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श्री श्रीचंद गोलेचा
[ श्री कन्हैयालाल लोढ़ा एम० ए०
आगमकालीन नय - निरूपण
गहन- गम्भीर जैन तत्त्वविद्या को समझने की कु जी हैन। विभिन्न दृष्टियों से वस्तुतत्व के परीक्षण की यह विद्या जैन आगमों में पूर्ण विकसित हुई है । अनुयोगद्वार एवं षट्खंडागम के आधार पर नय का विवेचन यहाँ प्रस्तुत है।
जैनदर्शन में श्रुतज्ञान को समझने-समझाने की विशेष विधा है। इस विधा का निरूपण करने वाला आगम कालीन शास्त्र अनुयोगद्वार है। इसमें उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय इन चार अनुयोगों द्वारा 'श्रुत' के अभिप्राय को यथार्थ रूप में समझने की विधि का विशद रूप से वर्णन है ।
इन चार अनुयोगों में निक्षेप और नय का वर्णन मुख्य रूप से केवल अनुयोगद्वार सूत्र में ही पाया जाता है। और इनका उपयोग मुख्य रूप से षट्खंडागम में हुआ है। भाषा को समझने के लिए कोष और व्याकरण का जो स्थान है, वही स्थान श्रुत ( आगम) को समझने के लिए निक्षेप और नय का है ।
अनुयोगद्वार और संगम के अनुशीलन से यह स्पष्ट हो जाता है कि 'जय' अर्थात् वाच्य द्वारा प्रतिपादित 'अर्थ' की अवस्था का वास्तविक व निश्चयात्मक ज्ञान कराने का साधन मात्र है । यह अवस्था द्रव्य, गुण, क्रिया और पर्याय में से किसी से भी सम्बन्धित हो सकती है ।
प्रस्तुत लेख में अनुयोगद्वार एवं षट्खंडागम इन्हीं दो ग्रन्थों के आधार से नय के स्वरूप का विचार किया
जाता है।
'अनुयोगद्वार' में सात नयों का विधान है । परन्तु मुख्यतया पाँच ही नयों का प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार षट्खंडागम में भी इन्हीं पाँच नयों के आधार पर ही वर्णन है। शब्द नय के दो भेद समभिरूढ़ तथा एवंभूत नय का इसमें कहीं नाम भी नहीं आया है। किन्तु इसमें कोई सैद्धान्तिक अन्तर नहीं है। कारण कि इन दोनों नयों का समावेश शब्द नय में ही हो जाता है। 'तत्त्वार्थसूत्र' में भी इन्हीं पाँच नयों का उल्लेख है ।
अनुयोगद्वार में सात नय इस प्रकार हैं-१, नैगम नय, २. संग्रह नय, ३. व्यवहार नय, ४. ऋजुसूत्र नय ५. शब्द नय, ६. समभिरूढ़ नय और ७ एवंभूत नय ।
नैगम नय -- वह कथन जिससे एक से अधिक रूपों, अवस्थाओं का बोध हो अर्थात् शब्द द्वारा प्रतिपादित अर्थ जहाँ भेद-प्रभेद को लक्षित करता हो । जहाँ किसी भी द्रव्य, गुण, क्रिया के भेद-उपभेद का अभिप्राय लक्षित हो ।
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संग्रह नय - वह वर्णन जिससे अनेक रूपों, अवस्थाओं का एकरूपता में कथन हो अर्थात् अपने वर्ग रूप में अर्थं का प्रतिपादन करता हो। द्रव्य, गुण, क्रिया, पर्याय आदि के अनेक रूपों या भेदों के समूह का अभिप्राय लक्ष हो । व्यवहार नय --- वह कथन जिसका बोध किसी अन्य के आश्रय, अपेक्षा, आरोप से सम्बन्धित होने से प्रयास
पूर्वक हो ।
ऋजुसूत्र नय - वह कथन जिसका आशय सरलता से अनायास समझ में आ जावे । अर्थात् कथन का लक्ष्य सरल सहज अवस्था में हो ।
शब्द नय - - वह कथन जिसमें शब्द के अर्थ की प्रधानता से बोध हो । समभिरूढ़ नय - वह कथन जिसमें शब्द का अर्थ किसी विशेष रूप, व्यक्ति,
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आदि में रूढ़ हो ।
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२० | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ
एवंभूत नय - वह कथन जिसमें शब्द के अर्थ के अनुरूप क्रिया भी हो ।
प्रथम चार नय प्रधानतः रूप या वस्तु की अवस्था पर आधारित होने से द्रव्यार्थिक नय कहलाते हैं और अन्तिम तीन नय शब्द के अर्थ अर्थात् भाव या पर्याय पर आधारित होने से भावार्थक या पर्यायार्थिक नय कहे जाते हैं । संक्षेप में कहा जा सकता है कि १. वस्तु का अनेक भेदोपभेद रूप कथन नैगम नय है । २. वर्ग रूप कथन संग्रह नय है । ३. उपचरित कथन व्यवहार नय है । ४. विद्यमान यथारूप कथन ऋजुसूत्र नय है । ५. शब्द के अर्थ के आशय पर आधारित कथन शब्द नय है । ६. शब्द के व्युत्पत्तिरूप अर्थ का सीमित अथवा किसी रूप विशेष का द्योतक कथन समाभिरूढ़ नय है और ७. शब्द के व्युत्पत्तिपरक अर्थं का अनुसरण करने वाला एवंभूत नय है ।
