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आचार्य कुन्दकुन्द का जैन श्रमण परंपरा में महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों ही परंपराओं में उन्हें समान आदर प्राप्त है। दिगम्बर परंपरा में तो तीर्थंकर महावीर और गौतम गणधर के साथ उनका स्मरण किया जाता है । वे इतने यशस्वी थे कि उनके नाम पर कुन्दकुन्दान्वय ही प्रसिद्ध हो गया। आज भी दिगम्बर परंपरा के जैन श्रमण स्वयं को कुन्दकुन्दान्वयी कहने में गौरव का अनुभव करते हैं ।
कहा जाता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने ८४ पाहुडों - ग्रंथों की रचना की थी, किन्तु अभी तक उनके समयापाहुड, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय संग्रह, नियमसार, अष्टपाहुड, रयणसार, बारस अणुवेक्खा और प्राकृत भक्तियां ग्रन्थ ही खोजे जा सके हैं। उनके ग्रन्थों में केवलियों और श्रुतकेवलियों द्वारा कथित विषयवस्तु प्रस्तुत हुई है। ऐसा वे स्वयं ही नियमसार की मंगल गाथा में कहते हैं। उनके ग्रन्थों में अध्यात्म और दर्शन संबंधी अनेक मौलिक विचार प्रस्तुत हुए हैं। यहाँ उन पर संक्षेप में विचार किया जा रहा नियम
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आचार्य कुन्दकुन्द का मौलिक चिन्तन
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'नियमसार' ग्रंथ में नियमसार नाम की सार्थकता बताते हुए कहा गया है कि जो नियम से करने योग्य कार्य है, वह नियम है। वह नियम ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। इनसे विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का निषेध करने के लिए 'सार' पद कहा गया है। यह कथन करने वाली मूल गाथा इस प्रकार है-
णियमेण य जं कज्जं तं नियमं णाणदंसणचरित्तं । विवरीय परिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं । । नियम- ३ कुन्दकुन्द ने यहाँ नियम शब्द से सम्यक्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र रूप मोक्षमार्ग का ग्रहण किया है । ग्रन्थकार का उद्देश्य भी नियमरूप मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करना है, जिसका फल निर्वाण है। उक्त मार्ग का कथन करने में निश्चयनय
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और व्यवहारनय को माध्यम बनाया गया है। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र को व्यवहारनय से नियत अर्थात् मोक्षमार्ग कहा है। निश्चयनय से नियम को परिभाषित करते हुए कुन्दकुन्द कहते हैं-
डॉ. ऋषभचन्द्र जैन 'फौजदार' व्याख्याता, प्राकृत एवं जैन शास्त्र प्राकृत, जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली - ८४४१२८ ( बिहार )...
सुहअसुहवयणरयणं रायादीभाववारणं किच्चा । अप्पाणं जो झायादि तस्सदुणियमं हवे णियमा । । नियम- १२०
अर्थात् शुभ और अशुभ वचनों की रचना तथा रागादिभावों का निवारण करके आत्मा का ध्यान करना, नियम से नियम है अर्थात् निश्चनय से नियम है।
उक्त गाथा की संस्कृत टीका में पद्मप्रभमलधारिदेव ने भी कहा है-
