प्रमाणांगुले सहस्रउत्सेधांगुल एहवं माने एटले एकमत देखाडी, हवे बीजो मत देखाडे छे. अनेराआचार्यसूची प्रमाणांगुले पृथ्व्यादिकनु प्रमाण मानस्युं. इहां एक सूची अंगुले चारसा उत्सेधांगुल थाय एहवुमाने. ग्रन्थकर्ता कहे छे के बन्ने आचार्यनु कथन सूत्रोक्त नयी ॥१५॥ SOCIRCRACADA-CAPRICA Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ C455 IPI किं च मएसु दोसु वि मगहंगकलिंगमाइआ सव्वे। पाएणारिअदेसा एगम्मि अ जोयणे हुंति ॥ १६ ॥ भा०सह अर्थ-किंच कहेतां ग्रंथकर्ता बन्ने आचार्यना कयनमा दक्षण देछे, जो एह, मानवामां आवे के एक प्रमाणांगुले सहस्र उत्सेधांगुल एक सूचीप्रमाणंगुले चारसेउत्सेधांगुल ए प्रकारे पृथिव्यादिकनुं प्रमाणमानीयेतो. पाये मगधदेश, अंगदेश, कलिंगदेश, एवं आदि सर्व आर्यदेशनो एक जोजनमा समावेश थाय ॥ १६ ॥ | सहस्समाणे चउरंसजोयणे दीहपिहुलभावेणं । हुंति परुप्परगुणणे लक्खा दस जोअणाण फुडं ॥१७॥ अर्थ-चउरंसजोजन केवु छे, चउरंसजोजन लांबपणे तथा पहोलपणे थइ सहस्र जोजनमान छे जेहनुं एह, जोजन परस्परगुणीये तो दाये दाये सो एटले एकजोजनना दशलक्षयोजन थाय, आएक आचार्यनो मत ॥१७॥ हवे बीजो मत कहे छे. तेमनोआ हिसाब छे. ॐ चउसयमाणम्मि पुणो एगो लक्खोसहस्सतह सट्ठी। एवं एगम्मि वि जोअणम्मि कह तेन मायंति॥१८॥ अर्थ-एक प्रमाणांगुल योजनने विषे लांबपणे पहोलपणे चारसे गणुमान छे ते मान केटल थाय ? चारसोने चारसोगुणाकरीये तो एकलाख साठसहस्र (१६००००) थाय एवं ए प्रकारे एक योजनने विषे ते आर्यक्षेत्र केम न माय अर्थात् मायज. ॥१८॥ एयं च पुणमलोगिग जमेगजोयण महीइ ते माया। तह सेसजोयणाणं पावइ विहलत्तणं भरहे ॥१९॥ अर्थ-इदं पूर्वोक्तं पुनःबली अलोकिक जे एकजोजन पृथिवीमां ते सघलाए आर्यदेशो माया तथा वली भरतक्षेत्रने विषे शेष योजन 18/ विफलपणु पामे. ठालांज रहे. ॥१९॥ वली ग्रंथकर्ता बन्ने मतोमा दूषण देखाडे छे.. ६ तह बारवई नयरी अहवा उझाउरी य जा तासिं। धणयसुरनिम्मियत्तेण किल पमाणं समाणं ति॥२०॥ -सथा द्वारिकानगरी अथवा अयोध्यानगरी, ते नगरीने धनदसुर नीपजाववा पणे ते किल निचे प्रमाणे सरखीज थाय. ॥२०॥ C ॥३ ॥ 36KHUSUSHISHISHIA USHISHIGHISAS Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyahomandar.com Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहसगुणेऽसीलक्खा कोडीओ जोयणाण दस हुंति। चउसयगुणणे कोडीलक्ख बिसत्तरि अस्सीसहसा ॥२१॥ अर्थ-द्वारिका अथवा अयोध्या नवजोजन पहोली छे, बारजोजन लांबी छे, तो बारनवां अठोत्तरसो १०८ योजन थाय तो ते योजन सहस्र २ गुणा कीजे दसकोटीयोजन अने एसीलाखयोजनथाय. चारसो गुणा करतां केटलुं थाय ते कहे छे. एक प्रमाणांगुल योजनने | चारसो गुणाकरता एकलाख साठसहस्र योजन होय. १०८ योजने एकलाखसाठसहस्रगुणा किजे एककोटिबहोत्तेरलारखएसीहजार योजन थाय. ॥ २१ ॥ पूर्वोक्त मान लाववा ग्रंथकार स्वयं स्वीकारे छे. ते निचे प्रमाणे. एयं च पुण पमाणं पिहला नव जोयणाणि नयरीओ। बारस दीहा तत्तो दुन्हं अंकाणमन्नुन्नं ॥२२॥ || गुणणे अट्ठहियसयं जायंतो एग जोयणगएण। गणियपएणं गुणिए पुव्वुत्तेणं इमंमि भवे ॥२३॥ अर्थ-इदं ए पूर्वोक्तं तु पुनःवली प्रमाणकिम् ? यथा द्वारिकानगरी नवयोजन पहोली छे. अने बारजोजन लांबी छे, तोएबन्ने अंकोने अन्यो अन्य गुणतां १०८ थाय ततः एकयोजनगत गणित प्रमाण छे जे दसलक्ष योजन अने एकलाखसाठसहस्ररूपने १०८ गुणा कीजे इदं पूर्वोक्तं भवेदिदं ए पूर्वोक्तं १०८०००००० अने १७२८०००० होय ॥ २२ ॥ २३ ॥ एयं च अइपभूयं नगरपमाणं न जुज्जए जम्हा । तम्हा पमाणअंगुल विक्खंभपमाणओ गिज्ज ॥२४॥ अर्थ-ए पूर्वोक्त नगर प्रमाण अतिप्रभूतं अतिघणु तेह माटे योग्य नहि माटे प्रमाणांगुलन जे विष्कंभप्रमाण तेहज ग्राह्यं तेज ग्रहण करवू ॥२४॥ वली ते बन्ने मतने विषे दोष देखाडे छे. 5 तह कूणियस्सरन्नोसाहियदक्खिणदिसस्स वेअड्ढे।परिमियजीविअकालस्स जुज्जए कह णुगमणं ति॥२५॥ अर्थ-तथा कोणिक राजा केवो छ साधी छे दक्षिण दिशा जेणे. वली केवो छे परिमित आयुष छे जेहनु. इति वित्त एहवाने वैता Shree SudharmaswamiGyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyashaldar.com Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगुल भा०सह ॥४॥ Antennur व्यने विषे गमन किम युक्तधाय? केमके भूमि घणीछे अने आयुष थोडं एटला माटे पृथिवी आदिकनुं प्रमाणअंगुलनुजे विष्कंभ तेणे ज मापवं. एक प्रमाणांगुले सहस्रउत्सेवांगुल थाय अथवा एक प्रमाणअंगुले चारसे उत्सेधांगुल थाय. तेवा प्रमाणांगुले पृथिव्यादिकनुं प्रमाण न मापq ॥२५॥ वली ए बने मतमां दोप देछे. गंधारसावयस्स वि वेयड्ढगुहाई चेइए नमिउं। कह वीभयम्मि चेइयवंदणहेउं गमो हुज्जा ॥२६॥ अर्थ-गधार नामनो श्रावक वैतादयनी गुफाए चैत्यवादी वितभयपत्तनने विषे चैत्य वांदवाने अर्थ गमन केम होय. शामाटे आउखु थोडं अने भूमी घणी एटला माटे ॥२६॥ ग्रंथकारे अढी अंगुले पृथिव्यादिकनुं प्रमाण अंगिकार की, ते वारे परने शंका उपनी ते कहे छे. जं पुण भणंति भरहाइचकिणो परिगरो कमाई। एवमिणिज्जंते भारहम्मि भन्नइ न सो दोसो ॥२७॥ अर्थ-जे पुनः वली एह, कहे छे. भरतादिक चक्रीनु परिकर भरतक्षेत्रने विषे केम माय, जो पृथिवी आदिक अढी अंगुले मपाय. भण्यते ग्रन्थकार कहे छे. सः ते अढी अंगुले मापतां कांइ दोष आवतो नथी. ॥ २७ ॥ ते भावनाए करी देखाडे छे. जंभरह खित्तपयरं बासीया छस्सया असीसहसा। तेवन्नं वि य लक्खा जोयण माणेण सिद्धमिणं ॥२८॥ अर्थ-जे भरतक्षेत्रनुं प्रतर कहेतां सघल थइने त्रेपनलाख अॅसीहजार छसोने ब्यासी योजन होय ॥२८॥ एटलं प्रमाण केम थाय ते कहे छे. दाहिणउत्तरभरहद्धविजयगिरिपयरमीलणे एयं । संपज्जइ जं दीसइ खित्तसमासम्मिइयं वुत्तं ॥२९॥ अर्थ-दक्षिणभरतार्ड, उत्तरभरतार्द्धनु प्रतर विजयगिरि कहेतां वैतादयतुं तलु ए मेलवतां ए पूर्वक्तिं ५३८०६८२ होय, तेनुं कारण तो क्षेत्र समासने विषे एहवू का छे. ॥२९॥ ते बतावे छे. | लक्खट्ठारस पणतीससहस्सा चउसया य पणसीआ।बारस कला छविकला दाहिणभरहद्धपयरंतु॥३०॥ 934645851195 ॥४॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 15 अर्थ-अढारलाख पांत्रीसहजार चारसोने पंच्यासी अने कला १२ विकला ६ एटलुं दक्षिणभरताईन प्रतर छ. ॥ ३० ॥ सत्तहिया तिन्निसया बारस यसहस्स पंच लक्खाय। बारस कलाउ पयरं वेअड्रगिरिस्स धरणितले ॥३१॥ अर्थ-पांचलाख बारहजार त्रणसोने सात जोजन अने कला १२ एटलुं वैताव्यन तल छे. ॥ ३१ ॥ अडसीया अट्ठसया बत्तीससहस्स तीसलक्खा य । बारस कला उ अहिया उत्तरभरहद्धपयरं तु ॥३२॥ | अर्थ-३०३२८८८ जोजन, १२ कला अने ११ विकला एतेषां मीलने यथोक्तं प्रतर प्रमाणं संपद्यते ॥ ५३८०६८१ कला १७ विकला १७ उत्तरभरतार्डन प्रतर एटलं छे. दक्षिण भरतार्डनु प्रतर, उत्तर भरतार्डनु प्रतर, वैताढ्यन तलु ए त्रणेने मेलबतां भरतक्षेत्रमा प्रतरतुं प्रमाण होय. ॥ ३२॥ 5 अड्डाइजगुणत्ते आयामो गाउआइं दस होइ । एवं चिय विक्खंभोसव्वेसुविजोअणेसु इहं ॥ ३३ ॥ अर्थ-एक प्रमाणांगुल योजनने विषे उत्सेधांगुल निष्पन्न लंबाइपणे अढी योजन होय. अने अढी योजनना दश दश गाउ थाय. एवं पहोलपणे दश गाउ होय तो अढी अढी गुणा कीजे तो दाये दाये सो, तो एक प्रमाणांगुल निष्पन्न योजनने विषे उत्सेधांगुल निष्पन्न सो गाउ होय. एवं सर्व प्रमाणांगुले निष्पन्न योजनने विषे उत्सेवांगुल निष्पन्न सो गाउ थाय. ॥ ३३॥ विक्खंभायामाणं परुप्परं संगुणम्मि सयमेगं । इह होइ गाउआणं तो भरहे गाउअपमाणं ॥३४॥ अर्थ-विष्कम अने आयाम ए परस्पर गुणीए. इह प्रमाणांगुल निष्पन्न योजनने विषे उत्सेधांगुल निष्पन्न सो गाउ होय, ततो 5. तिवार पछे भरतक्षेत्रने विषे गाउनु प्रमाण होय. ॥ ३४ ॥ केटला गाउ याय ते ग्रंथकार पोते बतावे छे. दुन्निसयं अट्ठसट्ठी सहस्स लक्खा असीइ तह चेव । तेबन्नं कोडीओ इक्विके गाउए तत्थ ॥३५॥ अर्थ-५३८०६८२०० एटला गाउ होय.॥ ३५॥ हवे ते भरतक्षेत्रने विषे जे गाउ छे, ते एक एक गाउने विषे केटलां केटलां OSOROGHOSTS HOORHAMERSTOSAS SHOSHOSHOO600ROSESSIES Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat www.umaragyanbhandar.com Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगुल भा०सह 24-HOSTESSERIE ROSA GROW गाम छे ते बतावे छे. दुन्निअ तिन्निअ चउरो गामा दीसंति तीसकोडीसु । छन्नवइ गाम कोडी लेसुद्देसेण मायंति॥३६॥ अर्थ-एकेका गाउने विषे ग्राम बेत्रण घार देखीए छीए, एणी रीते त्रीस कोटी गाउने विषे छन्नुकोटी ग्राम माय. ॥ ३६ ॥ त्रीसकोटी गाउने विषे छन्नुकोटी ग्राम केवी रीते माय से भावना करी देखाडे छे. अट्ठसु दोदोगामा अट्ठसु पुण तिन्नि तिन्नि कोडीसु । चउरो चउरो चउदस कोडीसुविरोहओ मंति॥३७॥ अर्थ-एक कोटी गाउने विषे बे कोटी ग्राम माय. एटले आठ कोटी गाउने विषे सोलकोड ग्राम माय. वली आठ कोटी गाउने विषेत्रण त्रण कोटी ग्राम होय एटले आठ कोटी गाउने विषे चौवीस कोटी ग्राम माय, वली चौदकोटी गाउने विषे चार चार कोटी ग्राम माय, एटले चौदकोटी गाउने विषे छप्पन्न कोटी ग्राम माय. आ रीतथी त्रीस क्रोड गाउने विषे छन्नुक्रोड ग्राम अविरोधपणे मइ शके. ॥ ३७॥ सेसा जा चउवीसं किंचूणाओ तयद्धमित्तंमि। जे पट्टण-पुर-कब्वड-खेडाई भासिया सुत्ते ॥ ३८॥ अर्थ-भरतक्षेत्र ५३८०६८२०० आटलं छे ते माहेला त्रीसक्रोड गाउ कह्या. हवे शेष कांइक उंणा चोवीसक्रोड गाउ छे तेहर्नु अर्ध कांइक उंणा बारकोटी गाउ थाय. तेहने विषे जेह पत्तन पुर कर्बट, खेट इत्यादि जे मूत्रने विषे कयां छे ते सर्व माय. ॥ ३८॥ हवे पत्तन पुर इत्यादिक केटलां छे ते कहे छे. सव्वे वि तिन्नि लक्खा सत्तरससहस्स पंच अहियं च । सयमेगमणुवरोहा संभवओ हंति मायंता॥३९॥ अर्थ-सर्व थइ ३१७१०५ त्रणलाख सत्तरहजार एकसोने पांच होय. एहनो अविरोधपणे मावानो संभव होय ॥ ३९ ।। तह पवया वि वेअड्डमाइणे एअखित्तमज्झंमि । जोइज्जा जं हुंति उवरि पासेसु अ पुराइं ॥४०॥ SHARESS Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat www.umaragyanbhandar.com Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ TEACAARCHIRGAMROPERTERA अर्थ-तथा वली पर्वत वैताब्यादिक भरतक्षेत्रने विषे छे, ते पर्वत उपर पासे जे पुरादिक ते सर्वत्र छे.॥४०॥ वग्गागयाण तुरियाईणं जह मज्झिमेण भंगेणं। मुल्लगणणा तह जणो मज्झिममाणेण पित्तव्वो॥४१॥ अर्थ-यथा जेम वर्गागतानां समुदाये आव्या तुरयाइण घोडादिक तेहY मध्यम मूल गणीए उत्कृष्टे अने जघन्ये न गणीए. तथा० तेम जनलोकन मध्यममान लेधु, उत्कृष्ट तो पांचसो धनुष्य प्रमाण, अने जघन्यतो बे हस्तन मान लेवू. ॥४१॥ मध्यम भागे केटलं होय ते कहे छे. पंचन्हसयाणद्धं सयाई अड्डाइयाइं इह हुंति । पिहुलत्तं पुण पंचमभागे सयगस्समद्धं च ॥ ४२ ॥ अर्थ-पांचसे धनुष्यन अर्ध अढीसो धनुष्य एटलं उच्चपणुं होय. पांचसें धनुष्यनो पांचमो भाग एकसो धनुष्य, तेहनु अर्ध पचास धनुष्य, एटलुं पहोलपणे होय. ॥ ४२ ॥ ते मध्यममानना मनुष्यनुं प्रतरकरतां केटलं थाय ते कहे छे. दुन्हं परुप्परगुणणे अंगाणं हुंति बारस सहस्सा पंचहिं सएहिं अहिआ एरिसमाणेण ठविअव्वो ॥४३॥ | लोगो पुरेसु गामेसु वा वि जं सवसंगहो एवं । होइ कओ संकलणा वि होइ पाणीसु एमेव ॥४४॥ अर्थ-पचाश धनुष्य अने अढीसें धनुष्य ए बेहं आंक परस्पर गुणीए तो बार हजार अने पांचशो होय एहवे माने लोक पुरने विषे गामने विषे स्थापयु, जेह कारणे, एवं ए प्रकारे सर्व संग्रह होय, पाटीने विषे संकलना कहि ते लेखु किधुंएमज होय.॥४३-४४॥ जाओ पुण सेसाओ कोडीओ तासु जाइं एआई। गंगाइआण सलिलाई तेसु दीवा य मायंति ॥४५॥ अर्थ-तो पुनः वली जे शेष बार कोटी गाउ छे तेहने विषे जे गंगादिकनां पाणी ते पाणीने विषे जे द्वीप छे तेह माय. ॥ ४५ ॥ 2 शिष्य पृच्छति पुनः निश्चे भूमि थोडी लोकने विषे सुख केम होय ? ते उपर कहे छे. कालो य चक्किकालो अच्चंतसुहा दुमाइपउरो । ता थोवे वि विभागे सुहिया गामादओ हुंति॥४६॥ Shree Sur haswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगुल ATORE GRECOREGAONFIRCRACREACOCK अर्थ-काल तो चक्रीकाल जेणे वारे चक्री होय. वली केQ अत्यंत सुख में जिहां एवं. वली वु वृक्षादिक प्रचुर एहवा कालने विषे, थोडे ठामे ग्रामादिक सुखी होय. ॥ ४६॥ हवे आखी मारिका प्रतर करतां केटलां योजन छे, ते कहे छे.. - अड्डाइज्जगुणत्ते नयरीओ जोअणाण छच्च सया। पणसयरीइ समहिआ ते पुण एवं मुणेयव्वा ॥४७|| अर्थ-एक प्रमाणांगुल योजन उत्सेधांगुल निष्पन्न अढी योजन लांबपणे पहोलपणे होय, अने उत्सेधांगुल निष्पन्न योजनने विषे गाउ दश होय, तो अढी योजनने अढी गुणा कीजे, सवा छ योजन थाय. दाये दाये सो एटले सो गाउ थाय, अने एक उत्सेधांगुल निष्पन्न योजन लांबपणे पहोलपणे चार गाउ होय. एटला मारे चार चोकुं सोल सोल गाउए एक उत्सेधांगुल निष्पन्न योजन, सो गाउना योजन कीजे सोल छक्क छन्नु-सोमांहीथी छन्नु गया लाधा योजन छ, सोल गाउए एक योजन. एटला माटे उगरे गाउ चार तो सोलनो चोथो भाग चार एटले छ योजन अने एक गाउ होय, ते छ योजन एक सो आठ गुणा कीजे ६४८ थाय. बली ते छ योजन उपर एक गाउ छे. ते १०८ गुणा कीजे १०८ गाउ होय तो १८८ गाउना २७ योजन थाय, ते २७ योजन ६४८ माही घालीए तो ६७५ योजन होय, द्वारिकानगरी ६७५ योजन छे. ते ६७८ पुनः वली एवं ईणे प्रकारे जाणवा ॥ ४७॥ ग्रंथकार ६७५ योजन आणवानो प्रकार कहे है. अड्डाइआण दुन्हवि अंकाणन्नुन्न ताडणे हुँति । छज्जोयणा सकोसा नयरीपयरं गुणे तेहिं ॥ ४८ ॥ अर्थ-अढी योजनने अढीगुणा कीजे तो सो गाउ थाय, ने सो गाउने १६ सोले भाग दीजे, छ योजने एक कोष होय, पछी ते छ योजनने १०८ गुणा कीजे ६४८ योजन होय, पळे १०८ गाउना योजन कीजे,२७ योजन थाय ते २७ योजन ६४८ योजनमांही नाखीए तो ६७० योजन होय एटले आखी नगरीए योजन होय.॥ १८ ॥ हवे आखी नगरीर धनुष्य केटलां होय ते कहे छे. अट्ठधणण सहस्सा आयामो वित्थरो य जे होइ। इकिकजोयणे ताडणंमि तो दुन्हमंगाणं ॥४९॥ छक्कोडीओ चालीसलक्ख धणहाणमित्थ लब्भति। तो नयरजोअणगुणे गुणिए धणहप्पमाणेणं ॥५०॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-एक योजन लांबपणे पहोलपणे आठ हजार धनुष्य होय, एक योजन प्रतरगुणा करतां केटला धनुष्य होय ते कहे छे. बेहुं आंक अन्योअन्य गुणीए, ते आ प्रमाणे आठ आठां चौसठ छकोटी चालीस लाख धनुष्य एक योजन प्रतरगुणा करतां होय. हवे आखी नगरीने विषे केटला योजन होय ते कहे छे. नगरीना योजन ६७८ छे ते छ कोटी अने चालीसलाख गुणा कीजे आखी नगरीना धनुष्यनुं प्रमाण होय. ॥ ४९-५०॥ केटलुं थाय ते कहे छे. सव्वाए नयरीए लद्धं एयं धणुप्पमाणेणं । चउरो कोडिसहस्सा तिन्नि सया वीस कोडीओ ॥५१॥ अर्थ-आखी नगरीने विषे चार कोटी सहस्र त्रणसो कोटी अने वीस कोटी ४३२०००००००० एटला धनुष्य प्रतरगुणा करतांहोय॥५१॥ पंचसया पंचगुणा धणुहाणं जेसिं होइ गेहाणं । आयामवित्थरेसुं तेसिं गेहाण धणुगणिअं ॥ ५२॥ अर्थ-पांचसे धनुष्यने पांचगुणा कीजे तो पचीसो धनुष्य थाय. जे घर २५०० धनुष्य लांबपणे पहोलपणे होय. आखु घर केटली भूमीका रोकी रहे छे. ते कहे छे. पचवीससोने पचवीससो गुणा कीजे जेटला थाय तेटली ॥५२॥ केटला थाय ते कहे छे. बासट्ठी खलु लक्खा पन्नासं चेव तह सहस्साई । एएण रासिणा पुरघणण चउभागहीणाण ॥५३॥ अर्थ-बासठ लाख अने पचास हजार धनुष्य थाय एक एक घर एटली भूमिका चांपी रह्यां छे. जे घर २५०० धनुष्य लांबपणे पहालपणे छे. जे घर ६२५०००० धनुष्य भूमिका चांपी रह्यां छे तेहवां एक नगरीमांहे केटलां घर छे ते कहे छे. 'एएण' एहज ६२५०००० धनुष्य पुरना धनुष्य ४३२०००००००० एह मांहेलो चोथो भाग काढीए ॥ ५३ ॥शु रहे छे ते कहे छे. है। इअतिन्नि कोडिसहसा दोकोडिसया उ कोडिचालीसा। तेसिं पुव्वुत्तेणं भागंमीरासिणा गहिए ॥५४॥ 2. अर्थ-त्रण सहस्र कोटी, बसो कोटी, चालीस कोटी धनुष्य होय. ३२४०००००००० ए आंक उपर मांडी हेठे ६२५०००० आ आंक मांडीए पछे भाग दीजे ॥५४॥ भाग देतां जे लामे ते कहीये छीए. लद्धापंचसहस्सा चउरासीअं सयं च तह एगं। इत्तिअगिहाणि एअप्पमाणहीणा ५५॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भा०सह SA अंगुल अर्थ-पांच हजार एकसो अने चोरासी एटलां घर एक नगरीमा माय. जेहनुं प्रमाण ६२५०००० धनुष्यन होय. ए प्रमाणथी हीणा प्रमाणनां घर घणां होय. ॥ ५५ ॥ हवे एकैक घरने विधे मनुष्य केटलां माय ते कहे छे.. पुव्वुत्तेणं मज्झिमभंगणं माणुसाण जं माणं। तेण सयमेव गेहेसु होइ लोगो ठवेअव्वो ॥५६॥ अर्थ-पूर्वोक्त कह्यं मध्यम भागे जेम मनुष्यनु मान तेणे करी स्वयमेव लोक घरने विषे स्थापq. एक एक मनुष्य १२५०० धनुष्यछे अने एक एक घर ६२५०००० धनुष्य चांपी रह्यां छे. तो ६२५०००० ए आंक उपर मांडी अने १२५०० आ आंक हेठे मांडीए पछे पांचे भाग दीजे पांचसे उगरे तो ए एक घरने विषे ५०० मनुष्य माय. ॥५६॥ जा पुण चउत्थभागो नयरधणूणं गिहेसुनो खित्तो। सोगिहभित्तीअंगणरत्थानिवमग्गजोग्गत्ति ॥५७॥ 5 अर्थ-पुनः वली पुरना धनुष्यनो चोथो भाग २८०००००००० आटलं घरना धनुष्यमा हीन घाल्यु ते शुं ? ते कहे छे. ते चोयो भाग घरनी भींत आंगणु, शेरी, राजमार्ग, ने वास्ते जोइए एटला माटे न घाल्युं ॥ ५७ ॥ बत्तीससहस्सा नाडयाण अंतेउरस्स चउसट्ठी । रायवरभवणअंतो भरहेण समं चिय वसति ॥ ५८ ॥ अर्थ-बत्रीस हजार नाटक करनार पुरुषो चोसठ हजार अंतेउरी राजभवन माही भरत चक्रीनी संघाते वसे छे ।। ५८॥ एअं इमं च भणि पन्नत्तीए उ जंबुदीवस्स। चत्तारि वि सेणाओ नयरीमज्झे न पविसंति ॥५९॥ ___. अर्थ--जंबुद्धीप पन्नतीने विषे, एअं० पुर्वोक्तं इमं वक्ष्यमाण कयुं छे चारे प्रकारनी सेना नगरीमांही न पेसे ॥ १९ ॥ चक्किभवणप्पमाणं ववहारे भासियं फुड एअं। तह केसवाण राईण पागयाणं च लोगाणं ॥६०॥ अर्थ-चक्री, वासुदेव, राजा, प्राकृतलोक-सामान्यलोक एहना भवन- प्रमाण एह, कथु छ । ६० ॥ ते कहे छे. चक्कोणं अट्ठसयं चउसट्ठी होइ वासुदेवाणं । बत्तीस मंडलीए सोलस हत्था उ पागईए ॥ ६१॥ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat I FUCAACCURESS ॥७॥ www.umaragyanbhandar.com Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * अर्थ-चक्रवर्तीन भवन १०८ हाथ होय, वासुदेवनुं भवन ६४ हाथर्नु होय, मंडलीकराजानुं भवन ३२ हाथर्नु होय, सामान्यलोकनां घर १६ हाथ होय ॥ ६१॥ कांइक अधिकुं कहीए छीए. एगतलेसु गिहेसु एअं बत्तीसतलगिहाईसु । मायंति तदणुसारेण जे पुणो ते अणेगगुणा ॥२॥ अर्थ-एकतलुछे जेहन एहवा घरने विषे एअं० पूर्वोक्त मनुष्य पांचसे माय, बत्रीसतलांछे जेहनां एवा घरने विषे तेना अणुसारे वत्रीसतलाने विषे जुदा जुदा पांचसो पांचसो माय, जे पुनःवली ते एकतलाना घरथी बत्रीस तला अनेक गुणा कहेतां एहवा घर अनेक छे ॥ ६२ ॥ किंच|| एगेगाए पागरवीहिगाए अणेगबाराइं। जं हुंति तव्वसाओ पायारपुराइं गाइं ॥ ३॥ अर्थ-एकेका प्राकारनी वीथिकाने विषे, मार्गने विषे, अनेक द्वार होय, जेह कारणथी तवसात् ते अनेक द्वारनां विशेष प्राकारने विषे पुरो अनेक होय. ॥ ६३ ॥ तत्तो तहाविहो कोइ नत्थि वज्झाण अंतरंगाणं । गेहाणिस्थ विसेसो एवं किं माइनो तत्थ ॥६४॥ है अर्थ-ततः तस्मात् कारणात् तेह कारणथी नगरी बहार घर छे तेहर्नु तथा नगरीमांहि घर छे तेहर्नु, अत्र तथा विध कोइ विशेष नथी. जेहवां नगरी बहारनां घर छे तेहवां नगरी माहीलां घर. ग्रंथकार पुछे छे. कहीए एवं इण प्रकारे तत्थ-ते भरतक्षेत्रने विषे किं न माय ? अपितु माय ॥ ६४॥ 1 जुअलुप्पन्नो तयणंतरो वि पाएण भरहखित्तम्मि । 'लोगो तो माइ बहू पुरेसु गामेसु नेअव्वो ॥६५॥ अर्थ-जुगलीयां उत्पन्न थयां तदनंतर तिवार पछी कहेतां दुकडे जे काल प्रवाहे भरतक्षेत्रने विषे लोक पुरने विषे गामने विषे घj माय. एहq जाणवु. तो पाछला कालना केम न माय ॥६५॥ लेसुद्देसेणेवं समायंतंमि चकिपरिवारे । कहमन्नहा सुअत्थो बुहेण तीरइ परूवेडं MAGESARKA-SCREERHIPPEARN ** *** Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara. Surat www.umaragyanbhandar.com Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भंगुल० अर्थ एवं इण प्रकारे तस्मिन् ते भरतक्षेत्रना लेसुद्देसेण कहेतां लवलेस मांहीं चक्रीनो परिवार माय अन्यथा मूत्रनो अर्थ प्ररूपवा केम शक्तिमान थइए // 66 // | जइ पुण सहस्सगुणिए चउसयगुणिए वकस्सई तोसो।तो सोतहाविकुजापरं विरोह परिहरिजा // 67 // अर्थ-यदि कहेतां जो पुनःवली सहस्र (1000) गुणित अने चारसो गुणित कहीने संतोष उपजे तो तथा विध ते संतोष करो परंतु सहस्र गुणित चारसो गुणीत एहनुं मानवू पणं एटलं कर विरोध परिहरवो.॥६७॥ . अम्हाणमभिनिवेसो न कोइ इत्थ परमन्नहा सुत्ती अघटतं पिव पुव्वावरेण पडिहाइ किं करिमो अर्थ-अत्र अंगुल विचारने विषे ग्रंथकारक कहे छे अम्हने कांइ अभिनिवेस कहेतां कदाग्रह नथी परं अन्यथा पूर्वापर पहेलु | अने पछी सूत्र विघटे हुँ सुं करूं? // 68 // - एअम्मि अपन्नविए उस्सुत्तं हुज्ज किं पि जइइत्थ।तो॥मे मिच्छादुक्कडमिह तत्तविऊ जिणो जेण // 69 // 4 अर्थ-ए अंगुल सत्तरी प्ररूपतां कांइपण उत्सूत्र, यदि कहेतां जो. अत्र कहेता इहां, अंगुल विचारने विषे मुजने 'मिच्छा| मिदुकडं ' जे कारणे तखतो जाण, जिन केवली ते जाणे // 69 // है सिरिमंमुणिचंदमुणीसरेहिं सुत्ताणमणुसरंतेहिं / सुत्तगयजुत्तिसारं रइअमिणं सपरगुणहेउं // 70 // अर्थ-मूत्रनी आज्ञाने अनुसरता एवा श्रीमान् मुनिचंद्रमुनीश्वरे मूत्रगत जे युक्ति ते सारं० प्रधान एहवी अंगुलसप्ततिकानी रचना करी / किमर्थं रचितं स्व अने परने अर्थ. // 7 // // इति अंगुलसप्ततिका समाप्ता // CALCULA Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com