Book Title: Yuvayogi Jambukumar Diwakar Chitrakatha 015 Author(s): Rajendramuni, Shreechand Surana Publisher: Diwakar PrakashanPage 32
________________ महाराज ! इसने कल रात मेरे भवन में चोरी करने का प्रयास किया, परन्तु मेरे विचार सुनकर इसका भी हृदय बदल गया है। यह अपने ५०० साथियों सहित दीक्षा लेने के लिए तैयार हुआ है। वाह ! अद्भुत है आपकी वाणी का प्रभाव ! OXOJOWY कूणिक ने नम्र भाव से प्रभव को कहा युवायोगी जम्बूकुमार महानुभाव ! मेरे क्षमादान के लिए तो अब कोई अवकाश ही कहाँ रह गया है? आपने तो स्वयं ही सब कुछ त्याग दिया है। फिर भी मैं आपके सब अपराध क्षमा करता हूँ। आप निर्विघ्न रूप में श्रमण दीक्षा ग्रहण करें। Jain Education International 30 महाराज ! आपसे मेरा एक अनुरोध है-यह प्रभव अपने साथियों सहित दीक्षा ग्रहण करने को तैयार हुआ है। इसलिए इसके पिछले सब अपराध क्षमा कर दें। तभी जनता ने जयनाद किया For Private & Personal Use Only वैरागी जम्बूकुमार की जय ! महाराज कूणिक की जय ! noun CO 1966 Gores www.jainelibrary.orgPage Navigation
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