Book Title: Aagam 29 SANSTAARAK Moolm evam Chhaayaa
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२९] श्री संस्तारक (प्रकीर्णक)सूत्रम नमो नमो निम्मलदसणस्स। पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । "संस्तारक” मूलं एवं छाया [मूलं एवं संस्कृतछाया] [आदय संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा.।। (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) | 15/01/2015, गुरुवार, २०७१ पौष कृष्ण १० jain_e_library's Net Publications ___मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित....आगमसूत्र-[२९], प्रकीर्णकसूत्र-[६] “संस्तारक" मूलं एवं संस्कृतछाया Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२९) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] “संस्तारक” - प्रकीर्णकसूत्र - ६ ( मूलं + संस्कृतछाया) - मूलं [-] मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [२९] प्रकीर्णकसूत्र [०६] "संस्तारक" मूलं एवं संस्कृतछाया 'संस्तारक' प्रकीर्णक (६) श्री आगमोदयसमितिग्रन्थोद्धारे, पूर्वमुद्रितग्रन्थाङ्कः-४५, अयं - ग्रन्थाङ्क - ४६. श्रुतस्थविरसूत्रितं । चतुःशरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं (छायायुतम् ) प्रकाशकः - श्री आगमोदयसमितेः कार्यवाहकः झवेरी वेणीचंद सूरचंद । इदं पुस्तकं मोहमय्यां निर्णयसागरमुद्रणालये कोलभाटीयां-२६-२८ तमे गृहे रामचंद्र येसू शेडगेद्वारा मुद्रापयित्वा प्रकाशितम् । विक्रम सं० १९८३. वीर सं० २४५२. संस्तारक - प्रकीर्णकसूत्रस्य मूल “टाइटल पेज” ~1~ सन १९२७ وس [ वेतन रु. २-०-०. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका: १२१ 'संस्तारक' प्रकीर्णकसूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: १२१ मुलाक: गाथा पृष्ठांक: मूलाक: गाथा | पृष्ठांक: मलाकः गाथा पृष्ठाक: ०३१ । संस्तारकस्वरुपम्, लाभं ००७ ०५६ । संस्तारकस्य द्रष्टांता: । ०११ ००१ | मङ्गलं, संस्तारकगुणा: । ००४ | ८९-१३३ भावना ०१६ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित...........आगमसूत्र - [२९], प्रकीर्णकसूत्र - [०६] "संस्तारक" मूलं एवं संस्कृतछाया ~ 2~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['संस्तारक' - मूलं एवं संस्कृतछाया] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “चतु:शरणादिमरणसमाध्यन्तं प्रकीर्णकदशकं नामसे सन १९२७ (विक्रम संवत १९८३) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | इस प्रतमे १० प्रकीर्णक थे. इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद सागरानंदसूरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और संपादकपूज्यश्री तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर मूलसूत्र या गाथा के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र या गाथा चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रो के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक अध्ययन आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते अध्ययन या विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जहां उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन-भूल सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। ......मुनि दीपरत्नसागर..... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.........आगमसूत्र - [२९], प्रकीर्णकसूत्र - [०६] "संस्तारक" मूलं एवं संस्कृतछाया ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “संस्तारक” - प्रकीर्णकसूत्र-६ (मूलं+संस्कृतछाया) मूल [१]-- (२९) चारिके प्रत ।। ५३ ॥ सूत्रांक ||१|| NRNAVAN 11 काऊण नमकारं जिणवरवसहस्स बद्धमाणस्स । संथारंमि निबद्धं गुणपरिवाडि निसामेह ॥१॥५८७॥ संस्तारकर एस किराराहणया एस किर मणोरहो सुविहिआणं । एस किर पच्छिमते पडागहरणं सुविहिआणं ॥२॥31 महत्ता ॥ ५८८ ।। भूईगहणं जह नकयाण अवमाणयं अवज्झा(वऽझा)णस्स । मल्लाणं च पडागा तह संथारो सुविहि-16 आणं ॥ ३ ॥ ५८९ ॥ पुरिसवरपुंडरीओ अरिहा इव सबपुरिससीहाणं । महिलाण भगवईओ जिणजणणीओ जयंमि जहा ।। ४ ।। ५९० ॥ वेरुलिउच्च मणीणं गोसीसं चंदणं व गंधाणं । जह व रयणेसु वइरं तह संथारो सुविहिआणं ॥५॥ ५५१ ॥ वंसाणं जिणवंसो सबकुलाणं च सावयकुलाई। सिद्धिगई व गईणं मुत्तिमुहं | सबसुक्खाणं ॥