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- यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ - जैन दर्शन निष्पन्न परमाणु कार्य परमाणु है। निश्चयनय से परमाणु को ही व्यवहारनय से अशुभोपयोग को हेय और शुभोपयोग को पुद्गल द्रव्य कहा जाता है तथा परमाणु ही पुद्गल द्रव्य की उपादेय कहा गया है, क्योंकि शुभोपयोग आत्मा के विकासोन्मुख स्वभाव पर्याय है। पंचास्तिकाय में स्कन्धों के अंतिम विभाग होने की अवस्था है। निश्चयनय से संसार का हेतु होने के कारण को परमाणु कहा गया है। यह नित्य, अशुद्ध, एक, अविभागी, शुभपयोग भी हेय है, केवल शुद्धोपयोग ही यहाँ उपादेय है। मूर्त स्कन्ध से उत्पन्न और मूर्तस्कन्ध का कारण होता है।
इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द ने आत्मा के ज्ञान और परमाणु का इतना सूक्ष्म और स्पष्ट विवेचन कुन्दकुन्द की विशेषता
दर्शन द्विविध उपयोग का कथन किया। पुनः उसके विकास है, जिसे बाद के ग्रन्थकारों ने भी स्वीकार किया है।
क्रम का सम्यग्ज्ञान कराने के लिए उन्होंने अशुभ, शुभ और उपयोग --
शुद्धरूप त्रिविध उपयोग का भी प्रतिपादन किया। त्रिविध उपयोग
कथन का श्रेय भी कुन्दकुन्द को प्राप्त होता है। पश्चातकालीन जीव उपयोगमय कहा गया है। उपयोग ज्ञान और दर्शन के
आचार्यों ने उनका अनुकरण किया है। भेद से दो प्रकार का होता है। नियमसार में आचार्य कुन्दकुन्द ने ज्ञानोपयोग के स्वभाव और विभाव भेद किए हैं। इंद्रियों की षडावश्यक - सहायता से रहित, असहाय केवल ज्ञान स्वभावज्ञान है। विभाव
आचार्य कुन्दकुन्द ने नियमसार में षडावश्यकों का विस्तार ज्ञान भी संज्ञान (सम्यग्ज्ञान) और अज्ञान (मिथ्याज्ञान) के भेद से विवेचन किया है। उन्होंने उनका क्रम इस प्रकार रखा है-१. से दो प्रकार का होता है। संज्ञान के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान प्रतिक्रमण, २. प्रत्याख्यान. ३. आलोचना. ४. प्रायश्चित्त. ५. और मनः पर्यायज्ञान ये चार भेद हैं। अज्ञान कुमतिज्ञान, कुश्रुतज्ञान समाधि और पराशक्ति नियमसार के टीकाकार ने और कुअवधिज्ञान या विभंगज्ञान के भेद से तीन-तीन प्रकार
उक्त नामों से स्वतंत्र अधिकार बनाए हैं। का बताया गया है।
प्रतिक्रमण में अतीतकालीन दोषों का निराकरण होता है। इसी प्रकार दर्शनोपयोग के भी स्वभाव और विभाव दो भेद .
। प्रत्याख्यान में अनागत दोषों का विचार किया जाता है। वर्तमान है। इन्द्रिय निरपेक्ष, असहाय केवलदर्शन को स्वभाव दर्शन तथा दोषों की आलोचना की जाती है। इन तीनों में दोषों का विचार चक्षु, अचक्षु और अवधिदर्शन को विभाव दर्शन कहा गया है। होता है। उसके बाद प्रायश्चित्त लिया जाता है, जिसमें तपश्चरण
___ चारित्रिक विकास के सन्दर्भ में आचार्य कुन्दकुन्द उपयोग प्रमुख है। घोर तपश्चरण में ही कायोत्सर्ग समाहित है। इस के शुद्ध और अशुद्ध ये दो भेद करते हैं। प्रवचनसार में कहा गया परमसमाधि और परमभक्ति होती है। इनमें सामायिक और ध्यान है कि जीवादि पदार्थों तथा उनका कथन करने वाले शास्त्र का ही प्रमुख क्रियाएं हैं। सम्यक् ज्ञान, संयम एवं तप से युक्त आचरण, विगत राग और
आवश्यकों का विवरण देने के बाद कुन्दकुन्द कहते हैं सुख-दुःख में समता भाव रखना, शुद्धोपयोग है। ऐसा आचरण
कि जो अन्य के वश नहीं होता है, उसके कार्य को आवश्यक
र करने वाला श्रमण शुद्धोपयोगी कहा जाता है। शुद्धोपयोगी जीव कहते हैं। यह कर्म विनाशक और निवत्ति का मार्ग है। यह चार घातिया कर्मों को नष्ट करके केवली और स्वयंभू हो जाता है
__ आवश्यक की निरुक्ति है। जो अन्य के वश में नहीं है, वह और निर्वाण सुख प्राप्त करता है। अशुद्धोपयोग भी दो प्रकार
अवश है, अवश का कार्य आवश्यक जानना चाहिए। यह का है--१. शुभोपयोग और २. अशुभोपयोग। जीव का शुभरूप निरवयव यक्ति और उपाय है। जो श्रमण अशुभ भाव, शुभ परिणन शुभोपयोग तथा अशुभरूप परिणमन अशुभोपयोग
भाव और द्रव्यगुणपर्याय में चित्त को लगाता है, वह अन्यवश कहलाता है। धर्म का आचरण करता हुआ शुभोपयोग से
श्रमण है, उसके आवश्यक कार्य नहीं होता। जो श्रमण परभाव युक्त जीव स्वर्गसुख प्राप्त करता है२३ । अशुभोपयोग रूप परिणमन
को छोड़कर निर्मलस्वभावी आत्मा का ध्यान करता है, वह करने वाला जीव खोटा मनुष्य और नारकी होकर हजारों दुःखों
आत्मवश होता है, उसी के आवश्यक कार्य होता है। आगे कहा को भोगता हुआ अनंत संसार में घूमता रहता है।
गया है कि यदि आवश्यक करना चाहते हो तो आत्मस्वभाव में
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