Book Title: Yoganubhutiya
Author(s): Chandrashekhar Azad
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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________________ Jain Education International पंचम खण्ड / २५४ प्रिय पाठको ! लगभग २ वर्ष पूर्व मुझे म. सा. के सान्निध्य का लाभ इन्दौर में प्राप्त हुधा योग विद्यालय के हम ८-१० विद्यार्थी प्रति रविवार प्रातः म. सा. के पास ध्यान का अभ्यास करने हेतु पहुंचते थे। उनके मार्गदर्शन में कई बार ध्यान का अभ्यास भी हम लोगों ने किया था। ध्यान करने के पूर्व की भूमिका पर प्रकाश डालने हेतु आदरणीय म. सा. ने दिनांक २२-७-८४ २९-७-८४एवं ५-८-८४ को जो हमें ज्ञानवर्धक प्रवचन दिया उसमें से घर श्राते- प्राते जितना मेरे लघु मस्तिष्क में बचा रहा, उसे उन्हीं दिनों लिख लिया । यह भी उनकी महिमा है जिसने तब प्रेरणा दी तो ये बातें स्थायी रूप से सुरक्षित रह पायीं । उन्हीं प्रवचनों का सारांश मैं उन लोगों के लाभार्थ यहाँ लिखने जा रही है जो अभी प्रत्यक्षतः म. सा. के सम्पर्क में नहीं था पाये हैं। हो सकता है, उन्हें भविष्य में ऐसा सौभाग्य प्राप्त हो और वे प. पू. म. सा. के दर्शन कर सकें। तब तक उन्हीं ( म. सा.) के द्वारा प्रवाहित ज्ञानगंगा की कुछ बूंदें आपके लिए समर्पित हैं दिनांक २२-७- ८४, रविवार मनुष्य को मन प्राप्त है, इसलिए वह मनन कर सकता है। बुद्धि है इसलिए सोच सकता है कि उसके जीवन का लक्ष्य क्या है ? उसे कहाँ तक जाना है ? क्या प्राप्त करना है ? मनुष्य का जीवन तभी सफल हो सकेगा जब वह अपने आत्मा का ज्ञान प्राप्त करे, प्रात्मानन्द प्राप्त करने का प्रयास करे और उसे प्राप्त कर ले। किन्तु यह इतना श्रासन नहीं है। इसके लिए श्रावश्यक है आसनस्थ तन, आत्मस्थ मन, तभी होगा आश्वस्त जन अर्थात् जब मनुष्य का शरीर एक आसन पर स्थिर रहने लायक बन जाए, मन प्रन्तर्मुख हो जाए तभी वह यह आशा करने की स्थिति में भ्राता है कि वह उस मार्ग पर अग्रसर हो सकेगा । परमात्मा तक पहुँचने के लिए आवश्यक है श्रद्धा होना, उसका स्थिरीकरण होना और तीसरी बात है आत्मरमण याने धात्मा में रमण करने की प्रादत हो जाए तब मार्ग सुलभ हो जाता है । । अब प्रश्न है श्रद्धा करें तो किस पर करें ? श्रद्धा को स्थिर करने हेतु प्राधार की आवश्यकता है। ये प्राधार तीन हैं-देव, गुरु और धर्म-अब यह जानना भी आवश्यक है कि हम देव किसे कहें ? वेब वह होगा जिसे असीमित ज्ञान हो, जिसके समस्त दोष प्रतीत में समाप्त हो गए हों याने जो वीतरागी हो तथा जिसके वचन ऐसे हों कि कोई किसी भी प्रकार से उसे प्रसिद्ध न कर सके । जिसमें दिव्यगुण हों। जो न तो प्रसन्न हो, न रुष्ट हो उसे देव कहेंगे । ऐसे देव हम देख नहीं सकते परंतु उनकी सत्ता को अनुभव कर सकते हैं। हमें देव तक पहुँचने का मार्ग गुरु बताता है । गुरु, धर्म व देव के बीच की कड़ी है । गुरु ३ प्रकार के हैंशिक्षा गुरु, दीक्षा गुरु व समर्थ गुरु गुरु कभी भी अपने शिष्य को अपनी शरण में जाने के लिए नहीं कहेगा । वह हमें रास्ता बताता है । देव व गुरु हमारे साधन हैं, जिनके माध्यम से हम आत्मा तक पहुँचते हैं । उसे पहचान सकते हैं । श्रात्मदर्शन होने पर देव भी पीछे रह जाते हैं व गुरु भी । जिस प्रकार समुद्र पार करने के लिए हमें किसी की व नाविक की आवश्यकता For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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