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अंगुल०
॥ अहम् ।
भा०सह
॥१॥
श्रीममुनिचन्द्रसूरिविरचिता
अंगुलसत्तरी । *
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GHOSHIRISHASHIOSAO3
उसभसमगमणमुसभजिणमणिमिससामिसंथुअगुणोहानमिऊणंगुललक्खणसंक्खेवमिणपवक्खामि ॥१॥ ६] अर्थ-ऋषम जिनने नत्वा नमिने आगे कहेवाता अंगुलोन लक्षण संक्षेपथी कहीश, ऋ० केवा छे ऋ०-वृषभ समान गमन छे जेहनु, वली केवा
छे अनिमिष एटले देवता तेहना स्वामि इंद्र तेहने स्तुति करवा लायक गुणोछे जेहना. ॥१॥ ते आदिदेवमे नमस्कार करी ग्रंथकार 5 अंगुलोर्नु लक्षण बतावे छे
उस्सेहंगुलमायंगुलं च तइयं पमाणनामं च । इय तिन्नि अंगुलाई वावारिज्जंति समयम्मि॥ २॥ अर्थ-उत्सेधांगुल, आत्मांगुल, प्रमाणांगुल आ त्रण प्रकारना अंगुलो मूत्रसिद्धांतमां वर्णवेलाछे.२। ग्रंथकार प्रथम उत्सेधांगुलनु स्वरूप बतावे छे. परमाणूइच्चाइक्कमेण उस्सेहअंगुलं भणियं । जं पुण मायंगुलमेरिसेणं तं भासियं विहिणा ॥३॥
- “परमाणू तसरेणू रहरेणू वालअग्गलिक्खा य। जू य जवो अद्वगुणो कमेण उस्सेहअंगुलयं॥” अर्थ-जेना छेदनभेदन करवाथी बे टुकडान थाय ते परमाणू कहीए, अनंता व्यवहारपरमाणू पुद्गलोनो समुह थाय त्यारे एक उल्लक्षणलै लक्ष्णिका, आठ उल्लक्षणश्लक्ष्णिकाए एक लक्ष्णश्लक्ष्णिका, आठ लक्ष्ण लक्ष्णिकाए एक उर्ध्वरेणू, आठ उर्ध्वरेणूकाए ला
॥१॥
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