वचनरचनां त्यक्त्वा भव्यः शुभाशुभलक्षणां, सहजपरमात्मानं नित्यं सुभावयति स्फुटम् । परमटामिनस्तस्य ज्ञानात्मनो नियमादयं, भवति नियमः शुद्धो मुक्त्यंगनासुखकारणम् । नियम- टीका, श्लोक - १९१
अर्थात् जो भव्य जीव शुभ-अशुभरूप वचनरचना को छोड़कर नित्य ही स्फुटरूप से सहज परमात्मा का सम्यक् प्रकार से अनुभव करता है, उस ज्ञानस्वरूप परम संयमी के नियम से यह नियम होता है, जो मुक्तिसुंदरी (मोक्ष) के सुख का कारण है।
अर्धमागधी एवं शौसेनी आगमों, प्राकृत के अन्य पारंपरिक ग्रन्थों तथा संस्कृत ग्रन्थों में कहीं भी रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग के लिए नियम शब्द का प्रयोग उपलब्ध नहीं होता है। इससे स्पष्ट है कि आचार्य 'कुन्दकुन्द ने नियम शब्द का विशेष अर्थ में प्रयोग किया है।
iaméréviambrian & poramorova
कुन्दकुन्द ने दंसणपाहुड में कहा है कि ज्ञान, दर्शन, चरित्र और तप इन चारों का समागम होने पर मोक्ष होता है । सम्यक्त्व सहित इन चारों के समागम से ही जीव सिद्ध हुए हैं, इसमें संदेह नहीं है। इससे ज्ञात होता है कि कुन्दकुन्द के काल तक चतुर्विध
Sranan
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन - मोक्षमार्ग की परंपरा मौजूद थी। उनके समय में त्रिविध मोक्षमार्ग अरूप, अगंध, अव्यक्त, चेतनागुणयुक्त, अशब्द, अलिंगग्रहण का विचार भी होने लगा था। संभवतः इसीलिए उन्होंने चतुर्विध (लिंग हेतु से नहीं ग्रहण करने योग्य) और अनिर्दिष्ट संस्थान मोक्षमार्ग का तो केवल उल्लेख ही किया, किन्तु अपने ग्रन्थों में (जिसका कोई संस्थान-आकार नहीं कहा जा सकता) है, ऐसा त्रिविध मोक्षमार्ग का विस्तार से कथन किया।
जानो। यह सब निश्चयनय का कथन है। व्यवहारनय से उपर्युक्त
सभी भाव जीव के कहे जाते हैं। अर्थात् व्यवहारनय से जीव निश्चय और व्यवहारनय --
का स्वभाव और विभाव दोनों प्रकार का परिणमन होता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने आध्यात्मिक दृष्टि से प्रधान कथन किया और इसके लिए नय को माध्यम बनाया। उनके ग्रन्थों में
तत्त्वार्थ-- नय के निश्चय और व्यवहार भेद पाये जाते हैं। इनका उल्लेख नियमसार में विविध गुणों और पर्यायों से संयुक्त जीव, भगवतीसत्र में भी मिलता है। कन्दकुन्द से पूर्व किसी भी ग्रंथकार पदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों को ने नयों को निश्चय और व्यवहार नाम नहीं दिया। कुन्दकुन्द के तत्त्वार्थ कहा गया है। मूल गाथा इस प्रकार है-- ग्रन्थों में निश्चयनय द्रव्यार्थिकनय के समान तथा व्यवहारनय
जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं। पर्यायार्थिक नय के समान है। वे निश्चयनय को परमार्थ शुद्ध तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता। और भूतार्थ कहते हैं। व्यवहारनय को अभूतार्थ और अशुद्ध
नियम-९ कहते हैं। कुन्दकुन्द के टीकाकारों एवं उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने उक्त नयों के अनेक भेद-प्रभेद किए हैं।
इस गाथा में इन्हें 'द्रव्य' नाम नहीं दिया गया है, किन्तु बाद
की गाथाओं में जीवादीदव्वाणं और एदे छद्दव्वाणि कहकर आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार और नियमसार में निश्चयनय
