Book Title: Yoga ka Adhikari Haribhadriya yog ke Sandarbh me Author(s): Aruna Anand Publisher: Z_Parshvanath_Vidyapith_Swarna_Jayanti_Granth_012051.pdf View full book textPage 4
________________ १६० कु० अरुणा आनन्द कहा गया है' । क्योंकि इसमें मोहनीयकर्म के तीव्र भाव की कालिमा रूपी कृष्णपक्ष का अन्धकर नष्ट हो जाता है और आत्मा के स्वाभाविक गुणों के आविर्भाव रूप शुक्लपक्ष का प्रकाश उदित होने लगता । उक्त स्थिति सम्यग्दर्शन प्राप्त होने से पूर्व की है । इसीलिये अपुनबन्धक को सम्यग्दृष्टि से भिन्न समझना चाहिये । प्रारम्भिक योगाधिकारी की अनिवार्य योग्यता जिस प्रकार, किसी कार्य को प्रारम्भ करने से पूर्व आवश्यक तैयारी के रूप में उस कार्य को करने की योग्यता अर्जित करनी पड़ती है उसी प्रकार अध्यात्म / योग-साधना प्रारम्भ करने से पूर्व भी प्रारम्भिक योग-साधक को कुछ ऐसे कर्तव्यों का पालन करना चाहिए जिनसे योग-साधना के लिये योग्य मनोभूमि तैयार हो जाए । प्रायः ऐसा देखा जाता है कि कभी-कभी मनुष्य आध्यात्मिकता के नाम पर अवश्य आचरणीय सामाजिक कर्तव्यों को जानबूझ कर छोड़ देता है, जिससे आध्यात्मिक मार्ग अवरुद्ध हो जाता है । इसलिये आचार्य हरिभद्र ने योग-साधना प्रारम्भ करने से पूर्व सामान्य गृहस्थ साधक के लिए आचरणीय कुछ आवश्यक नियमों का विधान किया है जो योगबिन्दु में पूर्व सेवा, योगदृष्टिसमुच्चय में योग बीज तथा योग शतक में लौकिक धर्म" के नाम से वर्णित हैं । पूर्वसेवा में उक्त नियमों का इतना व्यापक एवं स्पष्ट रूप से चित्रण हुआ है कि योग बीज एवं लौकिक धर्म में उल्लिखित कर्तव्य कर्म भी उसी में अन्तर्भूत हो जाते हैं । पूर्व सेवा में गुरुदेवादि पूज्य वर्ग की सेवा, दीन जनों को दान देना, सदाचार, तप और मुक्ति के प्रति अद्वेष भाव आदि क्रियाएँ समाविष्ट हैं । ६ इनका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है ( १ ) देव- गुरु पूजन योग के साधक के लिए सर्वप्रथम यह जानना आवश्यक है कि शास्त्रों द्वारा केवल योग के सैद्धान्तिक पक्ष का ज्ञान होता है । योग के व्यावहारिक पक्ष को जानने के लिए योग्य गुरु का सान्निध्य अपेक्षित है । १. योगबिन्दु — ७२; योगदृष्टिसमुच्चय २४ २. कृष्णपक्षे परिक्षीणे शुक्ले च समुदञ्चति । द्योतन्ते सकलाध्यक्षाः पूर्णानन्दविधोः कलाः ।। ज्ञानसार १८. ३. योगबिन्दु १०९-१४९ ४. योगदृष्टिसमुच्चय २२, २३, २७, २८ ५. योगशतक २५, २६ ६. ( क ) पूर्वसेवा तु तन्त्रज्ञैर्गुरुदेवादिपूजनम् । सदाचारस्तपो मुक्त्यद्वषश्चेह प्रकीर्तिता ।। योगबिन्दु १०९ (ख) पढमस्स लोगधम्मे परपीडावज्जणाइ ओहेणं । दीणदाणाइ गुरुदेवातिहिया Jain Education International अहिगिच्च ॥ योगशतक - २५ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8