Book Title: Yoga ka Adhikari Haribhadriya yog ke Sandarbh me Author(s): Aruna Anand Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf View full book textPage 6
________________ १६२ कु० अरुणा आनन्द अभिमत से भिन्न-भिन्न सम्प्रदायों में देवों के नाम पर होने वाले मतभेद को दूर करने का सर्वसमन्वय सूचक मार्ग प्रशस्त होता है । गुरु एवं देव को यहाँ पूजनीय बताया गया है परन्तु वह पूजन किस प्रकार का होता है । इस सम्बन्ध में यह जानना आवश्यक है कि पूजन दो प्रकार का होता है - द्रव्यतः और भावतः । विशिष्ट वस्तु के उपचार से किसी देव का पूजन करना द्रव्य पूजा है और भावपूर्वक मन में उनको स्थान देना भाव पूजा है । अपना सर्वस्व देव को अर्पित करना और यथासामर्थ्य उनकी भक्ति करना, पुष्पादि द्रव्यों अथवा भाव पुष्पों से उनकी पूजा करना-ये सब देव पूजन के अन्तर्गत आते हैं ।" धन को तीर्थादिक शुभ स्थान में व्यय करना, देव के लिए सुन्दर मन्दिर बनवाना, बिम्ब स्थापित करवाना आदि भी देवपूजन कहलाते हैं । (२) दान साधक के मन में त्याग की भावना जागृत करने के लिए “दान" भी एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक कर्तव्य है । आचार्य हरिभद्र के अभिमतानुसार रोगी, अनाथ, निर्धन आदि निस्सहाय वर्ग को उनकी आवश्यकता की वस्तुएँ देकर उनकी सहायता करनी चाहिए। परन्तु दान देते समय यह ध्यान में रखना अत्यन्त आवश्यक है कि पुण्य के लोभ में बिना विचारे दान देने में अपने आश्रित जनों की उपेक्षा न होने लगे । (३) सदाचार - योग के साधक के लिए नीति के उत्तम नियमों का पालन करना भी अत्यन्त आवश्यक है । आचार्य हरिभद्र ने योग-साधक के लिए अनुसरणीय कुछ नियमों का उल्लेख किया जिन्हें सदाचार भी कहा जाता है । ये नियम हैं- सब प्रकार की निन्दा का त्याग करता साधु पुरुषों का गुणगान करना, विपत्ति के समय भी दीनता अंगीकार न करना और सम्पत्ति होने पर भी अभिमान न करना, समयानुकूल बोलना, सत्य बोलना और वचन का पालन करना, अशुभ कार्यों में धन और पुरुषार्थ न लगाना, कुल-क्रमागत धार्मिक कृत्यों का अनुसरण करना, प्रमाद का त्याग करना, लोक व्यवहार में उपयोगी और लोक व्यवहारानुसार, यथा योग्य नियमानुकूल विनय, नमन, दान इत्यादि का परिपालन करना, निन्दनीय कार्य न करन इत्यादि । उक्त नैतिक गुणों का पालन करने वाला व्यक्ति ही योग का वास्तविक अधिकारी बनने योग्य होता है । योगाधिकारी नैतिक दृष्टि से तनिक भी पतित नहीं होता ( ४ ) तप तप में चित्त को योग साधनार्थ समर्थ बनाने की शक्ति निहित है । इसलिए आचार्य १. योगबिन्दु १११-११६; योगदृष्टिसमुच्चय २२, २३, २६, २९, २. योगबिन्दु ११५ ३. योगबिन्दु १२३ ४. पोष्यवर्गाविरोधेन न विरुद्धं स्वतश्चयत् । ५. योग बिन्दु - १२६-१३० Jain Education International For Private & Personal Use Only योगबिन्दु १२१ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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