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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्य - जैन दर्शन - मोक्षमार्ग की परंपरा मौजूद थी। उनके समय में त्रिविध मोक्षमार्ग अरूप, अगंध, अव्यक्त, चेतनागुणयुक्त, अशब्द, अलिंगग्रहण का विचार भी होने लगा था। संभवतः इसीलिए उन्होंने चतुर्विध (लिंग हेतु से नहीं ग्रहण करने योग्य) और अनिर्दिष्ट संस्थान मोक्षमार्ग का तो केवल उल्लेख ही किया, किन्तु अपने ग्रन्थों में (जिसका कोई संस्थान-आकार नहीं कहा जा सकता) है, ऐसा त्रिविध मोक्षमार्ग का विस्तार से कथन किया।
जानो। यह सब निश्चयनय का कथन है। व्यवहारनय से उपर्युक्त
सभी भाव जीव के कहे जाते हैं। अर्थात् व्यवहारनय से जीव निश्चय और व्यवहारनय --
का स्वभाव और विभाव दोनों प्रकार का परिणमन होता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने आध्यात्मिक दृष्टि से प्रधान कथन किया और इसके लिए नय को माध्यम बनाया। उनके ग्रन्थों में
तत्त्वार्थ-- नय के निश्चय और व्यवहार भेद पाये जाते हैं। इनका उल्लेख नियमसार में विविध गुणों और पर्यायों से संयुक्त जीव, भगवतीसत्र में भी मिलता है। कन्दकुन्द से पूर्व किसी भी ग्रंथकार पदगल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल इन छह द्रव्यों को ने नयों को निश्चय और व्यवहार नाम नहीं दिया। कुन्दकुन्द के तत्त्वार्थ कहा गया है। मूल गाथा इस प्रकार है-- ग्रन्थों में निश्चयनय द्रव्यार्थिकनय के समान तथा व्यवहारनय
जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं। पर्यायार्थिक नय के समान है। वे निश्चयनय को परमार्थ शुद्ध तच्चत्था इदि भणिदा णाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता। और भूतार्थ कहते हैं। व्यवहारनय को अभूतार्थ और अशुद्ध
नियम-९ कहते हैं। कुन्दकुन्द के टीकाकारों एवं उत्तरवर्ती ग्रन्थकारों ने उक्त नयों के अनेक भेद-प्रभेद किए हैं।
इस गाथा में इन्हें 'द्रव्य' नाम नहीं दिया गया है, किन्तु बाद
की गाथाओं में जीवादीदव्वाणं और एदे छद्दव्वाणि कहकर आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार और नियमसार में निश्चयनय
नय इनका द्रव्य नाम से उल्लेख हुआ है। यहां तत्त्वार्थ या द्रव्य को और व्यवहारनय की दृष्टि से आत्मस्वरूप का विवेचन किया
परिभाषित नहीं किया गया है। छह द्रव्यों में से काल को छोड़कर है। उनके अनुसार गुण-पर्यायों से रहित आत्मा के त्रैकालिक
शेष पाँच अस्तिकाय कहे गए हैं, क्योंकि ये बहुप्रदेशी और शुद्धस्वभाव का कथन करने वाला निश्चयनय और कर्म के
कायवान् है, इसलिए अस्तिकाय हैं। काल द्रव्य कायवान् निमित्त से होने वाली आत्मा की विभिन्न परिणतियों का कथन
नहीं हैं, क्योंकि वह एक प्रदेशी है, इसलिए उसे अस्तिकाय करने वाला व्यवहारनय है।
स्वीकार नहीं किया गया। नियमसार में जीवादि बाह्य तत्त्वों को हेय और अपने
प्रवचनसार और पंचास्तिकाय में छह द्रव्यों का विस्तृत आत्मा को उपादेय बताया गया है। निश्चयनय से जीव का
विवरण उपलब्ध है, वहाँ द्रव्य का स्वरूप भी कहा गया है। स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है कि जीव के स्वभाव स्थान,
प्रवचनसार में ‘अत्थो खलु दव्वमओ' (२/१) अर्थात् अर्थ मानापमानभाव स्थान, हर्षभाव स्थान, अहर्षभाव स्थान, स्थिति
(पदार्थ) द्रव्यमय है, ऐसा कहा है। पंचास्तिकायसंग्रह' कुन्दकुन्द बंध स्थान, प्रकृतिबंध स्थान, प्रदेशबंध स्थान, अनुभागबंध
का पंचास्तिकाय और षड्द्रव्य प्रतिपादक स्वतंत्र ग्रन्थ है। स्थान, उदयस्थान, क्षायिकभाव स्थान, क्षयोपशमभाव स्थान,
उसकी एक सौ दो गाथाओं में अस्तिकायों और द्रव्यों का कथन औदयिकभाव स्थान, उपशमस्वभाव स्थान, चतुर्गति में परिभ्रमण,
करने के उपरान्त वे कहते हैं कि इस प्रकार जो प्रवचन के जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, कुल, योनि, जीवस्थान और
सारभूत पंचास्तिकायसंग्रह को जानकर राग-द्वेष को छोड़ता है, मार्गणास्थान नहीं है। जीव, (आत्मा) निर्दण्ड, निर्द्वन्द्व, निर्मम,
वह संसार के दुःखों से छुटकारा पा लेता है। आगे 'मुणिऊण निष्कल, निरालम्ब, नीराग, निर्दोष, निर्मूढ, निर्भय, निग्रंथ, निःशल्य,
एतदटुं' (गाथा १०४) में अस्तिकायों और द्रव्यों के लिए अटुं समस्त दोषों से रहित निष्काम, निष्क्रोध, निर्मान और निर्मद है।
शब्द का प्रयोग किया गया है। पुनः गाथा १६० में 'धम्मादी वर्ण, रस, गंध, स्पर्श, स्त्री, पुरुष, नपुंसक आदि पर्यायें सभी
सद्दहणं सम्मत्तं कहकर धर्मादि द्रव्यों के श्रद्धान को सम्यक्तत्व संस्थान और संहनन, ये सब जीव में नहीं है। वह जीव अरस,
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