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________________ आगमकालीन नय-निरूपण | २६५ ४. बध्यमान वेदनाएँ हैं, ५. उदीर्ण वेदनाएं हैं, ६. उपशान्त वेदनाएं हैं। ये ६ भंग एक-एक हैं- १. एक बध्यमान और एक उदीर्ण वेदना है । २. एक बध्यमान और अनेक उदीर्ण ३. अनेक बध्यमान और एक उदीर्ण और ४. अनेक बध्यमान और अनेक उदीर्ण वेदनाएं हैं। ये चार भंग बध्यमान और उदीर्ण इन दोनों के द्विसंयोगी हैं। इसी प्रकार चार भंग बध्यमान और उपशान्त के तथा चार भंग उदीर्ण और उपशान्त के द्विसंयोगी बनते हैं। इस प्रकार द्विसंयोगी कुल बारह भंग बनते हैं। एक बध्यमान, एक उदीर्ण और एक उपशान्त यह त्रिसंयोगी भंग है । इन तीनों में एक और अनेक विशेपण लगाने से कुल आठ भंग त्रिसंयोगी बनते हैं । इस प्रकार कुल २६ मंग बनते हैं । भेदरूप होने से अनेक का बोध कराने वाला प्रत्येक भेद रूप यह कथन नैगमनय है। शेष सात कर्मों का वेदना वेदन भी इसी प्रकार समझना चाहिए। 2 व्यवहार नय में बध्यमान अनेक वेदनाएँ कथनीय नहीं होने से इसके ६ भंग उपर्युक्त २६ भंग में से कम होकर शेष १७ मंग ही कथनीय हैं। कारण बध्यमान वेदना राग भाव या द्वेष भाव रूप एक ही होती है। ज्ञानावरणीय आदि आठों कर्मों की वेदना वेदन में से प्रत्येक के साथ उपर्युक्त १७ भंग का ही विधान जानना चाहिए। संग्रह नय में अनेक वेदना भी वेदना में भी गर्मित मान, २. उदीर्ण, ३. उपशान्त, ४. बध्यमान और उदीर्ण, ५. ७. बध्यमान, उदीर्णं और उपशान्त ये कुल सात भंग बनते हैं। चाहिए । ऋजुसूत्र नय - ज्ञानावरणीय की उदीर्ण फल प्राप्त विपाक वाली वेदना है । यह ऋजुसूत्र नय का कथन है । कारण कि वेदना से सीधा, सरल, सहज बोध कर्मफल देते समय अनुभव होने वाली वेदना का होता है। शेष सात कर्मों के बन्धन में भी इसी प्रकार जानना चाहिए । होती है । अतः ज्ञानावरणीय की वेदना कथंचित् १ . बध्यबध्यमान और उपशान्त, ६. उदीर्ण और उपशान्त और शेष सात कर्मों के सम्बन्ध में भी इसी प्रकार समझना शब्द नय - ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों की वेदना वेदन अवक्तव्य है । यह कथन शब्द नय का है । कारण कि वेदना वेदन का अनुभव ही होता है, उसे शब्द से व्यक्त नहीं किया जा सकता है । वेदना-गति विधान नैगम, व्यवहार और संग्रह नय से ज्ञानावरणीय की वेदना कथंचित् १ अस्थित है, २. स्थित अस्थित है । इसी प्रकार शेष दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन तीन घाति कर्मों की वेदना के सम्बन्ध में जानना चाहिए । अघाति कर्म वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र की वेदना कथंचित् १ स्थित २. अस्थित और ३ स्थित अस्थित है । यहाँ भेद रूप अनेक बोधकारी कथन होने से नैगम नय, उपचरित कथन होने से व्यवहार नय और वेदना की अनेक अवस्थाओं का एकरूप कथन होने से संग्रह नय है । ऋजुसूत्र नय से आठों ही कर्मों में से प्रत्येक कर्म की वेदना कथंचित् स्थित है और कथंचित् अस्थित है । कारण कि सीधे अनुभव में एक ही प्रकार का परिवर्तनशील अवस्था का या स्थिर अवस्था का ही वेदन होता है। दोनों एक साथ वर्तमान में अनुभव-वेदन नहीं हो सकते हैं । अतः यह कथन ऋजुसूत्र नय है । शब्द नय से अवक्तव्य है। कारण कि वेदना अनुभवगम्य है । कथनीय नहीं है। उसे भोक्ता ही जानता है । वेदना अन्तर विधान नंगम और व्यवहार नय से आठों ही कर्मों की वेदना - १. अनन्तर बन्ध है, २. परम्परा बन्ध है और ३. तदुमय बन्ध है । यह कथन भेद रूप होने से नैगम नय है। उपचरित होने से व्यवहार नय है । संग्रह नय से अनन्तर बन्ध है और परम्परा बन्ध है। कारण इन दोनों प्रकार के बन्ध में ही बन्ध के सब रूप आ जाते हैं । अतः संगृहीत होने से यह कथन संग्रह नय है । ऋजुसूत्र नय से परम्परा बन्ध है । कारण कि यह सीधा-सा बोध सभी को है कि नवीन कर्मों का बन्धन पुराने कर्मों के विपाक की अवस्था में ही संभव है । १ अनुयोगद्वार में भी भंग समुत्कीर्तन में इसी प्रकार नैगमनय में २६ भेदों का व संग्रहनय में ७ भेदों का वर्णन है । Pon Staal channelodings vate & Personal Use Only Py HK ☆ Mene 000000000000 000000000000 144400000 ...S.BRaste/ www.jainelibrary.org
SR No.210164
Book TitleAgamkalin Naya Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Golecha, Kanhaiyalal Lodha
PublisherZ_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf
Publication Year1976
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & Naya
File Size2 MB
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