६॥ ५९२ ॥ धम्माणं च आहेसा जणवयवयणाण साहवाइणाई । जिणवयणं च सुईणं सुद्धीणं| दसणं च जहा ॥ ७॥ ५९३ ॥ काहाणं अब्भुदओ देवाणं दुल्लहं तिहुअणमि । यत्तीसं देविंदा जंतं झायंति कृत्वा नमस्कार जिनवरवृषभाय वर्षमानाय । संसारके निवां गुणपरिपाटी निशमय ।। १ ॥ एषा किलाराधना एप किल मनोरथः मुविहितानां । एतत् किल पश्चिमान्ते पताकाहरणं मुविहितानाम् ॥ २॥ भूतिग्रहणं यथा दरिदायां) अपमानशापध्यानस्य । महानां च पताका तथा संस्तारः मुवि हितानाम् ॥ ३ ॥ सर्वपुरुपसिंहाना पुरुषवरपुण्डरीकोऽई निव । महिलानां यथा भगवत्यो जिनजनन्यो जयन्ति | सानियाs) संसारः॥४॥ पेटूर्यो मणीनामिय गोशी चन्दनमिव गन्धानाम् । रत्नेषु यथा वा वयं तथा संसार सुविहितानामG ॥५॥ वंशानां जिनवंशः सर्वकुलानां च आवककुलानि । गतीनां सिद्विगतिरिव सर्वसौख्यानां मुक्तिमुखम् ।। ६॥ धर्मागां चाहिंसा ॥५३॥ जनपदवचनाना साधुवचनानि । भुतीनां च जिनवचनं यथा च शुद्धीनां दर्शनम् ।। ७ ।। कल्याणमभ्युदयो देवानां दुर्लभ त्रिभुवने।। दीप अनुक्रम Jnterstinianmain भगवंत वीर वंदना, अथ संस्तारकस्य महत्ता वर्णयते ~4 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “संस्तारक” - प्रकीर्णकसूत्र-६ (मूलं+संस्कृतछाया) -------------- मूलं [८]--- (२९) * प्रत -* सूत्राक 70- 04 ||८|| एगमणा ॥ ८॥ ५९४ ॥ लद्धं तु ता एवं पंडिअमरणं तु जिणवरक्खायं । हतूण कम्ममल्लं सिद्धिपडागा तुमे लद्धा ॥ ९॥५५५ ।। झाणाण परमसुकं नाणाणं केवलं जहा नाणं । परिनिधाणं च जहा कमेण भणिों जिणवरेहिं ॥ १० ॥५९६ ॥ सब्बुत्तमलाभाणं सामन्नं चेव लाभ मन्नंति । परमुत्तम तिथपरो परमगई परमसित्ति ॥ ११ ।। ५९७ ॥ मूलं तह संजमो वा परलोगरयाण किलिट्ठकम्माणं । सबुत्तमं पहाणं सामन्नं चेव मन्नंति ॥ १२ ॥ ५९८ ॥ लेसाण सुकलेसा निअमाणं बंभचेरवासो अ । गुत्तिसमिई गुणाणं मूलं तह संज-| मोवाओ ॥ १३ ॥ ५९९ ॥ सव्वुत्तमतिधाणं तित्थयरपयासि जहा तित्थं । अभिसेउच्च सुराणं तह संधारो सुविहिपाणं ॥ १४ ॥ ६००॥ सिअकमलकलससस्थिअनंदावत्तवरमल्लदामाणं । तेसिपि मंगलाणं संधारो मंगलं अहिरं ॥१५॥ ६०१ ॥ तवअग्गिनियमसूरा जिणवरनाणा विसुद्धपत्थयणा । जे निवहति पुरिसा द्वात्रिंशदेवेन्द्रा यत्तशावरयेकमनसः ॥ ८ ॥ लब्धं तु त्वयैवत् पण्डितमरणं तु जिनाख्यातम् । हत्या कर्ममाहं सिद्विपनाका त्या | | लब्धा ।। ५ ॥ ध्यानानां परमशुझं शानानां केवलं यथा ज्ञानम् । परिनिर्वाणं च यथा क्रमेण भणिनं जिनवरेन्द्रः ।। १० ।। सर्वोत्तम| लाभानां श्रामण्यमेव लाभं मन्यन्ते । परमोत्तमस्तीर्थकरः परमगतिः परमसिद्ध इति ।। ११ ।। मूलं तथा संयमो वा परलोकरतानां । लिष्टकर्मणाम । सर्वोत्तम प्रधानं श्रामण्यं चैव मन्यन्ते ।। १२ ।। लेश्यानां शुकुलेश्या नियमानां ब्रह्मचर्यवासश्च । गुनिसमितयो गुणानां | मूलं तथा संयमोपायः ।। १३ ।। सर्वोत्तमतीर्थानां तीर्थकरप्रकाशितं यथा तीर्थम् । अभिषेक इव सुराणां तथा सुविहितानां संसारकः |॥ १४ ॥ सिनकमलकलशस्थलिकनन्द्यावर्त्तवरमाल्वदामभ्यः । तेभ्योऽपि मजलेभ्यः संस्तारकोऽधिकं मङ्गलम् ।। १५ ।। तपोऽग्निनियम- | *HER- 54-XXC दीप 0 अनुक्रम Jntentinamaina 2 ~5~ Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “संस्तारक” - प्रकीर्णकसूत्र-६ (मूलं+संस्कृतछाया) --------- मूलं [१६]---- प्रत सूत्रांक ||१६|| ६ संधारय- संधारगांदमारूढा ॥१६॥ ६०२ ॥ परमट्ठो परमजलं परमाययणंति परमकप्पुत्ति । परमुत्तमतित्यपरो परम- संस्तारकर्नु पडण्णय गई परमसिद्धित्ति ॥ १७॥ ६०३ ।। ता एवं तुमि लद्धं जिणषयणामयविभूसिरं देहं । धम्मरपणंसिआ ते रनुमोदना रणस्सिया ०णामया) पडिआ भवर्णमि वसुहारा ॥ १८॥ ६०४ ॥ पत्ता उत्तमपुरिसा कल्लाणपरंपरा पर॥५४॥ सामदिया । पावयण साहु धीरं (धीरा) कयं च ते अज सप्पुरिसा! ॥ १९॥ ६०५ ॥ सम्मत्तनाणदसणवरर यणा नाणतेअसंजुत्ता । चारित्तसुद्धसीला तिरयणमाला तुमे लद्धा ॥ २०॥ ६०६ ॥ सुविहिअगुणवित्धारं | | संथारं जे लहंति सप्पुरिसा। तेसिं जिअलोगसारं रयणाहरणं कर्य होई ॥ २१ ॥ ६०७॥ तं तिथं तुमि| लद्धं जं पवरं सवजीवलोगंमि । पहाया जत्थ मुणिवरा निवाणमणुसरं पत्ता ॥ २२ ॥ ६०८ ॥ आसव-| संवरनिज़र तिन्निवि अत्था समाहिआ जत्थ । तं तित्थंति भणंती सीलवयवद्धसोबाणा ॥ २३ ॥ ६०९॥ शूरा जिनपरवाना विशुद्धपध्यदनाः । ये पुरुषाः संसारकगजेन्द्रमारूढाः (ते) निर्वहन्ति ।। १६ ॥ परमार्थः परमतुलं(ला)परमायतनमिति | |परमकल्प इति । परमोत्तमतीर्थकरः परमगतिः परमसिद्ध इति ॥ १७ ॥ तदेतत्वया लब्धं जिनवचनामृतविभूपितं शरीरं । धर्मरनाभिता तव पतिता भवने बसुधारा ॥ १८ ।। प्राप्ता उत्तमपुरुषा कल्याणपरम्परा परमदिव्या । प्रवचने साधु धैर्य कृतं त्वयाऽय सत्पुरुष! । १९ ।। सम्यक्त्वज्ञानदर्शनवररना नाना(ज्ञान)तेज:संयुक्ता । चारित्रशीलशुद्धा त्रिरत्रमाला त्वया लग्धा ॥ २०॥ सुविहितगुणवि-* तारं संस्तारकं ये लभन्ते सरपुरुषाः । नजीवलोफसारं बाहरणं कृतं भवति ।। २१ ॥ ततीर्थ त्वया लब्धं यत् प्रवरं सर्वजीवलोके ॥५४॥ साता यत्र मुनिवरा निर्वाणमनुत्तरं पात्राः ।। २२ ॥ आश्रवसंवरनिर्जरा: अयोऽप्यर्थाः समाहिता यत्र । तत्तीर्थमिति भणन्ति शीलवत-16 दीप अनुक्रम [१६] Jmtantinomian अथ संस्तारक-कर्तुः अनुमोदना क्रियते ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२९) प्रत सूत्रांक ||२४|| दीप अनुक्रम [२४] ब. स. १० Jona " संस्तारक" प्रकीर्णकसूत्र-६ (मूलं संस्कृतछाया) मूलं [२४]-- - - भंजिय परीसह चमूं उत्तमसंजमवलेण संजुता । भुंजंति कम्मरहिआ निवाण मणुत्तरं रज्जं ॥ २४॥ ६१० |तिहुअणरजसमाहिं पत्तोऽसि तुमं हि (पि) समयकप्पंमि (ति) । रज्जाभि सेयम उलं बिजलफलं लोह विहरति ॥ २५ ॥ ६११ ।। अभिनंदर में हिअयं तुम्भे मुक्खस्स साहणोवाओ। जं लद्धो संधारो सुविहिअ । परमत्यनित्थारो ॥ २६ ॥ ।। ६१२ ।। देवावि देवलोए भुंजंता बहुविहाई भोगाई। संधारं चिंतंता आसणसयणाई मुंचति ॥ २७ ॥ ६१३ ॥ चंदु पिच्छणिलो सूरो इव तेअसा विदिष्यंतो । धणवंतो गुणवंतो हिमवंत मंहतविक्खाओ ।। २८ ।। ६१४ ।। गुत्तीसमिहउवेओ संजमतवनिअमजोगजुत्तमणो । समणो समाहिअमणो दंसणनाणे अणन्नमणो ॥ २९ ॥ ।। ६१५ ।। मेरुव पचयाणं सर्पभुरमव चेव उदहीणं । चंदो इव ताराणं तह संधारो सुविहिआणं ॥ ३० ॥ ।। ६१६ ॥ भण केरिसस्स भणिओ संधारो केरिसे व अवगासे । उक्खंपिगस्स (०भिकस्स) करणं एवं ता सोपानाः ॥ २३ ॥ भक्त्वा परिषचमूं उत्तमसंयमबलेन संयुक्ताः । भुञ्जन्ति कर्मरहिता निर्वाणमनुत्तरं राज्यं ॥ २४ ॥ त्रिभुवनराज्यसमार्थि प्राप्तोऽसि त्वं हि सर्वकल्पेषु राज्याभिषेकमतुलं विपुलफलं लोकेऽनुभूतवान् ॥ २५ ॥ अभिनन्दति मे हृदयं त्वया मोक्षस्य साधनोपायः । यधः संस्तारकः सुविहित! परमार्थनिस्तारः || २६ || देवा अपि देवलोके भुञ्जाना बहुविधान् भोगान् । संस्तारकं चिन्तयन्त आसनशयनानि मुञ्चन्ति ॥ २७ ॥ चन्द्र इव प्रेक्षणीयः सूर्य इव तेजसा चिदीप्यमानः । धनवान् गुणवान् हिमवद्वद् महान विख्यातः ॥ २८ ॥ गुप्तिसमितिभिरुपेतः संयमतपोनियमयोगयुक्तमनाः । अमणः समाहितमनाः दर्शनज्ञानयोरनन्यमनाः ॥ २९ ॥ मेरुरिव पर्वतानां स्वयम्भूरमण इव उदधीनामेव । चन्द्र इव तारकाणां तथा संस्तारकः सुविद्दितानाम् ॥ ३० ॥ भण कीटशस्त्र भणितः Private U ~7~ Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “संस्तारक” - प्रकीर्णकसूत्र-६ (मूलं+संस्कृतछाया) --------- मूलं [३१]---- (२९) प्रत सूत्रांक ||३१|| ५ तदुपरछिमो नाउँ ॥ ३१॥ ६१७ ॥ हापंति जस्स जोगा जरा य विविहा य हुंति आयंका । आमहइ अ संधारं चारिके शुद्धाशुद्धसुषिसुद्धो तस्स.संधारो ॥ ३२ ॥ १८॥ जो गारवेण मत्तो निच्छद आलोअणं गुरुसगासे । आरुहह अ18| संस्तारका ॥५५॥ संथारं अविसुद्धो तस्स संधारो ॥ ३३ ॥ ६१९ ।। जो पुण पसन्भूओ करेइ आलोअणं गुरुसगासे । आमहह अ० सुवि० ॥ ३४ ॥ ६२० ।। जो पुण सणमइलो सिदिलचरित्तो करेइ सामनं । आरु० अवि०॥ ३५॥ ॥ ६२१ ॥ जो पुण दसणसुद्धो आयचरित्तो करेइ सामनं । आरु. सुवि०॥ ३६॥ ६२२ ॥ जो रागदोसरहिओ तिगुसिगुत्तो तिसल्लमपरहिओ । आरुहह सुवि०॥ ३७ ।। ६२३ ॥ तिहिं गारवेहिं रहिओ तिदंडपडिमोपगो पहिअकित्ती। आरुहइ सुवि०॥ ३८॥ ६२४ ॥ चउविहकसायमहणो चाहिं विकहाहिं विर * दीप अनुक्रम 0-550-94544100-5026-0 | संसारकः कीरशे वाऽवकाशे' । उत्स्कन्दितव (अनशनस्य) करणमेतत् तावदिच्छामो शातुम् ।। ३१ ॥ हीयते यस्य योगा जरा च विविधाभ भवन्त्यातङ्काः । आरोहति च संस्तारकं सुविशुद्धलस्य संस्तारकः ।। ३२ ।। यो गौरवेण मत्तो नेत्यालोचनां गुरोः सकाशे । आरोहति च संस्तारकं अविशुद्ध०॥ ३३ ॥ यः पुनः पात्रभूत: करोत्यालोचनां गुरोः सकाशे | आरोहति च संसारकं सुविशुद्ध ॥ ३४ ॥ यः पुनर्मलिनदर्शनः पचारित्रः करोति श्रामण्यम् । आरोहति च संसारकं अविशुद्ध०॥ ३५ ॥ यः पुनः शुद्धदर्शन आत्मचारित्रः करोति श्रामण्यम् । आरोहति च संसारकं सुवि०॥३६॥ यो रागद्वेषरहितः त्रिगुतिगुणविशल्यमदरहितः । आरोहति च संसारक सुवि० ॥३७॥ विभिगीरच रहितत्रिदण्डप्रतिमोचकः प्रथितकीर्तिः । आरोहति व संसारकं मुवि० ॥ ३८ ॥ चतुर्विध [३१] का॥ ५५॥ Jnteritinuomainaxi | सस्तारकस्य सुविशुद्धता-अविशुद्धताया: कथनं ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२९) प्रत सूत्रांक ||३९|| दीप अनुक्रम [३९] Jarom “संस्तारक” - प्रकीर्णकसूत्र -६ (मूलं+संस्कृतछाया) मूलं [११]-- हिओ निच्चं । आरुह सुवि० ॥ ३९ ॥ ६२५ || पंचमहाकलिओ पंचसु समिईसु सुटु आउसो । आरुहा० सुवि० ॥ ४० ॥ ६२६ ।। छकाया पडिविरओ सत्तभयद्वाणविरहिअमईओ आरुहह० सुवि० ॥ ४१ ॥ ६२७ ॥ अट्टमयठाणजो कम्महविहस्स खवणहेउति । आरुहइ० सुवि० ।। ४२ ।। ६२८ ॥ नवबंभचेरगुत्तो उत्तो दसविहे समणधम्मे। आरुहइ० सुवि० ॥ ४३ ॥ ६२९ ॥ जुत्तस्स उत्तम मलिअकसायरस निधियारस्स । भण केरिसो उ लाभो संधारगयस्स समणस्स ! ॥ ४४ ॥ ६३० ॥ जुत्तस्स उत्तम मलिअकसायरस निविआरस्स् । भण केरिसं च सुक्खं संधारगयस्स खमगस्स ? ।। ४५ ।। ६३१ ॥ पदमिमि दिवसे संधारगयस्स जो हवइ लाभो । को दाणि तस्स सका अग्र्ध कार्ड अणग्घस्स ।। ४६ ।। ६३२ ॥ जो संखिज्ज भवट्टिई संस्तारक - श्रमणस्य को लाभ? तत् कथ्यते कपायमधन अतसृभिर्विकथाभिर्विरहितो नित्यम्। आरोहति च संस्तारकं सुबि० ।। ३९ ।। पञ्चमहात्रतकलितः पञ्चसु समितिषु सुष्ठायुक्त: । आरोति च संसारकं सुवि० ॥ ४० ॥ पद्मभ्यः कायेभ्यः प्रतिविरतः सप्तभवस्थानविरहितमतिकः । आरोहति च संस्तारकं सुवि० ॥४१॥ काष्टम स्थानः कर्मणोऽष्टविधस्य क्षपणहेतोरिति । आरोहति च संस्तारकं सुवि० ॥ ४२ ॥ नवत्रह्मचर्यगुप्त उयुक्तो दशविधे श्रमणधर्मे आरोहति च संस्तारकं सुवि० ॥ ४३ ॥ युक्तस्योत्तमायें मर्दितकपावस्य निर्विकारस्य । भण कीदृशस्तु लाभः संस्तारकगतस्य भ्रमणस्य ? ॥ ४४ ॥ युक्तस्योत्तमायें मर्दितकपायस्य निर्विकारस्य । भण कीदृशं च सौख्यं संस्तारकगतस्य क्षपकस्य ? ॥ ४५ ॥ प्रथमे दिवसे संस्तारकगतस्य यो भवति लाभः क इदानीं तस्य शकोऽयं कर्तुमनस्य ? ।। ४६ ।। यः संख्येयभवस्थितिकं सर्वमपि स 1 Prins Pate Use Only ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “संस्तारक” - प्रकीर्णकसूत्र-६ (मूलं+संस्कृतछाया) --------- मूलं [४७]---- (२९) प्रत सूत्रांक ||४७|| ५ तंदुलब- सपि खवह सो नहिं कम्मं । अणुसमयं साहुपर्य साह बुत्तो तहिं समए ॥४॥६३॥ तणसंधारनिसन्नोऽपि संस्तारके चारिक मुणिवरो भट्टरागमयमोहो । जं पावह मुसिमुहं कत्तोतं चकवट्टीवि.१ ॥४८॥ ६३४ ॥ तप्पु(नियपु०) रिस-II सौख्यं नाडमिवि न सा(जा)रई तह सहस्स(त्य)वित्थारे। जिणवयणमिवि सा ते हे सहस्सोवगदमि ॥४९॥६३६॥ ॥५६॥ दाज रागदोसमा सुक्खं जं होइ विसयमईयं च । अणुहवह चकवट्टी न होइ तं वीअरागरस ॥५०॥६३६॥ मा होइ वासगणया न तस्य वासाणि परिगणिजंति । यहवे गच्छं वुत्धा जम्मणमरणं च ते खुसा ॥५१॥ 8॥ ६३७ ।। पच्छावि ते पयाया विप्पं काहिंति अप्पणो पत्थं । जे पच्छिमंमि काले मरंति संधारमारूढा ॥५२॥ ॥६३८॥ नवि कारणं तणमओ संथारो नवि अ फासुआ भूमी । अप्पा खलु संथारो हवइ विसुद्धे चरिसंमि ॥ ५३ ।। ६३९ ॥ निचंपि तस्स भावुजुअस्स जत्थ व जहिं व संधारो । जो होइ अहक्खाओ विहार-11 अपयति तत्र कर्म । अनुसमर्थ साधुपात साधुरतसत्र समये ॥ ४७ ॥ तृणसंस्तारकनिषण्णोऽपि मुनिपरो भएरागमदमोहः । यत् | प्राप्नोति मुक्तिसौख्यं कुतस्मत चमवयपि ॥४८॥ निजपुरुषनाटकेऽपि तथा स्वहस्तविस्तारे सा(या) रविन । जिनवचनेऽपि सा ते हेतुसहस्रोपगूढे ॥४९॥ यतू रागद्वेपमयं सौगयं यद् भवति विषयमयं च । अनुभवति चक्रवर्ती न भवति.सदू वीतरागस्य ।। ५०॥ मा भूत वर्षगणका न तत्र वर्षाणि परिगण्यन्ते । बहवो गच्छे उपिता जन्ममरणयोस्ते निमनाः ॥ ५१ ॥ पश्चावपि ते प्रयाताः क्षिप्रं करिष्यन्त्यामनः पध्यम् । ये पश्चिमे काले नियन्ते संस्तारकमारूढाः ।। ५२ ॥ नैव कारणं तृणमपः संस्तारको नैव च प्रासुका भूमिः । आत्मा ॥५६॥ खलु संस्तारको भवति विहाढे चारित्र ।। ५३ ॥ नित्यमपि तस्योगुनभावस्य यत्र वा यदा वा संसारकः । यो भवति यथास्यानो विहा दीप अनुक्रम [४७] RKAR.COCCROCOCC-96400 JntentiomemaimM ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “संस्तारक” - प्रकीर्णकसूत्र-६ (मूलं+संस्कृतछाया) --------- मूलं [१४]---- (२९) प्रत सूत्रांक ||५४|| 62-6-560-6400-44-964-64-9-2-%-- मन्भुडि(जु)ो लूहो ॥ ५४ ॥ ६४० ॥ वासारत्तमि तवं चित्तविचित्ताइ मुह काऊणं । हेमंते संधारं आरुहार सबवत्धासु ॥५५॥ ६४१॥ आसीअ पोअणपुरे अजा नामेण पुप्फचूलत्ति । तीसे धम्मायरिओ पविस्सुओ| अनिआउत्तो ॥