प्रथम यहाँ अनुयोगद्वार सूत्र में नय के निरूपण हेतु आए तीन दृष्टान्त - १. प्रस्थक, २. वसति एवं ३. प्रदेश को प्रस्तुत करते हैं ।
१. प्रस्थक का दृष्टान्त
नैगम नय - कोई पुरुष प्रस्थक ( अनाज नापने का पात्र) बनाने को लड़की लाने के लिये जाने से लेकर प्रस्थक बनाने की सब क्रियाओं को 'मैं प्रस्थक बनाता हूँ, ऐसा कहकर व्यक्त करता है। यहाँ प्रस्थक की अनेक अवस्थाओं का वर्णन 'प्रस्थक' से होना नैगम नय का कथन है। कारण कि इस कथन से प्रस्थक बनाने की क्रियाओंलकड़ी लाने जाना, लकड़ी काटना, छीलना, साफ करना आदि अनेक रूपों (भेदों अथवा अवस्थाओं) का बोध होता है । एक ही कथन से भेद, उपभेद, अवस्थाएँ आदि रूप में अथवा अन्य किसी भी प्रकार से अनेक बोध हों ( आशय प्रकट हों), वह नैगम नय का कथन कहा जाता है ।
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व्यवहार नय - नैगम नय में वर्णित उपर्युक्त सब कथन व्यवहार नय भी है। कारण कि लकड़ी लाने जाना, लकड़ी छीलना आदि सब क्रियाएँ जो प्रस्थक बनाने की कारण रूप हैं उनका यहाँ प्रस्थक बनाने रूप कार्य पर आरोपण (उपचार) किया जा रहा है। यद्यपि यहाँ प्रत्यक्ष लकड़ी लाने जाने की क्रिया हो रही है न कि प्रस्थक लाने की, क्योंकि अभी तो प्रस्थक बना ही नहीं है और जो अभी बना ही नहीं है, है फिर भी व्यवहार में लकड़ी लाने जाने को प्रस्थक लाने जाना कहना सही है संग्रह नय - अनाज नापने में उद्यत अर्थात् नापने के लिये जो को प्रस्थक कहना संग्रह नय है ।
ही नहीं, उसे कैसे लाया जा सकता है ?
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दिक्षुणं ।
अतः यह कथन व्यवहार नय है । पात्र तैयार हो गये हैं, उन विभिन्न पात्रों
अर्थात् प्रस्थक शब्द से जहाँ नापने का
ऋजुसूत्र नय - 'उज्जुसुयस्स पत्थओऽवि पत्थओ मेज्जपि पत्थओ' पात्र अभिप्रेत है या नापी हुई वस्तु अभिप्रेत है वह ऋजुसूत्र नय है। कारण कि यहाँ प्रस्थक शब्द से ये अर्थ सरलता से समझ में आ जाते हैं । अर्थ समझने के लिये न किसी प्रकार का प्रयास करना पड़ता है और न किसी अन्य प्रकार का आश्रय लेना पड़ता है ।
शब्द नय-- तिन्हं सहनयाणं पत्थयस्स अत्याहिगार जाणओ जस्स वा वसेणं पत्थओ निप्फज्जइ सेतं यत्यय
अर्थात् तीनों शब्द नय से प्रस्थक का अर्थाधिकार ज्ञात होता है अथवा जिसके लक्ष्य से प्रस्थक निष्पन्न होता है वह शब्द नय है । प्रस्थक के प्रमाण व आकार-प्रकार के भाव के लिये प्रयुक्त प्रस्थक शब्द, शब्द नय का कथन है ।
२. वसति का दृष्टान्त
नंगम नय - आप कहाँ रहते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में यह कहना कि मैं (१) लोक में, (२) तिर्यक् लोक में, (३) जम्बू द्वीप में, (४) भारतवर्ष में, (५) दक्षिण भारत में, (६) अमुक प्रान्त में, (७) अमुक नगर में, (८) अमुक मोहल्ले में, (६) अमुक व्यक्ति के घर में, (१०) घर के अमुक खंड में रहता हूँ । ये सब कथन या इनमें से प्रत्येक कथन नैगम नय है । कारण कि यहाँ बसने विषयक दिये गये प्रत्येक उत्तर से उस स्थान के अनेक भागों में कहाँ पर बसने
का बोध होता है, अर्थात् बसने के अनेक स्थानों का बोध होता है । अतः नैगम नय है ।
व्यवहार नय - उपर्युक्त सब कथन व्यवहार नय भी है। कारण कि जिस क्षेत्र में वह अपने को बसता
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'आगमकालीन नय-निरूपण | २६१ मानता है, उसमें सब जगह व सब समय वह नहीं रहता है। फिर भी उसका यह कथन व्यवहार में सही माना जाता है । यह कथन उपचार रूप होने से व्यवहार नय है ।
संग्रह नय - शैय्या पर आरूढ़ अवस्था को बसता हुआ कहना संग्रह नय है । इस कथन में शैय्या शब्द से अनेक जगह बसने का अर्थ व्यक्त होता है । कारण कि कोई जहाँ कहीं भी बसता है, शैय्या पर आरूढ़ कहा जाता है । अत: संग्रह नय है ।
ऋऋजुसूत्र नय - वह वर्तमान में जिस आकाश क्षेत्र में स्थित है, अर्थात् जहाँ पर उपस्थित है, अपने को वहीं पर बसता कहना ऋजुसूत्र नय है। कारण कि उसका यह कथन सामने सदा विद्यमान अवस्था का होने से अनायास सरलता से समझ में आता है । अतः ऋजुसूत्र नय है ।