नय इनका द्रव्य नाम से उल्लेख हुआ है। यहां तत्त्वार्थ या द्रव्य को और व्यवहारनय की दृष्टि से आत्मस्वरूप का विवेचन किया
परिभाषित नहीं किया गया है। छह द्रव्यों में से काल को छोड़कर है। उनके अनुसार गुण-पर्यायों से रहित आत्मा के त्रैकालिक
शेष पाँच अस्तिकाय कहे गए हैं, क्योंकि ये बहुप्रदेशी और शुद्धस्वभाव का कथन करने वाला निश्चयनय और कर्म के
कायवान् है, इसलिए अस्तिकाय हैं। काल द्रव्य कायवान् निमित्त से होने वाली आत्मा की विभिन्न परिणतियों का कथन
नहीं हैं, क्योंकि वह एक प्रदेशी है, इसलिए उसे अस्तिकाय करने वाला व्यवहारनय है।
स्वीकार नहीं किया गया। नियमसार में जीवादि बाह्य तत्त्वों को हेय और अपने
प्रवचनसार और पंचास्तिकाय में छह द्रव्यों का विस्तृत आत्मा को उपादेय बताया गया है। निश्चयनय से जीव का
विवरण उपलब्ध है, वहाँ द्रव्य का स्वरूप भी कहा गया है। स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि जीव के स्वभाव स्थान,
प्रवचनसार में ‘अत्थो खलु दव्वमओ' (२/१) अर्थात् अर्थ मानापमानभाव स्थान, हर्षभाव स्थान, अहर्षभाव स्थान, स्थिति
(पदार्थ) द्रव्यमय है, ऐसा कहा है। पंचास्तिकायसंग्रह' कुन्दकुन्द बंध स्थान, प्रकृतिबंध स्थान, प्रदेशबंध स्थान, अनुभागबंध
का पंचास्तिकाय और षड्द्रव्य प्रतिपादक स्वतंत्र ग्रन्थ है। स्थान, उदयस्थान, क्षायिकभाव स्थान, क्षयोपशमभाव स्थान,
उसकी एक सौ दो गाथाओं में अस्तिकायों और द्रव्यों का कथन औदयिकभाव स्थान, उपशमस्वभाव स्थान, चतुर्गति में परिभ्रमण,
करने के उपरान्त वे कहते हैं कि इस प्रकार जो प्रवचन के जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, कुल, योनि, जीवस्थान और
सारभूत पंचास्तिकायसंग्रह को जानकर राग-द्वेष को छोड़ता है, मार्गणास्थान नहीं है। जीव, (आत्मा) निर्दण्ड, निर्द्वन्द्व, निर्मम,
वह संसार के दुःखों से छुटकारा पा लेता है। आगे 'मुणिऊण निष्कल, निरालम्ब, नीराग, निर्दोष, निर्मूढ, निर्भय, निग्रंथ, निःशल्य,
एतदटुं' (गाथा १०४) में अस्तिकायों और द्रव्यों के लिए अटुं समस्त दोषों से रहित निष्काम, निष्क्रोध, निर्मान और निर्मद है।
शब्द का प्रयोग किया गया है। पुनः गाथा १६० में 'धम्मादी वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि पर्यायें सभी
सद्दहणं सम्मत्तं कहकर धर्मादि द्रव्यों के श्रद्धान को सम्यक्तत्व संस्थान और संहनन, ये सब जीव में नहीं है। वह जीव अरस,
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तत्व
- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन - पंचास्तिकाय और षडद्रव्य लोकव्यवस्था के आधार हैं। भी इनका स्वरूप कहा गया है। इनमें से बहिरात्मा को हेय और विविध गुणों और पर्यायों सहित जिनमें अस्ति स्वभाव है, वे अंतरात्मा एवं परमात्मा को उपादेय बताया गया है। उत्तरवर्ती अस्तिकाय कहलाते हैं। वे ही अस्तिकाय त्रैकालिक भावरूप कुमार कार्तिकेय पूज्यपाद, योगीन्दु प्रभृत्ति अनेक आचार्यों ने में परिणमित होते हैं तथा नित्य हैं और परिवर्तन लिंग से युक्त कुन्दकुन्द का अनुकरण किया है। काल सहित द्रव्यभाव को प्राप्त होते हैं। इन्हीं से त्रैलोक्य निष्पन्न है। नियमसार में तत्त्वार्थ के रूप में द्रव्यों का व्याख्यान
