Book Title: Aagam 24 V CHATU SHARAN Moolam evam Vrutti
Author(s): Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Deepratnasagar
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४-वृत्ति] श्री चतु:शरणं (प्रकीर्णक)सूत्रम् नमो नमो निम्मलदंसणस्स - पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः । “चतु:शरण” मूलं एवं अवचूर्णि: [मूलं एवं विजयविमल गणि विवृत्ता अवचूर्णि:] [आदय संपादकः - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ।। (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) | 15/01/2015, गुरुवार, २०७१ पौष कृष्ण १० jain_e_library's Net Publications मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] "चतुःशरण" मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: ~ ~ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतुःशरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------ मूलं [-] -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/१], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण" मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: चतुःशरण' प्रकीर्णक (१) श्री देवचन्द्र लालभाई पुस्तकोद्धार ग्रन्थाङ्कः ५९ श्री महावीरहस्तदीक्षित-वीरभद्रमुनिः प्रणीतं “चतु:शरणं प्रकीर्णकं" एवं विजयविमलगणि विहित अवर्णि: चतुःशरण-प्रकीर्णकसूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" ~1~ Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाड़का: ६३ 'चतु:शरण' प्रकीर्णकसूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: ६३ मूलांक: गाथा पृष्ठांक: मूलांक: गाथा पृष्ठांकः | | मूलांक: गाथा पृष्ठांक: ००४ ००८ ००९ ०१० | ००१ ०४९ आवश्यक-अर्थाधिकारः दुष्कृत् गर्दा मंगल-आदि सुकृत् अनुमोदना चतु:शरणम् उपसंहारः । ०१० । | ०४० ०३५ ०५५ । | ०३८ ०५९ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२४-व), प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण" मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: ~ 2~ Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ['चतु:शरण' - मूलं एवं विजयविमलगणि विवृत्ता अवचूर्णि:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत "सावचूर्णिकं श्री महावीरहस्तदीक्षित-वीरभद्रमुनि प्रणीतं चतुःशरणप्रकीर्णकं नामसे प्रकाशित हुई, इस प्रतमे (आगम-२४) 'चतुःशरणं' नामक प्रकीर्णक-१ एवं विजयविमलगणि विवृत्ता अवचूर्णि सम्मिलित है इसके आदय संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | हमारा ये प्रयास क्यों? आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर मूलसूत्र या गाथा के क्रमांक लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा सूत्र या गाथा चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढते हए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रो के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस ] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-| ऐसी दो लाइन खींची है या फिर गाथा शब्द लिख दिया है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक विषय-आदि लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते विषय तक आसानी से पहुँच शकता है | कई-कई पृष्ठो के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जहां उस पृष्ठ पर चल रहे खास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन-भूल सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है | अभी तो ये jain_e_library.org का 'इंटरनेट पब्लिकेशन' है, क्योंकि विश्वभरमें अनेक लोगो तक पहुँचने का यहीं सरल, सस्ता और आधुनिक रास्ता है, आगे जाकर ईसि को मुद्रण करवाने की हमारी मनीषा है। .......मुनि दीपरत्नसागर... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४-वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण" मूलं एवं विजयविमल गणि कृता अवचूर्णि: ~3~ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) (२४-वृ) ...........................--- मूलं ||१|| .........---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/व), प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: ECHEACHEL आवश्य चतुःशरणे प्रत काथाधि ॥ अहँ नमः ॥ अथ सावर्णिकं श्रीमहावीरहस्तदीक्षितवीरभद्रमुनिवर्यप्रणीतं चतुःशरणप्रकीर्णकम् । ॥ ५७॥ कारागा.१ E ॥ दीप अनुक्रम ACCORECAS इदमध्ययनं परमपदप्राप्तिबीजभूतत्वात् श्रेयोभूतं अतस्तदारम्भे ग्रन्थकृत् मङ्गलरूपसामायिकाद्यावश्यकार्थकथनभावमङ्गलकारणद्रव्यमङ्गलभूतगजादि १४ स्वप्नोच्चारव्याजसर्वतीर्थकृद्गुणस्मरणवर्तमानतीर्थाधिपतिश्रीवीरनमस्करणरूपं मङ्गलत्रयमाह-'सावजेति, अथवा षडावश्यकयुतस्यैव प्रायश्चतुःशरणप्रतिपत्त्यादियोग्यता स्यादतः प्रथमं पडावश्यकमाह सावजजोगविरई १ उक्वित्तण २ गुणवओ अ पडिवत्ती ३ । खलिअस्स निंदणा ४ वणतिगिच्छ ५ गुणधारणा ६ चेव ॥१॥ 'सावजेत्यादि, सहावयेन-पापेन वर्तन्ते इति सावद्याः योगा-मनोवाकायरूपा व्यापारास्तेषां विरतिः-निवृत्तिः सावद्ययोगविरतिः सा सामायिकेन क्रियते इत्यध्याहारः १, उत्कीर्त्तनं-जिनगुणानामुत्कीर्तना, सा चतुर्विंशतिस्तवेन & क्रियते २, गुणा-ज्ञानदर्शनचारित्राद्याः ते विद्यन्ते येषां ते गुणवन्तो-गुरवस्तेषां प्रतिपत्तिः-भक्तिर्गुणवत्प्रतिपत्तिः सा ॥५७॥ षड़ आवश्यकस्य नामानि एवं व्याख्या: ~ 4~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) प्रत सूत्रांक ||2|| दीप अनुक्रम [२] “चतुःशरण” - प्रकीर्णकसूत्र - १ (मूलं + अवचूर्णि:) - मूलं ||२|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र [२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: वन्दनेन क्रियते ३, स्खलनं स्खलितं - आत्मनोऽतिचारापादनं तस्य निन्दनं निन्दना न पुनः करिष्ये इत्यभ्युपगमनं सा प्रतिक्रमणेन क्रियते ४, प्रणस्य - अतिचाररूपभावत्रणस्य चिकित्सा-प्रतीकाररूपा सा कायोत्सर्गेण क्रियते ५, गुणाविरत्यादयो मूलगुणोत्तरगुणरूपास्तेषां धारणं धारणा सा प्रत्याख्यानेन क्रियते ६, 'चैवेति षण्णामपि समुच्चये ॥ १ ॥ अथ किञ्चिद्विशेषत एतेषां सामायिकादीनां पण्णामपि स्वरूपं चारित्रविशुद्धयादिरूपं फलं चाहचारित्तस्स विसोही कीरइ सामाइएण किल इहयं । सावजे अरजोगाण वज्रणाऽऽसेवणन्त्तणओ ॥ २ ॥ 'चारिते' त्यादि, चारित्रस्य चारित्राचारस्य पञ्चसमितित्रिगुप्तिरूपस्य विशोधनं विशोधिः- निर्मलता क्रियते, केन ?सामायिकेन समभावलक्षणेन 'किले'ति सत्ये' 'इ'ति इहैव जिनशासने नान्यत्र शाक्यादिदर्शने, तेषु सामायिकपरिभाषाया अप्यभावात् कथं सामायिकेन विशोधिः क्रियते ? इत्याह- 'सावज्जे' त्ति सावधा:- सपापा इतरे चनिरवद्या ये योगाः कायादिव्यापारास्तेषां यथासङ्ख्ये ये वर्जनासेवने ताभ्यां वर्जनासेवनातः सावद्यानां वर्जनतः इतराणां त्यासेवनतश्च तेन विशोधिः क्रियते इति तात्पर्यार्थः ॥ २ ॥ उक्ता चारित्राचारविशुद्धिः, अथ दर्शनाचारविशुद्धिमाहदंसणयारविसोही चडवीसायत्थएण किज्जइ अ । अचन्नुअगुणकित्तणरूवेण जिणवरिंदाणं ॥ ३ ॥ 'दंसणे 'त्यादि, दर्शनं - सम्यक्त्वं तस्याचारो - निश्शङ्कितेत्याद्यष्टविधः तस्य विशोधिः- निर्मलता चतुर्विंशतेरात्मनां - *** 'सामायिक स्य चारित्राचार - विशुद्धयादि फलरुप- परिभाषा •••चतुर्विंशति (लोगस्स०), 'दर्शनाचार' - विशुद्धयादि फ़लरुप - परिभाषा For P&Penal Use Only ~5~ [unabiy.org Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) (२४-वृ) .......................-- मूलं ||३|| ........----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/व), प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत चतुःशरणे जीवानां तीर्थङ्करसम्बन्धिनां स्तवः क्रियते यत्र स चतुर्विंशत्यात्मस्तवो-लोगस्सेत्यादिरूपस्तेन क्रियते, 'चउवीसाइत्थएणेति || आचार पाठे जिनानां चतुर्विशत्याः स्तवेनेत्यर्थः, चकारो द्वितीयावश्यकसमुच्चयार्थः, चतुर्विंशतिस्तवेन क्रियते. किंमतेनेत्याह॥५८॥ | चकशुद्धिः है। अचम्भु'इत्यादि, अत्यद्भुताः-सातिशायिनो लोकोद्योतकरादयो ये गुणास्तेषां यदुत्कीर्तन-वर्णनं तद्पेण, केषां| २-४ तदित्याह-'जिवणरिंदाणं'ति जिना-रागादिजयादुपशान्तमोहादयस्तेषां मध्ये वरा:-केवलिनस्तेषां इन्द्रा इव इन्द्रादस्तीर्थङ्करा जिनवरेन्द्रास्तेषामित्यर्थः॥३॥ उक्ता दर्शनाचारविशुद्धिः, इदानी ज्ञानाचारस्य चारित्राचारदर्शनाचार योश्च विशेषेण विशुद्धिमाह नाणाईआ उ गुणा तस्संपन्नपडिवत्तिकरणाओ। वन्दणएणं विहिणा कीरइ सोही उ तेसिं तु ॥ ४॥ 'नाणाईआ' इति 'नाण'त्ति ज्ञानाचारः-कालविनयाद्यष्टविधः आदिशब्दाद्दर्शनचारित्राचारग्रहो, ज्ञानदर्शनचारित्रयुक्त एव वन्दनकाहों नान्यो ज्ञानवानपि पार्श्वस्थादिर्व्यवहारतः चारित्रवानपि निवादिरिति ज्ञापनार्थः, ज्ञानमादौ येषां ते ज्ञानादिकाः, 'तुः' अवधारणे, एतेन ज्ञानादिका एव गुणा इत्यर्थः, तैर्ज्ञानादिगुणैस्सम्पन्ना-युक्तास्तत्स४/म्पन्ना गुरवस्तेषां प्रतिपत्तिः-भक्तिस्तस्याः करणं तस्मात् तत्सम्पन्नप्रतिपत्तिकरणाद्विनयकरणादित्यर्थः, केन?-वन्दन-15 सा॥५०॥ केन, कथं ?-विधिना-द्वात्रिंशद्दोषरहिततया पञ्चविंशत्यावश्यकविशुद्धतया च, 'तेसिं तु'त्ति तेषां-ज्ञानाचारादीनां *CRABHAKAASANSAR अनुक्रम [३] LAMROCCAMGASCAMSAMROS Jinnitute m ainesibrary.org ज्ञानदर्शनचारित्राचारयो: विशेष विशुद्धिरुप 'वन्दन'स्य परिभाषा ~6~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) (२४-वृ) A ....................-- मूलं ||४|| ..........--- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतु:शरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्राक ॥४|| A दीप अनुक्रम [४] तुः पुनरर्थे चारित्राचारदर्शनाचारयोः प्राक्शोधितयोरपि पुनर्विशेषेण शोधिः क्रियते इत्यर्थः ॥ ४॥ उक्ता वन्दनकेन ज्ञानाद्याचारत्रयशुद्धिः, सम्प्रति प्रतिक्रमणकायोत्सर्गाभ्यां गाथाद्वयेन तामाह खलियस्स य तेसिं पुणो विहिणा जं निंदणाइ पडिकमणं । तेणं पडिकमणेणं तेसिपि य कीरए सोही॥५॥ चरणाइयाइयाणं जहक्कम वणतिगिच्छरूवेणं । पडिकमणासुद्धाणं सोही तह काउसग्गेणं ॥६॥ स्खलितस्य-व्रतविषयस्यातिक्रमव्यतिक्रमादिप्रकारसंजातापराधस्य तथा 'तेसि'न्ति तेषां-ज्ञानाचारादीनां पुनः प्रतिषिद्धकरणकृत्याकरणाश्रद्धानविपरीतप्ररूपणादिप्रकारसंजातातिचारस्य च विधिना-सूत्रोक्तप्रकारेण 'जं निंदणाई'इति यन्निन्दनं निन्दना-दुष्टं मयैतत् कृतमिति, आदिशब्दाद्गोंदिग्रहः, गुरुसाक्षिकमात्मदोषाविष्करणं गर्हा, एवंप्रकार|स्खलितस्य यन्निन्दनादिकरणं-तस्माद्दोपजातान्निवर्तनं तत्प्रतिक्रमणमुच्यते इति शेषः, प्रतीपं क्रमणं प्रतिक्रमणं इति |व्यत्पत्तिः, अतः कारणात्तेन प्रतिक्रमणेन 'तेसि पिय'त्ति न केवलं सामान्यतो व्रतादिविषयापराधानां, किन्तु तेषामपि S/ज्ञानाचारादीनां क्रियते विशोधिः-निर्मलतेति, 'चरणाइय'त्ति चरणं-चारित्रं अतिगच्छन्ति-अतिक्रामन्तीति चरणा-18 ऐतिगाः, अतिचारा इति दृश्य, ते आदौ येषां ते चरणातिगादिकाः-सर्वेऽप्यतिचारास्तेषां चरणातिगादिकानां, कथंPIभूतानां ?-प्रतिक्रमणेन-प्रागुक्तेनाशुद्धानामर्द्धशुद्धानां वा शृद्धिस्तथैव-प्रागुक्तप्रकारेण क्रियते, केन ?-कायोत्सर्गेण, किं S.ACACANCEBCASEX JEnicationNKA ज्ञानदर्शनचारित्राचारयो: विशेष विशुद्धिरुप 'प्रतिक्रमण-कायोत्सर्गाभ्याम् परिभाषा Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) (२४-वृ) ...................-- मूलं ||६|| ............... मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/व), प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: %95% प्रत ||६|| दीप अनुक्रम चतुःशरणे भूतेन ?-'जहक्कम वणतिगिच्छत्ति यथाक्रम-क्रमप्राप्तेन 'आलोअणपडिकमणे' इतिगाथोक्तदशविधप्रायश्चित्तमध्ये आचारपंहै पञ्चमप्रायश्चित्तेन 'वण'त्ति द्रव्यभावभेदेन द्विधा वणं, तत्र द्रव्यत्रणः-कण्टकभङ्गादिजनितो भावत्रणस्तु अतिचार- ॥ ५९॥ चकशुद्धिः शल्यरूपस्तस्य भावत्रणस्य चिकित्सा-प्रतीकारः सैव रूपं यस्य कायोत्सर्गस्य स व्रणचिकित्सारूपस्तेन, कायोत्सर्गेणातिचाराः शोध्यन्ते इति भावो, महनिर्जराकारणत्वात् तस्य, प्राक् 'नाणाइआइत्यत्र ज्ञाननयप्राधान्याश्रयणात् ज्ञानादय | इत्युक्तं, 'चरणाइआ' इत्यत्र तु क्रियानयप्राधान्याश्रयाणाच्च विवक्षया चरणादय इति ॥५॥६॥ एवं गाथापञ्चके-/ ना[ति]चारत्रयस्य शुद्धिरुक्ता, अथ तपोवीर्याचारयोस्तामाह___गुणधारणरूवेणं पञ्चकखाणेण तवइयारस्स । विरियायारस्स पुणो सबेहिवि कीरए सोही ॥७॥ | 'गुणधारणे'त्यादि, गुणा-विरत्यादय उत्तरोत्तरा यथा विरतेराश्रवद्वारस्थगनं तत्स्थगनात् तृष्णाव्यवच्छेदस्तस्मादIPI तुलोपशमस्तस्मात्प्रत्याख्यानशुद्धिस्तरछुद्धेश्चारित्रनैर्मल्यं तस्मात्कर्मविवेकस्तस्मादपूर्वकरणमपूर्वकरणात्केवलज्ञानं ततश्च || | मोक्षो भवतीति, तेषां गुणानां धारणं तदेव रूपं यस्य तेन प्रत्याख्यानेन-'अणागयमइकंत' इत्यादिदशविधेन अथवा दीपञ्चमहाव्रतद्वादशश्राद्धव्रतनमस्कारसहितादिदशप्रत्याख्यानरूपसप्तविंशतिविधेन वा तपआचारातिचारस्य-'बारस|विहंमिवि तवे' इति गाथोक्तस्य शुद्धिः क्रियते इति संटंकः, 'विरियायारस्स'त्ति विशेषेण ईरयति-प्रेरयति आत्मानं || तासु तासु क्रियास्विति वीर्य-तपोवीर्य-गुणवीर्य-चारित्रवीर्य-समाधिवीर्य-आत्मवीर्यभेदभिन्नं पञ्चविधं तस्याचारो वीर्याचारः 'अणिमूहिअवलविरिए' इत्यादिकस्तस्य सर्वैरपि पूर्वोक्तैः पडिरप्यावश्यकैः शुद्धिः क्रियते, अन्यूनाधिका 54545555545% Purusale & Famonduswaily अथ 'प्रत्याख्यान'स्य परिभाषया तपोवीर्याचारयो: कथनं ~8~ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) (२४-वृ) .....................-- मूलं ||७|| ......------ मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/व], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक ||७|| 7%95545455555 दीप अनुक्रम [७] वश्यककरणप्रयत्लेन वीर्याचारशुद्धिर्भवत्येव, महाकर्मनिर्जराहेतुत्वात् ॥ ७॥ उक्ता आचारपञ्चकशुद्धिः, अथ सर्वजिनगुणोकीर्तनगर्भ मङ्गलभूतं गजादिस्वप्नसंदर्भमाह गय १ वसहरसीह ३ अभिसेय ४ दाम ५ ससि ६ दिणयरं ७ झयं ८ कुम्भं ९। पउमसर १० सागर ११ विमाण-भवण १२ रयणुचय १३ सिहि १४ च ॥८॥ ठा गाथा सुगमा, नवरं 'अभिसेअत्ति चतुर्थस्वप्ने पार्श्वद्वयवर्तिकरिकलभशुण्डादण्डविधृतकलशयुगलाभिषिच्यमानां लक्ष्मी जिनमाता पश्यति, 'विमाणभवण'त्ति द्वादशस्वप्ने देवलोकागततीर्थकृज्जननी विमानं पश्यति नरकागतजिन-14/ जननी तु भवन, विमानभवनयोराकारमात्रकृत एव विशेषः, गजदर्शनात्स्वाम्यपि तद्वदतुलपराक्रमनिधिभावी, वृषभद-1 शनात् महामोहपङ्कमनधर्मरथधुरोद्धरणक्षमो भरते धर्मबीजवापनिमित्तं च भावीति स्वमैरपि जिनगुणाः सूच्यन्ते, चतुलादेशस्वप्नसंख्यया तु चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्यापि लोकस्योपरिवती पुत्रो भविष्यतीति निवेद्यते इति सर्वतीर्थकृद्गुणवर्णनरूपं स्वममङ्गलमुक्तम् । अथ श्रीवीरनमस्काररूपं तृतीयं मङ्गलं प्रस्तुताध्ययनप्रस्तावना चाह अमरिंदनरिंदमुणिंदबंदिअं बंदिउं महावीरं। कुसलाणुबंधिबन्धुरमज्झयणं कित्तइस्सामि ॥९॥ | 'अमरिंदनरिंद'त्ति उपक्रमकृतेनापमृत्युना न नियन्ते इत्यमरास्तेषां इन्द्रा अमरेन्द्राः नराणामिन्द्रा नरेन्द्रा मुनीना४ मिन्द्रा मुनीन्द्रा द्वन्द्वः तैर्वन्दितं 'वन्दि'ति वन्दित्वा, कं?-'महावीरं' महद्वीर्यं यस्यानन्तबलत्वाद्देवकृतपरीक्षा 455-554545455545 'गज' आदि १४ स्वप्नरूप मङ्गलस्य कथनं ~9~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ......................-- मूलं ||९|| .........---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतु:शरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: चतुःशरणे प्रत ॥६० सूत्रांक |९|| दीप दयामपि मनागप्यक्षुभितत्वाच्च महावीरस्तं 'कुसलाणुबंधि'त्ति कुशलो-मोक्षस्तं अनुबन्धीति-परम्परया ददातीत्येवंशीलं स्वप्नाः ८ कुशलानुबन्धि, तथा बन्धुरं-मनोज्ञं, जीवानां ऐहिकामुष्मिकसमाधिहेतुत्वात् , किं ?-अधीयते-ज्ञायते परिच्छिद्यतेऽर्थ- प्रस्तावना? समुदायोऽस्मादित्यध्ययनं-शास्त्रं, कीर्तयिष्यामि-कथयिष्यामीति सम्बन्धः॥ ४॥ अथ प्रस्तुताध्ययनार्थाधिकारानाह अर्थाधिचउसरणगमण १दुकडगरिहा २ सुकडाणुमोअणा ३ चेव । कारा:१० एस गणो अणवरयं कायबो कुसलहेउत्ति ॥१०॥ अर्हच्छरणं 'चउसरण'त्ति चतुर्णामहत्सिद्धसाधुधर्माणां शरणगमनं प्रथमोऽधिकारः, दुष्ट कृतं दुष्कृतं तस्य गर्दा-गुरुसाक्षिकमा-1 त्मदोषकथनं द्वितीयोऽधिकारः, शोभनं कृतं सुकृतं तस्यानुमोदना-भव्यं मयैतत्कृतमिति तृतीयोऽधिकारः, 'चैवेति | समुच्चये, एषः-अयं गणः-त्रयाणां समुदायोऽनवरतं-सततं कर्त्तव्यः-अनुसरणीयः कुशलो-मोक्षस्तस्य कारणमयमिति-15 कृत्वा ॥१०॥ अथ चतुःशरणरूपं प्रथमाधिकारमाह अरिहंत १ सिद्ध २ साह ३ केवलिकहिओ सुहावहो धम्मो ४। एए चउरो चउगइहरणा सरणं लहइ धन्नो ॥११॥ 'अरहंते'त्यादि, देवेन्द्रकृतां पूजामहन्तीत्यर्हन्तः १ तथा सिध्यन्ति-निष्ठितार्था भवन्तीति सिद्धाः २ तथा निर्वाणसाधकान् योगान् धर्मव्यापारान् साधयन्ति-कुर्वन्तीति साधवः ३ तथा दुर्गती पतन्तं प्राणिनं धरतीति धर्मः, दकिंभूतः?-केवलिभिः-ज्ञानिभिः कथितः-प्रतिपादितः केवलिकथित इति, अनेन स्वमतिकल्पितान्यतीर्थिकधर्मनिरास अनुक्रम Jitnatution a l अथ 'अरिहंत' आदि चत्वारः शरणं प्रकाश्यते ~ 10~ Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) (२४-वृ) ----...............-- मूलं ||११|| ...---- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतु:शरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक ||११|| |माह, पुनः कथम्भूतो धर्मः ?-सुखमावहति-परम्परया चटत्प्रकर्ष प्रापयतीति सुखावहः, अनेन इहलोकेऽपि मिथ्यादृष्टि-17 धर्मस्य भैरवपतनशिरःक्रकचदापनादिदुःखाकीर्णत्वात् परलोके भवभ्रमणकारणत्वात्तन्निषेधमाह, एतेऽर्हत्सिद्धसाधुधर्मा-18 दश्चत्वारश्चतसृणां गतीनां समाहारश्चतुर्गति-नरकतिर्यग्नरामरलक्षणं हरन्ति सिद्धिलक्षणपञ्चमगतिप्रापणेनेति चतुर्गतिहरणाः, यस्मादिति गम्यं, अत एव भवाटव्यामटन् शरणरहितः कश्चिद्धन्यः-सुकृतकर्मा एव शरणं लभते, शरणत्वेन प्रतिपद्यते इत्यर्थः ॥ ११॥ अथ यथा विधिना एतान् शरणं प्रपद्यते तथाऽऽह अह सो जिणभत्तिभरुत्थरंतरोमंचकंचुअकरालो। पहरिसपणउम्मीसं सीसंमि कयंजली भणइ ॥१२॥ 'अह सो'त्ति, अथ सः-शरणप्रतिपत्ता चतुर्विधसङ्घस्यान्यतमो जीवः, कथंभूतो ?-जिनेषु भक्तिस्तस्या भरः-प्रावल्यं 8 टातस्माजिनभक्तिभरात् 'उत्थरंत'त्ति अवस्तृणन्-उदयं गच्छन् योऽसी रोमाञ्चः स एव शरीरावारकत्वात्कशुको रोमा-1 |ञ्चकंचुकस्तेन कराल:-अन्तरङ्गशत्रूणां भीषणः, तथा प्रकृष्टो हर्षः प्रहर्षः तस्माद्यत्प्रणतं-प्रणामस्तेन उन्मिभं-व्याकुलं यथा | भवति एवं, यद्वा प्रहर्षवशाद्योऽसौ प्रणयः-आनन्दाश्रुगद्गदस्वरस्तेनोन्मिश्र, क्रियाविशेषणमेतत् , तथा शिरसि-मस्तके कृता-18 ४/जलि:-कृतकरकुडमलः सन् भणति ॥ १२॥ अर्हच्छरणमङ्गीकुर्वन् यदसी भणति तगाथादशकेनाह रागहोसारीणं हंता कम्मट्ठगाइ अरिहंता। विसयकसायारीणं अरिहंता हुतु मे सरणं ॥१३॥ तं.वै.प्र.११दा SABADASCARSADROOCONGREECREES दीप अनुक्रम [११] JHNEucation 'अरिहंत'+'अरहंत'शब्दस्य विविध-व्याख्या: एवं तस्य शरणस्य कथनं ~ 11~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) (२४-वृ) ..................--- मुलं ||१३-२२|| ---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२४/व), प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: चत शरणे अर्हच्छरणं गा.१२ प्रत सूत्रांक ||१३-२२|| EBERRERAKASARAN रायसिरिमवकसित्ता तवचरणं दुच्चरं अणुचरंता। केवलसिरिमरिहंता अरहंता हुंतु मे सरणं ॥ १४ ॥ थुइवंदणमरिहंता अमरिंदनरिंदपूअमरहता। सासयसुहमरहंता अरहता हुंतु मे सरणं ॥१५॥ परमणगयं मुणंता जोइंदमहिंदझाणमरिहता। धम्मकहं अरहंता अरहता हुंतु मे सरणं ॥ १६ ॥ सबजिआणमहिसं अरहंता सञ्चवयणमरहता। बंभवयमरहंता अरहंता हुंतु मे सरणं ॥ १७ ॥ ओसरणमवसरंता चउतीसं अइसए निसेवित्ता। धम्मकहं च कहता अरहता हुंतु मे सरणं ॥१८॥ एगाइ गिराऽणेगे संदेहे देहिणं समं छित्ता। तिहुअणमणुसासंता अरिहंता हुंतु मे सरणं ॥ १९ ॥ वयणामएण भवणं निव्वावंता गुणेसु ठावंता। जिअलोअमुद्धरंता अरिहंता हुंतु मे सरणं ॥२०॥ RCHECCASESAKAAREERESTER दीप अनुक्रम [१३-२२] ॥६१ M m janelibrary.org R ~ 12 ~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) (२४-वृ) ...............-------- मुलं ||१३-२२|| --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतु:शरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक ||१३-२२|| अचम्भुअगुणवंते निअजसससहरपसाहियदिअंते । निअयमणाइमणन्ते पडिवन्नो सरणमरिहते ॥ २१ ॥ उज्झिअजरमरणाणं समत्तदुक्खत्तसत्तसरणाणं । तिहुअणजणसुहयाणं अरिहंताणं नमो ताणं ॥२२॥ 'रागद्दोसा.' इति, रागस्त्रिधा दृष्टिरागकामरागस्नेहरागभेदात्, द्वेष:-परद्रोहाध्यवसायः, अथवाऽभिष्वङ्गमात्रं कारागः अप्रीतिमात्रं द्वेषः, एतयोरुपलक्षणत्वात् मदमत्सराहंकाराणां ग्रहः त एवारयो रागद्वेषारयस्तेषां हतारो रागद्वेषा-13 रिहंतारः, तथा कर्मणां-ज्ञानावरणादीनां अष्टकं कर्माष्टकं तदादौ येषां ते कर्माष्टकादयस्ते च ते अरयश्च कर्माष्टका-3 द्यरयः, आदिशब्दात्परीषहवेदनोपसर्गादिग्रहः, तेषां हन्तारः, षष्ठीलोपोऽत्र द्रष्टव्यः, तथा विषयाः-शब्दरूपगन्धरसस्पर्शाः कषायाः-क्रोधमानमायालोभाः अनन्तानुबन्ध्यादिभेदास्त एव जीवानामनर्थकारित्वात् अरयस्तेषां हन्तारः, पाश्चात्य लहन्ता इति पदमत्रापि सम्बध्यते, अथवा विषयकपायाणां विनाशकत्वेनारयस्तीर्थङ्करा विषयकषायारयः, णमिति वाक्या-18 लङ्कारे, एवंविधा अर्हन्तो-जिना मे-मम शरणं-परित्राणं भवन्त्वित्यर्थः ॥ १३॥ 'रायसिरि०'त्ति, राज्यश्रियं-राज्य-I. लक्ष्मी अपकृष्य-अवधूय त्यक्त्वेत्यर्थः, तथा तप्यते कर्ममलापनयनेनात्मा सुवर्णमिवाग्निनाऽनेनेति तपस्तस्य चरणं आसेवनं, कथंभूतं ?-दुश्चरं-सामान्यसाधुभिः कर्तुमशक्यं वार्षिकषण्मासादिरूपं अप्रमत्ततामौनकायोत्सर्गादिक्रियाविशेषितमजलं च तत्तपोऽनुचर्य-आसेव्य ये केवल श्रियं-केवलज्ञानविभूतिमहन्तः तस्या योग्या भवन्तीत्यर्थः तेऽर्हन्तः-तीर्थकृतो ए-1544525555 दीप अनुक्रम [१३-२२] ~ 13~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) (२४-वृ) ...................-- मूल ||१३-२२|| ---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/व], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: चतुःशरणे प्रत ॥ ६२॥ सूत्रांक ||१३-२२|| मे शरणं भवन्त्विति सर्वत्र योज्यं, अथवा प्रथमांतान्येव पदानि योज्यानि, राज्यश्रियमपकर्षयन्तः-त्यजन्तस्तथा तपश्चरणं 8 अर्हच्छरणं दुश्चरमनुचरन्तः केवलश्रियं चाहन्तः-प्राप्नुवन्तो ये ते शरणं, एतेन पूर्वोक्तेन राज्यश्रीत्यागतपश्चरणकरणकेवलश्रीप्रा |गा. १२पणरूपावस्थात्रयशरणगमनप्रतिपादनेन यद्यपि शक्रादीनां सर्वास्वप्यवस्थासु जिना नमस्काराहस्तिथापि ते गृहवासस्थाः २२ साधूनां न नमस्काराहीः अविरतत्वादिति दर्शितं, यचानागतजिनाः साधुभिर्नमस्क्रियन्ते तेऽपि भाविभावचारित्रावस्था एवेति भावः ॥ १४ ॥ 'धुइवंदत्ति, स्तवः 'थुई' पाठे स्तुतिवा-सद्भूतगुणोत्कीर्तनं वन्दन-कायिकः प्रणामः तौ अर्हन्तः-तयोोग्या जगतोऽपीति शेषः, अमरेन्द्रनरेन्द्राणां पूजा-समवसरणादिकां समृद्धिं अर्हन्तः-तस्या अपि योग्या भवन्तः, तथा शश्वत् भवं शाश्वतं तच्च तत्सुखं च शाश्वतसुखं निर्वाणादनन्तरं तदप्यर्हन्ति-तस्या अपि योग्या भवन्तीत्यर्हन्तः, शेषं पूर्ववत् ॥ १५॥ 'परमण'त्ति, परेषां-आत्मव्यतिरिक्तानां मनांसि परमनांसि तेषु गतं स्थितं चिन्तितं इत्यर्थः तत् मुणन्तो-जानन्तः 'मुणत् प्रतिज्ञाने' इति धातुः 'ज्ञो जाणमुणा (श्री०सि०अ०८पा०३सू.७) वित्यादेशो वा, एतेन अनुत्तरसुराणां मनःसंशयपरिज्ञानतदुच्छेदसमर्था जिना इत्युक्तं, तथा योगिनो मुनयस्तेषामिन्द्राः-गौतमादयः महान्तश्च ते इन्द्राश्च महेन्द्राः-शक्रादयस्तेषां ध्यान-स्थिराध्यवसायरूपं तदर्हन्तीति योगीन्द्रमहेन्द्रध्यानार्हाः, तथा धर्मकथादानशीलतपोभावनादिकां कथयितुमर्हन्तः-तस्याः कथनयोग्याः सर्वज्ञत्वेन सर्वभाषानुयायियोजनगामिवागतिशयत्वेन, छद्मस्थावस्थायां तु मौनावलम्वित्वेन धर्मकथानहत्वाज्जिनानां, शेष प्राग्वत् ॥ १६ ॥ 'सव०' त्ति सर्वे सूक्ष्मवादरत्रस ॥६२॥ स्थावरा ये जीवास्तेषां न हिंसा अहिंसा-रक्षा तामहन्तः तथा सतां हितं सत्य-तथ्यं तच्च तद्वदनं च तदेवार्हन्तोऽसत्य COCCACACACAD दीप अनुक्रम [१३-२२] ~ 14~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतुःशरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------------- मूलं ||१३-२२|| ---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतु:शरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक ||१३-२२|| FACOCOCCALCACADCASCAMCADMCAM |भाषणहेतुरागद्वेषमोहरहितत्वात्तेषां, तथा ब्रह्मव्रतं अष्टादशभेदं 'दिव्यौदारिककामानां' (कृतानुमतिकारितैः । मनोवाकायतस्त्यागो, ब्रह्माष्टदशधा मतम् ॥१॥) इति श्लोकोक्तमासेवितुं प्ररूपयितुमनुमोदयितुं चाहन्तः, शेषं तथैव ॥ १७ ॥ तथा 'ओस'त्ति अवस्त्रियते-गम्यते संसारभयोद्विग्नैः जीवैरित्यवसरणं समवसरणमित्यर्थः तदवसृत्य-अलंकृत्य, तथा चतुत्रिंशतो-जन्मजकर्मक्षयजसुरकृतान् यथाक्रमं चतुरेकादशैकोनविंशतिसक्याप्रसिहानतिशयान्निपेव्य, उपलक्षणत्वात्पञ्चत्रिं-IN शद्वचनातिशयांश्च, तथा धर्मकथा कथयित्वा ये मुक्तिं यान्ति यास्यन्ति याता इत्यध्याहार्य 'कहता' इति पाठे धर्मकथा कथयन्तो ये वर्तन्ते ते शरणं, पूर्व धर्मकथाकथनयोग्या इत्युक्तं अत्र तु धर्मकथां कथयन्त एवेति न पौनरुक्त्यं, अत्र चाध्ययनेऽन्यत्रापि यत्र कुत्रचित् पीनरुक्त्यसम्भवः तत्र स्तुत्युपदेशरूपत्वेन न दोष इति ज्ञेयं, यदुक्तं-'सज्झायज्झाणसातवोसहेसु उवएसथुइपयाणेसु । संतगुणकित्तणेसु अ न हुँति पुणरुत्तदोसा उ ॥२॥ [स्वाध्यायध्यानतपऔषधेषु उपदेशस्तु-15 तिप्रदानेषु । सतां गुणकीर्तनेषु च न भवन्ति पुनरुक्तदोषास्तु ॥१॥] शेषं तथैव ॥ १८॥ 'एगाइ गिर' त्ति एकयाऽपि गिरा-एकेनापि बचनेन अनेकप्रकारान् संदेहान्-संशयान् , केषां ?-देहिनां-सुरासुरनरतियंगूरूपाणां सम-समकालमेव छित्त्वा संशयत्रुटिं कृत्वेत्यर्थः 'समुच्छित्ते'ति पाठे समुच्छिद्येति ज्ञेयं, त्रिभुवनमनुशास्य-शिक्षयित्वा अनुशास|यन्तो वा सम्यक्त्वदेशविरतिसर्वविरतिलक्षणशिक्षाप्रदानेन, मोक्ष यान्तीति योगः, शेषं तथैव ॥ १९॥ 'वयणा' इति वचनमेवामृतं वचनामृतं क्षुत्पिपासादिदोषापहारकत्वात् तेन वचनामृतेन भुवन-लोकं निर्वाप्य-तस्य तृप्तिमुत्पाद्य निर्वा|पयन्तो वा प्रीणयन्तः आप्याययन्त इत्यर्थः, तथा गुणेषु-उत्तरोत्तरगुणस्थानकेषु सम्यक्त्वदेशविरतिप्रमत्ताप्रमत्ता दीप अनुक्रम [१३-२२] ~ 15~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------------- मूलं ||१३-२२|| ---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/व], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: चतुःशरणे अर्हच्छरणं गा. १२-. प्रत सूत्रांक ||१३-२२|| दिकेषु प्रागुक्तं भुवनमेव स्थापयित्वा स्थापयन्तो वा सदुपदेशवशात्तानि प्रापयन्त इत्यर्थः, तथा जीवलोक-भव्यजीवलोकं, अभव्यास्तु तीर्थकरोपदेशेनापि नावबुध्यन्ते, तमुदृत्य उध्धरन्तो वा भवान्धकूपात् स्ववचनरज्जुनाऽऽकर्षयन्त इत्यर्थः, शेषं पूर्ववत् ॥ २० ॥'अच्चन्भु' त्ति अत्यद्भुता-अन्येष्वसंभविनो ये गुणाः-प्रातीहार्यादिलक्षणाः अन्ये वा रूपादयस्ते मा विद्यन्ते येषां ते अत्यद्भुतगुणवन्तस्तान् , तथा निजयश एव शशधरः-चन्द्रस्तेन प्रसाधिता-विभूषिता दिगन्ता-दिक्पर्यन्ता लायैः 'पयासिअ'त्ति पाठे प्रकाशिता वा यैस्तान् नियतं शाश्वतं यथा भवत्येवं सदैवेत्यर्थः, न आदि न चान्तो येषां ते| अनाद्यनन्तास्तान् शरणं प्रपन्नः तानाधित इत्यर्थः, एतेन कालत्रयभाविनोऽनंता अपि जिना गृहीताः॥२१॥ अथ कृतार्हच्छरणो विशेषेण तेषां नमस्कारमाह-'उज्झि'त्ति, उज्झितानि-त्यक्तानि जरामरणानि यैस्तत्कारणकर्मरहितत्वात्ते उज्झितजरामरणास्तेभ्यः, समस्तानि-सम्पूर्णानि यानि दुःखानि तैरार्ता ऋता वा-पीडिता ये सत्त्वाः-प्राणिनस्तेषां शर-3 ण्याः-शरणे साधवस्तेभ्यः, यद्वा समाप्त-निष्ठां गतं दुःखं येषां ते समाप्तदुःखाः, तथा आता-जन्मजरामरणादिदुःखैः पीडिता ये सवास्तेषां शरण्याः, समाप्तदुःखाश्च ते आर्तसत्त्वशरण्याश्चेति विशेषणकर्मधारयः तेभ्यः, तथा त्रिभुवनजनानां सुखं ददति निजावतारेणेति त्रिभुवनजनसुखदास्तेभ्यः, सर्वत्र चतुर्थ्यर्थे षष्ठी 'छट्ठीविभत्तीइ भण्णइ चउत्थी' इति प्राकृतसूत्रबलात् , तेभ्यः-पूर्वोक्तगुणेभ्योऽर्हझ्यो नमो-नमस्कारोऽस्तु ॥ २२ ॥ अथ द्वितीयं शरणं यथा प्रतिपद्यते तथाऽऽह अरिहंतसरणमलमुद्धिलद्धसुविसुद्धसिद्धबहुमाणो । पणयसिररइअकरकमलसेहरो सहरिसं भणइ ॥ २३ ॥ दीप अनुक्रम [१३-२२] JHEditution mainalibrary.org ~16~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------ मूलं ||२३-२९|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतु:शरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक ||२३-२९|| कम्मट्ठक्खयसिद्धा साहाविअनाणदंसणसमिद्धा । सबट्ठलद्धि सिद्धा ते सिद्धा हुंतु मे सरणं ॥ २४ ॥ तिअलोयमत्थयत्था परमपयत्था अचिंतसामस्था। मंगलसिद्धपयस्था सिद्धा सरणं सुहपसत्था ॥ २५॥ मूलुक्खयपडिवक्खा अमूढलक्खा सजोगिपचक्खा । साहाविअत्तमुक्खा सिद्धा सरणं परममुक्खा ॥ २६॥ पडिपिल्लिअपडिणीआ समग्गझाणग्गिदहभवबीआ। जोईसरसरणीया सिद्धा सरणं समरणीआ॥ २७ ॥ पाविअपरमाणंदा गुणनिस्संदा विदिन्नभवकंदा। लहुईकयरविचंदा सिद्धा सरणं खविअदंदा ॥ २८ ॥ उवलद्धपरमबंभा दुल्लहलंभा विमुक्कसंरंभा। भुवणघरधरणखंभा सिद्धा सरणं निरारंभा ॥ २९ ॥ 'अरिहंत'त्ति अर्हन्तां शरणमर्हच्छरणं तेन पूर्वोक्तेन या मलस्य-कर्मरजसः शुद्धिस्तया लब्धः शुद्धो-निर्मलः सिद्धान् प्रति बहुमानो-भक्तिर्येन स तथा, 'सुबिसुद्ध'त्ति पाठे तु सुष्टु-अतिशयेन विशुद्धो-निर्मल इत्यर्थः, पुनः किं 56555555555 दीप अनुक्रम [२३-२९] AN 'सिद्ध' शब्दस्य विविध-व्याख्या: एवं तस्य शरणं ~ 17~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ----------------- मूलं ||२३-२९|| ---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतु:शरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत २९ सूत्रांक ||२३-२९|| चतुःशरणे भूतः -प्रणत-भक्तिवशेन नम्रीभूतं यच्छिरस्तत्र रचितः करकमलाभ्यां शेखरो येन स तथा, एवंभूतः सन् सहर्ष सिद्धशरणं भणति ॥ २३ ॥ यच्चाय भणति तद्गाथापदेनाह-कम्मट्ठ'त्ति, कर्माष्टकक्षयेण सिद्धाः-प्रसिद्धाः ते तीर्थसिद्धादिभेदेन |गा. २३. ६४॥ पञ्चदशधा, तानाह-तीर्थसिद्धाः प्रसन्नचन्द्रसनत्कुमारादयः१ अतीर्थसिद्धा मरुदेव्यादिकाः २ गृहलिङ्गसिद्धाः पुण्याच्यादिकाः ३ अन्यलिङ्गसिद्धा वल्कलचीयर्यादिकाः ४ स्वलिङ्गसिद्धा जम्बूस्वाम्यादिकाः ५ स्त्रीलिङ्गसिद्धा राजीमत्यादिकाः ६ नरसिद्धा भरतादिकाः ७ कृत्रिमनपुंसकसिद्धाः गुणसेनादिकाः ८ प्रत्येकबुद्धसिद्धा नमिराजादिकाः ९ स्वयंबुद्ध-IG सिद्धाः समुद्रपालादिकाः १० बुद्धबोधितसिद्धाः त्रिकाधिकपश्चदशशततापसादिकाः ११ एकसिद्धाः गजसुकुमालादिकाः | १२ अनेकसिद्धा भरतपुत्रादिकाः १३ अजिनसिद्धाः पुण्डरीकगीतमादिकाः १४ जिनसिद्धा आदिनाथादिकाः १५ पुनः18 | कथंभूताः -स्वाभाविके-निरावरणे ये अनवच्छिन्ने ज्ञानदर्शने ताभ्यां समृद्धाः-स्फीताः स्फातिमन्तः, तथाऽर्थ्यन्ते-अभि लष्यन्ते इत्यर्थाः सर्वे च तेऽथांश्च तेषां लब्धयः-प्राप्तयः सर्वार्थलब्धयः सिद्धा-निष्पन्नाः सर्वार्थलब्धयो येषां ते तथा, सिद्धसर्वकार्याः-प्राप्तसर्वसुखज्ञानादिभावाः कृतकृत्या इत्यर्थः, आपत्वात् सिद्धशब्दस्याग्रे निपातः, सर्वार्थलब्धिभिः सिद्धा| निष्ठिता इत्येवं वा समासः, ते सिद्धा मम शरणं भवन्तु ॥ २४ ॥ 'तिअलोय'त्ति, त्रैलोक्यस्य-चतुर्दशरज्ज्वात्मकस्य | यन्मस्तकं-सर्वोपरिवर्तिस्थानं पञ्चचत्वारिंशल्लक्षयोजनविस्तीर्णेषत्पाग्भाराख्यसिद्धिशिलाया उपरितनयोजनसत्कोपरितन४|चतुर्विशतितमभागरूप आकाशदेशस्तत्र तिष्ठन्तीति त्रैलोक्यमस्तकस्थाः, तथा परमपदं-मोक्षपदं सर्वकर्मरहितत्वरूपं का ॥ ४ ॥ हैं तद्धेतुत्वाच्चारित्रादिक्रियाकलापस्य तत्र तिष्ठन्तीति ते तथा, अचिन्त्यमनन्तत्वात् सामर्थ्य-जीवशक्तिविशेषो बलं SOCIEOSROSECONDSCA KRISHNA दीप अनुक्रम [२३-२९] ~ 18~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) (२४-वृ) .................--- मुलं ||२३-२९|| ---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतु:शरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक ||२३-२९|| है येषां ते तथा, मङ्गलरूपाः सिद्धाः-सम्पन्नाः पदार्था येषां ते तथा, यद्वा सांसारिकदुःखरहितं मङ्गलभूतं यत् सिद्धिपदं तत्र तिष्ठन्ति इति ते तथा, ते सिद्धाः शरणं भवन्तु, पुनः कथंभूताः ?-सुखेन जन्मजरामरणक्षुत्तृषाद्याबाधारहितेन मुक्तिप्रभवेन प्रशस्ताः अव्याकुला अनन्तसुखा इत्यर्थः ॥ २५ ॥ 'मूलुक्खय'त्ति, मूलादुत्खाता:| उन्मूलिताः प्रतिपक्षाः-कर्मरूपा यैस्ते तथा, समूलनिर्मूलितकर्माण इत्यर्थः, 'मूलक्खए'त्ति पाठेऽयमर्थो-मूलस्य| संसारहेतुकर्मवन्धमूलस्य मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगरूपस्य शत्रुसङ्घातस्य क्षये कर्तव्ये प्रतिपक्षा इव-वैरिण इव तजयं द्र कृतवन्त इत्यर्थः, तथा लक्ष्ये-द्रष्टव्यपदार्थे न मूढा अमूढलक्षाः सदोपयुक्तत्वात्तेषां, तथा सयोगिनां-सयोगिकेवहै लिनामेव प्रत्यक्षा-दृश्याः, शेषज्ञानिनां अविषयत्वात् सिद्धानां, तथा स्वाभाविक-अकृत्रिममार्त-गृहीतमा-प्राप्तं वा सुखं यैस्ते तथा, पुनः किंविशिष्टाः ?-परमः-प्रकृष्टोऽत्यन्तं विगमात्कर्मभिः सह मोक्षो-वियोगः पृथग्भावो येषां ते | दतथा ते सिद्धाः शरणं भवन्तु ॥ २६ ॥ 'पडिपिल्लित्ति , प्रतिप्रेरिताः-क्षिप्ता अनाहता इत्यर्थः प्रत्यनीका:-| है शत्रवो यैः समशत्रुमित्रत्वात् , यद्वा प्रतिप्रेरिता-निराकृताः प्रत्यनीका-रागाद्यान्तरशत्रवो यैस्ते तथा, समग्रं-सम्पूर्ण ययानं परमलयः शुक्लध्यानमित्यर्थः तदेवाग्निः-वह्निस्तेन दग्ध-भस्मसात्कृतं भवस्य-संसारस्य बीजं-ज्ञानावरणीयादि। कर्म यैस्ते तथा, योगीश्वरा-गणधरा छद्मस्थतीर्थकरा वा तै शरणीयाः-आश्रयणीया नमस्करणध्यानादिना, तथा स्मर-1 पणीया-ध्येया मोक्षसुखाभिलाषुकाणां भव्यानामिति शेषः, एवंविधाः सिद्धाः शरणं भवन्तु ॥ २७ ॥ 'पावित्ति, प्रापित:-आत्मजीवं प्रति ढौकितः प्राकृतत्वाद्वा प्राप्तः परमानन्दो यैः सदामुदितत्वात्ते तथा, तथा गुणानां-ज्ञानदर्शना-1 दीप अनुक्रम [२३-२९] ~ 19~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------------- मूलं ||२३-२९|| ---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-(२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: चतु:शरणे प्रत ॥६५॥ ४० सूत्रांक ||२३-२९|| CACAKCENTENCEOCRACK दीनां परिपाकप्राप्तत्वान्निस्स्यन्दः-सारो येषु ते तथा, सर्वसारज्ञानादिगुणा इत्यर्थः, विदीणों-विदारितः स्फाटितो भवस्य- साधुशरणं & संसारस्य मोहनीयादिकर्मरूपः कन्दो यैस्ते तथा, लोकालोकप्रकाशककेवलोद्योतेन लघुकीकृतौ-अल्पप्रभावीकृतौ रविचन्द्रौगा . ३० यः तदुद्योतस्य परिमितयोजनप्रकाशकत्वात्ते तथा, तथा क्षपित-क्षयं नीतं द्वन्द्वं-संग्रामादिरूपं यैस्ते तथा, सर्वथा निष्कायत्वात् , ते एवंविधाः सिद्धाः शरणं भवन्तु ॥२८॥ 'उवलद्धत्ति, उपलब्ध-प्राप्तं परमब्रह्म-प्रकृष्टं ज्ञानं यैस्ते उपलब्धपरम-2 ब्रह्माणः, समवाप्तकेवलज्ञाना इत्यर्थः, तथा दुर्लभो लम्भः-लाभो मुक्तिपदप्राप्तिलक्षणो येषां, सर्वलाभाग्रेसरत्वात्तल्लाभस्य सर्वचारित्रादिक्रियाणां तल्लाभे एव साफल्याच्च, तथा विमुक्तः परित्यक्तः करणीयपदार्थेषु सरंभः-आटोपो यैस्ते तथा, ४ निष्पन्नसर्वप्रयोजनत्वात्तेषां, तथा भुवनं-जीवलोकस्तदेव यद्गृहमिव गृहं तस्य संसारगर्तायां पततो धरणे-रक्षणे स्तम्भा इव स्तम्भाः, तथा 'निरारम्भा' निर्गता-बहिर्भूता आरम्भेभ्यः, सर्वथा कृत्यकृतत्वात्तेषां, ते एवंभूताः सिद्धा मम शरणंआलम्बनं भवन्तु ॥ एतेन सिद्धाख्यं द्वितीयं शरणमभिहितं ॥ २९ ॥ अथ साधुशरणं प्रतिपित्सुर्यदभिधत्ते तदाह सिद्धसरणेण नयबंभहेऊ साहुगुणजणिअअणुराओ। मेइणिमिलन्तसुपसत्यमत्थओ तत्धिम भणइ ॥ ३०॥ जिअलोअबंधुणो कुगइसिंधुणो पारगा महाभागा । भुवनं-त्रिभुवनं तदेव गृहं तस्य धरण-अवष्टम्भनं तत्र सम्भा इव स्तम्भाः, भुवनलोकस्य दुर्गतौ पततः स्वशरणप्रतिपत्तुः स्थिराधारभूतत्वातेषां | &ा(इति प्रत्यन्तरे) दीप अनुक्रम [२३-२९] ॥६५॥ | 'साधु' शब्दस्य विविध-व्याख्या: एवं तस्य शरणं ~ 20~ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ----- ------- मूलं ||३०-४०|| ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतु:शरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक ||३० -४०|| नाणाइएहिं सिवसुकखसाहगा साहुणो सरणं ॥ ३१ ॥ केवलिणो परमोहिविउलमइसुअहरा जिणमयंमि। आयरियउवज्झाया ते सवे साहुणो सरणं ।। ३२॥ चउदस दसनवपुबी दुवालसिक्कारसंगिणो जे अ। जिणकप्पअहालंदिअ परिहारविसुद्धिसाहू अ॥ ३३ ॥ खीरासवमहुआसव संभिन्नस्सोअकुट्ठवुद्धी अ। चारणवेउविपयाणुसारिणो साहुणो सरणं ॥ ३४ ॥ उज्झिअवयरविरोहा निच्चमदोहा पसंतमुहसोहा । अभिमयगुणसंदोहा हयमोहा साहुणो सरणं ॥ ३५ ॥ खंडिअसिणेहदामा अकामधामा निकामसुहकामा । सुपुरिसमणाभिरामा आयारामा मुणी सरणं ॥३६ ।। मिल्हिअविसयकसाया उज्झिअघरघरणिसंगसुहसाया । अकलिअहरिसविसाया साहू सरणं गयपमाया ॥ ३७॥ हिंसाइदोससुन्ना कयकारूण्णा सयंभुरुप्पण्णा। दीप अनुक्रम [३०-४० ॐ5555-45 Jinnicationinine ~ 21~ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतुःशरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------ मूलं ||३०-४०|| --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतु:शरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: चतुःशरणे ॥६६॥ प्रत सूत्रांक ||३० -४०|| अजरामरपहखुपणा साहू सरणं सुकयपुण्णा ॥ ३८॥ साधुशरणं कामविडंबणचुक्का कलिमलमुक्का विमुक्कचोरिका। | गा. ३०पावरयसुरयरिका साहू गुणरयणचच्चिक्का ॥ ३९॥ साहुत्ति मुहिआ जं आयरिआई तओ अ ते साह। साहुगहणेण गहिआ तम्हा ते साहुणो सरणं ।। ४० ॥ 'सिद्ध'त्ति, नया-नैगमादयस्तैरुपलक्षितं यद्ब्रह्म-श्रुतज्ञानं द्वादशाङ्गरूपं 'नयभङ्गप्रमाणगमगहन मिति वचनात्तस्य नयब्रह्मणो ये हेतवः-कारणभूताः साधुगुणा-विनयादयो, विनयादिगुणसम्पन्नस्यैव श्रुतावाप्तेः, तेषु नयब्रह्महेतुषु ट्रा साधुगुणेषु जनितः-उत्पादितोऽनुरागो-बहुमानो यस्य स नयब्रह्महेतुसाधुगुणजनितानुरागः शरणप्रतिपत्ता साध्वादि केना-16 स्यानुरागः कृत इत्याह-सिद्धशरणेन-पूर्वोक्तेन, पुनः कथंभूतः सः?-मेदिन्याः-पृथ्व्या मिलत्-लुठत् सुप्रशस्तं भक्तिभरनम्र-2 त्वान्मस्तकं-उत्तमाङ्गं यस्य स मेदिनीमिलत्सुप्रशस्तमस्तकः, एवंविधः स साधुगुणरागी भूतलन्यस्तमौलिः सन् तत्रेति-13 शरणप्रस्तावे इर्द-वक्ष्यमाणं भणति-वक्ति ॥ ३०॥ यदयं भणति तन्नवभिर्गाथाभिराह-'जिअलोअत्ति, जीवलोकस्य-प्राणिवर्गस्य षड्जीवनिकायात्मकस्य त्रिविधं त्रिविधेन रक्षाकारित्वात् बन्धव इव वन्धवः, कुत्सिता गतिः कुगतिः, 8/नरकतिर्यगादिरूपा सैव सिन्धुः-महानदी समुद्रो वा तस्यास्तस्य वा पारं-तीरं गच्छन्तीति पारगाः-तीरवर्तिनः सुगतिगा-18||॥६६॥ मित्वादेव साधूना, तथा महान भागः-अतिशयविशेषो येषां ते तथाऽनेकलब्धिसम्पन्नत्वात्तेषां, तथा ज्ञानादिकः-ज्ञानदर्श-| दीप अनुक्रम [३०-४०] ~ 22 ~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतुःशरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ----- ------- मूलं ||३०-४०|| ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतु:शरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक CANCHAEOLOCADRESC -४०|| है नचारित्रैरेव शिवसौख्य-मोक्षशर्म साधयन्ति ये ते शिवसौख्यसाधकाः, एतेन तीर्थान्तरीयैर्यत्स्नानादिक्रियाभिर्मोक्षसाध-* नमुक्तं तन्निरासः कृतो द्रष्टव्यः, त एवं विधाः साधवो मम शरणं भवन्तु ॥ ३१॥ साधुभेदानाह-केवलं' असहाय-मत्यादि-18 ४ा ज्ञानानपेक्षं सर्वद्रव्यपर्यायादिविषयं ज्ञानं विद्यते येषां ते केवलिनः, 'परमोहि'त्ति अवधिः-मर्यादा रूपिद्रव्येषु प्रवृत्तिहै| रूपा तदुपलक्षितं ज्ञानमप्यवधिः परमश्चासाववधिश्च परमावधिः यदुत्पत्तेरनन्तरमवश्यमन्तर्मुहतेन केवली भवति उत्कृष्ट-14 मवधिज्ञानमित्यर्थस्तद्योगात्साधवोऽपि परमावधयः, उत्कृष्टावधिसाधुभणनेन जघन्यमध्यमावधयोऽपि साधवोऽन्तभोंवि-13 ता ज्ञेयाः, 'विउलमह'त्ति मनःपर्यायज्ञानं द्विधा-ऋजुमतिविपुलमतिभेदात् , तत्र विपुला मतिर्कजुमत्यपेक्षया विशिष्ट-11 ज्ञानवत्त्वेन येषां ते विपुलमतयः, इह विपुलमतिग्रहणेन ऋजुमतयोऽपि गृहीता ज्ञातव्याः, द्वयेषामप्येषां मनुष्यक्षेत्रान्तवर्तिसंज्ञिपश्चेन्द्रियमनोद्रव्यपरिपछेदकत्वात् , बह्वल्पपर्यायग्रहणादिनैव विशेषाच्च, तथा श्रुतं-कालिकोत्कालिकाङ्गप्रविटानङ्गप्रविष्टादिलक्षणं सूत्रार्थोभयरूपं धरन्ति-योग्यशिष्यप्रशिष्यादिप्रदानेनाव्यवच्छिन्नं कुर्वन्तीति श्रुतधराः सामान्यतः सर्वेऽपि विशेषेण तु आचर्यन्ते-आसेव्यन्ते मोक्षार्थिभिरित्याचार्याः-पञ्चविधाचारधारिणः सूत्रार्थोभयवेदिनो गच्छावलम्बनमूताः षट्त्रिंशद्गुणवन्तोऽर्थव्याख्यानकारिणः, उपेत्य-आगत्य अधीयते येभ्य इत्युपाध्यायाः-सूत्रार्थोभयवेदिनो द्वादशाङ्गसूत्राध्यापका उपाध्यायाः, एते च आचार्योपाध्यायाः सामान्यतो लौकिका कलाचार्यादयोऽपि लभ्यन्ते इति | तब्यवच्छेदायाह-जिणमयंमिति जिनमते-जिनशासने ये आचार्योपाध्यायाः, एतब्रहणं चोपलक्षणम् , तेन प्रवर्तकस्थविरगणावच्छेदका अध्यत्र गृहीता ज्ञातव्याः, सर्वशिष्यान् तपासंयमव्यापारेषु प्रवर्तयन्तो गणतप्तिकराः प्रवर्तका दीप अनुक्रम [३०-४०] ctoCARSA तं..