शब्द नय - ' अपने को अपने शरीर (आत्मभाव ) में बसता हुआ कहना' यह कथन तीनों शब्द नयों का है । कारण कि बसने शब्द का अर्थ या भाव है आत्मा का निवास । शरीर में या अपने आप में अपना निवास है । यह कथन शब्द के अर्थ, रूढ़ार्थ रूप अवस्था तथा तदनुसार क्रियावान अवस्था का द्योतक है। अतः शब्द नय, समभिरूढ़ नय तथा एवंभूत नय है ।
३. प्रदेश का दृष्टान्त
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नगम नय - छ: प्रदेश हैं । यथा - १. धर्मास्तिकाय का प्रदेश २. अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, ३. आकाश का प्रदेश, ४. जीव का प्रदेश, ५. स्कंध का प्रदेश और ६. देश का प्रदेश । इस कथन से प्रदेश के अनेक रूपों (भेद ज्ञान रूप) का बोध होता है। अतः नैगम नय है ।
संग्रह नय - पंचप्रदेश हैं । कारण कि उपर्युक्त स्कंध का प्रदेश और देश का प्रदेश अलग-अलग न होकर एक ही है । अतः इन दोनों के एकत्व के मानने वाला कथन संग्रह नय है ।
व्यवहार नय - पंच प्रदेश से पाँचों का एक ही प्रदेश है। ऐसा अभिप्राय झलकता है - ऐसा प्रतीत होता है । यह कथन व्यवहार में ठीक नहीं है । अतः पंच प्रदेश न कहकर पंचविध प्रदेश कहना चाहिए। यह कथन भी उपचरित है। कारण कि धर्मास्ति, अधर्मास्ति आदि किसी के भी पाँच प्रकार के प्रदेश नहीं होते हैं । यहाँ आशय में 'पंचविध' के स्थान पर 'पाँच के' लेना होगा। अतः यह उपचरित कथन होने से व्यवहार नय है ।
ऋजुसूत्र नय - पंचविध प्रदेश कहने से धर्मास्ति आदि प्रत्येक के पाँच-पाँच प्रकार के प्रदेश हो जाने से पच्चीस प्रकार के प्रदेश हो जाएँगे जो उचित नहीं है । जिस स्थान में धर्मास्तिकाय का प्रदेश है उसी में अधर्मास्ति आदि शेष चार के भी प्रदेश हैं । अतः यह कहना कि यह स्यात् धर्मास्तिकाय का प्रदेश है, स्यात् अधर्मास्तिकाय का प्रदेश है । इसी प्रकार आकाश, जीव आदि के साथ भी स्यात् लगाकर कहा गया कथन सरलता से समझ में आ जाता है । अतः ऋजुसूत्र नय है ।
संप्रति शब्द नय - पाँचों के साथ स्यात् शब्द लगाने से भी प्रदेश एकमेक हो जाएँगे। सभी स्थानों पर सभी के प्रदेशों के होने का प्रसंग उत्पन्न हो जाएगा और कहने के अभिप्राय को प्रकट करने की कोई अवस्था ही न बन सकेगी । अनवस्था दोष उत्पन्न हो जाएगा । अतः वहाँ स्थित धर्मास्तिकाय के प्रदेश को धर्मास्तिकाय का प्रदेश कहो । इसी प्रकार शेष चार को भी कहो। यह कथन अर्थप्रधान होने से शब्द नय है ।
कर्मधारय इन दो समासों की
समभिरूढ़ नय - 'धम्मे परसे से पएसे धम्मे' इस वाक्य से तत्पुरुष और अभिव्यक्ति होती है । तत्पुरुष समास में धम्मे शब्द अधिकरण कारक में लेने से धर्म में प्रदेश हो जाएगा अर्थात् धर्म और प्रदेश दो भिन्न-भिन्न हो जाएँगे । कर्मधारय समास में धर्म शब्द प्रदेश का विशेषण बन जाएगा । ये दोनों ही अर्थ यहाँ भ्रमोत्पादक होने से इष्ट नहीं हैं । अतः यह कहना चाहिए कि यह प्रदेश धर्मास्तिकाय है। इसी प्रकार शेष
अधर्मास्तिकाय आदि के साथ भी जानना चाहिए। यह कथन धर्मास्तिकाय आदि विशेष में रूढ़ होने से समभिरूढ़
नय है ।
एवंभूत नय - धर्मास्तिकाय आदि से उनके देश प्रदेश भिन्न हैं ही नहीं । अतः धर्मास्तिकाय और उसका प्रदेश पर्यायवाची अर्थात् एक ही हुए। धर्मास्तिकाय से उसका प्रदेश अलग वस्तु है ही नहीं। यह कथन एवंभूत नय है ।
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२९२ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज — अभिनन्दन ग्रन्थ
षट्खंडागम के चतुर्थ वेदनाखंड में नयों का प्रयोग हुआ है । वेदनाखंड के सोलह द्वार हैं । उनमें सात द्वारों में नय से कथन हुआ है। उसे यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है।
वेदना नय विभाषणता द्वार
वेदना का निक्षेप चार प्रकार का है—१. नाम वेदना, २. स्थापना वेदना, ३. द्रव्य वेदना और ४. भाव
वेदना ।
वेदना नय विभाषणता के अनुसार कौन नय किन वेदनाओं की इच्छा करता है ? उत्तर में कहा हैगम-वबहार संगहा सव्वाओ । उजुसुदो द्ववणं णेच्छदि । सद्दणओ णामवेयणं भाववेयणं च इच्छवि ॥ अर्थात् नैगम, व्यवहार और संग्रह ये तीन नय सभी वेदनाओं को स्वीकार करते हैं । ऋजुसूत्र नय स्थापना वेदना को स्वीकार नहीं करता है। शब्द नय नाम वेदना व भाव वेदना को स्वीकार करता है ।
विवेचन