स्वभाव-विभाव पर्याय -- इस तथ्य की ओर संकेत है कि प्राचीन परंपरा में पंचास्तिकाय द्रव्यों का परिणमन पर्याय रूप में होता है। आचार्य कुन्दकुन्द और षड्द्रव्य को तत्त्वार्थ कहा जाता है। इसलिए नियमसार में ने सर्वप्रथम पर्याय के स्वभाव और विभावरूप परिणमन का इन्हीं का श्रद्धान सम्यक्त्व कहा गया है। पंचास्तिकाय संग्रह से कथन किया है, जिसे पश्चात्कालीन अधिकांश दार्शनिकों ने भी इस तथ्य का समर्थन होता है।
अपनाया है। कुन्दकुन्द कहते हैं कि कर्मजन्य उपाधियों से रहित
जीव की जो निरपेक्ष शुद्ध पर्याय है, वह स्वभाव पर्याय है और तत्त्व या पदार्थ बंध-मोक्ष के आधार हैं। आचार्य कुन्दकुन्द
कर्मफल के कारण जीव की जो नर, नारक, तिर्यंच और देव के समय तक इन तत्त्वों, पदार्थों की मान्यता विकसित हो चुकी
रूप पर्याय होती है, वह विभाव पर्याय है।३। अन्य निरपेक्ष थी। इसलिए उन्होंने समयसार में विस्तृत रूप से तत्त्वों या पदार्थों
परमाणु पुद्गल की स्वभाव पर्याय है और पुद्गल का स्कन्ध का व्याख्यान किया। पंचास्तिकाय संग्रह के उत्तरार्द्ध में भी नौ ।
रूप परिणमन विभाव पर्याय है। जीव और पुद्गल को छोड़कर पदार्थों का कथन किया है। इससे यह सिद्ध है कि कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में प्राचीन और समकालीन दोनों ही परंपराओं को
शेष धर्मादि चार द्रव्यों की केवल स्वभाव पर्याय होती है, क्योंकि अपनाया है।
उनका विभाव परिणमन नहीं होता है।
पुदगल परमाणु आत्मत्रय
पुद्गल द्रव्य के प्रसंग में कुंदकुंद ने परमाणु का स्वरूप आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मस्वरूप को व्यक्त करते हुए
इस प्रकार कहा है-- आत्मा के परमात्मा, अंतरात्मा और बहिरात्मा ये तीन भेद किए हैं। नियमसार में सम्यग्दर्शन के प्रसंग में कहा गया है कि क्षुधा, अत्तादि अत्तमझं अत्तंतं व इंदिए गेज्झं। तृषा आदि समस्त दोषों से रहित और केवल ज्ञान, केवल दर्शन, अविभागी जं दव्वं परमाणु तं विआणाहि।। केवल वीर्य और केवल सुखरूप अनन्त चतुष्टय से युक्त आत्मा
__नियमसार-२६ ही परमात्मा कहलाता है, इससे विपरीत परमात्मा नहीं हो सकता। अर्थात् स्वयं परमाणु ही जिसका आदि, मध्य और अंत अरिहंत और सिद्ध परमेष्ठी परमात्मा कहलाते हैं। चार घातिया है, जो इंद्रियों द्वारा ग्राह्य नहीं है तथा जो अविभागी द्रव्य है। उसे कर्मों से रहित, केवल ज्ञानादि विशेष गुणों और चौतीस अतिशयों परमाणु जानो। से युक्त, अरिहंत होते हैं तथा चार घातिया और चार अघातिया
उन्होंने परमाणु के दो भेद किए हैं--१. कारण परमाणु ऐसे आठ कर्मों का नाश करने के कारण आठ महागुणों से युक्त और २. कार्य परमाण१६। जो पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन परम, नित्य, लोकाग्र अर्थात् सिद्धशिला पर स्थित रहने वाले,
चारों धातुओं का कारण है, वह कारण परमाणु है। इन धातुओं सिद्धपरमात्मा हैं।
