Book Title: Vyakhya Pragnapti Sutra Author(s): Dharmchand Jain Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 7
________________ | 172 जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क आत्मा का स्वरूप ज्ञान एवं दर्शनरूप है। जब ज्ञान के सम्यक् रूप पर आवरण आ जाता है तब उसे अज्ञानरूप कहा गया है। वास्तव में तो आत्मा ज्ञानदर्शन स्वरूप ही है। इसे ही उपयोगमयत्व भी कहा गया है। __ व्याख्याप्रज्ञप्तिसूत्र में जीव संबंधी विस्तृत चर्चा मिलती है। जीवों की चार गतियाँ एवं २४ दण्डक हैं। व्याख्याप्रज्ञप्ति में बहुत सी चर्चा २४ दण्डकों में हुई है। २४ दण्डक हैं- सप्तविध नारकियों का १ दण्डक, देवों के १३ टण्डक (भवनपति के १० दण्डक, वाणव्यन्तर ज्योतिषी एवं वैमानिक के ३ दण्डक) पृथ्वीकायिक आदि पांच स्थावरों के ५ टण्डक, विकलेन्द्रिय (द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय एवं चतुरिन्द्रिय) के ३ उदण्डक, तिर्यंच पचेन्द्रिय का १ दण्डक, मनुष्य का १ दण्डक। २४वें शतक में इन २४ दण्डकों का २० द्वारों से निरूपण किया गया है। २० द्वार हैं- १. उपपात २. परिमाण ३. संहनन ४. ऊँचाई ५ . संस्थान ६. लेश्या ७. दृष्टि ८. ज्ञान, अज्ञान ९. योग १०. उपयोग ११. संज्ञा १२. कषाय १३. इन्द्रिय १४. समुद्घात १५. वेदना १६. वेद १७. आयुष्य १८.अध्यवसाय १९. अनुबन्ध २०. काय संवेध! सप्तम शतक के षष्ठ उद्देशक में प्रतिपादित किया गया कि अगले भव के आयुष्य का बन्ध इसी भव में हो जाता है, किन्तु उसका वेदन अगले भव में उत्पन्न होने के पश्चात् होता है। जीव के द्वारा गर्भ में सर्वप्रथम माता के ओज (आर्तव) एवं पिता के शुक्र का आहार किया जाता है, तदनन्तर वह माता द्वारा गृहीत आहार के एक देश के ओज को ग्रहण करता है। एक प्रश्न किया जाता है कि क्या गर्भ में रहे हुए जीव के मलमूत्रादि यावत् पित्त नहीं होते हैं ? इसका उत्तर देते हुए कहा गया गौतम! गर्भ में जाने पर जीव जो आहार करता है, जिस आहार का चय करता है, उस आहार को श्रोत्रेन्द्रिय के रूप में यावत् स्पर्शेन्द्रिय के रूप में तथा हड्डी, मज्जा, केश, दाढी, मूंछ, रोम और नखों के रूप में परिणत करता है। इस कारण से गौतम! ऐसा कहा जाता है कि गर्भ में रहे हुए जीव के मल-मूत्रादि यात पित्त नहीं होते हैं। (शतक १ उद्देशक ७) गर्भगत जीव मुख से कवलाहार नहीं करता है। वह सब ओर से आहार करता है, सारे शरीर से परिणमाता है, बार-बार उच्छ्वास लेता है, बार-बार नि:श्वास लेता है, कभी आहार करता हैं, कभी परिणमाता है, कभी उच्छ्वास लेता है, कभी नि:श्वास लेता है तथा संतति के जीव को रस पहुँचाने में कारणभूत और माता के रस लेने में कारणभूत जो मातृजीवसहरणी नाम की नाड़ी है उसका माता के जीव के साथ संबंध है और सन्तति के जीव के साथ स्पृष्ट है, उस नाड़ी द्वारा वह गर्भगत जीव आहार लेता है और आहार को परिणमाता है । (शतक १ उद्देशक ७) भगवती सूत्र की विषयवस्तु को संक्षेप में समेटना कठिन है। इसके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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