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________________ 'आगमकालीन नय-निरूपण | २६१ मानता है, उसमें सब जगह व सब समय वह नहीं रहता है। फिर भी उसका यह कथन व्यवहार में सही माना जाता है । यह कथन उपचार रूप होने से व्यवहार नय है । संग्रह नय - शैय्या पर आरूढ़ अवस्था को बसता हुआ कहना संग्रह नय है । इस कथन में शैय्या शब्द से अनेक जगह बसने का अर्थ व्यक्त होता है । कारण कि कोई जहाँ कहीं भी बसता है, शैय्या पर आरूढ़ कहा जाता है । अत: संग्रह नय है । ऋऋजुसूत्र नय - वह वर्तमान में जिस आकाश क्षेत्र में स्थित है, अर्थात् जहाँ पर उपस्थित है, अपने को वहीं पर बसता कहना ऋजुसूत्र नय है। कारण कि उसका यह कथन सामने सदा विद्यमान अवस्था का होने से अनायास सरलता से समझ में आता है । अतः ऋजुसूत्र नय है । शब्द नय - ' अपने को अपने शरीर (आत्मभाव ) में बसता हुआ कहना' यह कथन तीनों शब्द नयों का है । कारण कि बसने शब्द का अर्थ या भाव है आत्मा का निवास । शरीर में या अपने आप में अपना निवास है । यह कथन शब्द के अर्थ, रूढ़ार्थ रूप अवस्था तथा तदनुसार क्रियावान अवस्था का द्योतक है। अतः शब्द नय, समभिरूढ़ नय तथा एवंभूत नय है । ३. प्रदेश का दृष्टान्त + नगम नय - छ: प्रदेश हैं । यथा - १. धर्मास्तिकाय का प्रदेश २. अधर्मास्तिकाय का प्रदेश, ३. आकाश का प्रदेश, ४. जीव का प्रदेश, ५. स्कंध का प्रदेश और ६. देश का प्रदेश । इस कथन से प्रदेश के अनेक रूपों (भेद ज्ञान रूप) का बोध होता है। अतः नैगम नय है । संग्रह नय - पंचप्रदेश हैं । कारण कि उपर्युक्त स्कंध का प्रदेश और देश का प्रदेश अलग-अलग न होकर एक ही है । अतः इन दोनों के एकत्व के मानने वाला कथन संग्रह नय है । व्यवहार नय - पंच प्रदेश से पाँचों का एक ही प्रदेश है। ऐसा अभिप्राय झलकता है - ऐसा प्रतीत होता है । यह कथन व्यवहार में ठीक नहीं है । अतः पंच प्रदेश न कहकर पंचविध प्रदेश कहना चाहिए। यह कथन भी उपचरित है। कारण कि धर्मास्ति, अधर्मास्ति आदि किसी के भी पाँच प्रकार के प्रदेश नहीं होते हैं । यहाँ आशय में 'पंचविध' के स्थान पर 'पाँच के' लेना होगा। अतः यह उपचरित कथन होने से व्यवहार नय है । ऋजुसूत्र नय - पंचविध प्रदेश कहने से धर्मास्ति आदि प्रत्येक के पाँच-पाँच प्रकार के प्रदेश हो जाने से पच्चीस प्रकार के प्रदेश हो जाएँगे जो उचित नहीं है । जिस स्थान में धर्मास्तिकाय का प्रदेश है उसी में अधर्मास्ति आदि शेष चार के भी प्रदेश हैं । अतः यह कहना कि यह स्यात् धर्मास्तिकाय का प्रदेश है, स्यात् अधर्मास्तिकाय का प्रदेश है । इसी प्रकार आकाश, जीव आदि के साथ भी स्यात् लगाकर कहा गया कथन सरलता से समझ में आ जाता है । अतः ऋजुसूत्र नय है । संप्रति शब्द नय - पाँचों के साथ स्यात् शब्द लगाने से भी प्रदेश एकमेक हो जाएँगे। सभी स्थानों पर सभी के प्रदेशों के होने का प्रसंग उत्पन्न हो जाएगा और कहने के अभिप्राय को प्रकट करने की कोई अवस्था ही न बन सकेगी । अनवस्था दोष उत्पन्न हो जाएगा । अतः वहाँ स्थित धर्मास्तिकाय के प्रदेश को धर्मास्तिकाय का प्रदेश कहो । इसी प्रकार शेष चार को भी कहो। यह कथन अर्थप्रधान होने से शब्द नय है । कर्मधारय इन दो समासों की समभिरूढ़ नय - 'धम्मे परसे से पएसे धम्मे' इस वाक्य से तत्पुरुष और अभिव्यक्ति होती है । तत्पुरुष समास में धम्मे शब्द अधिकरण कारक में लेने से धर्म में प्रदेश हो जाएगा अर्थात् धर्म और प्रदेश दो भिन्न-भिन्न हो जाएँगे । कर्मधारय समास में धर्म शब्द प्रदेश का विशेषण बन जाएगा । ये दोनों ही अर्थ यहाँ भ्रमोत्पादक होने से इष्ट नहीं हैं । अतः यह कहना चाहिए कि यह प्रदेश धर्मास्तिकाय है। इसी प्रकार शेष अधर्मास्तिकाय आदि के साथ भी जानना चाहिए। यह कथन धर्मास्तिकाय आदि विशेष में रूढ़ होने से समभिरूढ़ नय है । एवंभूत नय - धर्मास्तिकाय आदि से उनके देश प्रदेश भिन्न हैं ही नहीं । अतः धर्मास्तिकाय और उसका प्रदेश पर्यायवाची अर्थात् एक ही हुए। धर्मास्तिकाय से उसका प्रदेश अलग वस्तु है ही नहीं। यह कथन एवंभूत नय है । *. Hiken 000000000000 ooooooooo000 SCOOPOEDED Braste. I
SR No.210164
Book TitleAgamkalin Naya Nirupan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreechand Golecha, Kanhaiyalal Lodha
PublisherZ_Ambalalji_Maharaj_Abhinandan_Granth_012038.pdf
Publication Year1976
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & Naya
File Size2 MB
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