का निर्माण अनेक परमाणुओं के मेल से होता है, इसलिए ये जो श्रमण आवश्यकों से युक्त, अंतः और बाह्य जल्पों से स्कन्धरूप हैं। इन स्कन्धों के निर्माण में जो परमाणु कारण होता रहित, धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान में संलग्न होता है, वह अंतरात्मा है, उसे कारण परमाणु कहा गया है। स्निग्ध और रूक्ष गुणों के कहा गया है। आवश्यकों से हीन, अंततः और बाह्य जल्पों में कारण परमाणुओं का बन्ध होता है, उनके इस गुण का हास होने प्रवृत्त तथा ध्यान से रहित श्रमण, बहिरात्मा है१२। मोक्खपाहुड में के कारण स्कन्धों में विघटन होता है। इस विघटन क्रिया से
माना
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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन निष्पन्न परमाणु कार्य परमाणु है। निश्चयनय से परमाणु को ही व्यवहारनय से अशुभोपयोग को हेय और शुभोपयोग को पुद्गल द्रव्य कहा जाता है तथा परमाणु ही पुद्गल द्रव्य की उपादेय कहा गया है, क्योंकि शुभोपयोग आत्मा के विकासोन्मुख स्वभाव पर्याय है। पंचास्तिकाय में स्कन्धों के अंतिम विभाग होने की अवस्था है। निश्चयनय से संसार का हेतु होने के कारण को परमाणु कहा गया है। यह नित्य, अशुद्ध, एक, अविभागी, शुभपयोग भी हेय है, केवल शुद्धोपयोग ही यहाँ उपादेय है। मूर्त स्कन्ध से उत्पन्न और मूर्तस्कन्ध का कारण होता है।
इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा के ज्ञान और परमाणु का इतना सूक्ष्म और स्पष्ट विवेचन कुन्दकुन्द की विशेषता
दर्शन द्विविध उपयोग का कथन किया। पुनः उसके विकास है, जिसे बाद के ग्रन्थकारों ने भी स्वीकार किया है।
क्रम का सम्यग्ज्ञान कराने के लिए उन्होंने अशुभ, शुभ और उपयोग --
शुद्धरूप त्रिविध उपयोग का भी प्रतिपादन किया। त्रिविध उपयोग
कथन का श्रेय भी कुन्दकुन्द को प्राप्त होता है। पश्चातकालीन जीव उपयोगमय कहा गया है। उपयोग ज्ञान और दर्शन के
आचार्यों ने उनका अनुकरण किया है। भेद से दो प्रकार का होता है। नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने ज्ञानोपयोग के स्वभाव और विभाव भेद किए हैं। इंद्रियों की षडावश्यक - सहायता से रहित, असहाय केवल ज्ञान स्वभावज्ञान है। विभाव
आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार में षडावश्यकों का विस्तार ज्ञान भी संज्ञान (सम्यग्ज्ञान) और अज्ञान (मिथ्याज्ञान) के भेद से विवेचन किया है। उन्होंने उनका क्रम इस प्रकार रखा है-१. से दो प्रकार का होता है। संज्ञान के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान प्रतिक्रमण, २. प्रत्याख्यान. ३. आलोचना. ४. प्रायश्चित्त. ५. और मनः पर्यायज्ञान ये चार भेद हैं। अज्ञान कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान समाधि और पराशक्ति नियमसार के टीकाकार ने और कुअवधिज्ञान या विभंगज्ञान के भेद से तीन-तीन प्रकार
उक्त नामों से स्वतंत्र अधिकार बनाए हैं। का बताया गया है।
प्रतिक्रमण में अतीतकालीन दोषों का निराकरण होता है। इसी प्रकार दर्शनोपयोग के भी स्वभाव और विभाव दो भेद .
