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आचार्य कुन्दकुन्द का जैन श्रमण परंपरा में महत्त्वपूर्ण स्थान है। श्वेताम्बर दिगम्बर दोनों ही परंपराओं में उन्हें समान आदर प्राप्त है। दिगम्बर परंपरा में तो तीर्थंकर महावीर और गौतम गणधर के साथ उनका स्मरण किया जाता है । वे इतने यशस्वी थे कि उनके नाम पर कुन्दकुन्दान्वय ही प्रसिद्ध हो गया। आज भी दिगम्बर परंपरा के जैन श्रमण स्वयं को कुन्दकुन्दान्वयी कहने में गौरव का अनुभव करते हैं ।
कहा जाता है कि आचार्य कुन्दकुन्द ने ८४ पाहुडों - ग्रंथों की रचना की थी, किन्तु अभी तक उनके समयापाहुड, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय संग्रह, नियमसार, अष्टपाहुड, रयणसार, बारस अणुवेक्खा और प्राकृत भक्तियां ग्रन्थ ही खोजे जा सके हैं। उनके ग्रन्थों में केवलियों और श्रुतकेवलियों द्वारा कथित विषयवस्तु प्रस्तुत हुई है। ऐसा वे स्वयं ही नियमसार की मंगल गाथा में कहते हैं। उनके ग्रन्थों में अध्यात्म और दर्शन संबंधी अनेक मौलिक विचार प्रस्तुत हुए हैं। यहाँ उन पर संक्षेप में विचार किया जा रहा नियम
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आचार्य कुन्दकुन्द का मौलिक चिन्तन
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'नियमसार' ग्रंथ में नियमसार नाम की सार्थकता बताते हुए कहा गया है कि जो नियम से करने योग्य कार्य है, वह नियम है। वह नियम ज्ञान, दर्शन और चारित्र है। इनसे विपरीत मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्र का निषेध करने के लिए 'सार' पद कहा गया है। यह कथन करने वाली मूल गाथा इस प्रकार है-
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णियमेण य जं कज्जं तं नियमं णाणदंसणचरित्तं । विवरीय परिहरत्थं भणिदं खलु सारमिदि वयणं । । नियम- ३ कुन्दकुन्द ने यहाँ नियम शब्द से सम्यक्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र रूप मोक्षमार्ग का ग्रहण किया है । ग्रन्थकार का उद्देश्य भी नियमरूप मोक्षमार्ग का प्रतिपादन करना है, जिसका फल निर्वाण है। उक्त मार्ग का कथन करने में निश्चयनय
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और व्यवहारनय को माध्यम बनाया गया है। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र को व्यवहारनय से नियत अर्थात् मोक्षमार्ग कहा है। निश्चयनय से नियम को परिभाषित करते हुए कुन्दकुन्द कहते हैं-
डॉ. ऋषभचन्द्र जैन 'फौजदार' व्याख्याता, प्राकृत एवं जैन शास्त्र प्राकृत, जैनशास्त्र और अहिंसा शोध संस्थान, वैशाली - ८४४१२८ ( बिहार )...
सुहअसुहवयणरयणं रायादीभाववारणं किच्चा । अप्पाणं जो झायादि तस्सदुणियमं हवे णियमा । । नियम- १२०
अर्थात् शुभ और अशुभ वचनों की रचना तथा रागादिभावों का निवारण करके आत्मा का ध्यान करना, नियम से नियम है अर्थात् निश्चनय से नियम है।
उक्त गाथा की संस्कृत टीका में पद्मप्रभमलधारिदेव ने भी कहा है-
वचनरचनां त्यक्त्वा भव्यः शुभाशुभलक्षणां, सहजपरमात्मानं नित्यं सुभावयति स्फुटम् । परमटामिनस्तस्य ज्ञानात्मनो नियमादयं, भवति नियमः शुद्धो मुक्त्यंगनासुखकारणम् । नियम- टीका, श्लोक - १९१
अर्थात् जो भव्य जीव शुभ-अशुभरूप वचनरचना को छोड़कर नित्य ही स्फुटरूप से सहज परमात्मा का सम्यक् प्रकार से अनुभव करता है, उस ज्ञानस्वरूप परम संयमी के नियम से यह नियम होता है, जो मुक्तिसुंदरी (मोक्ष) के सुख का कारण है।
अर्धमागधी एवं शौसेनी आगमों, प्राकृत के अन्य पारंपरिक ग्रन्थों तथा संस्कृत ग्रन्थों में कहीं भी रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग के लिए नियम शब्द का प्रयोग उपलब्ध नहीं होता है। इससे स्पष्ट है कि आचार्य 'कुन्दकुन्द ने नियम शब्द का विशेष अर्थ में प्रयोग किया है।
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कुन्दकुन्द ने दंसणपाहुड में कहा है कि ज्ञान, दर्शन, चरित्र और तप इन चारों का समागम होने पर मोक्ष होता है । सम्यक्त्व सहित इन चारों के समागम से ही जीव सिद्ध हुए हैं, इसमें संदेह नहीं है। इससे ज्ञात होता है कि कुन्दकुन्द के काल तक चतुर्विध
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