Book Title: Yoganubhutiya
Author(s): Chandrashekhar Azad
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 4
________________ पंचम खण्ड | २५६ अर्चनार्चन अंगूठे से तात्पर्य है-(१) ब्रह्म (२) ईश्वर (३) परमात्मा। तर्जनी से प्राशय है-(१) मन (२) जीव (३) प्रात्मा । तो जब तक ३ अंगुलियों रूपी दुर्गुणों से मुक्ति न हो तब तक प्रात्मा का परमात्मा में, जीव का ईश्वर में, मन का ब्रह्म में लीन होना संभव नहीं। तीनों से मुक्ति पाने पर ही मन ईश्वर में या आत्मा परमात्मा में लग सकेगा। योगमुद्रा में बैठने पर दोनों हाथ घुटनों पर तने हुए रखना है। जिससे इड़ा व पिंगल नाड़ी पर तनाव पाता है और श्वास सुषुम्नागामी बनता है और ध्यान लगाने में प्रासानी होती है। ___ ध्यान लगने पर दीपमुद्रा या ज्योतिमुद्रा लगानी है। दोनों मध्यमा अंगुलियों को जोड़कर (चिपकाकर) सीधी खड़ी रखनी है एवं शेष सभी अंगुलियाँ अन्दर की प्रोर (मुद्रीनुमा) बन्द रखनी है । इसकी प्राकृति दीपक व बातिवाली की तरह होनी है। इसीसे इसे दीपमुद्रा कहते हैं। ___ इसके बाद जिनमुद्रा का भी प्रयोग कर सकते हैं, जिनमुद्रा यानि दोनों हथेलियां एक दूसरे के ऊपर रखना । अंतिम मुद्रा है आनन्दमुद्रा। दिनांक २९-७-८४, रविवार इस प्रकार प्रार्थना तथा योगमुद्रा में ध्यानस्थ बैठने पर हमारी बुद्धि, श्रद्धा व संकल्प का संयोग होगा व नाभि में ३३ चक्कर डाले हुए कुण्डलिनी सोई है उसका अन्दर के ३ चक्कर मुंह में है, वह खड़ा होगा व शेष तीन चक्कर अपने आप खुल जायेंगे । यहीं से प्रात्मदर्शन होते हैं। ___ हमें ईश्वर के दर्शनमात्र से संतोष नहीं करना है, क्योंकि जब वे दर्शन देकर चले जायेंगे तो पुनः वियोग का दुःख होगा। अतः उन्हीं में विलीन होने की यह साधना है, प्रयास है। हम जब प्रात्मा में विलीन हो जायेंगे तो प्रानन्द ही प्रानन्द रहेगा जो कभी समाप्त नहीं होगा। ध्यान देने योग्य बातें प्रातः उठने के समय, सोने से पहले, खाने के पहले, ध्यान के पहले मौन रखें व ईश्वर का स्मरण करें। हमेशा पूर्व या उत्तर की ओर मुंह करके बैठे। क्योंकि इन दिशामों में शुक्लपक्षी जीवधारी रहते हैं। दक्षिण व पश्चिम में अधम प्रवृत्ति के जीव रहते हैं । प्रतः उधर हमारा मन स्थिर नहीं होगा। शुद्ध दिशा में शुद्ध वातावरण में मन अधिक तीव्रता से शुद्ध व स्थिर रहता है। जैसे एक गंदी बस्ती की झोपड़ी व एक साधु की कुटिया इन दोनों में से हमारा मन साधु की कुटिया में अधिक लगेगा। इसी प्रकार इन दिशाओं का है। दिनांक ५ अगस्त ८४, रविवार योग १० प्रकार के हैं, उनमें से पहला है, 'खांतायोग'। प्रारम्भ प्रार्थना से ही करना है। इसके कुल ५ साधन हैं-(१) प्रार्थना (२) योगमुद्रा (३) ज्योतिमुद्रा (४) जिनमुद्रा (५) आनन्दमुद्रा। हमारा उद्देश्य यह अंतिम मुद्रा है। स्थिर आनन्द हमें प्राप्त करना है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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