। प्रत्याख्यान में अनागत दोषों का विचार किया जाता है। वर्तमान है। इन्द्रिय निरपेक्ष, असहाय केवलदर्शन को स्वभाव दर्शन तथा दोषों की आलोचना की जाती है। इन तीनों में दोषों का विचार चक्षु, अचक्षु और अवधिदर्शन को विभाव दर्शन कहा गया है। होता है। उसके बाद प्रायश्चित्त लिया जाता है, जिसमें तपश्चरण
___ चारित्रिक विकास के सन्दर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द उपयोग प्रमुख है। घोर तपश्चरण में ही कायोत्सर्ग समाहित है। इस के शुद्ध और अशुद्ध ये दो भेद करते हैं। प्रवचनसार में कहा गया परमसमाधि और परमभक्ति होती है। इनमें सामायिक और ध्यान है कि जीवादि पदार्थों तथा उनका कथन करने वाले शास्त्र का ही प्रमुख क्रियाएं हैं। सम्यक् ज्ञान, संयम एवं तप से युक्त आचरण, विगत राग और
आवश्यकों का विवरण देने के बाद कुन्दकुन्द कहते हैं सुख-दुःख में समता भाव रखना, शुद्धोपयोग है। ऐसा आचरण
कि जो अन्य के वश नहीं होता है, उसके कार्य को आवश्यक
र करने वाला श्रमण शुद्धोपयोगी कहा जाता है। शुद्धोपयोगी जीव कहते हैं। यह कर्म विनाशक और निवत्ति का मार्ग है। यह चार घातिया कर्मों को नष्ट करके केवली और स्वयंभू हो जाता है
__ आवश्यक की निरुक्ति है। जो अन्य के वश में नहीं है, वह और निर्वाण सुख प्राप्त करता है। अशुद्धोपयोग भी दो प्रकार
अवश है, अवश का कार्य आवश्यक जानना चाहिए। यह का है--१. शुभोपयोग और २. अशुभोपयोग। जीव का शुभरूप निरवयव यक्ति और उपाय है। जो श्रमण अशुभ भाव, शुभ परिणन शुभोपयोग तथा अशुभरूप परिणमन अशुभोपयोग
भाव और द्रव्यगुणपर्याय में चित्त को लगाता है, वह अन्यवश कहलाता है। धर्म का आचरण करता हुआ शुभोपयोग से
श्रमण है, उसके आवश्यक कार्य नहीं होता। जो श्रमण परभाव युक्त जीव स्वर्गसुख प्राप्त करता है२३ । अशुभोपयोग रूप परिणमन
को छोड़कर निर्मलस्वभावी आत्मा का ध्यान करता है, वह करने वाला जीव खोटा मनुष्य और नारकी होकर हजारों दुःखों
आत्मवश होता है, उसी के आवश्यक कार्य होता है। आगे कहा को भोगता हुआ अनंत संसार में घूमता रहता है।
गया है कि यदि आवश्यक करना चाहते हो तो आत्मस्वभाव में
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अपने भावों को स्थिर करो, उससे जीव का श्रामण्य गुण पूर्ण होता है। सभी पुराणपुरुष इस प्रकार आवश्यक कार्य कर अप्रमत्त आदि स्थानों को प्राप्त करके केवली हुए हैं २७ । आवश्यक श्रमण और श्रावक दोनों के लिए करणीय है।
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
मूलाचार तथा आवश्यकसूत्र में सामायिक, चतुर्विंशति स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कार्योत्सर्ग ये छह आवश्यकों के नाम बताए गए हैं और इनका क्रम भी यही रखा गया है, जो कुन्दकुन्द से भिन्न है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि कुन्दकुन्द कथित आवश्यकों की परंपरा प्राचीन है और वह उनके समय तक विद्यमान थी। बाद में अन्य ग्रन्थकारों ने उसे परिमार्जित और संशोधित किया। परंपरा इस समय प्रचलित है।
केवली (सर्वज्ञ
आचार्य कुन्दकुन्द ने जैन दर्शन की सर्वज्ञता विषयक अवधारणा को निश्चय और व्यवहार नय की दृष्टि से स्पष्ट करते हुए कहा है कि-