उपर्युक्त चारों वेदनाएँ भेद-रूप अनेक अवस्थाओं का बोध कराती हैं। इस अपेक्षा से नैगम नय हैं। इन चारों वेदनाओं में से प्रत्येक वेदना में अपनी जाति की अनेक वेदनाओं का समावेश है । अतः संग्रह नय है। चारों वेदनाएं अन्य पर आधारित हैं । अतः आरोप या उपचार रूप होने से व्यवहार नय है ।
ऋजुसूत्र नय में स्थापना वेदना के कथन का समावेश नहीं होने का कारण यह है कि स्थापना वेदना का बोध उपचार या आरोप से होता है। सहज सरलता से नहीं होता है। शेष नाम वेदना, द्रव्य वेदना और भाव वेदना का बोध सामने विद्यमान होने पर अनायास सरलता से हो जाने की अपेक्षा से ऋजुसूत्र नय है ।
शब्द नय का उपयोग केवल नाम और भाव वेदना में होता है। कारण कि वेदना शब्द से अभिप्रेत अर्थ की अनुभूति सामने विद्यमान नाम वेदना और भाव वेदना में ही घटित होती है। स्थापना वेदना और द्रव्य वेदना नहीं होती । अतः शब्द नय से उनका कथन नहीं हो सकता ।
वेदना - नाम-विधान द्वार
वेणाणाम विहाणेति । णेगम ववहाराणं णाणावरणीय वेयणा, दंसणावरणीय वेयणा, वेयणीय वेयणा, आउव वेयणा, णाम वेयणा, गोय वेयणा, अंतराइ वेयणा ॥१॥ संगहस्स अट्ठणां पि कम्माणं वेयणा ||२|| उजुसुदस्स णो णाणावरणीय वेयणा, णो मोहणीय वेयणा, णो आउव वेयणा, णो णाम वेयणा, णो गोय वेयणा, णो अंतराइ वेयणा, वेयणीयं चैव वेयणा ||३|| सद्दणयस्स वेयणा चेब वेयणा ॥ ४ ॥
अर्थ - वेदना नाम विधान अधिकार के अनुसार नैगम और व्यवहार नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय वेदना, दर्शनावरणीय वेदना, वेदनीय वेदना, मोहनीय वेदना, आयु वेदना, नाम वेदना, गोत्र वेदना और अंतराय वेदना; इस प्रकार वेदना आठ भेद रूप है । यह नंगम और व्यवहार का कथन है ||१|| आठों ही कर्मों का एक वेदना शब्द द्वारा कथन संग्रह नय है ॥२॥ ऋजुसूत्र नय से वेदनीय ही वेदना है, शेष ज्ञानावरणीय आदि सात कर्मों की वेदना का कथन नहीं है ||३|| शब्द नय से वेदना ही वेदना है ||४||
विवेचन - ज्ञानावरणीय की वेदना, दर्शनावरणीय की वेदना इस प्रकार आठों ही कर्मों की वेदना रूप वेदना के आठ भेद या प्रकार हैं। यह कथन भेद रूप होने से नैगमनय का कथन है । इन आठों ही वेदनाओं का कथन प्राणी में वेदन रूप होने से उपचार या आरोप रूप कथन है, इस अवस्था में ये व्यवहार नय है । वेदना कथन से आठों कर्मों की सर्व वेदनाओं का समावेश हो जाता है । अतः यह कथन संग्रह नय का है ।
ऋजुसूत्र नय से केवल वेदनीय कर्मजनित वेदना ही वेदना है। कारण कि साता व असाता रूप वेदना का बोध सरलता से होता है। शेष सात कर्मों के वेदन का बोध अनायास सरलता से नहीं होता है ।
वेदन करना ही वेदना है। यह कथन नाम और भाव प्रधान होने से शब्द नय है ।
वेदना - प्रत्यय - विधान अधिकार
वेण पच्चय विहात्ति ॥ १॥ णेगम - ववहार-संगहाणि णाणावरणीय वेयणा पाणादिवादपच्चए ॥ २॥ मुसा
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. आगमकालीन नय-निरूपण | २६३
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वाद पच्चए ॥३॥ अवत्तादाण पक्चए ॥४॥ मेहुण पच्चए ॥५॥ परिग्गह पच्चए ॥६॥रादिभोयण पच्चए ॥७॥ एवं कोह-माण-माया-लोह-राग-दोस-मोह-पेम्म पच्चए ॥८॥ णिदाणपच्चए ॥९॥ अन्भक्खाण-कलह-पेसुण्ण-अरइ-उबहि-णियदि माण-माय-मोस-मिच्छणाण-मिच्छदसण-पओ अपच्चए ॥१०॥ एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥११॥ उज्जुसुवस्स णाणावरणीय वेयणा जोग पच्चए पयडि-पदेसगां ॥१२॥ कसाय पच्चए द्विदि- अणुभाग वेयणा ॥१३॥ एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥१४॥ सद्दणयस्स अवत्तव्वं ॥१५॥ एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥१६॥
अर्थात् वेदना प्रत्यय विधान के अनुसार नैगम-व्यवहार-संग्रह नय के कथन की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की वेदना प्राणातिपात प्रत्यय (कारण) से होती है । मृषावाद प्रत्यय से होती है । अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह, रात्रि-भोजन, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, प्रेम, निदान, अभ्याख्यान, कलह, पैशुन्य, रति-अरति, उपाधि, निकृति, मान, मेय, मोष, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और प्रयोग इन प्रत्ययों से ज्ञानावरणीय की वेदना होती है। इसी प्रकार सात कर्मों की वेदना के प्रत्ययों की प्ररूपणा करनी चाहिए।