प्र.१२ L alainesiatantang ~ 23~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------ मूलं ||३०-४०|| --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतु:शरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: साधुशरणं प्रत सूत्रांक ||३० -४०|| चतुशरणे उच्यन्ते, प्रवर्तकव्यापारितार्थेषु सीदमानान् साधून स्थिरीकुर्वन्तः स्थविराः, गच्छयोग्यक्षेत्रोपध्यादिसंपादनार्थ नवनव॥६७॥ क्षेत्रविहारकारिणो गणावच्छेदकाश्च, ते च सर्वे केवलिप्रभृतिसाधवः शरणं भवन्तु ॥ ३२ ॥ तथा चतुर्दश पूर्वाणि विद्यन्ते येषां ते चतुर्दशपूर्विणः श्रीप्रभवादयः दशाद्यान्येव पूर्वाणि येषां ते दशपूर्विणः श्रीआर्यमहागिर्यादयः, अन्त्यानि चत्वारि पूर्वाणि प्रायः समुदितान्येव व्युच्छिद्यन्ते इति चतुर्दशपूय॑नन्तरं दशपूर्विणोऽभिहिताः, तथा नवपूर्विण श्रीआलायरक्षितादयः, पूर्वीशब्दः स्थानत्रयेऽपि संबध्यते, तथा 'दुवालसत्ति अग्रेतनाङ्गीशब्दसंबन्धात् द्वादशानिनः, ननु चतुर्दशपूर्विणां द्वादशाङ्गिनां च को भेद इति चेद्, उच्यते, द्वादशमङ्गं दृष्टिवादः, स च परिकर्म १ सूत्र २ पूर्वानुयोग| पूर्वगत ४ चूलिका ५ भेदात्पञ्चविधः, पूर्वाणि च चतुर्दशापि पूर्वगतमध्ये सन्ति द्वादशाङ्गस्यैकदेशभूतान्येवेति पूर्वलाधरद्वादशाङ्गधरभेदसिद्धिः, तथा एकादशाङ्गिनश्च ये च, चकारो भिन्नक्रमसूचकः, संप्रति विशेषानुष्ठानिन आह-'जिण कप्प'त्ति एकाकित्वेन निष्प्रतिकर्मशरीरतया च जिनस्येव कल्पः-आचारो येषां ते जिनकल्पिका-दुष्करक्रियाकारिणः का'अहालंदित्ति उदकाः करो यावता कालेन शुष्यति तत् जघन्यं लन्दं तत आरभ्योत्कृष्टं पञ्चरात्रिन्दिवलक्षणं तदत्र गृह्यते, उत्कृष्टलन्दस्यानतिक्रमेण चरन्तीति यथालन्दिकाः, पञ्चको गणोऽमुं कल्पं प्रतिपद्यते, मासकल्पक्षेत्रं च गृहपतिरूपाभिः पद्भिः वीथिभिजिनकल्पिकवत् परिकल्पयन्ति, एकैकस्यां च वीथ्यां पञ्च पञ्च दिनानि पर्यटन्ति, जिनकपिकास्त्वेकमेव दिन सप्तम एव दिने पुनस्तस्यां वीथ्यां समागच्छन्ति इत्येतेषां भेदः, तथा परिहारविशुद्धिकाश्च साधवः, ते चैवं-नव साधवोऽमुं कल्पं प्रतिपद्यन्ते, तेषां मध्ये षण्मासान् यावत् चत्त्वारस्तपः कुर्वन्ति, चत्वारोऽनुपारिहारिकत्व दीप अनुक्रम [३०-४०] ॥६७॥ ~ 24~ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) .......... ...--- मलं ||३०-४०|| --...----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतु:शरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: CREACHER %E5 प्रत सूत्रांक % ||३० -४०|| | मेकश्च कल्पस्थितत्वं-गुरुत्वमित्यर्थः, एते पञ्चापि निर्लेपाचाम्लभोजिनः, पारिहारिकाणां ग्रीष्मे चतुर्थषष्ठाष्टमरूपं शिशिरे| षष्ठाष्टमदशमरूपं वर्षास्वष्टमदशमद्वादशमरूपं जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदं तपः, पारणके च तेषां नित्यमाचाम्ल, द्वितीय-| ४ षण्मासाननुपारिहारिकाः पारिहारिकत्वं पारिहारिकाश्चानुपारिहारिकत्वं प्रतिपद्यन्ते, तृतीयषण्मासान् कल्पस्थितः ★ पूर्वोक्तं पारिहारिकतपः अपरेऽष्टापि निर्लेपाचाम्लतपः कुर्वन्ति, एवमष्टादशभिर्मासैरयं कल्पः परिपूर्णो भवति, तत्समाप्तौ |च तमेव कल्पं जिनकल्पं वा प्रतिपद्यन्ते गच्छं वा समायान्ति, चः सर्वेषां समुच्चये, विशेषलब्धिसंपन्नान् साधूनाह|'खीरासव'त्ति चक्रवर्तिसम्बन्धिनो गोलक्षस्य भक्षितेक्षुक्षेत्रादिविशेषाहारस्यार्द्धार्द्धक्रमेण पीतगोक्षीरस्य पर्यन्ते यावदे-| कस्या गोः सवन्धि यत्क्षीरं तदिव येषां वचनं माधुर्यरसमाश्रवति-मुञ्चतीति क्षीराश्रवाः, मधु-शर्करादि मधुरद्रव्यं तद्रस-13 तुल्यं वचनं येषां ते मध्वाश्रवाः, उपलक्षणत्वात्सर्पिराश्रवा अपि गृह्यन्ते, ते च सुगन्धघृतरसतुल्यवचनाः, तथा 'संभि-12 ४ नसो'त्ति ये सर्वैः शरीरावयवैः शृण्वन्ति जानन्ति च चक्रवर्तिस्कन्धावारसत्कमनुष्यतिरश्चां कोलाहलशब्दसंदोहान् ४ &| अयमेतस्यायमेतस्येत्यादिव्यक्त्या पृथक् पृथक् भिन्नान् व्यवस्थापयन्ति इति वा संभिन्नश्रोतसः, 'कुहबुद्धिय'त्ति नीरन्ध्रको-| छकक्षिप्तधान्यवद् ये सुनिश्चितस्थिरसंस्कारसूत्रार्थास्ते कोष्ठबुद्धयः, 'चारण'त्ति अतिशयचरणाच्चारणाः, ते द्विधा-1 जङ्घाचारणा विद्याचारणाश्च, तत्राद्या एकोत्पातेन रुचकवरद्वीपं यान्ति ततः प्रतिनिवृत्ता द्वितीयोत्पातेन नन्दीश्वरे सेतृतीयोत्पातेन यतो गतास्तत्रायान्ति, ऊर्ध्वदिशं त्वाश्रित्य ते प्रथमोपातेन पाण्डुकवनं द्वितीयोत्पातेन नन्दनवनं तृती योत्पातेन यतो गतास्तत्रायान्ति, तपोलब्धेः प्रयुज्यमानाया हासभवनात् , विद्याचारणास्तु प्रथमोत्पातेन मानुषोत्तरनगं| दीप अनुक्रम [३०-४०] OCRACHC- 06-0- 5 M JHNEnatutionNdom % ~ 25~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------ मूलं ||३०-४०|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/व], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: साधुशरणं गा. ३० प्रत सूत्रांक ||३० -४०|| चतुःशरणे द्वितीयोत्पातेन नन्दीश्वरं तृतीयोत्पातेन यतो गतास्तत्रायान्ति, ऊर्द्धं तु प्रथमोत्पातेन नन्दनवनं द्वितीयोत्पातेन पाण्डु-| कवनं तृतीयोत्पातेन यतो गतास्तत्रायान्ति, विद्यायाः प्रयुज्यमानाया वृद्धिभवनात्, तथाऽन्येऽपि बहुप्रकाराश्चारणा ॥६ ॥ भवन्ति साधवः, तद्यथा-आकाशगामिनः पर्यङ्कावस्थानिषण्णाः कायोत्सर्गस्थशरीरा वा पादोत्क्षेपक्रम विनापि व्योमचारिणः, केचित्तु फलपुष्पपत्रहिमवदादिगिरिश्रेणिअग्निशिखानीहारावश्यायमेघवारिधारामटतन्तुज्योतीरश्मिपवनाद्यालम्बनग-18 प्रातिपरिणामकुशलाः तथा वापीनद्यादिजले तज्जीवानविराधयन्तो भूमाविव पादोत्क्षेपनिक्षेपकुशला जलचारणाः, तथा|* भुव उपरि चतुरङ्गलप्रमिते व्योम्नि पादोत्क्षेपनिक्षेपकुशला जंघाचारणा इति, 'विउव्वि'त्ति वैक्रियलब्धिमन्तः साधवः, ते च वैक्रियशक्त्या नानारूपैरसोयानपि द्वीपान् समुद्रांश्च पूरयन्ति, जम्बूद्वीपं तु मनुष्याद्यन्यतररूपैर्विभ्रति, 'पयाणुसारित्ति ये पूर्वापरपदानुसारतः स्वयं त्रुटितं पदमनुसरन्ति-पूरयन्ति ते पदानुसारिणः, इह चोपलक्षणत्वादामोषध्यादिलब्धिसंपन्नाः साधवोऽत्र ज्ञेयाः, एते एवंविधभेदभिन्नाः साधवो मे शरणं भवन्तु ॥ ३४ ॥ अथ सर्वसाधुसाधारणगुणा ये| साधवस्तान् गाथापश्चकेनाह-बैरं-प्रभूतकालजं श्रीवीरजिनं प्रति त्रिपृष्ठभवनिहतसिंहजीवहालिकब्राह्मणस्य कपिल-18 ट्रस्येव विरोधः-कुतश्चित्कारणात्तत्कालसम्भवोऽप्रीतिविशेषः, प्रतिमार्थे उदायनचण्डप्रद्योतयोरिव, अथवा वैरहेतवो INIविरोधाः बैरविरोधा उज्झिता:-त्यक्ता वैराणि विरोधाश्च यैस्ते तथा, यत एवोज्झितवैरविरोधा अत एव नित्यं-सत. तमद्रोहा:-परद्रोहवर्जिताः,वैरवत एव परद्रोहाभिप्रायसद्भावात्, यत एवाद्रोहा अत एव प्रशान्ता-प्रसन्ना मुखशोभा-बदनच्छाया येषां ते तथा, परद्रोहिणां हि मुखं विकरालं स्यादिति, यत एवंरूपा अत एवाभिमतः-प्रशस्यः, पाठान्तरेऽभिगतस्सह AAAACARSA दीप अनुक्रम [३०-४०] CAMSANCTORROCEX JHNEditution ~ 26~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतुःशरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) --------------- मूलं ||३०-४०|| --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतु:शरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक ||३० -४०|| है|चारी वा गुणसंदोहो-गुणनिकरो येषां ते तथा, एवंविधानां च ज्ञानातिशयः स्यादिति हतो मोहः-अज्ञानं यैस्ते तथा ज्ञानिन इत्यर्थः, ते साधवः शरणं भवन्तु ॥ ३५॥ खण्डितानि-नोटितानि स्नेहरूपाणि दामानि-रजवः आर्द्रकुमारेणेव | आत्मनो हस्तिनो वा यैस्ते खण्डितस्नेहदामानः छिन्नस्नेहनिगडा इत्यर्थः, यत एवंरूपा अत एव न विद्यते कामो-विषया|भिलाषो धामानि च-गृहाणि येषां, छिन्नस्नेहत्वे एव विषयगृहाणां त्यागः स्यादिति, अथवा न विद्यन्ते कामघामानिविषयगृहाणि येषां ते तथा, विषयासक्तिहेतुरम्यमन्दिररहिता इत्यर्थः, अथवा न कामस्य धाम-स्थानं अकामधामाः, प्राकृतत्वात्पुंस्त्वं, यत एवंविधा अत एव निष्काम-निर्विषयं यत्सुख-मोक्षसंवन्धि तद्विषयोऽभिलापो येषां ते तथा, निर्विषयस्यैव शिवशर्माभिलाषुकत्वात् मोक्षसुखाभिलाषिण इत्यर्थः, तथा सत्पुरुषाणां-आचार्यादीनां इङ्गिताकारसम्पन्नत्वादिना स्वविनयेन वन्दारूणां स्वशान्तत्वादिना दमदन्तेनेव युधिष्ठिरादीनां मनः-चित्तमभिरमयन्ति-आनन्द-15 यन्तीति सत्पुरुषमनोऽभिरामाः, तथा त्यक्तान्यकृत्यत्वादात्मानं तासु तासु प्रवचनोक्तक्रियासु रमयन्ति-क्रीड-| यन्तीत्यात्मारामाः, यद्वा आराममिव-भव्यजीवानां क्रीडास्थानमिव आत्मा येषां हहेतुत्वाले तथा, अथवा आचार-पश्चप्रकारममन्ति-गच्छन्तीत्याचारामाः मन्यन्ते-बुध्यन्ते जगतः कालत्रयावस्थामिति मुनयः-साधवस्ते शरणं भवन्तु ॥ २६ ॥ 'मिल्हि'त्ति मिल्हिता:-अपास्ता विषयाः-शब्दाद्याः कषायाश्च-क्रोधाचा यैस्ते तथा, | विषयकषायरहिता इत्यर्थः, तथा गृह-अगारं गृहिणी-कलत्रं तयोः सङ्गः-संबन्धस्तस्माद्यः सुखास्वादः-सुखानुभवः। स उम्झितः-परिहतो यैस्ते तथा निष्परिग्रहा निस्सङ्गाश्चेत्यर्थः, तथा न कलितो-नाश्रितो हर्षविषादी-प्रमोदवैमनस्ये यैस्ते| ACADCASAARCOACHARAN दीप अनुक्रम [३०-४०] 18 ~ 27~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------ मूलं ||३०-४०|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/व], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक ||३० -४०|| चतुःशरणे तथा, समभावव्यवस्थिता इत्यर्थः, तथा गतः प्रमादो येभ्यस्ते तथाऽप्रमत्ता इत्यर्थः, 'विहुअसोआ'इति तु पाठे विधू-18 साधुशरणं तानि श्रोतांसि-आश्रवद्वारलक्षणानि यैः यद्वा विधुतः-क्षिप्तः शोकः-चित्तखेदो यैस्ते तथा, विधूतासंयमस्थाना गतशोका गा. ३०॥६९॥ भवेत्यर्थः, ते साधवः शरणं भवन्तु ॥ ३७॥ हिंसा आदिर्येषां ते हिंसादयः ते च ते दोषाश्च, आदिशब्दादलीकभाषणपर| स्वापहारस्त्रीसेवापरिग्रहादीनां ग्रहः, हिंसादिदोषैः शून्याः-तैविरहिता इत्यर्थः, तथा कृत-विरचितं कारुण्य-जीवलोको-18 परि दुःखप्रहाणेच्छा यैस्ते तथा सर्वजीवेषु कृपाईचेतस इत्यर्थः, तथा जीवाजीवादिपदार्थानां जिनोक्तानां यथास्थितत्वेन रोचनं-मननं श्रद्धानं रुक् सम्यक्त्वमित्यर्थः प्रज्ञानं प्रज्ञा-बुद्धिः सम्यग्ज्ञानमित्यर्थः, स्वयं भवति इति स्वयम्भूः स्वय-12 म्भुवौ रुक्पज्ञे-सम्यक्त्वज्ञाने येषां ते स्वयम्भूरुक्प्रज्ञा यद्वा स्वयंभुवा-स्वयम्भूतेन सम्यक्त्वेन क्षायिकादिना |पूर्णाः, दूरी कृतमिथ्यात्वा इत्यर्थः, 'पुन्न'इति पाठे इयं व्याख्या, यद्वा स्वयंभूशब्देन स्वयम्भूरमणः समुद्र उच्यते 'भीमोx भीमसेन' इति बत् , ततस्तत्तुल्ये विस्तीर्णे प्रज्ञे तेषां ते तथा, अथवा 'स्वयम्भरुप्पन्ना' इति पाठे स्वयंभरा-आत्मनिर्वाहकाः कस्याप्यनाश्रितत्वेनोत्पन्ना-व्यवस्थिताः स्वयंभरोत्पन्नाः, तथा न विद्यते जरामरौ यत्र तदजरामरं-निवाणं लातस्य पथो-मार्गस्तदुपदर्शकत्वात्प्रवचनशास्त्राणीत्यर्थः तेषु क्षुण्णाः-निपुणाः, सम्यक्तत्त्वस्य वेदिन इत्यर्थः, क्षुण्णः-पुन: पुनः परिशीलनेनासेवितोऽजरामरपथो-मोक्षमार्गों ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षणो यैस्ते तथा, प्राकृतत्वात् क्षुण्णशब्दस्य परनि-14 1४पातः, 'अजरामरबहखुन्ना'इति पाठेतु अजरामरे-निर्वाणे वर्णयितव्ये यह प्रभूतं यथा भवत्येवं क्षुण्णाः-सम्यग्मोक्षस्वरूप-101 प्रकाशका इत्यर्थः, ते साधवः शरणं भवन्तु, पुनः किंभूतः-सुप्ठ-अतिशयेन कृतं पुण्यं-चारित्रप्राप्तिलक्षणं एष्यद्वयोग्य दीप अनुक्रम [३०-४० ~ 28~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------ मूलं ||३०-४०|| --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/व], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक ||३० -४०|| स्वर्गादिलाभलक्षणं वा यैस्ते सुकृतपुण्याः, यद्वा सुकृतैः-तपःप्रभृतिभिः पूर्णा-भृताः संचितप्रभूततपस इत्यर्थः ॥ ३८ ॥ काम्यते-अभिलप्यते विषयार्थिभिरिति कामस्तस्य कामस्य-स्मरजनितविकारस्य या विडम्बना-नाना विक्रियास्ताभिः परि-12 वेष्टनं तस्याः 'चुक'त्ति प्राकृतत्वाच्युतास्तया रहिता ज्ञातपरमार्थत्वात् तां त्यक्तवन्त इत्यर्थः, तथा कलिमलं-पापं तेन | मुक्ताः पवित्रचारित्रनीरेण तं प्रक्षालितवन्त इत्यर्थः, तथा विविक्क'त्ति विविक्त-अदत्तादाननियमेन आत्मनः पृथकृतं चौरिक्यं-चौर्य यस्ते तथा स्वामिजीवतीर्थकृद्र्वनुज्ञातवस्त्रभक्तपानादिग्रहणेन सर्वथापि तंपरिहतवन्त इत्यर्थः, तथा पातयति दुर्गती जीवानिति पापं तदेव रजः पापरजः तत्कारणत्वात् पापरजश्च तत्पुरतं-मैथुनं च पापरजासुरतं तेन रिक्था:-तत्त्या-15 गिनो, नवगुप्तिसनाथब्रह्मव्रतधरणाद्, एवंविधाः साधवः शरणं, किंभूताः साधवः ?-गुणा-व्रतषट्कादयः त एव रत्नानि तैः चच्चिकत्ति-दीप्तिमन्तस्तैर्मण्डिता इत्यर्थः, यद्वा साधूनां गुणाः साधुगुणा इत्येवं कार्य, प्राकृतत्वाद्दीर्घत्वं, साधव इति विशेष्यं तु प्रस्तावादेव लभ्यते ॥ २७ ॥ नन्वत्र साधुशरणाधिकारे ज्येष्ठपदवर्तित्वेनाचार्यादयः कथं गृह्यन्ते इति संशयापनोदायाह-साधुत्वे-साधुस्वरूपे समभावपरसाहाय्यदानमुक्तिसाधकयोगसाधनादिलक्षणे सुष्टु-अतिशयेन स्थिता-IN स्तत्से विन इत्यर्थः यद्वा साधुत्वेन सुस्थिताः-समाहिताः साधुत्वसुस्थिताः यद्-यस्मात्कारणादाचार्योदयः पञ्चापि ततश्च ते पश्चापि साधव उच्यन्ते, तत्कार्यकरणात् , तस्मात्साधुभणितेन-साधुसत्कोच्चारेण गृहीतास्ते सर्वेऽप्यतीतानागतवर्तमाPIनकालभाविनोऽत्राधिकारे मम शरणं भवेयुरिति ॥४०॥ उक्तं तृतीयं शरणं, अथ चतुर्थं शरणमाह पडिवन्नसाहुसरणो सरणं काउं पुणोऽवि जिणधम्म । दीप अनुक्रम [३०-४०] 'केवलिप्रज्ञप्तधर्म' शब्दस्य विविध-व्याख्या: एवं तस्य शरणं ~ 29~ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) (२४-वृ) ..............-------- मल ॥४१-४८|| --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/व], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: चतुःशरणे * प्रत सूत्रांक | जिनधर्मस्य शरणं गा.४१. ४८ *** ||४१ -४८|| ** पहरिसरोमंचपवंचकंचुअंचियतणू भणति ॥४१॥ पवरसुकएहि पत्तं पत्तेहिवि नवरि केहिवि न पत्तं । तं केवलिपन्नत्तं धम्म सरणं पवन्नोऽहं ॥४२॥ पत्तेण अपत्तेण य पत्ताणि अ जेण नरसुरसुहाणि । मुकखसुहं पुण पत्तेण नवरि धम्मो स मे सरणं ॥ ४३ ॥ निहलिअकलुसकम्मो कयमुहजम्मो खलीकयअहम्मो। पमुहपरिणामरम्मो सरणं मे होउ जिणधम्मो ॥ ४४ ॥ कालत्तएवि न मयं जम्मणजरमरणवाहिसयसमयं । अमयं व बहुमयं जिणमयं च धम्मं पवन्नोऽहं ॥४५॥ पसमिअकामपमोहं दिहादिडेसु न कलिअविरोहं। सिवसुखफलयममोहं धम्म सरणं पवन्नोऽहं ॥ ४६ ॥ नरयगइगमणरोहं गुणसंदोहं पवाइनिकखोऽहं । निहणियवम्महजोहं धम्म सरणं पवन्नोऽहं ॥ ४७ ॥ भासुरसुवन्नसुंदररयणालंकारगारवमहग्छ । दीप अनुक्रम [४१-४८] ALSOCALCALCADCALCALCCALCO * * ॥ ७ ॥ * JHNEncutionTPSH ~ 30~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) प्रत सूत्रांक ॥४१ -४८|| दीप अनुक्रम [४१-४८] “चतुःशरण” - प्रकीर्णकसूत्र - १ (मूलं + अवचूर्णि:) - मूलं ||४१-४८|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ २४/वृ] प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णिः निहिमिव दोगचहरं धम्मं जिणदेसिअं वंदे ॥ ४८ ॥ साधु श्रावकाद्यन्यतमो जीवः प्रतिपन्नसाधुशरणः सन् पुनरपि जिनधर्म शरणं कर्तुं - प्रतिपत्तुमिच्छन्नित्यध्याहार्य, इदं - वक्ष्यमाणं भणति, किंविशिष्टोऽसौ ? - प्रकृष्टो हर्षः प्रहर्षः - वदनविकासादिचिह्नगम्यो मानसः प्रीतिविशेषस्तद्वशेन यो रोमाञ्चप्रपञ्चः स एव कशुकस्तेनाश्चिता विभूषिता तनुः शरीरं यस्य स प्रहर्षरोमाञ्चप्रपञ्चकचकिततनुः, प्रमोदपूरिताङ्गः सन्नित्यर्थः यद्भणति तदाह-प्रवरसुकृतैः - विशिष्टपुण्यैः प्राप्तं लब्धं सम्यक्त्वदेश विरतिरूपं, धर्ममिति संबन्धः, अर्धपुद्गलपरावर्त्ताभ्यन्तरीभूतभवैरेव भव्यजीवैरासन्न सिद्धिकैः प्राप्यमानत्वात् तथा पात्रैरपि भाग्यवद्भिरपि ब्रह्मदत्तचत्र्यादिभिरिव कैश्चित् नवरीति- पुनरर्थेन प्राप्तं - नासादितं, पात्रत्वं च ब्रह्मदत्तस्य चक्रित्वलाभात्, देवेन्द्रचक्रवत्र्त्यादिपदानि हि भव्यानामेव भवन्तीति, तमेवंभूतं केवलिभिः केवलज्ञानोपलब्धसमस्ततत्त्वैः प्रकाशितं धर्म- श्रुतधर्मचारित्रधर्मरूपं शरणं प्रपन्नोऽहमिति ॥ ४२ ॥ अथ धर्मस्यैव माहात्म्यमुपदर्शयन्नाह - प्राप्तेनाप्राप्तेनापि लब्धेनालब्धेनापि केनेत्याहयेन जैनधर्मेण नरसुरसुखानि प्राप्तानि, तत्र प्राप्तेन यथा लब्धसम्यक्त्वेन धनसार्थवाहेन नरसुखं-युगलिकसुखं प्राप्तं, अप्राप्तेनापिच यथा तेनैव तस्मिन्नेव भवे सम्यक्त्वलाभात् पूर्व, प्राप्तेन धर्मेण सुरसुखं बहुभिरपि श्रीवीरजीवनयसारादिभिः अप्रातेन धर्मेण सुरसुखं 'तावस जा जोइसिआ चरगपरिचाय बंभलोगो जा' इत्याद्यैर्बहुभिः कपिलादिभिरिव लब्धं, यद्वा अनेकैः भव्यैः प्राप्तेन धर्मेण नरसुरसुखानि लब्धानि, अभव्यैश्च अप्राप्तेनापि तेन तेषामप्यागमे केवलक्रियादिबलेन नवममैवेयकं यावद्गमनश्रवणात्, मोक्षसुखं पुनर्येन धर्मेण प्राप्तेनैव प्राप्यते, नान्यथा, मरुदेवाप्रभृतयोऽपि भावतश्चारित्रप For Pale & Pomonal Use Only ~ 31~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------ मूलं ||४१-४८|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२४/व], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक ||४१ -४८|| चतु:शरणे रिणाम प्राप्यैव मोक्षं जग्मुरिति, नवरि-पुनः स धर्मो मम शरणं भवतु, अथ व्याख्यान्तरं-पात्रेण-ज्ञातिकुलसौभा-8 जिनधर्म ग्यादिगुणयुक्तेन तथा अपात्रेणापि-गुणवियुक्तेन द्रारिद्रयाद्युपहतेनापि प्राप्तानि-लब्धानि येन कारणेन नरसुरसुखानि- स्य शरणं ॥७१॥ मनुजदेवसमृद्धयः, तत्र पात्रेण ऋजुत्वादिगुणवता वरुणसारथिमित्रेणैव नरसुख-विदेहेषु सुकुलोत्पत्त्यादिकं यथा प्राप्त, गा. ४१अपात्रेण-दौःस्थ्याक्रांतेन कौशाम्ब्यामार्यसुहस्तिप्रवजितसम्प्रतिराजजीवद्रमकेगेव, पात्रेण सुरसुखं वसुदेवपूर्वभवन- ४८ दिषेणेनेव प्राप्त, च एवकारार्थो भिन्नक्रमश्च पात्रेणेत्यत्र योज्यते, ततश्चायमर्थः नवरं-केवलं मोक्षसुख-शिवशर्म पुन: पात्रेणैव चारित्रधर्माधारभूततथाभव्यत्वगुणलक्षणेनैव प्राप्यते, यस्य धर्मस्य प्राप्तेनवेति शेषः, नान्यथेति, स धर्मों मम शरणं भवतु ॥४३॥ निर्दलितानि-विदारितानि तत्कर्तृजनेभ्यः कलुषाणि-मलिनानि कर्माणि येन धर्मेण स तथा, निर्धूतसर्वपाप इत्यर्थः, यत एवंविधोऽत एव कृतं शुभं जन्म कर्म वा सेवकजनेभ्यो गणधरतीर्थकरत्वादिप्राप्तिलक्षणं येन स कृतशुभजन्मा कृतशुभकर्मा वा, यत एवंविधोऽत एव खलीकृतो-वैरिवन्नि टितो निःसारितो वा अधर्मः कुधम्मों वा सम्यक्त्ववासितान्तःकरणेभ्यो येन स तथा, तथाऽयं जिनधर्मः प्रमुखे-आदौ इहलोकेऽपि रम्यो धम्मिKलादीनामिव परिणामे परिपाकप्राप्ती भवान्तरेऽपि दामन्नकादीनामिव रम्यो-मनोज्ञः, मिथ्यादृष्टिधर्मस्तु नैवंविधा, त स्यारम्भेऽपि पश्चाग्नितपःप्रभृत्यादेमहाकष्टहेतुत्वेन परिणामे परलोके च मिथ्यात्वरूपत्वाद्दुर्गतिमूलत्वेन चासुन्दरत्वात् , | विषयसुखस्य तु आदौ सुन्दरत्वेऽपि परिणामे शनै शनैः इहलोके परलोके च कटुविपाकत्वाच, जिनधर्मस्त्वादी परिणामे- ॥ ७१ ॥ लपि च रम्य एव, स एवंविधो धर्मो मे शरणं भवतु ॥४४॥ कालत्रयेऽपि-अतीतानागतवर्तमानरूपे न मृतो-न विनष्टस्तं | दीप अनुक्रम [४१-४८] Jinnitution ~ 32 ~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतुःशरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------ मूलं ||४१-४८|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतु:शरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक ||४१ -४८|| A8%A%A5ॐॐॐॐॐॐ नमृतं भरतैरवतेषु व्यवच्छेदसद्भावेऽपि महाविदेहेषु कालत्रयेऽपि धर्मस्य नैरन्तर्येण सद्भावात् , तथा जन्म च जरा च |मरणं च व्याधयश्च जन्मजरामरणव्याधयस्तेषां शतानि तानि शमयतीति जन्मजरामरणव्याधिशतशमका, सिद्धिपदप्रदानेन तन्निवारक इत्यर्थः, तं, 'समय'मिति पाठे तु जन्मजरामरणच्याधिशतानि सुष्ठु-अतिशयेन मृतानि-विनष्टानि | यस्मात्स तथा, सद्वर्णगन्धरसोपेतं बलवर्णसौभाग्यपुष्टिजननं सर्वरोगनाशनं वस्तु अमृतमुच्यते तदिव सकललोकस्यानन्दतुष्टिपुष्टिजनकत्वाद् बहुमतः सर्वस्याप्यतिशयेनाभीष्ट इत्यर्थः, तं प्रक्रमायातं जिनधर्म, न केवलं जिनधर्म, किन्तु जिनप्रवचनमपि-द्वादशाङ्गरूपं पूर्वोक्तगुणसुन्दरं शरणत्वेनाहं प्रपन्न:-आश्रित इत्यर्थः ॥ ४५ ॥ प्रकर्षण कटुविपाकतादर्शनेनो|पशर्म नीतः कामस्य प्रकृष्टो मोहः-उन्मादो मीहो वा येन स तथा, निवारितकामोद्रेक इत्यर्थः, जिनधर्मभावितमतेः कामनिवृत्तिसद्भावात् , तथा दृष्टादृष्टे-दृष्टा-दृष्टविषया ये बादरैकेन्द्रियादयो जीवाः पुद्गलस्कन्धादयोऽजीवाश्च, तथाऽदृष्टाः ल सर्वलोकवृत्तिसूक्ष्मैकेन्द्रियादिजीवा धर्माधर्मास्तिकायादयोऽजीवाश्च, स्वर्गनरकादयो वा येऽतिशयज्ञानज्ञानिगोचरास्तेषु दृष्टादृष्टेषु पदार्थेषु न कलितो-न प्राप्तो विरोधो-विपरीतप्ररूपणारूपो येन स तथा तं, केवलिप्रज्ञप्तत्वात् यथावस्थितस्वरूपावेदकमित्यर्थः, तथा शिवसुखमेव फलं तद्ददातीति शिवसुखफलदस्तं, अत एव न मोघोऽमोघा-अवन्ध्यः सफल इत्यर्थः तमेवंप्रकारं धर्म शरणं प्रपन्नोऽहमिति ॥ ४६ ॥पापकारिणो नरान् कायन्ति-आयन्तीति नरका-रत्नप्रभादिषु सीमन्तकाद्यास्त एव गम्यन्ते इति गतिस्तत्र यद्गमनं तद् रुणद्धि-निवारयतीति नरकगतिगमनरोधस्तं, तथा गुणानांक्षान्त्यादीनां संदोहः-समुदायो यत्र स तथा तं, तथा प्रकृष्टा वादिनः प्रवादिनः, निशब्दो निषेधार्थः, तैः प्रवादिभिः ECRECOCCAMESH दीप अनुक्रम [४१-४८] ~33~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ...----------------- मूलं ||४१-४८|| ---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२४/व], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत ४ ख शरणं सूत्रांक ||४१ ४८ चतःशरणादान क्षोभ्यते इति प्रवादिनिक्षोभ्यस्तं, अथवा प्रवादिभ्यो निर्गतः क्षोभ:-कल्पनं यस्य स तथा, यद्वा प्रवादिनां नि:-नि- जिन तरां क्षोभो यस्मात्स तथा तं, सुयुक्तियुक्तत्वेन श्रीसर्वज्ञोक्तत्वेन च वादिभिः क्षोभयितुमशक्य इत्यर्थः, 'निहणियत्तिादा ॥७२॥ कानिहतो-नाशं नीतो मन्मथयोधः-कामसुभटो येन स तथा, नवगुप्तिरचनारुचिरवाहाकवचाश्चितत्वात् धर्मस्य तं धर्म | PM दशरणं प्रपन्नोऽहमिति ॥४७॥ अथ निधानोपमया धर्मस्य नमस्कारमाह-देवादिभासुरगतिहेतुत्वाचासुर:-शोभनो18 वर्णः-श्लाघागुणोत्कीर्तनरूपो यस्मात्स सुवर्णः, चारित्रवतामिन्द्रादिभिरपिश्लाघनीयत्वात् , तथा सुन्दरा-मनोज्ञा या क्रिया|कलापविषया इच्छामिच्छेत्यादिदशविधसामाचार्यादिरूपा या रचना-विविधकल्पना सैव तया वाऽलङ्कारः-शोभाविशेषो। यस्य स सुन्दररचनालङ्कारः, तथा गौरवं-महत्त्वं तद्धेतुत्वाद्धर्मोऽपि गौरवं तथा महानर्थों-माहात्म्यविशेषो यस्य स 18 द्र महार्थः, चारित्रवतामामोषध्यादिमाहात्म्यविशेषसंभवात् , ततः पञ्चानामपि विशेषणानां कर्मधारयः, अथवा शोभनो वर्ण:-श्लाघा तेन सुन्दरा या सामाचार्यादिरचना सैवालङ्कारो यस्येति एकमेव कार्य, चारित्रपक्षेऽयं पूर्वोक्तोऽर्थः, श्रुतधर्म-IN पक्षे तु रचना पदपङ्क्त्या भास्वरो ज्ञानादिभिः केवलिभिरुक्तत्वात् भास्वरः शोभना वर्णाः-अक्षराणि तेषां तथा सुन्दरा या द्रविरचना तस्या योऽलङ्कारो-द्वात्रिंशत्सूत्रदोषपरिहारेणाष्टगुणधारणेन च शोभाविशेषः तस्माद् यद्गौरवं-गुरुत्वं अनन्तार्थ वादिरूपं तेन महानर्थः-आधिक्यं पूजातिशयो वा यस्य स तथा, ततो विशेषणद्वयकर्मधारयः, अथवा भासुरेति वर्ण-| विशेषणं कार्य, यद्वा भासुरसुवर्णसुन्दररचनालंकारेण गौरव-गुरुत्वं यस्य स तथा, महार्थमिति पृथक्त्वा समस्यते, निधि-14 ॥७२॥ टू पक्षे पुनर्भासुरं-दीप्तिमत् सुवर्ण-कनकं सुन्दराणि यानि रत्नानि अलङ्कारा-हाराद्याभरणविशेषास्तै गौरव-सम्पूर्णता | ASAXSACC -४८|| दीप अनुक्रम [४१-४८] KAKKALASS ~34 ~ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ----- ------- मूलं ||४१-४८|| ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२४/व], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक SS ||४१ -४८|| तेन महा?-बहुमूल्यः, 'दोगचिति चारित्रधर्मपक्षे दुष्टा गतिर्दुर्गतिः-कुदेवत्वकुमानुषत्वतिर्यग्नरकलक्षणा तस्या दुर्गते| वो दौर्गत्यं, श्रुतधर्मपक्षे तु गत्यर्था ज्ञानार्था धातवः अतो गतिः-ज्ञानं दुष्टा गतिः दुर्गतिः अज्ञानमित्यर्थः तद्धरतीति दौर्गत्यहरं, निधानपक्षे तु दुर्गतस्य-दरिद्रस्य भावो दौर्गत्यं तद्भरतीति दौर्गत्यहरं दारिद्यापहारकृदित्यर्थः, एवंविधनिधानोपमितं धर्म श्रीजिनैः-श्रीसर्वज्ञैः देशितं-उपदिष्टं वन्दे-नमस्कुर्वेऽहमित्यर्थः ॥४८॥ उक्तश्चतुःशरणरूपः प्रथमोऽधिकारः, अथ दुष्कृतगर्हारूपं द्वितीयमधिकारमाह चउसरणगमणसंचिअसुचरिअरोमंचअंचिअसरीरो। कयदुक्कडगरिहाअसुहकम्मक्खयकंखिरो भणइ ॥४९॥ इहभविअमनभवि मिच्छत्तपवत्तणं जमहिगरणं । जिणपवयणपडिकुटुं दुह गरिहामि तं पावं ॥५०॥ मिच्छत्ततमंघेणं अरिहंताइसु अवन्नवयणं जं । अन्नाणेण विरइअं इहि गरिहामि तं पावं ॥५१॥ सुअधम्मसंघसाहुसु पावं पडिणीअयाइ जं रहों। अन्नेसु अ पावेसु इम्हि गरिहामि तं पावं ॥५२॥ अन्नेसु अ जीवेसु अ मित्तीकरणाइगोअरेसु कयं । दीप अनुक्रम [४१-४८] KARANCE%-5-3-565 C RESCHEMOCR तं.पै.प्र.१३ Jantsications अथ 'दुष्कृतगर्हा'रूप अधिकारस्य वर्णनं क्रियते ~35~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------ मूलं ||४९-५४|| ------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.....आगमसूत्र-(२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: दुष्कृतगहीं प्रत सूत्रांक ||४९ -५४|| चतुम्शरणे : परिआवणाइ दुक्खं इहि गरिहामि तं पावं ॥५३॥ जं मणवयकाएहिं कयकारिअअणुमईहिं आयरिश्र। सागा. ४९धम्मविरुद्धमसुद्धं सर्व गरिहामि तं पावं ॥ ५४॥ चतुःशरणगमनेन-चतुःशरणाङ्गीकारेण संचितं-राशीकृतं यत्सुचरितं-पुण्यं तेन योऽसौ रोमाञ्चो-रोमोल्लासस्तेनाश्चित-भूषितं शरीरं यस्य स तथा, चतुःशरणगमनार्जितसुकृतवशात् कंटकितगात्र इत्यर्थः, तथा कृतानि-इहभवे|ऽन्यभवे च विहितानि यानि दुष्कृतानि-पापकृत्यानि तेषां गहों-गुरुसमक्षं 'हा दुहु कय'मित्यादिनिन्दा तया योऽसी अशुभकर्मक्षयः-पापकर्मापगमः तत्र कांक्षिरः-आकांक्षावान् भणति, दुष्कृतगीतो यः पापापगमो भवति तमात्मनः समभिलषन् एवं वक्ष्यमाणं वदतीत्यर्थः ॥ ४९॥ यच्च भणति तदाह-इह-अस्मिन् भवे यत्कृतं तदिहभाविक, अन्यस्मिन् : भवे भवमन्यभविक अतीतभविष्यद्भवसंभवमित्यर्थो, मिथ्यात्वप्रवर्त्तनं-कुतीर्थिकदानसन्मानतद्देवार्चनतञ्चैत्यकारापणाद्यधिकरणं, अन्यदपि चाधिकरणं भवनारामतटाकादिकारणसधनुःखगादिशस्त्रयन्त्रगन्त्रीहलोदूखलशृङ्खलादिविधा-1 पनदानादिरूपं यत्कृतमिति शेषः, तथाऽन्यच्च जिनप्रवचने यत्प्रतिकुष्ट-प्रतिषिद्धं दुष्टं तत्पापं गर्हामि-जुगुप्सामीत्यर्थः ॥ ५० ॥ उक्ता सामान्येन दुष्कृतगो, सम्प्रति विशेषेण तामाह-मिथ्यात्वमेव तमः-अन्धकारः तेनान्धस्तेन मिथ्यात्वतमोऽन्धेन, मिथ्यात्वशास्त्रोपहतभावचक्षुषा जीवेनेति शेषः, 'अहंदादिषु' अर्हसिद्धाचार्योपाध्यायादिषु पूजाबहुमानाहेषु 'अवण्णवयणं जति अवर्णवादवचनं-असद्दोपकथनं अवज्ञावचनं वा हीलारूपं यदज्ञानेन-विवेकशून्येन उक्तमिति RECASSORRORSCOOT दीप अनुक्रम [४९-५४] ॥ ७३ ॐ J Enitutio- mil jainestriary.org ~36~ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------------ मूलं ||४९-५४|| --------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतु:शरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक ||४९ -५४|| शेषः, तथा विरचितं-कृतं कारितमनुमतं चातीतानागतवर्तमानकाले, यच्चान्यदपि जिनधर्मप्रत्यनीकत्ववितथप्ररूपणापरदेवधर्मस्थानादिरूपं, इदानीमवगतपरमार्थस्तत्पापं गोमि-निन्दामि गुरुसमक्षमालोचयामीत्यर्थः ॥५१॥ श्रुतं च धर्मश्च संघश्च साधवश्च श्रुतधर्मसंघसाधवः तेषु पापं-आशातनारूपं प्रत्यनीकतया-विद्विष्टभावेन यद्रचितं, तत्र श्रुतस्य-द्वादशांगरूपस्य तदध्येत्रध्यापकानामुपरि यदरुच्यबहुमानादि चिन्तनं 'अज्ञानमेव शोभन'मिति भणता पूर्वभवे माषतुषस्येव धर्मप्रत्यनीकता 'कविला इत्थंपि इयंपीति भणतो मरीचेरिव संघप्रत्यनीकतां संमेतशैलयात्रागच्छत्श्रीसंघविलुण्टकानां सगरसुतजीवपूर्वभवचौराणामिव साधुप्रत्यनीकता गजसुकुमालं प्रति सोमिलद्विजस्येव, तथा सर्वेषांश्रुतधर्मादाचार्योपाध्यायसाधूनामुपरि प्रत्यनीकता नमुचिदत्तगोशालकादीनामिव ज्ञेया, तथाऽन्येष्वपि पापेषु-3 अष्टादशसु प्राणातिपातादिषु यत् किमपि पापं-जीवव्यपरोपणादिकं कृतं तदप्यधुना गर्हामीत्यर्थः ॥ ५२ ॥ यच्चोक्तं-18 'अन्नेसु अ पावेसुत्ति तदेव व्यक्तीकर्तुमाह-अन्येष्वपि जीवेषु-तीर्थकरादिव्यतिरिक्तेषु एकेन्द्रियादिसर्वभेदभिन्नेषु मैत्रीकारुण्यमाध्यस्थ्यानि विधेयतया गोचरो-विषयो येषां ते तथा तेषु कृतं-निष्पादितं 'परिआवणाई'त्ति परि-18 तापनारूपमध्यपदग्रहणात्तुलादण्डन्यायेनाभिहतादिभिर्दशभिः पदैस्तेषु जीवेषु यत्किमपि दुःख-कष्टं कृतमिदानीं तदपि पापं गर्हामि-जुगुप्साम्यालोचयामीतियावत् ॥ ५३॥ अथोपसंहारमाह-यत्किञ्चित् पापं कृत्यं मनोवाकायै राग-| द्वेषमोहाज्ञानवशात् कृतकारितानुमतिभिराचरितं-विहितं धर्मस्य-जिनधर्मस्य विरुद्धं-प्रतिकूलं अतएवाशुद्ध-सदोषं सर्व ACCESCRSEEG-OCCS दीप अनुक्रम [४९-५४] ~37~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) प्रत सूत्रांक ||४९ -५४|| दीप अनुक्रम [४९-५४] चतुःशरणे ॥ ७४ ॥ “चतुःशरण” - प्रकीर्णकसूत्र - १ (मूलं + अवचूर्णि:) - मूलं ||४९-५४|| मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित आगमसूत्र - [ २४/वृ] प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णिः समस्तमपि तत्पापं गर्हामि - अपुनः करणेनाङ्गीकरोमि - गुरुसन्निधावालोचयामि ॥ ५४ ॥ उक्तो दुष्कृतगर्हारूपो द्वितीयोऽधिकारः, अधुना सुकृतानुमोदनारूपं तृतीयाधिकारमाह अह सो दुकडगरिहादलिउकडदुक्कडो फुडं भगई । सुकाणुरायसमुद्दण्णपुण्णपुलयंकुरकरालो ॥ ५५ ॥ अरिहंतं अरिहंतेसु जं च सिद्धत्तणं च सिद्धेसु । आयारं आयरिए उवज्झायत्तं उवज्झाए ॥ ५६ ॥ साहूण साहुचरिअं देसविरहं च सावयजणाणं । अणुमन्ने सव्वेसिं सम्मत्तं सम्मदिट्ठीणं ॥ ५७ ॥ अहवा सव्वं चिप बीअरायवयणाणुसारि जं सुकडं । कालएव तिविहं अणुमोपमो तयं सव्वं ॥ ५८ ॥ 'अथे 'ति दुष्कृतगर्हानन्तरं सः साध्यादिको जीवः, कथम्भूतः १ - दुष्कृत गर्हया- दुश्चरित्र निन्दनेन दलितानि - चूणींकृतानि उत्कटानि प्रबलानि दुष्कृतानि पापानि येन स तथा दुष्कृतगर्हया प्रतिहतमहापातकनिकर इत्यर्थः एवंविधः सन् स्फुटं यथा स्यादेवं भणति, पुनः स किंभूतः ? - सुकृतानुरागेण - सुचरित बहुमानेन समुदीर्णाः संजाताः पुण्यबन्धहेतुत्वात् पुण्याः पवित्रा ये पुलकाङ्कुरा-रोमोद्गमविशेषाः तैः कराठो व्याप्तः कर्मवैरिणं प्रति भीषणो वा ॥ ५५ ॥ अथ 'सुकृत अनुमोदना रूप तृतीय-अधिकारस्य वर्णनं क्रियते Fu Prale & Pemonal Use Oily ~38~ सुकृतानुमोदना गा. ५५ ५८ ॥ ७४ ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) (२४-वृ) ..............-------- मल ||५५-५८|| ---------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतु:शरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक AACMS ||५५ -५८|| यद्भापते तगाथाद्वयेनाह-अर्हत्त्वं-तीर्थकरत्वं प्रतिदिनं द्विर्धर्मदेशनाकरणभव्यनिकरप्रतिबोधनतीर्थप्रवर्तनादिक दि अर्हत्सु तदनुमन्येऽहमिति सम्बन्धः, यच्च सिद्धत्व-सदा केवलज्ञानोपयुक्तत्वसर्वकर्मविमुक्तत्वनिरुपमसुखभोक्तृत्वा-18 दिरूपं सिद्धेषु अनुमन्ये, तथाऽऽचार-ज्ञानाचारादिरूपं पञ्चविधमाचार्येषु अनुमन्ये, तथा उपाध्यायत्व-सिद्धान्ताध्याभापकत्वरूपमुपाध्यायेऽनुमन्ये इति ॥ ५६ ॥ तथा साधूना-सामायिकादिचारित्रवतां पुलाकबकुशादिभेदभिन्नानां जिनक|ल्पिकप्रतिमाधरयथालन्दिकपरिहारविशुद्धिककल्पातीतप्रत्येकबुद्धबोधितादिभेदैरनेकविधानां सर्वकालक्षेत्रविशेषितानां साधुचरित-चरणादिक्रियाकलापं ज्ञानदर्शनचारित्रधारित्वसमभावत्वासहायसहायत्वादिरूपं वाऽनुमन्ये, 'साहुकिरिय'मिति पाठान्तरे तु साधुक्रियां-सर्वसाधुसामाचारीरूपां इत्यर्थः, तथा देशविरतिं-सम्यक्त्वाणुव्रतगुणव्रतशिक्षात्रते|कादशप्रतिमादिरूपां, केषां?-'श्रांपाके श्रान्ति-पचन्ति तत्वार्थश्रद्धानं निष्ठां नयन्तीति श्राः 'टुवपी बीजसंतानें वपन्ति-18 | जिनभवनादिसप्तक्षेत्रेषु निजधनबीजानि इति वाः 'कृत् विक्षेपे' किरन्ति-विक्षिपन्ति क्लिष्टकर्मरज इति काः, श्राश्च वाश्च काश्च श्रावकास्ते च ते जनाश्च श्रावकजनास्तेषां श्रावकत्वमनुमन्ये, तथा सर्वेषां सम्यक्त्वं सम्यक्त्वं-जिनोततत्त्वश्रद्धानरूपं 'तमेव सच्चं निस्संकं जं जिणेहिं पवेइमिति निश्चयलक्षणं अनुमन्ये, केषां ?-सम्यग्-अविपयस्ता दृष्टिः-दर्शनं येषां ते सम्यग्दृष्टयः तेषां सम्यग्दृष्टीनां, अविरतानामपि सुरैरप्यचाल्यसम्यक्त्वानां श्रेणिकादीनामिवेत्यर्थः ॥ ५७ ॥ अथ सर्वानुमोदनाहसंग्रहमाह-'अथवे'ति सामान्यरूपप्रकारदर्शने 'चि एवकारार्थे, ततः सर्वमेव वीतरागवचनानुसारि-जिनमतानुयायि यत् सुकृतं-जिनभवनविकरणतत्प्रतिष्ठासिद्धान्तपुस्तकलेखनतीर्थ LIKAMGARABECACC54 दीप अनुक्रम [५५-५८] ~ 39~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ------------ मूलं ||५५-५८|| -------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/व], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: मोदना प्रत सूत्रांक ५० ||५५ -५८|| चतुःशरणे यात्राश्रीसंघवात्सल्यजिनशासनप्रभावनाज्ञानाद्युपष्टंभधर्मसान्निध्यक्षमामार्दवसंवेगादिरूपं मिथ्याहसंबन्ध्यपि मार्गानुयायि सुकृतानु॥७५॥ कृत्यं कालत्रयेऽपि त्रिविधं मनोवाकायैः कृतं कारितमनुमतं च यदभूत् भवति भविष्यति चेति 'तकत्' इति सातादात 'त्यादिसर्यादेः स्वरेष्वंत्या' (श्री सि. अ. पा. ३ सू. २९) दिति सूत्रेण स्वार्थेऽकूप्रत्यये रूपं, तदित्यर्थः, तत् गा.५५ सर्व-निरवशेषमनुमोदयामः-अनुमन्यामहे, हर्षगोचरतां प्रापयाम इत्यर्थः, बहुवचनं चात्र पूर्वोक्तचतुःशरणादिप्रतिपत्त्या || उपार्जितपुण्यसंभारत्वेन स्वात्मनि बहुमानसूचनार्थं ॥५८॥ तदेवमुक्तः सुकृतानुमोदनारूपस्तृतीयोऽधिकारः, अथ चतुःशरणादिकृत्ये यत्फलं स्यात्तद्गाथाद्वयेनाह सुहपरिणामो निच्चं चउसरणगमाइ आयरं जीवो। कुसलपयडीउ बन्धइ बद्धाउ सुहाणुबन्धाओ ॥ ५९॥ मन्दणुभावा बद्धा तिवणुभावाउ कुणइ ता चेव । असुहाउ निरणुबंधाउ कुणइ तिबाउ मन्दाओ॥६॥ शुभपरिणामः-प्रशस्तमनोऽध्यवसायः सन् नित्यं-सदैव चतुःशरणगमनादि-चतुःशरणगमनदुष्कृतगर्हासुकृतानुमोदनान्याचरन्-कुर्वन् साधुप्रभृतिको जीवः कुशल-पुण्यं तत्प्रकृतीः 'साउच्चगोअमणुदुर्गे'त्यादिगाथोक्ताः द्विचत्वारिंशसंख्याः बनाति, शुभाध्यवसायबध्यमानत्वात्तासां, तथा ताश्च प्रकृतीबद्धाः सतीः शुभाध्यवसायवशाच्छुभोड-1 नुबन्धः-उत्तरकालफलविपाकरूपो यासां ताः शुभानुबन्धाः एवंविधाः करोतीत्यर्थः, तथा ता एवं शुभप्रकृती: दीप अनुक्रम [५५-५८] अथ चतुःशरणं, दुष्कृतगर्दा, सुकृत-अनुमोदनाया: फ़लम् प्रकाश्यते ~ 40~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ---------------- मूलं ||५९-६०|| ----------- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतु:शरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: SC प्रत सूत्रांक **%% A ||५९ -६०|| -ॐॐॐ5 प्राग्मन्दानुभावाद् बद्धाः-स्वल्पशुभपरिणामवशान्मन्दरसा बद्धा विशिष्टतरशुभाध्यवसायवशात्तीवोऽनुभावो-रसो यासां| तास्तीत्रानुभावाः-अत्युत्कटरसाः करोति, उपलक्षणादल्पकालस्थितीः दीर्घकालस्थितीः करोति अल्पप्रदेशका बहुपदेशकाच| करोतीत्यपि ज्ञेयं, तथा 'असुहाउ'त्ति याश्चाशुभा 'नाणंतरायदसग'मित्यादिगाथोक्ता व्यशीतिसंख्याः पूर्व बद्धाः। स्युस्ता निर्गतोऽनुबन्धः-उत्तरकालफलविपाकरूपो याभ्यस्ताः निरनुबन्धाः एवंविधाः करोति, तद्विपाकजनितं दुःख-| मत्तरकाले तस्य न भवतीत्यर्थः, तथा ता एव यास्तीत्राः-तीवरसाः प्राक् तीब्राशुभपरिणामेन बद्धास्ता मन्दा:-मन्द६ रसाः करोति चतुःशरणगमनादिरूपशुभाध्यवसायवलाद् , अत्रापि उपलक्षणादीर्घकालस्थितीरल्पकालस्थितीर्बहुप्रदेशका * अल्पप्रदेशकाच करोतीत्यपि ज्ञेयं, शुभपरिणामवशादशुभप्रकृतीनां स्थितिरसप्रदेशानां हाससम्भवात्, वन्दनकदानात् श्रीविष्णोरिवेत्यर्थः ॥ १०॥ उक्तं चतुःशरणप्रतिपत्त्यादेर्महत्फलं, अत एव तदवश्यं कर्त्तव्यमिति दर्शयति ता एयं कायवं बुहेहि णिचंपि संकिलेसम्मि । होइ तिकालं सम्मं असंकिलेसंमि सुकयफलं ॥ ६१॥ । 'ता'इति तस्मात्कारणात् 'ए'ति एतदनन्तरोक्तं चतुःशरणादि कर्तव्यमिति-विधेयं विबुधैः-अवगततत्त्वैर्नित्यमपि-13 सततमपि, कस्मिन् ?-संकेशे-रोगाद्यापद्पे, एतेन यथा कर्षकैः शाल्यादिबीजं शस्यनिष्पत्तये उप्तमपि पलाला द्यानुषङ्गिकं जनयति एवं चतुःशरणाद्यपि सततं कर्मनिर्जरायै क्रियमाणमिहलोकेऽपि रोगाद्युपसर्गोपशान्ति तनोमातीति दर्शितं, तथा असंक्लेशो-रोगाद्यभावस्तस्मिन् चतुःशरणादि भवति त्रिकालं-सन्ध्यात्रयरूपे काले विधीयमान-13 दीप अनुक्रम [५९-६०] 4%A- ~ 41~ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ----...............-- मूलं ||६१|| ...----- मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-२४/व], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतुःशरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत MAHA सूत्राक ||६१|| दीप चतुःशरणे ₹ मिति शेषः, सम्यग्मनोवाकायोपयुक्ततया, कथं भवतीत्याह-'सुगईफलं'ति शोभना गतिः सुगतिः-स्वर्गापवर्गरूपा | सुकृतानुसैव फलं यस्य तत्सुगतिफल, स्वर्गमोक्षप्राप्तिफलमित्यर्थः, सम्यक्चतुःशरणादिकृतां साधूनामुत्कर्षतो मोक्षं यावत् मोदना श्राद्धानामच्युतं यावच्च गतेः श्रीसिद्धान्ते प्रोक्तत्वात् , 'सुकयफल मिति पाठे तु सुकृतं पुण्यं शुभानुवन्धि तत्प्राप्तिः। गा. ५५फल भवतीत्यर्थः ॥ ६१ ॥ अथ योऽतीव दुर्लभां मनुष्यत्वादिसामग्री प्राप्यापि चतुःशरणादि प्रमादादिना न कृत-४ ५८ वान् तं शोचयति चउरंगो जिणधम्मो न कओ चउरंगसरणमवि न कयं । चउरंगभवच्छेओन कओ हा हारिओ जम्मो ॥ १२ ॥ चत्वारि-दानशीलतपोभावनारूपाणि अङ्गानि यस्य स चतुरङ्गो-दानादिचतुष्प्रकार इत्यर्थः जिनधर्मः-अर्हद्धर्मो न कृतो-न विहितः आलस्यमोहादिभिः कारणैर्विगतविवेकत्वात् , तथा न केवलं चतुरङ्गधर्मो न कृतः, किन्तु चतुरङ्गं शरणमपि-अर्हसिद्धसाधुधर्मरूपमपि न कृतं, तथा चतुरङ्गभवस्य-नरकतिर्यग्नरामरलक्षणस्य छेदो-विनाशो |विशिष्टचारित्रतपश्चरणादिना न कृतो येनेत्यध्याहार्य तेन 'हा' इति खेदे हारित-वृथा नीतं जन्म-मनुष्यभवः, प्राकृतदत्वात्पुंस्त्वं, तस्य हारणं च अकृतधर्मस्य जीवस्य पुनरतिशयेन मानुषस्य दुष्प्रापत्वाद् अथवा स एव प्रमादादिना पूर्वमनाराधितजिनधर्मा अन्त्यसमये संजातविवेकः स्वयमात्मानं शोचयति-चतुरङ्गो जिनधर्मो मया न कृत इत्यादि 8 ॥७ ॥ अनुक्रम [६१] RASADRISADS ~ 42 ~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (२४-वृ) “चतु:शरण” - प्रकीर्णकसूत्र-१ (मूलं+अवचूर्णि:) ---------------- मूलं ||६२|| --- .. मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[२४/वृ], प्रकीर्णकसूत्र-[१] “चतु:शरण” मूलं एवं विजयविमलगणि कृता अवचूर्णि: प्रत सूत्रांक ||६२|| Pहा मया हारित-निष्फलीकृतं मनुष्यजन्म, देवा अपि विषयप्रमादादकृतजिनजन्मोत्सवादिपुण्याच्यवनसमये अनेनैव प्रकारेण खेदं कुर्वन्ति ॥ ६२ ॥ अथ प्रस्तुताध्ययनोपसंहारमाह इइ जीव पमायमहारिवीरभद्दन्तमेवमज्झयणं । झाएसु तिसंझमवंझकारणं निव्वुइसुहाणं ॥ ६३ ॥ 'इति'उक्तप्रकारेण हे जीव!-हे आत्मन् ! एतदध्ययनं ध्याय-स्मर त्रिसन्ध्यं-संध्यात्रये इति संबन्धः, कथंभूतं ?'पमायमहारिवीरं ति प्रमादा एव महान्तोऽरयः-शत्रवः, चतुर्दशपूर्वधरादीनामपि निगोदादिदुर्गतिपातहेतुत्वात्प्रमादस्य, हा तेषां प्रमादमहारीणां विनाशाय वीरवद्वीरं सुभटकल्पमित्यर्थः, प्राकृतत्वादनुस्वारलोपः, पुनः कथंभूतं ?-भद्रमन्ते 8 यस्मात्तद्भद्रान्तं-मोक्षप्रापकमित्यर्थः, अथवा हे वीर हे भद्रेति संबोधनपदद्वयं जीवस्योत्साहवृद्धिहेतुः, 'अंत'मिति जीवितान्तं यावदेवैतदध्ययनं ध्यायेत्यर्थः, पुनः किंभूतं ?-अवन्ध्यकारणं-सफलकारणं, केषां ?-निवृत्तिः-मोक्षस्तत्सुखानामिति, 'जि'इति पाठे तु जितप्रमादमहारिपुर्योऽसौ वीरभद्रः साधुः श्रीवीरसत्कचतुर्दशसहस्रसाधुमध्यवर्ती तस्येदं | जितं तदेतदध्ययनं ध्यायेत्यादि, एवं शास्त्रकर्तुः समासगर्भमभिधानमुक्तं, अस्य चाध्ययनस्य वीरभद्रसाधुकृतत्वज्ञापनेन यस्य जिनस्य यावन्तो मुनयो वैनयिक्यौत्पत्तिक्यादिबुद्धिमन्तः प्रत्येकबुद्धा अपि तावन्त एव प्रकीर्णकानि अपि तावन्ति भवन्तीति ज्ञापितं भवतीति गाथार्थः ॥ १३ ॥ इतिश्रीचतुःशरणप्रकीर्णकावचूर्णिरियं सम्पूर्णा ॥ CAAAAAAAAACASCACADC दीप अनुक्रम [६२] भा मुनिश्री दीपरत्नसागरेण पुन: संपादित: (आगमसूत्र २४-वृ) “चतु:शरणम्” परिसमाप्तम् । ~ 43~ Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नमः [ 24 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च। “चतुःशरण-प्रकीर्णकसूत्र” [मूलं एवं विजयविमलगणि विहित-वृत्तिः] | (किंचित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: “चत:शरण” मूलं एवं वृत्ति: नामेण / परिसमाप्तम् - Remember it's a Net Publications of jain_e_library's' ~ 44~