जादि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।। नियमसार - १५९
अर्थात् केवली भगवान (सर्वज्ञ) व्यवहारनय से सब कुछ जानते और देखते हैं, किन्तु निश्चय से वह केवल अपने आत्मा को ही जानते और देखते हैं।
सर्वज्ञता विषयक विचार कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। सर्वज्ञ तीनों लोकों और तीनों कालों के समस्त द्रव्यों की सभी पर्यायों को एक साथ देखता और जानता है । षट्खण्डागम सूत्र में भी ऐसा ही कहा गया है। इसलिए निश्चयनय का यह कथन कि वास्तव में वह अपने को ही जानता है, विरोधी प्रतीत होता है, किन्तु कुन्दकुन्द के ज्ञान- ज्ञेय विषयक अवलोकन से इसका समाधान प्राप्त हो जाता है । प्रवचनसार में केवलज्ञान का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। निश्चय और व्यवहारनय से सर्वज्ञ के ज्ञान और दर्शन का कथन कुन्दकुन्द से पूर्व उपलब्ध नहीं है।
केवली के ज्ञान और दर्शन युगपत् होते हैं। इसे कुन्दकुन्द ने निम्न प्रकार कहा है
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जुगवं वाणं केवलणाणिस्स दंसणं च तहा । दिणयरपयासतावं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं ।।
अर्थात् जिस प्रकार सूर्य के ताप और प्रकाश एक साथ प्रकट होते हैं । उसी प्रकार केवलज्ञानी के ज्ञान और दर्शन एक साथ होते हैं। कुन्दकुन्द के इसी उदाहरण को बाद के दार्शनिकों ने अपनाया है। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि छद्मस्थ संसारी जीवों के दर्शन पूर्वक ही ज्ञान होता है, क्योंकि उनके दो उपयोग एक साथ नहीं होते २८ ।
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आत्मा, ज्ञान और दर्शन का स्वपरप्रकाशकत्व
नियमसार में आत्मा के स्वपर प्रकाशक स्वरूप का स्पष्ट विवेचन हुआ है । इसी सन्दर्भ में कहा गया है कि यदि कोई ज्ञान को परप्रकाशक, दर्शन को आत्मप्रकाशक और आत्मा को स्वपरप्रकाशक मानता है तो ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञान परप्रकाशक है तो ज्ञान से दर्शन भिन्न हुआ, इसलिए दर्शन परद्रव्यगत नहीं है। आत्मा परप्रकाशक है तो आत्मा से दर्शन भिन्न होगा, इसलिए दर्शन परद्रव्यगत् नहीं है। व्यवहारनय से ज्ञान परप्रकाशक है, इसलिए दर्शन भी परप्रकाशक है तथा व्यवहारनय से आत्मा परप्रकाशक है, इसलिए दर्शन भी परप्रकाशक है। निश्चयनय से ज्ञान आत्म (स्व) प्रकाशक है, इसलिए दर्शन भी आत्म. (स्व) . प्रकाशक है तथा निश्चयनय से आत्मा स्वप्रकाशक है, इसलिए दर्शन भी स्वप्रकाशक है२९ ।
आगे और भी कहते हैं कि केवली भगवान आत्मस्वरूप को देखते हैं, लोकालोक को नहीं, यदि कोई ऐसा कहता है तो उसका क्या दोष है? और यदि कोई ऐसा कहे कि केवली भगवान लोकालोक को जानते हैं, अपने को नहीं जानते हैं, तो भी कोई दोष नहीं है। ज्ञान जीव का स्वरूप है इसलिए आत्मा अपने आत्मस्वरूप को जानता है यदि ज्ञान अपने आत्मा को नहीं जानता है तो वह आत्मा से अलग हो जाएगा। आत्मा को ज्ञान जानो, ज्ञान को आत्मा जानो, इसमें संदेह नहीं है। इसलिए ज्ञान तथा दर्शन स्वपर-प्रकाशक है३" । कुन्दकुन्द ऐसे पहले आचार्य हैं, जिन्होंने परंपरा से प्राप्त आत्मा, ज्ञान और दर्शन के स्वपर - प्रकाशत्व का स्पष्ट विवरण दिया है। उत्तरकालीन सभी दार्शनिकों के लिए कुन्दकुन्द का उक्त विचार अनुकरणीय रहा है। सप्तभंगी -