५६॥ ६४२ ।। सो गंगमुत्तरंतो सहसा उस्सारिओ अ नावाए । पडियन्न उत्तिमझु तेणवि| आराहि मरणं ॥५७॥ ६४३॥ पंचमहत्वयकलिंआ पंचसया अजया सुपुरिसाणं । नयरंमि कुंभकारे कडगंमि | निवेसिआ तइआ ॥५८ ॥६४४ ॥ पंचसया एगणा वायंमि पराजिएण रुटेणं । अंतमि पावमहणा छुन्ना छन्नेण कम्मेण ॥५९॥ १४५ ।। निम्ममनिरहंकारा निअयसरीरेवि अप्पडीयद्धा। तेवि तह हुज्जमाणा पहिवना उत्तम अहूं ॥ १०॥६४६ ॥ दंडत्ति विस्सुअजसो पडिमादसधारओ ठिओ पडिमं । जउणावंक नपरे सरेहिं विद्धो सयंगीओ ॥ ६१॥ ६४७ ।। जिणवयणनिच्छिअमई निअयसरीरेऽवि अप्पडीबद्धो । सोऽवि तह विज्झमाणो | रमभ्युस्थितो रूमः ॥ ५५ ॥ वर्षाराने तपांसि चित्रविचित्राणि सुष्टु कृत्वा । हेमन्ते संस्तारकमारोहति सविस्थाम् ॥ ५५ ॥ आसीच | पोतनपुरे आर्या नाना पुष्पचूलेति । तस्या धर्माचार्यः प्रविश्रुतोऽर्णिकापुत्रः ॥ ५६॥ स गङ्गामुत्तरम् सहसोरसारितो नायव । प्रतिपन्न उत्तमा तेनाप्याराद्धं मरणम् ।। ५७ ॥ पचमहानतकलिताः पञ्च शतानि आर्याः सुपुरुषाणाम् । नगरे कुम्भकारे कटके नियेशितानदा 11५८ प शलान्यकोनानि वादे पराजितेन कहेन । बत्रेण पापमसिना हिंसिसाः प्रच्छन्नकर्मणा ॥५९|| निर्ममा निरहजारा निजकशरीरेऽपि अप्रतिवद्धाः । तेऽपि तथा पील्यमानाः प्रतिपमा उत्सममर्थम् ।। ६०॥ण्ड इति विश्रुतयशाः प्रतिमादशाधारक: खितः प्रतिमाम ।। | यमुनावके नगरे वरिषद्धः खयं गीतः ।। ६१ ॥ जिनवचननिधितमतिर्निजफशरीरेऽप्यप्रतिबद्धः । सोऽपि तथा विध्यमानः प्रविपन्न -1 दीप अनुक्रम [१४] Jnterstinamalani अथ संस्तारक (उत्तमार्थ)आराधक्स्य दृष्टान्ता:-(लघु कथा:) आरभ्यते ~ 11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “संस्तारक” - प्रकीर्णकसूत्र-६ (मूलं+संस्कृतछाया) --------- मूलं [६२]---- (२९) प्रत सूत्रांक ||६२|| ५ तंदुल-पडि० ॥ ३२॥ ६४८॥ आसी सुकोसलरिसी चाउम्मासस्स पारणादिवसे । ओरुहमाणो अ नगा खइओ संस्तारण चारिके मायाइ वग्घीए ॥ ६३ ॥ ६४९॥ धीधणिअबद्धकच्छो पचक्खाणम्मि सुद्द उपउत्तो। सो तहवि खजमाणो उत्तमार्थदापडि० ॥ ६४ ॥ १५० ॥ उजेणीनयरीए अवंतिनामेण विस्सुओ आसी । पाओवगमनिवन्नो सुसाणमज्झम्मिकारकाः एगतो ॥६५॥ ६५१ ॥ तिन्नि रयणीइ खइओ भल्लुकी रुट्टिया विकहुंती। सोचि तह खजमाणो पडि० ॥१६॥ 3॥ ६५२ ॥ जल्लमलपंकधारी आहारो सीलसंजमगुणाणं । अज्जीरणो अ गीओ कत्तिअ अज्जो सुरवरं (ग)मि| ॥३७॥ ६५३ ॥ रोहीडगंमि नयरे आहारं फासुअं गवसंतो । कोवेण खत्तिएण य भिन्नो सत्तिप्पहारेणं ॥ ६८ ॥ ६५४ ॥ एगतमणावाए विच्छिन्ने धंडिले चइअ देहं । सोऽवि तह भिन्नदेहो पडि०॥ १९॥ ६५५॥ पाटलिपुत्संमि पुरे चंदयगुत्तस्स चेव आसीअ । नामेण धम्मसीहो चंदसिरिं सो पयहिऊणं ॥७० ।। ६५६॥ ममर्थम् ॥ ६२ ॥ आसीत् सुकोशलर्षिः चतुर्मास्याः पारणकदिवसे । अवरोहन नगात् खादितो मात्रा व्याध्या ।। ६३ ।। गाढभृतिबद्धकक्षाक: प्रत्याख्याने मुघु उपयुक्तः । स तथापि खाद्यमानः प्रतिपन्न उत्तममर्थम् ॥ ६४ ॥ उज्जयिनीनगर्यामवन्तिनाना विभुत आसीत् । पादपोपगमनेन सुप्तः (निषणः) श्मशानमध्ये एकान्ते ।। ६५ ॥ तिसः रात्री: सादितः शृगाल्या रुष्टया विकर्षयन्त्या । सोऽपि तथा खायमानः प्रतिपन्न उत्तममर्थम् ॥६६॥ जलमलपधारक आधारः शीलसंयमगुणानाम् । अजीर्णवान् गीतार्थध कार्तिकार्यः सुरवणे ॥६७ ॥ रोहिडके नगरे आहारं प्रामुर्फ गवेषयन् । कोपेन च क्षत्रियेण भिन्नः शक्तिप्रहारेण ।।६८॥ एकान्तेऽनापाते विस्तीर्णे स्खण्डिले ॥५७ ।। ४) त्यक्त्वा देहम् । सोऽपि तथा भिन्नदेहः प्रतिपन्न उत्तममर्थम् ।। ६९ ॥ पाटलीपुत्रे पुरे चन्द्रगुप्तकस्यैव आसीत् । नाना धर्मसिंहअन्द्रभि SCALCCALCRECRACK दीप अनुक्रम -4 [६२] -3--501 Jntentiomemaim ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “संस्तारक” - प्रकीर्णकसूत्र-६ (मूलं+संस्कृतछाया) ---------- मूलं [७१]---- (२९) प्रत सूत्रांक ||७१|| कुल्लउरमि पुरवरे अह सो अम्भुट्टिओ ठिओ धम्मे। कासीअ गिद्धपट्ट पञ्चक्खाणं विगयसोगो॥७१॥६५७॥ अह सोचि चसदेहो तिरिअसहस्सेहिं खजमाणो अ । सोऽवि तह ॥ ७२ ॥ ६५८ ॥ पाडलिपुत्तमि पुरेट चाणको नाम विस्सुओ आसी । सवारंभनिअत्तो इंगिणिमरणं अह निवन्नो ॥ ७३ ।। ६५९ ॥ अणुलोमपूअ-I णाए अह से सनू जओ डहइ देहं । सो तहवि इज्झमाणो पडि०॥ ७४ ॥ ६६० ।। गुट्ठयपाओवगओ सुब-18 धुणा गोमये पलिवियंमि । इज्झतो चाणको पडि० ॥ ७५ ॥ ६६१ ॥ काइंदीनपरीए राया नामेण अमपघो-टा सुत्ति । तो सो सुअस्स रजं दाऊणं इह चरे धम्मे ॥ ७६ ।। ६६२ ।। आहिंडिऊण वसुहं सुत्तत्थविसारओ सुअरहस्सो । काइंदि चेच पुरि अह पत्तो विगयसोगो सो ॥ ७७ ।। ६३३ ॥ नामेण चंडवेगो अह से पडि-18 । दीप अनुक्रम [७१] जाय(भार्या) स प्रहाय ॥ ७० ॥ कोलपुरे नगरे अथ सोऽभ्युत्थितः स्थितो धर्मे । अकार्षीच गृढपृष्ट प्रत्याख्यानं विगतशोकः ॥ ७१॥ अथ सोऽपि यक्तदेहस्तिवक्सहः सायमानः । सोऽपि तथा खाद्यमानः प्रतिपन्न उत्तममर्थम् ।। ७२ ॥ पाटलीपुत्रे पुरे चाणक्यो नाना विधुत आसीत् । सर्वारम्भनिवृत्त इङ्गिनीमरणमय निषण्णः ।। ७३ ॥ अनुलोमपूजनयाऽथ तस्य शत्रुर्देहति देदम् । स तथापि दह्यमानः प्रविपन्न उत्सममर्थम् ।। ७४ ।। गोषे पादपोपगतः सुबम्धुना गोमये प्रदीपिते । दह्यमानचाणक्यः प्रतिपन्न उत्तममधम् ॥७५ ।। काकन्या नगर्या राजा नामाऽमृतघोष इति । ततः स मुताय राय दत्त्वा इहापरल् धर्मम् ।। ७६॥ आहिण्य वसुधा सूत्रायविशारदः श्रुतरदखः। काकन्दीमेव पुरीमथ प्रामो विगतशोकः सः ॥ ७७ ॥ नाना भण्डवेगोऽथ नस प्रतिभिनत्ति तर्फ देहम् । स तथापि छिप-1 ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२९) प्रत सूत्रांक ॥७८॥ दीप अनुक्रम [८] ५ तंदुलब धारिके ॥ ५८ ॥ Janomai “संस्तारक” - प्रकीर्णकसूत्र -६ (मूलं+संस्कृतछाया) मूलं [८]-- छिंदह तयं देहं सो तहवि छिनमाणो पडिवन्नो० ॥ ७८ ॥ ६६४ || कोसंबीनयरीए ललिअघडा नाम विस्सुआ आसि । पाओवगमनिवन्ना बत्तीसं ते सुअरहस्सा ॥ ७९ ॥ ६६५ || जलमझे ओगाढा नईह पूरेण निम्ममसरीरा तहवि हु जलदहमसे पडिवन्ना० ॥ ८० ॥ ६३६ ।। आसी कुलाणनयरे राया नामेण वेसमणदासो । तरस अमचो रिट्ठो मिच्छद्दिट्टी पडिनिविट्टो ॥ ८१ ॥ ६६७ ॥ तत्थ य मुणिवरवसही गणिपिडगधरो तहासि आयरिओ । नामेण सहसेणो सुअसायरपारगो धीरो ।। ८२ ।। ६६८ ।। तस्सासी अ गणहरो नाणासत्थत्थन हि अपेआलो । नामेण सीहसेणो वार्यमि पराजिओ रुट्टो || ८३ ॥ २६९ ॥ अह सो निराणुकंपो अरिंग दाऊण सुविहिअपसंते। सो तहवि डझ० ॥ ८४ ॥ ६७० ॥ कुरुदत्तोऽवि कुमारो सिंबलफालिब अग्गिणा दहो । सो तहवि उज्झ० ।। ८५ ।। ६७१ ।। आसी चिलाइपुतो मुहंगुलिआहिं चालवि मानः प्रतिपन्न उत्तममर्थम् ॥ ७८ ॥ कोशास्त्र्यां नगयाँ ललितपटानामानो विश्रुता आसीरन् । पादपोपगमने विषण्णा द्वात्रिंशत्ते श्रुतरहस्यः ।। ७९ ।। जलमध्येऽवगाडा नयाः पूरेण निर्ममाः शरीरे तथापि जलदमध्ये प्रतिपन्ना उत्तममर्थम् ॥ ८० ॥ आसीत् कुलाण(कुणाल ) नगरे राजा नाना वैभ्रमणदासः । तस्यामात्यो रिष्ठो मिध्यादृष्टिः प्रतिनिविष्टः ॥ ८१ ॥ तत्र च मुनिवरवृषभो गणिपिटकपरस्वधाऽऽसीदाचार्यः। नाना पषभसेनः श्रुतसागरपारगो धीरः ॥ ८२ ॥ तस्यासीच गणधरो गृहीतनानाशास्त्रार्थसारः । नात्रा सिंहसेनो वादे पराजितो रुष्टः ||८३॥ अथ स निरनुकम्पोऽग्निं दत्वा सुविहिते प्रशान्ते स तथापि दह्यमानः प्रतिपन्न: उत्तममर्थम् ॥ ८४ ॥ ॥ ५८ ॥ कुरुदत्तोऽपि कुमारः शाल्मलीकाण्ड इवाग्निना दग्धः । स तथापि दयमानः प्रतिपन्नः उत्तममर्थम् ॥ ८५ ॥ आसीत् चिलाविपुत्रः Pate Us O ~14~ संस्तारकेण उत्तमार्थकारकाः Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२९) प्रत सूत्रांक ॥८६॥ दीप अनुक्रम [८६] Jarom “संस्तारक” - आहार- पान ममत्व त्याग, क्षमापना आदीनां वर्णनं प्रकीर्णकसूत्र - ६ (मूलं+संस्कृतछाया) मूलं [२६] कओ। सो तहवि ख० ।। ८६ ।। ६७२ ॥ आसी गयसुकुमालो अल्लयचम्मं व कीलयसएहिं । धरणीअले उचिद्धो तेवि आराहिअं मरणं ॥ ८७ ॥ ६७३ || मंखलिणावि प अरहओ सीसा तेअस्स उबगया दहा ते तहवि उज्झ० ॥ ८८ ॥ ६७४ || परिजानई तिगुत्तो जावजीवाह समाहारं । संघसमवायमज्झे सागारं गुरुनिओगेणं ॥ ८९ ॥ ६७५ || अहवा समाहिदेउं करे सो पाणगस्स आहारं । तो पाणगंपि पच्छा वोसिरह मुणी जहाकालं ॥ ९० ॥ ६७६ ॥ खामेमि सहसंघ संवेगं सेसगाण कुणमाणो । मणवइजोगेहिं पुरा कपका रिअअणुमए बाबि ।। ९९ ।। ६७७ || सवे अवराहपए एस खमावेमि अज्ज निस्सल्लो । अम्मापिऊसरिसया सवेऽवि खमंतु मह जीवा ॥ ९२ ॥ ६७८ ॥ धीरपुरिसपण्णत्तं सप्पुरिसनिसेविअं परमघोरं । धन्ना सिलापलगया साहंती उत्तमं अहं ॥ ९३ ॥ ६७९ ॥ नारयतिरिअगईए मणुस्सदेवत्तणे वसंतेणं । जं पसं सुहपिपीलिकामिवानीव कृतः स तथापि खाद्यमानः प्रतिपन्नः उत्तममर्थम् ॥ ८६ ॥ आसीद् गजसुकुमाल आर्द्रयमेव कीटकसहस्रैः । धरणितले उद्धिस्तेनाप्याराद्धं मरणम् ॥ ८७ ॥ मङ्कलिनाऽप्यतः शिष्यौ तेजसोपगमनेन दग्धौ तौ तथापि दह्यमानौ प्रतिपन्नावुत्त समर्थम् ॥ ८८ ॥ परिजानीते त्रिगुप्तो यावज्जीवतथा सर्वमाहारम् । सङ्घसमवायमध्ये साकारं गुरुनियोगेन ।। ८९ ।। अथवा समाधिहेतोः करोति पानकस्याहारम् । ततः पानकमपि पश्चात् व्युत्सृजति मुनिर्यथाकालम् ॥ ९० ॥ क्षमयामि सर्वसङ्घं संवेगं दोषाणां कुर्वन् । मनोवागयोगः पुरा कृतकारितानुमतीषि ॥ ९१ ॥ सर्वाणि अपराधपदानि एप क्षमयामि अद्य निश्शस्यः । मातापितृसदृशाः सर्वेऽपि शाम्यन्तु मयि जीवाः ।। ९२ ।। धीरपुरुषप्रज्ञप्तं मत्पुरुषनिषेवितं परमघोरम् | धन्याः शिलातलगताः साधयन्त्युत्तममर्थम् ॥९३॥ नारकति I Port Us O ~ 15 ~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “संस्तारक” - प्रकीर्णकसूत्र-६ (मूलं+संस्कृतछाया) ---------- मूलं [९४]---- (२९) ५ तंदुल- चारिके आहार ॥ ५९॥ प्रत सूत्रांक ||९४|| क्षामण ममत्वत्यायः दुक्खं तं अणुचित अणन्नमणो ॥ ९४ ॥ ६८० ॥ नरएसु वेअणाओ अणोवमाओ असायबहुलाओ । काय- निमित्तं पत्तो अर्णतखुत्तो पहुविहाओ॥९५ ॥ ६८१॥ देवसे मणुअसे पराभिओगत्तर्ण उवगएणं । दुक्खपरिकिलेसकरी अणंतखुसो समणभूओ ॥१६॥ ६८२ ॥ तिरिअगई अणुपत्तो भीममहावेअणा अणोअरपा (पारा)। जम्मणमरणऽरहहे अर्णतखुत्तो परिभमिओ ॥ १७॥ ६८३ ।। सुविहिन! अईयकाले अर्णतकालं| तु आगपगएणं । जम्मणमरणमणतं अणंतखुत्तो समणुभूओ ॥ ९८॥ ६८४ ॥ नस्थि भयं मरणसमं जम्मणसरिसं न विजए दुक्खं । जम्मणमरणार्यकं छिंद ममत्तं सरीराओ॥ ९९ ॥ ६८५ ॥ अन्नं इमं सरीरं अनो जीवत्ति निच्छयमईओ । दुक्खपरिकिलेसकरं छिंद ममत्तं०॥१०॥ ६८६ ॥ जावंति केइ दुक्खा सारीरा माणसा व संसारे । पत्तो अणंतखुत्तो कायस्स ममत्तदोसेणं ॥ १०१॥ ६८७॥ तम्हा सरीरमाई सम्भितर गरयोर्मानुष्यदेवरवयोर्षसता । यत् प्राप्त सुखदुःखं तदनुचिन्तयत्यनन्यमनाः ॥ ९४ ॥ नरकेषु वेदना अनुपमा अमातबहुलाः । कायनिमित्तं प्राप्तोऽनन्तकृत्वो बहुविधाः ।। ५५ ॥ देवत्वे मनुजत्वे पराभियोगरवमुपगतेन । दुःखपरिलेशकरीरनन्तकृत्वः समनुभूतवान् ॥ ९॥ तिर्यग्गतिमनुपातो भीमा महावेदना अनुत्ताराः । जन्ममरणारघट्टेऽनन्तकृत्वो(वेदयन ) परिभ्रान्तः ॥ १७॥ सुविहित ! अतीतकालेऽनन्तकालं तु गतागताभ्यां । जन्ममरणमनन्तमनन्तकृत्वः समनुभूतवान् ।। ९८ ॥ नालि भवं मरणसमं जन्मसदृशं न विद्यते दुःखम् । जन्ममरणातवं छिन्द्धि ममत्वं शरीरान् ॥ ९९ ॥ अन्यदिदं शरीरमन्यो जीव इति निश्चयमतिकः । दुःखपरिक्लेशकरं हिन्द्धि ममत्वं शरीरात् १०० ।। यावन्ति कानिचिद् दुःखानि शारीराणि मानसानि वा संसारे । प्रासोऽनन्तकृत्वः कावस्य ममत्वदोपेण ॥ १०१॥ तम्मात् दीप अनुक्रम AMANANR4 [९४] ॥५९॥ अन्यत्व, संसार आदि भावना वर्णयते ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “संस्तारक” - प्रकीर्णकसूत्र-६ (मूलं+संस्कृतछाया) -------- मूलं [१०२]----- (२९) प्रत सूत्रांक ||१०२|| 18/बाहिरं निरवसेसं । छिंद ममत्तं सुविहिब! जह इच्छसि उत्तमं ठाणं ॥१०२॥ ६८८ ॥ जगआहारो संघो सपो मह खमउ निरवसेसंपि । अहमवि खमामि सुद्धो गुणसंघायस्स संघस्स ॥१०३ ।। ३८९ ॥ आपरिज उवज्झाए सीसे साहम्मिए कुलगणे य । जे मे केइ कसाया सबै तिविहेण खाममि ॥ १०४ ।। ६९० ।। सबस्स समणसंघस्स भयवओ अंजलिं करिअ सीसे । सर्व खमावइत्ता अहमवि खामेमि सवस्स ॥१०५ ॥ ६९१॥ सबस्स जीवरासिस्स भावओ धम्मनिहिअनिअचित्तो। सर्व खमावइत्ता अहयंपि खमामि सधेसिं॥१०६॥ ॥ ६९२ ।। इअ खामिआइआरो अणुत्तरं तवसमाहिसारूदो । पप्फोडतो बिहरह बहुविवाहाकरं कम्म ॥१०७॥ ६९३ ॥ जं बद्धमसंखिजाहिं असुभभवसयसहस्सकोडीहिं । एगसमएण विहुणइ संथारं आरुहंतो ५ ॥ १०८ ॥ ६९४ ॥ इअ (ह) तह विहारिणो से विग्घकरी वेअणा समुद्वेद । तीसे विज्झवणाए अणुसहि शरीरादी साभ्यन्तरे वाह्ये निरव शेषे । हिन्दि ममत्वं सुविहित ! यदीच्छसि उत्तम खानम् ॥ १०२ ॥ जगदाधारः सका। सर्वः क्षाम्यतु मम निरख शेषमपि । अहमपि क्षमयामि शुद्धो गुणसंधाते सङ्के ।। १०३ ॥ आचार्यान् उपाध्यायान् शिप्यान साध-| [मिकान कुलगणान् । ये मया कपाविताः सर्वान त्रिविघन क्षमयामि ।। १०४॥ सर्वस्य श्रमणसवय भगवतोऽशालि कृत्वा शी सर्व क्षमयित्वा अहमपि क्षमयामि सर्वस्व ।। १०५ ॥ सर्वस्य जीवराशेर्भावतो धर्मे निहितनिजचित्तः । सर्व क्षमयित्वा अहमपि क्षाम्यामि सर्वस्य ।। १०६ ।। इति क्षमितातिचारोऽनुत्तरं तपासमाधिमारूढः । बहुविधवाधाकर कर्म प्रस्फोटयन् विहरति ।। १०७ ॥ यद् पद्ध| मसंख्येयाभिरामभवशतसहसकोटीमिः । एकसमयेन विधुनाति संस्तारकमारोहन्नेव ।। १०८ ।। इह तथाविहारिणतस्प विनकरी वेदना दीप HORSROCRACT अनुक्रम [१०२] Jinternationmaina | अथ उत्तमार्थ-आराधना-पूर्व आचरणियविधि: कथ्यते ~ 17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “संस्तारक” - प्रकीर्णकसूत्र-६ (मूलं+संस्कृतछाया) --------- मूलं [१०९]---- (२९) पइण्णायं प्रत सूत्रांक ||१०९|| ६ संधारय- दिति निजषया ॥१०९॥ ६९५ ॥ जइ ताव ते मुणियरा आरोविअवित्थरा अपरिकम्मा । गिरिपन्भार कृतसंस्ता द्र विषग्गा बहुसाचपसंकर्ड भीमं ॥ ११०॥ ६९६ ॥ धीधणिअवद्धकच्छा अणुत्तरविहारिणो समक्खाया। रकख सावयदादगयाबिहु साहंती उत्तम अटुं ॥ १११ ॥ ६९७ ॥ किं पुण अणगारसहायगेहिं धीरेहिं संगयम- अनुशास्तिः हिं । नहु नित्थरिजाइमो संधारो उत्तम अहूँ ॥ ११२ ॥ ६९८ ॥ उच्छृढसरीरघरा अमो जीवो सरीरम-11 प्रति । धम्मस्स कारणे सुविहिबा सरीरंपि छइंति ॥ ११३ ॥ ६९९ ॥ पोराणि पप्पनिआ उ अहिआसिजण विअणाओ। कम्मकलंकलवल्ली बिहुगइ संधारमारूदो॥११४ ॥ ७००॥ जं अनाणी कर्म खवेइ बहुआहि वासकोडीहिं । तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमितेणं ॥ ११५॥ ७०१ ॥ अढविहकम्ममूलं बहु-1 एहिं भवेहिं संचिअंपावं । तं नाणी०॥ ११६ ॥ ७०२ ॥ एवं मरिफण धीरा संधारंमि उ गुरु पसत्यमि। समुत्तिष्ठति । तस्या विध्यापनायानुशास्ति ददति निर्यापका गीतार्थाः ॥ १०९॥ यदि तावन् ते मुनिवरा आरोपितविस्तरा अपरिकर्माणः ।। गिरिप्राम्भार विलमा बहुधापदसंकट भीमम् ॥ ११॥ बादधृतिषकक्षाकाः अनुत्तरविहारिणः समाख्याताः । श्वापददशगता अपि साधयन्त्येषोत्तममर्थम् ॥ १११॥ किं पुनरनगारसहायकै धारैः संगतमनोभिः । नैव निस्तीयतेऽयं संस्तारक उत्तममर्थमाश्रिल ।। ११२॥ वक्तशरीरगृहा अन्यो जीवः शरीरमन्यदिति । धर्मस्य कारणान् सुविहिताः शरीरमपि त्यजन्ति ।।११।। पौराणिकीः प्रत्युत्पन्ना अध्याय वेदनाः । कर्मकलवहीं विधुनावि संसारकमारूढः ॥ ११४ ।। यदज्ञानी कर्म अपयति बहुकाभिवर्षकोटीभिः । शानी तिमभिर्गुपः ॥१०॥ अपयत्युन्छासमात्रेण ॥ ११५ ।। अष्टविधकर्ममूलं बहुकै बैः संचितं पापम् । तद् ज्ञानी विसृभिर्गुमः क्षपयत्युच्टासमात्रेण ॥११६।। एवं CAKC दीप अनुक्रम [१०९] JnternmomaineKI संस्तारकस्य (उत्तमाथे-आराधकस्य) प्राप्त आराधना-फ़लम् ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “संस्तारक” - प्रकीर्णकसूत्र-६ (मूलं+संस्कृतछाया) -------- मूलं [११७]-- (२९) प्रत सूत्रांक ||११७|| ॐॐ442-4*4- 20 तइअभवेण व तेण व सिझिजा खीणकम्मरया ॥ ११७ ॥ ७०३ ॥ गुत्तीसमिइगुणहो संजमतवनिअमक-18| है रणकपमउडो । सम्मत्तनाणदंसणतिरपणसंपाविअसमग्यो (महग्यो)॥११८ ॥ ७०४ ॥ संघो सइंदपाणं सदेवमणुआसुरम्मि लोगम्मि । दुल्लहतरो विसुद्धो सुविसुद्धो तो महामउडो ॥११९ ।। ७०५ ॥ डझतेणवि गिम्हे कालसिलाए कवल्लिभूआए । मरेण व चंडेण व किरणसहस्संपर्यडेणं ॥ १२० ।। ७०६ ॥ लोगविजयं| करितेण तेण झाणोवउत्तचित्तेणं । परिसुद्धनाणदंसणविभूइमंतेण चित्तेणं ॥ १२१ ॥ ७०७ ॥ चंदगविजसं लद्धं केवलसरिसं समाउ परिहीणं । उसमलेसाणुगओ पडिवन्नो उत्तम अहूँ ॥ १२२||७०८ ॥ एवं मए अभि-2 थुआ संधारगईदखंधमारूदा । सुसमणनरिंदचंदा सुहसंकमणं सया दिंतु ॥ १२३ ॥ ७०९ ॥ संधारगपडपण[81 सम्मत्त ॥६॥ मृत्वा धीराः संस्तारके गुरुमिः प्रशंसिते । तृतीयभवेन वा तेन वा सिध्यन्ति क्षीणकर्मरजसः ॥ ११७ ॥ गुप्तिसमितिगुणात्यः | संयमतपोनियमकरणकृतमुकुटः । सम्यक्त्वज्ञानदर्शनविरत्नसंप्रापितसमर्घत्वः ।। ११८ ॥ सहः सेन्द्रे सदेवमनुजासुरे लोके । दुर्लभतरो। विशुद्धः सुविशुद्धमतो महामुकुदः ।। ११९ ॥ दशमानेनापि भीग्मे कृष्णशिलायां कटाहभूतायाम् । सूर्येण वा घण्टेन किरणसहस्रपचण्डेन ॥ १२ ॥ होकविजयं कुर्वता तेन ध्यानोपयुक्तचित्तेन । परिशुद्धज्ञानदर्शनविभूतिमता चित्तेन ॥ १२१॥ चन्द्राध्यकं लब्ध। कवलसदृशं साम्वेनापरिहीणम् । उत्तमलेश्यानुगतः प्रतिपन्न उत्तममर्थम् ।। १२२ ॥ एवं मयाऽभिष्टुताः संस्तारकगजेन्द्रस्कन्धमारूढाः । सुभमणनरेन्द्रचन्द्राः सुखसंक्रमणं महा ददतु ॥ १२३ ।। इति संस्तारकप्रकीर्णकम् ॥६॥ दीप अनुक्रम [११७] प.स.१. मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र २९) । “संस्तारक” परिसमाप्त: ~19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः 29 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। ' “संस्तारक-प्रकीर्णकसूत्र” (मूलं एवं छायाः] / (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: ' "संस्तारक" मूलं एवं संस्कृतछाया:” नामेण परिसमाप्त: - Remember it's a Net Publications of jain_e_library's' ~ 20~