ऋजुसूत्र नय से ज्ञानावरणीय की वेदना योग प्रत्यय से प्रकृति व प्रदेशाग्र (प्रदेश समूह) रूप होती है और ज्ञानावरणीय की स्थिति वेदना और अनुभाग वेदना कषाय प्रत्यय से होती है । इसी प्रकार ऋजुसूत्र नय से शेष सातों कर्मों के प्रत्ययों की प्ररूपणा करनी चाहिए।
शब्द नय से ज्ञानावरणीय की वेदना अवक्तव्य है। इसी प्रकार शब्द नय से शेष सात कर्मों की वेदना के विषय में भी प्ररूपणा करनी चाहिए।
विवेचन-ऊपर ज्ञानावरणीय की वेदना के प्रत्यय प्राणातिपात, मृषावाद आदि से लेकर 'प्रयोग' तक अनेक हैं । ये अनेक भेदरूप प्रत्ययों का कथन होने से नैगम नय है । ये ही प्रत्यय प्राणी की क्रिया या व्यवहार से सम्बन्धित कथन रूप होने पर व्यवहार नय का कथन होगा तथा भेद रूप प्रत्येक प्रत्यय अनेक उपभेदों का संचय होने से संग्रह नय का कथन है । ज्ञानावरणीय के वेदना के प्रत्ययों को इसी प्रकार नैगम, व्यवहार और संग्रह नय से शेष सात कर्मों की वेदना के प्रत्ययों की भी प्ररूपणा समझनी चाहिए।
ऋजुसूत्र नय-ज्ञानावरणीय की वेदना योग प्रत्यय से प्रकृति व प्रदेश रूप एवं कषाय प्रत्यय से स्थिति और अनुभाग वेदना होती है । विद्यमान वेदना और प्रत्यय में यह सीधा-सरल संबंध होने से ऋजुसूत्र नय का कथन है। शेष सात कर्मों के प्रत्ययों की भी प्ररूपणा ऋजुसूत्र नय से इसी प्रकार होती है।
शब्द नय-ज्ञानावरणीय वेदना अवक्तव्य है। क्योंकि ये प्रत्यय अनुभूतिपरक हैं । शब्दों में वेदना प्रत्ययों की अभिव्यक्ति नहीं हो सकती है । अत: शब्द के अर्थरूप से इन प्रत्ययों का कथन शक्य नहीं है । वेदना-स्वामित्व विधान
वेयण सामित्त विहाणेत्ति ॥१॥ णेगम ववहाराणि णाणावरणीय वेयणा सिया जीवस्स वा ॥२॥ सिया णोजीवस्स वा ॥३।। सिया जीवाणं वा ॥४॥ सिया णोजीवाणं वा ||५|| सिया जीवस्स च णोजीवस्स च ॥६॥ सिया जीवस्स च णोजीवाणं च ॥७॥ सिया जीवाणं च णोजीवस्स च ॥८॥ सिया जीवाणं च णोजीवाणं च ॥६॥ एवं सत्तणं कम्माणं ॥१०॥ संग्गहणयस्स णाणावरणीय वेयणा जीवस्स वा ॥११॥ जीवाणं वा ॥१२॥ एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥१३॥ सदुजुसुदाणं णाणावरणीय वेयणा जीवस्स ॥१४॥ एवं सत्तण्ण कम्मासं ॥१५॥
अर्थात् वेदना स्वामित्व विधान के अनुसार नैगम और व्यवहार नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की वेदना कथंचित् जीव के होती है । कथंचित् नोजीव के होती है। कथंचित् बहुत जीवों के होती है । कथंचित् बहुत नोजीवों के होती है । कथंचित् एक जीव के और एक नोजीव इन दोनों के होती है । कथंचित् एक जीव के और बहुत नोजीवों के होती है । कथंचित् बहुत जीवों के और एक नोजीव के होती है । कथंचित् बहुत जीवों और बहुत नोजीवों के होती है। इसी प्रकार के प्रभेद नैगम और व्यवहार नय से शेष सात कर्मों की वेदना के सम्बन्ध में भी कथन जानना चाहिए। संग्रह नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की वेदना एक जीव के या बहुत जीवों के होती है । इसी प्रकार संग्रह नय से शेष सात कर्मों की वेदना के विषय में भी कथन जानना चाहिए । शब्द और ऋजुसूत्र नय की अपेक्षा ज्ञानावरणीय की वेदना जीव के होती है। इसी प्रकार इन दोनों नय से शेष सात कर्मों की वेदना के विषय में भी जानना चाहिए।
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२६४ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज-अभिनन्दन ग्रन्थ
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विवेचन-यहाँ वेदना का स्वामी कौन है, इस अधिकार का कथन किया गया है। वेदना का स्वामी जीव है और नोजीव (पुद्गलमय शरीर) है। इन दोनों के एक और बहुत संख्या के संयोग रूप अनेक भेद प्रकार वेदना के स्वामी के बनते हैं। स्वामित्व का भेदरूप अनेक बोधकारी कथन नैगम नय है। ये ही भेदरूप कथन जब प्राणी पर उपचरित होते हैं, व्यवहृत होते हैं तब व्यवहार नय के विषय बन जाते हैं। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि वेदना का स्वामी जीव है या नोजीव है । यह कथन संग्रह नय का है।