जैन दर्शन प्रत्येक वस्तु को अनन्त धर्मात्मक मानता है, इसलिए इसके वस्तुस्वरूप - प्रतिपादक सिद्धान्त को अनेकान्त
नियमसार - १६० Graad 19 ? param
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________________ यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन या अनेकान्तवाद कहते हैं। वस्तु के अनन्तधर्मों का पृथक- 5. वही, गाथा, 33-34 पृथक एवं सापेक्ष निरूपण स्याद्वाद के द्वारा होता है। स्याद्वाद के 6. वही, गाथा-३४ सापेक्ष कथन के लिए सप्तभंगी को अपनाया गया है, क्याकि 7 पंचास्तिकाय गाथाजिज्ञासा की अपेक्षा से एक वस्तु में सात प्रश्न ही संभव है। 8. वही, गाथा--५-६ सर्वप्रथम कुन्दकुन्द ने ही सात भंगों का उल्लेख किया है-- 9. मोक्खपाहुड, गाथा--४ सिय अस्थि णत्थि उद्यं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं। 10. नियमसार, गाथा--६-७ दव्वं खु सत्तभंगं आदेसवसेण संभवदि।। पंचास्तिकाय-१४ . 11. वही, गाथा -- 71-72 विवक्षावश द्रव में सात भंग ही संभव हैं। 1. स्यादस्ति 12. वही, गाथा -- 149-151 किसी प्रकार है। 2. स्यान्नास्ति-किसी प्रकार नहीं है। ३.स्यादभयम-किसी प्रकार अस्तिनास्ति दोनों रूप है। 4 13. वहा, गाथा - 15 स्यादवक्तव्यम्-किसी प्रकार अवक्तव्य है। 5. स्यादस्ति 14. वही, गाथा 28 अवक्तव्यम्-किसी प्रकार अस्तिस्वरूप होकर अवक्तव्य है। 15. वही, गाथा-३३ 6. स्यानास्ति अवक्तव्यम् - किसी प्रकार नास्तिरूप होकर 16. वही, गाथा-२५ अवक्तव्य है। 7. स्यादस्ति नास्ति अवक्तव्यम् - किसी प्रकार 17. वही, गाथा-२८-२९ अस्ति नास्ति दोनों रूप होकर अवक्तव्य है। 18. सव्वेसिं खंधाणं जो अंतो त वियाण परमाण। उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट हो जाता है कि कुन्दकुन्द के सो सस्सदो असद्दो एक्को अविभागी मुत्तिभवो।। पंचास्तिकाय, ग्रन्थों में जैन दर्शन की प्राचीन पारंपरिक सामग्री प्रचरता में गाथा-७७ उपलब्ध है। वहाँ तत्त्वार्थ एवं आवश्यक जैसे सिद्धान्तों की 19. नियमसार, गाथा 10-12 प्राचीन परंपरा का स्पष्ट विवरण प्राप्त होता है। जैन दर्शन के 20. वही, गाथा -- 13-14 अनेक विचार सर्वप्रथम कुन्दकुन्द ने अपने ग्रन्थों में व्यक्त किए हैं. इसलिए उनके चिंतन की मौलिकता स्वयं प्रमाणित है। 21. प्रवचनसार, 1/12, 14-16 परंपरा के अनेक मौलिक विषयों को सरक्षित रखने का श्रेय उन्हें 22. वही, गाथा 1/9 प्राप्त है। उक्त तथ्यों पर यहाँ संक्षेप में ही विचार किया जा सका 23. वही, गाथा 1/11 है। उनकी तुलनात्मक समीक्षा अपेक्षित है, जिसे यथावसर प्रस्तुत 24. वही, गाथा 1/12 करने का प्रयत्न रहेगा। 25. नियमसार, गाथा 83-140, सन्दर्भ 26. वही, गाथा - 141-147, 1. दंसणपाहुड, गाथा-३०,३२ 27. वही, गाथा-१५८ 2. नियमसार, गाथा-३८-४५ 28. द्रव्यसंग्रह, गाथा-४४ 3. वही, 46 समयसार-४९, भावपाहुड-६४ आदि। 29. नियमसार, गाथा - 161-165 4. वही, 49 30. वही, गाथा - 166-171