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अपने भावों को स्थिर करो, उससे जीव का श्रामण्य गुण पूर्ण होता है। सभी पुराणपुरुष इस प्रकार आवश्यक कार्य कर अप्रमत्त आदि स्थानों को प्राप्त करके केवली हुए हैं २७ । आवश्यक श्रमण और श्रावक दोनों के लिए करणीय है।
यतीन्द्रसूरि स्मारकग्रन्थ जैन दर्शन
मूलाचार तथा आवश्यकसूत्र में सामायिक, चतुर्विंशति स्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कार्योत्सर्ग ये छह आवश्यकों के नाम बताए गए हैं और इनका क्रम भी यही रखा गया है, जो कुन्दकुन्द से भिन्न है। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि कुन्दकुन्द कथित आवश्यकों की परंपरा प्राचीन है और वह उनके समय तक विद्यमान थी। बाद में अन्य ग्रन्थकारों ने उसे परिमार्जित और संशोधित किया। परंपरा इस समय प्रचलित है।
केवली (सर्वज्ञ
आचार्य कुन्दकुन्द ने जैन दर्शन की सर्वज्ञता विषयक अवधारणा को निश्चय और व्यवहार नय की दृष्टि से स्पष्ट करते हुए कहा है कि-
जादि पस्सदि सव्वं ववहारणएण केवली भगवं । केवलणाणी जाणदि पस्सदि णियमेण अप्पाणं ।। नियमसार - १५९
अर्थात् केवली भगवान (सर्वज्ञ) व्यवहारनय से सब कुछ जानते और देखते हैं, किन्तु निश्चय से वह केवल अपने आत्मा को ही जानते और देखते हैं।
सर्वज्ञता विषयक विचार कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। सर्वज्ञ तीनों लोकों और तीनों कालों के समस्त द्रव्यों की सभी पर्यायों को एक साथ देखता और जानता है । षट्खण्डागम सूत्र में भी ऐसा ही कहा गया है। इसलिए निश्चयनय का यह कथन कि वास्तव में वह अपने को ही जानता है, विरोधी प्रतीत होता है, किन्तु कुन्दकुन्द के ज्ञान- ज्ञेय विषयक अवलोकन से इसका समाधान प्राप्त हो जाता है । प्रवचनसार में केवलज्ञान का विस्तृत विवेचन उपलब्ध है। निश्चय और व्यवहारनय से सर्वज्ञ के ज्ञान और दर्शन का कथन कुन्दकुन्द से पूर्व उपलब्ध नहीं है।
केवली के ज्ञान और दर्शन युगपत् होते हैं। इसे कुन्दकुन्द ने निम्न प्रकार कहा है
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जुगवं वाणं केवलणाणिस्स दंसणं च तहा । दिणयरपयासतावं जह वट्टइ तह मुणेयव्वं ।।
अर्थात् जिस प्रकार सूर्य के ताप और प्रकाश एक साथ प्रकट होते हैं । उसी प्रकार केवलज्ञानी के ज्ञान और दर्शन एक साथ होते हैं। कुन्दकुन्द के इसी उदाहरण को बाद के दार्शनिकों ने अपनाया है। यहाँ यह जानना आवश्यक है कि छद्मस्थ संसारी जीवों के दर्शन पूर्वक ही ज्ञान होता है, क्योंकि उनके दो उपयोग एक साथ नहीं होते २८ ।
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आत्मा, ज्ञान और दर्शन का स्वपरप्रकाशकत्व
नियमसार में आत्मा के स्वपर प्रकाशक स्वरूप का स्पष्ट विवेचन हुआ है । इसी सन्दर्भ में कहा गया है कि यदि कोई ज्ञान को परप्रकाशक, दर्शन को आत्मप्रकाशक और आत्मा को स्वपरप्रकाशक मानता है तो ठीक नहीं है, क्योंकि ज्ञान परप्रकाशक है तो ज्ञान से दर्शन भिन्न हुआ, इसलिए दर्शन परद्रव्यगत नहीं है। आत्मा परप्रकाशक है तो आत्मा से दर्शन भिन्न होगा, इसलिए दर्शन परद्रव्यगत् नहीं है। व्यवहारनय से ज्ञान परप्रकाशक है, इसलिए दर्शन भी परप्रकाशक है तथा व्यवहारनय से आत्मा परप्रकाशक है, इसलिए दर्शन भी परप्रकाशक है। निश्चयनय से ज्ञान आत्म (स्व) प्रकाशक है, इसलिए दर्शन भी आत्म. (स्व) . प्रकाशक है तथा निश्चयनय से आत्मा स्वप्रकाशक है, इसलिए दर्शन भी स्वप्रकाशक है२९ ।
आगे और भी कहते हैं कि केवली भगवान आत्मस्वरूप को देखते हैं, लोकालोक को नहीं, यदि कोई ऐसा कहता है तो उसका क्या दोष है? और यदि कोई ऐसा कहे कि केवली भगवान लोकालोक को जानते हैं, अपने को नहीं जानते हैं, तो भी कोई दोष नहीं है। ज्ञान जीव का स्वरूप है इसलिए आत्मा अपने आत्मस्वरूप को जानता है यदि ज्ञान अपने आत्मा को नहीं जानता है तो वह आत्मा से अलग हो जाएगा। आत्मा को ज्ञान जानो, ज्ञान को आत्मा जानो, इसमें संदेह नहीं है। इसलिए ज्ञान तथा दर्शन स्वपर-प्रकाशक है३" । कुन्दकुन्द ऐसे पहले आचार्य हैं, जिन्होंने परंपरा से प्राप्त आत्मा, ज्ञान और दर्शन के स्वपर - प्रकाशत्व का स्पष्ट विवरण दिया है। उत्तरकालीन सभी दार्शनिकों के लिए कुन्दकुन्द का उक्त विचार अनुकरणीय रहा है। सप्तभंगी -
जैन दर्शन प्रत्येक वस्तु को अनन्त धर्मात्मक मानता है, इसलिए इसके वस्तुस्वरूप - प्रतिपादक सिद्धान्त को अनेकान्त
नियमसार - १६० Graad 19 ? param
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