Book Title: Yoga Shastram
Author(s): Subodhsuri, Ruchaksuri
Publisher: Dharmbhaktipremsubodh Granthamala Prakashan Samiti

View full book text
Previous | Next

Page 807
________________ यगशाखम्। दशमः। प्रकाशः। // 752 // O च्छुभः। स्मशानजागलारण्यप्रभृतावशुभः पुनः // 3 // काले त्वशीतलानुष्णे वसन्तादौ रतेः शुभः। उष्णे शीते ग्री मे हेमन्तादौ भ्रमणतोऽशुभः // 4 // मनःप्रसादसन्तोषादिभावेषु शुभो भवेत् / क्रोधाहकाररौद्रत्वादिभावेध्वशुभः पुनः // 5 // सुदेवत्वभोगभूमिमानुष्यादिभवे शुभः / कुमर्त्यतिर्यङ्नरकादिभवेष्वशुभः पुनः // 6 // अपिचउदयक्षयक्षयोपशमोपशमाः कर्मणां भवन्त्यत्र / द्रव्यं क्षेत्र कालं भावं च भवं च संप्राप्य // 7 // इति द्रव्यादिसामग्रीयोगात्कर्माणि देहिनाम् / स्वं स्वं फलं प्रयच्छन्ति तानि त्वष्टव तद्यथा // 8 // जन्तोः सर्वज्ञरूपस्य ज्ञानमावियते सदा / येन चक्षुःपटेनेव ज्ञानावरणकर्म तत् // 6 // मतिश्रुतावधिमनःपर्यायाः केवलं तथा / यदात्रियन्ते ज्ञानानीत्येतज्ज्ञानावृतेः फलम् // 10 // पञ्चनिद्रा दर्शनानां चतुष्कस्यावृतिश्च या / दर्शनावरणीयस्य विपाकः कर्मणः स तु // 11 // यथा दिदृक्षुः स्वाम्यत्र प्रतीहारनिरोधतः। न पश्यति स्वमप्येवं दर्शनावरणोदयात् // 12 // मधुलिप्तासिधारामास्वादाभं वेद्यकर्म यत् / सुखदुःखानुभवनस्वभाव परिकीर्तितम् // 13 // सुरापाणसम प्राज्ञा मोहनीयं प्रचक्षते / यदनेन विमृढात्मा कृत्याकृत्येषु मुह्यति // 14 // तत्रापि दृष्टिमोहाख्य मिथ्यादृष्टिविपाककृत् / चारित्रमोहनीयं तु विरतेः प्रतिषेधनम् // 15 // तृतियङ्नारकामर्त्य भेदादायुश्चतुर्विधम् स्वस्वजन्मनि जन्तूनां धारकं गुप्तिसन्निभम् // 16 // गतिजात्यादिवैचित्र्यकारि चित्रकरोपमम् नामकर्म विपाकोऽस्य शरीरेषु शरीरिणाम् // 17 // उचैनीचैर्भवेदगोत्रं कर्मोच्चोंचगोत्रकूत् / क्षीरभाण्डसुराभाण्डभेदकारि कुलालवन // 18 // दानादिलब्धयो येन न फलन्ति विबाधिताः॥ तदन्तरायं कर्म स्याद्भाण्डागारिकसनिमम् // 13 // 18 इति मूलप्रकृतीनां विपाकास्तान् विचिन्वतः। विपाकविचयं नाम धर्मध्यान वर्तते // 20 // 13 // // 752 //

Loading...

Page Navigation
1 ... 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831 832 833 834 835 836 837 838 839 840 841 842 843