ऋजुसूत्र नय से वेदना का स्वामी वह जीव है, जिस जीव को वह वेदना हो रही है । अनेक जीवों की वेदना मिलकर एक नहीं होती है । अत: ऋजुसूत्र नय में अनेक जीव या नोजीव वेदना के स्वामी नहीं होते हैं। कारण कि ऋजुसूत्र नय में यथाभूत रूप कथन ही अपेक्षित होता है। शब्द नय में शब्दार्थ की प्रधानता होती है। अत: इस नय से वेदना शब्द का अर्थ वेदन करना होता है और वेदन प्रत्येक जीव अलग-अलग करता है। नोजीव शरीरादि वेदन नहीं करते हैं और न अनेक जीव सम्मिलित वेदना का अनुभव ही करते हैं । अतः शब्द नय से वेदना जीव के होती है, यह कथन ही उपयुक्त है।
यहाँ वेदना स्वामित्व विधान पर घटित उपर्युक्त नयों को उदाहरण द्वारा प्रस्तुत करते हैं
किसी रेल दुर्घटना में अनेक व्यक्तियों के चोटें लगीं। कोई पैर की चोट की वेदना से पीड़ित है, कोई हाथ की, कोई सिर की, कोई ज्वर की, कोई पेट की आदि भिन्न-भिन्न वेदना से पीड़ित हैं।
उपर्युक्त दुर्घटनाग्रस्त व्यक्तियों की वेदना को अनेक प्रकार से कहा जा सकता है । यथा
१. राम को वेदना हो रही है, उसके हाथ को वेदना हो रही है, उसका पैर वेदनाग्रस्त है । पुरुषों को वेदना हो रही है, स्त्रियों को वेदना हो रही है, बच्चों को वेदना हो रही है। हाथ-पैर, उदर में वेदना हो रही है । इस प्रकार के कथन नैगम नय हैं । यहाँ राम जीव है, हाथ नोजीव है, पुरुष बहुत से जीव हैं । हाथ-पैर-उदर नोजीव हैं । इस प्रकार से वेदना के विविध रूप कथन नैगम नय के विषय हैं।
२. पेट को वेदना हो रही है, हाथ वेदनाग्रस्त है, वह जीव वेदना से मर गया आदि कथन व्यवहार नय से है । वेदना वास्तव में तो जीव को होती है, हाथ-पैर-पेट को नहीं । ये तो उस वेदना के होने में निमित्त मात्र हैं। परन्तु व्यवहार में हम यही अनुभव करते हैं या यही कथन करते हैं। यह कथन कारण रूप (निमित्त) में वेदना रूप कार्य का आरोप होने से है अर्थात् उपचार से है । अत: व्यवहार नय का कथन है। इसी प्रकार वेदना से जीव मर गया यह कथन भी वास्तविक नहीं है। जीव तो अमर है, जीव से शरीर छूटने को अथवा शरीर नाश को व्यवहार में जीव का मरना कहा जाता है । यहाँ कार्य में कारण का आरोप है । अतः व्यवहार नय से कथन है।
३. किसी यात्री की हाथ, पैर, सिर दर्द आदि विविध या अनेक वेदनाओं का अलग-अलग उल्लेख न कर संक्षेप में यह कहना कि यात्री को वेदना हो रही है, इसी प्रकार अनेक वेदनाओं से ग्रस्त अनेक यात्रियों का अलग-अलग उल्लेख न कर समुच्चय रूप से यह कहना कि यात्रियों को वेदना हो रही है । यह संक्षिप्त या सारभूत कथन संग्रह नय कहा जाता है।
४. 'यह राम अपने हाथ की वेदना से पीड़ित है।' इस कथन से आशय एकदम सीधा समझ में आता है। यह यथाभूत विद्यमान कथन ऋजसत्र नय कहा जाता है।
५. 'वेदना जीव के होती है।' यहाँ इस वाक्य में केवल यह कथन किया जा रहा है कि वेदना का स्वामी वेदन करने वाला जीव ही होता है, अन्य कोई नहीं । इस कथन में अर्थ की ही प्रधानता है। किसी जीव या व्यक्ति विशेष से प्रयोजन नहीं है । अतः केवल अर्थ प्रधान होने से यह शब्द नय का कथन है। वेदना वेदन विधान
आठ प्रकार के कर्म पुद्गल स्कन्धों का जो वेदन (अनुभवन) होता है, यहाँ उसका विधान प्ररूपणा है । वह तीन प्रकार की है-कर्म बंधते समय होने वाली वेदना बध्यमान वेदना है । कर्मफल देते समय होने वाली वेदना उदीर्ण वेदना है और इन दोनों से भिन्न कर्म वेदना की अवरज्या उपशान्त है।
नैगम नय से ज्ञानावरणीय की वेदना कथंचित् १. बध्यमान है, २. उदीर्ण वेदना है, ३. उपशान्त वेदना है,
यन ऋजुसूत्र नय कहा इस वाक्य में केवल यह कथन ही प्रधानता है । दि
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आगमकालीन नय-निरूपण | २६५
४. बध्यमान वेदनाएँ हैं, ५. उदीर्ण वेदनाएं हैं, ६. उपशान्त वेदनाएं हैं। ये ६ भंग एक-एक हैं- १. एक बध्यमान और एक उदीर्ण वेदना है । २. एक बध्यमान और अनेक उदीर्ण ३. अनेक बध्यमान और एक उदीर्ण और ४. अनेक बध्यमान और अनेक उदीर्ण वेदनाएं हैं। ये चार भंग बध्यमान और उदीर्ण इन दोनों के द्विसंयोगी हैं। इसी प्रकार चार भंग बध्यमान और उपशान्त के तथा चार भंग उदीर्ण और उपशान्त के द्विसंयोगी बनते हैं। इस प्रकार द्विसंयोगी कुल बारह भंग बनते हैं। एक बध्यमान, एक उदीर्ण और एक उपशान्त यह त्रिसंयोगी भंग है । इन तीनों में एक और अनेक विशेपण लगाने से कुल आठ भंग त्रिसंयोगी बनते हैं । इस प्रकार कुल २६ मंग बनते हैं । भेदरूप होने से अनेक का बोध कराने वाला प्रत्येक भेद रूप यह कथन नैगमनय है। शेष सात कर्मों का वेदना वेदन भी इसी प्रकार समझना चाहिए। 2 व्यवहार नय में बध्यमान अनेक वेदनाएँ कथनीय नहीं होने से इसके ६ भंग उपर्युक्त २६ भंग में से कम होकर शेष १७ मंग ही कथनीय हैं। कारण बध्यमान वेदना राग भाव या द्वेष भाव रूप एक ही होती है। ज्ञानावरणीय आदि आठों कर्मों की वेदना वेदन में से प्रत्येक के साथ उपर्युक्त १७ भंग का ही विधान जानना चाहिए।
