Book Title: Yoga ka Adhikari Haribhadriya yog ke Sandarbh me
Author(s): Aruna Anand
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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Page 5
________________ योग का प्रारम्भिक अधिकारी १६१ गिरति अज्ञानम् इति गुरुः- इस नियुक्ति के अनुसार जो अज्ञान का नाश करता है वह गुरु है।' आचार्य हरिभद्र के शब्दों में "गणाति शास्त्रार्थम इति गरुः अर्थात शास्त्र के अर्थ को कहने वाले अथवा शास्त्रानुसार उपदेश देने वाले को "गुरु" कहते हैं। जैन शास्त्रों के अनुसार यद्यपि कल्याण मार्ग के उपदेशक भगवान् जिनेन्द्र ही साक्षात् गुरु हैं तथापि परवर्ती छद्मस्थ ज्ञानवान् व्यक्ति भी अपने विशिष्ट गुणों के कारण कल्याण मार्ग के उपदेशक होने से "गुरु" की श्रेणी में गिने जाने योग्य हैं। आचार्य हरिभद्र ने गुरु वर्ग में मातापिता कलाचार्य ( लौकिक विद्यायें एवं अन्य कलाएँ सिखाने वाला ), सम्बन्धी, विप्र, वृद्धपुरुष, तथा धर्मोपदेष्टा--इन सभी को परिगणित किया है और योगसाधक को यह निर्देष दिया है कि वह केवल अपने धर्म-गुरु को ही गुरु मानकर उनकी सेवा करने की अपेक्षा इन सब के प्रति भी गुरु-भाव रखे क्योंकि ये सभी किसी न किसी रूप में मनुष्य का मार्ग निर्देश करते हैं। "गुरु" पद का क्षेत्र व्यापक है। इसमें तीर्थंकर, अर्हन्त, आचार्य, साधु और देवपांचों अर्थ समाहित हैं। उक्त सभी परमेष्ठी देव साधक के लिए आराध्य, आदरणीय, पूजनीय व उपास्य हैं । ५ “देव" शब्द का अर्थ है-दीव्यन्ते स्तूयन्ते जगत्त्रयेण अपि इति देवाः६ अर्थात् जो तीनों लोकों में दीप्यमान है, पूज्य है, स्तुत्य है वह देव है। आचार्य हरिभद्र ने "देव" को एक ऐसा आधारभूत तत्त्व माना है जिस पर किसी दर्शन व धर्म विशेष का अन्य धर्म से मौलिक भेद आश्रित है।' आध्यात्मिक/योग-मार्ग के पथिक के लिए आचार्य हरिभद्र ने यह उपदेश दिया है कि सभी देव समान रूप से आदरणीय एवं पूजनीय होते हैं। अतः किसी देव-विशेष में आस्था होने पर भी अन्य देवों के प्रति द्वेष-भाव नहीं रखना चाहिए। आचार्य हरिभद्र के उक्त 1. द्रष्टव्य-वाचस्पत्यम् कोष २. आवश्यक नियुक्ति, हरिभद्र वृत्ति १७९; नन्दीसूत्र, हरिभद्र वृत्ति, पृ० ३; श्रावकप्रज्ञप्ति गा० १ पर स्वोपज्ञ वृत्ति, उत्तराध्ययनचूणि पू०२ ३. लाटी संहिता, ४/१४२-४४; पंचाध्यायी २१६२०-२१ 1. माता-पिता कलाचार्य एतेषां ज्ञातयस्तथा । वृद्धा धर्मोपदेष्टारो गुरुवर्गः सतां मतः ।। योगबिन्दु ११० 1. रत्नकरण्ड श्रावकचार ११९, १३७; योगशास्त्र (हेमचन्द) २१५, ३।१२२-१३०; योगदृष्टिसमुच्चय २३,२६ 1. उत्तराध्ययन, शान्त्याचार्य टीका (पत्र ६।६) .. षड्दर्शनसमुच्चय, कारिका गुणाधिक्य-परिज्ञानाद् विशेषेप्येतदिष्यते । अद्वषेण तदन्येषां, वत्ताधिक्यं तथामनः ।। अविशेषेण सर्वेषामधिमुक्तिवशेन वा । गृहिणां माननीया यत् सर्वे देवा महात्मनाम् ॥ सर्वान्देवान्नमस्यन्ति, नैकं देवं समाश्रिताः । जितेन्द्रिया जितक्रोधा दूर्गाण्य तितरन्ति ते ॥ योगबिन्दु १२०, ११७, ११८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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