Book Title: Yoga ka Adhikari Haribhadriya yog ke Sandarbh me
Author(s): Aruna Anand
Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf

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Page 1
________________ योग का अधिकारी : हरिभद्रीय योग के संदर्भ में कुमारी अरुणा आनन्द भारतीय संस्कृति की यह अवधारणा है कि सभी प्राणियों को परमात्मपद मोक्ष की उपलब्धि नहीं होती । विविध योनियों में जन्म-मरण के अनन्त आवर्तों को पार करता हुआ प्राणी जब कर्म - भूमि में मनुष्य योनि प्राप्त करता है तभी उसे अध्यात्म साधना के माध्यम से मोक्ष प्राप्त करने का अवसर सुलभ होता है अन्यथा नहीं । मनुष्य योनि में भी सभी प्राणियों को मोक्ष प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त नहीं होता । असंख्य मनुष्यों में कोई विरला ही प्राणी अध्यात्म-साधना की ओर उन्मुख होता है । मनुष्य की स्वाभाविक योग्यता एवं कर्म सिद्धान्त के आधार पर जैन परम्परा में मोक्ष प्राप्त करने का अधिकार केवल भव्य जीव १. गायन्ति देवाः किल गीतकानि धन्यास्तु ते भारत भूमि भागे । स्वर्गापवर्गास्पदमार्गभूते भवन्ति भूयः पुरुषः सुरत्वात् ॥ विष्णु पुराण २।३।२४ तुलना, स्थानांगसूत्र ३-३ (ख) भागवतपुराण ५/७/११ २. इयं हि योनिः प्रथमा यां प्राप्य जगतीपते । आत्मा वै शक्यते तातुं कर्मभि: शुभलक्षणैः । महाभारत, शान्तिपर्व, २९७/३२ (ख) भागवतपुराण ११/९/२९ ३. गीता ७/३ ४. ( क ) अर्हदिभः प्रोक्ततत्त्वेषु प्रत्ययं संप्रकुर्वते । श्रद्धावन्तश्च तेष्वेव रोचन्ते ते च नित्यशः ॥ अनादिनिधने काले निर्यास्यन्ति त्रिभिर्युताः । भव्यास्ते च समाख्याता हेमधातुसमाः स्मृताः । (ख) सम्यग्दर्शनादिभिर्व्यक्तिर्यस्य भविष्यतीति भव्यः । (ग) भव्या : अनादिपारिणामिकभव्यभावयुक्ता । (घ) भव्वा जिणेहिं भणिया इह खलु जे सिद्धिगमणजोगाउ । ते पुण अणाइपरिणामभावओ हुति णायव्वा || Jain Education International For Private & Personal Use Only वराङ्गचरित, २६/१०-११ सर्वार्थसिद्धि ८/६ नन्दीसूत्र हरिभद्रवृत्ति, पृ० ११४ श्रावकप्रज्ञप्ति, ६६ www.jainelibrary.org

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