संग्रह नय में अनेक वेदना भी वेदना में भी गर्मित मान, २. उदीर्ण, ३. उपशान्त, ४. बध्यमान और उदीर्ण, ५. ७. बध्यमान, उदीर्णं और उपशान्त ये कुल सात भंग बनते हैं। चाहिए । ऋजुसूत्र नय - ज्ञानावरणीय की उदीर्ण फल प्राप्त विपाक वाली वेदना है । यह ऋजुसूत्र नय का कथन है । कारण कि वेदना से सीधा, सरल, सहज बोध कर्मफल देते समय अनुभव होने वाली वेदना का होता है। शेष सात कर्मों के बन्धन में भी इसी प्रकार जानना चाहिए ।
होती है । अतः ज्ञानावरणीय की वेदना कथंचित् १ . बध्यबध्यमान और उपशान्त, ६. उदीर्ण और उपशान्त और शेष सात कर्मों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार समझना
शब्द नय - ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों की वेदना वेदन अवक्तव्य है । यह कथन शब्द नय का है । कारण कि वेदना वेदन का अनुभव ही होता है, उसे शब्द से व्यक्त नहीं किया जा सकता है ।
वेदना-गति विधान
नैगम, व्यवहार और संग्रह नय से ज्ञानावरणीय की वेदना कथंचित् १ अस्थित है, २. स्थित अस्थित है । इसी प्रकार शेष दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन तीन घाति कर्मों की वेदना के सम्बन्ध में जानना चाहिए । अघाति कर्म वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र की वेदना कथंचित् १ स्थित २. अस्थित और ३ स्थित अस्थित है । यहाँ भेद रूप अनेक बोधकारी कथन होने से नैगम नय, उपचरित कथन होने से व्यवहार नय और वेदना की अनेक अवस्थाओं का एकरूप कथन होने से संग्रह नय है ।
ऋजुसूत्र नय से आठों ही कर्मों में से प्रत्येक कर्म की वेदना कथंचित् स्थित है और कथंचित् अस्थित है । कारण कि सीधे अनुभव में एक ही प्रकार का परिवर्तनशील अवस्था का या स्थिर अवस्था का ही वेदन होता है। दोनों एक साथ वर्तमान में अनुभव-वेदन नहीं हो सकते हैं । अतः यह कथन ऋजुसूत्र नय है ।
शब्द नय से अवक्तव्य है। कारण कि वेदना अनुभवगम्य है । कथनीय नहीं है। उसे भोक्ता ही जानता है । वेदना अन्तर विधान
नंगम और व्यवहार नय से आठों ही कर्मों की वेदना - १. अनन्तर बन्ध है, २. परम्परा बन्ध है और ३. तदुमय बन्ध है । यह कथन भेद रूप होने से नैगम नय है। उपचरित होने से व्यवहार नय है । संग्रह नय से अनन्तर बन्ध है और परम्परा बन्ध है। कारण इन दोनों प्रकार के बन्ध में ही बन्ध के सब रूप आ जाते हैं । अतः संगृहीत होने से यह कथन संग्रह नय है ।
ऋजुसूत्र नय से परम्परा बन्ध है । कारण कि यह सीधा-सा बोध सभी को है कि नवीन कर्मों का बन्धन पुराने कर्मों के विपाक की अवस्था में ही संभव है ।
१ अनुयोगद्वार में भी भंग समुत्कीर्तन में इसी प्रकार नैगमनय में २६ भेदों का व संग्रहनय में ७ भेदों का वर्णन है ।
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२९६ | पूज्य प्रवर्तक श्री अम्बालाल जी महाराज - अभिनन्दन ग्रन्थ
शब्द नय अवक्तय है । बन्ध किस प्रकार से हो रहा है, यह प्राणी के अनुभव की बात हैं । कथन से उसे नहीं जाना जा सकता ।
अनुयोगद्वार सूत्र और पट्डागम के उपर्युक्त विवेचन देखने के पश्चात् नयों के विषय में सहज ही निम्ना कित निष्कर्ष प्रकट होता है
नंगम नय
१. प्रस्थक के दृष्टान्त में प्रस्थक बनाने की अनेक क्रियाओं में से कोई भी क्रिया ।
२. वसति के दृष्टान्त में बसने के अनेक स्थानों में से कोई भी स्थान ।
३. प्रदेश के दृष्टान्त में प्रदेश की ६ की संख्या ।
४. वेदना-नय विभाषणता में निक्षेप का प्रत्येक भेद अथवा अनेक भेद ।
५. वेदना नाम विधान में आठों कर्मों की वेदनाएँ ।
६. वेदना - प्रत्यय विधान में वेदना का प्राणातिपात आदि प्रत्येक प्रत्यय ।
७. वेदना - स्वामित्व विधान में जीव व नोजीव व इनके बहुवचनान्त बनने वाले भेद ।
८. वेदना-वेदन विधान में आठों ही कर्मों में से प्रत्येक कर्म वेदना की बध्यमान, उदीर्ण, उपशान्तदशा के २६ भंगों में से प्रत्येक भंग ।
६. वेदना - गति विधान में आठों ही कर्मों में से प्रत्येक कर्म वेदना की स्थित, अस्थित व स्थित अस्थित अवस्था १०. वेदना - अन्तर विधान में आठों ही कर्मों में से प्रत्येक कर्म की वेदना अनन्तर, परम्परा तथा तदुभय रूप
भेद नैगम नय है ।
उपर्युक्त कथनों से स्पष्ट प्रतीत होता है कि नैगम नय अनेक भेदों व उन भेदों में से प्रत्येक भेद का कथन है, अर्थात् विकल्प रूप कथन नैगम नय है ।
व्यवहार नय
उपर्युक्त नैगम नय के कथन के साथ प्रायः सभी स्थलों पर व्यवहार नय का भी वैसा ही कथन है । केवल कुछ कथनों में अन्तर हैं, वे निम्नांकित हैं—
१. प्रदेश के दृष्टान्त में पाँच प्रदेश के स्थान पर पंचविध प्रदेश कथन है ।
२. वेदना-वेदन विधान में नंगम नय में २६ भंग व व्यवहार नय में भंग कम हैं । कारण कि वे भंग तो बनते हैं, परन्तु व्यवहार में वैसा कहीं भी होता नहीं है। इससे इस परिणाम पर पहुँचा जाता है कि जब नैगम नय में वर्णित भेद व भंग या विकल्प का उपचार व्यवहार में होता है, तब वह व्यवहार नय का कथन होता है । इसे समझने के लिये कुछ जोड़ना या आरोपण करना पड़ता है ।
संग्रह नय
नगम व व्यवहार में कथित भेदों, भंगों व विकल्पों में से जो एक जाति के या एक वर्ग के हैं अर्थात् जिनमें समानता पाई जाती है, उनका यहाँ एकत्व रूप संक्षेप में कथन संग्रह नय कहा गया है ।
ऋजुसूत्र नय
ऐसा कथन जिसकी कथनीय विषय-वस्तु प्रत्यक्ष हो और सुनते ही उसका आशय सरलता से सीधा अनायास समझ में आ जाय अर्थात् जिसे समझने के लिए अलग से कुछ जोड़ने का आरोपण का प्रयास न करना पड़े । यहाँ ऐसा कथन ऋजुसूत्र नय कहा गया है।
शब्द नय
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शब्द के भाव (अर्थ) के रूप में आशय को व्यक्त करने वाला कथन शब्द नय कहा गया है।
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________________ ' आगमकालीन नय-निरूपण | 267 000000000000 000000000000 समभिरूढ़ नय __ शब्द के अनेक अर्थों में से एक रूढ़ अर्थ के रूप में आशय ग्रहण करने वाला कथन समभिरूढ़ नय कहा गया है। एवंभूत नय शब्द के अर्थ रूप क्रिया का अनुसरण करने वाले कथन को एवंभूत नय कहा गया है। नयों के प्रसंग में अनुयोगद्वार और षट्खंडागम के उपर्युक्त अनुशीलन से ऐसा लगता है कि आगमकाल में वणित नयों का न्याय के ग्रन्थों में वर्णित प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमा आदि प्रमाणों से कोई सम्बन्ध नहीं था और न नयों का स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति आदि भेद रूप स्याद्वाद या अनेकान्त से ही कोई सम्बन्ध था। न नय किसी मत, पंथ या सम्प्रदाय विशेष के दर्शन का प्रतिपादक ही था। पदार्थ के अनन्त गुणों में से नय किसी एक गुण अथवा दृष्टि को अपनाता है, इस रूप में न नय प्रमाण का अंश था और नयों का समुदाय मिलकर प्रमाण बनता है, ऐसा भी कुछ नहीं था। न शुद्ध नय, अशुद्ध नय या दुर्नय का ही वहाँ वर्णन है। वास्तविकता तो यह है कि आगमकाल में चार प्रमाण माने गये हैं। यथा-१. द्रव्य प्रमाण, 2. क्षेत्र प्रमाण, 3. काल प्रमाण और 4. भाव प्रमाण / इनमें भाव प्रमाण के तीन भेद-गुण, नय और संख्या कहे गये हैं / इस प्रकार चारों प्रमाणों में से मात्र एक भाव प्रमाण से नय का सम्बन्ध है और वह भी मात्र एक भेद के रूप में / आगम सिद्धान्त के आशय को स्पष्ट करने के लिये चार अनुयोगों का उपयोग करने की प्रणाली रही है, उन चार अनुयोगों में नय भी एक अनुयोग है, जिसका कार्य यह जानना है कि आगम में प्रयुक्त कथन (शब्द) से प्रतिपादित विषय की कौन-सी अवस्था अभिप्रेत है। प्रस्तुत लेख लिखने के पीछे भावना यह है कि तत्त्वज्ञ व विद्वद्गण नयों के स्वरूप पर विचार करें और यथार्थ रूप को प्रस्तुत करें। -0--0--0-0-0--0 इच्छा बहुविहा लोए, जाए बद्धो किलिस्सति / तम्हा इच्छामणिच्छाए, जिणित्ता सुहमेधति / / -ऋषिभाषित 40 / 14 संसार में इच्छाएं अनेक प्रकार की हैं, जिनसे बंधकर जीव दुःखी होता है। / अतः इच्छा को अनिच्छा से जीतकर साधक सुख पाता है /