Book Title: Vyakhya Pragnapti Sutra
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 10
________________ व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र :.., 175 हो जाती है। इसका संभावना नहीं की जा सकती कि प्रस्तुत आगम में निर्देशित विषय पहले विस्तृत रूप में थे और संकलन काल में उन्हें संक्षिप्त किया गया और उनका विस्तार जानने के लिए अंगबाह्य सूत्रों का निर्देश किया गया। अंगबाह्य सूत्रों में अंगों का निर्देश किया जा सकता था, किन्तु अंगसूत्रों में अंगबाह्य सूत्रों का निर्देश कैसे किया जा सकता था? वह किया गया है। इससे स्पष्ट है कि उन निर्देशों से संबंधित विषय प्रस्तुत आगग में जोड़कर उसे व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया गया है।'' आचार्य महाप्रज्ञ आगे लिखते है- "भगवती के मूलपाठ और संकलन काल में परिवर्धित पाठ का निर्णय करना यद्यपि सरल कार्य नहीं है, फिर भी सूक्ष्म अध्यवसाय के साथ यह कार्य किया जाए तो असम्भव भी नहीं।' इस संदर्भ में उपर्युक्त तीनों मनीषियों के विचार महत्त्वपूर्ण हैं, किन्तु हमें इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि अंग आगमों एवं उपांग आगमों को अन्तिम रूप देवर्द्धिगणी ने अपनी वाचना में दिया है। उन्हें समस्त आगमों एवं उनकी विषयवस्तु की पूर्ण जानकारी थी। अत: उन्होंने या तो भगवतीसूत्र के अतिविशाल आकार को संक्षिप्त करने की दृष्टि से अंगबाह्य आगमों में आगत विषय का अतिदेश भगवतीसूत्र में कर दिया हो या फिर अंगबाह्य आगमों में चर्चित संबद्ध विषय को भगवती में सम्मिलित करने की दृष्टि से यथावश्यक अतिदेश कर उन्हें जोड़ दिया हो। ऐसा करने में उनका अपना विवेक ही प्रमुख कारण प्रतीत होता है। व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र की कतिपय विशेषताएँ इस प्रकार हैं१. यह अंगप्रविष्ट एवं अंगबाह्य आगमों में आकार में सबसे बड़ा है। २. इसमें जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, लोक, अलोक, स्वसमय, परसमय आदि के संबंध में सूक्ष्म जानकारियाँ विद्यमान हैं। ३. प्रश्नोत्तर शैली में यह आगम स्थूल से सूक्ष्मता की ओर ले जाता है। जीव, उसके श्वासोच्छ्वास, आहार, गर्भ, आदि के संबंध में तथा परमाणु के संबंध में इस आगम में आश्चर्यजनक सूचनाएँ उपलब्ध हैं। ४. अधिकांश प्रश्न गणधर गौतम के द्वारा पूछे गए हैं तथा उनके उत्तर भगवान महावीर द्वारा दिये गए हैं। रोह, जयन्ती आदि के द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर भी भगवान महावीर ने दिए हैं। ५. प्रश्नों का उत्तर देते समय विभज्यवाद एवं स्याबाद की शैली अपनायी गई है। प्रश्नों को कतिपय खण्डों में विभक्त कर उत्तर देना विभज्यवाद है तथा 'सिया' (स्यात) पद के प्रयोगपूर्वक उत्तर देना स्यादवाद है। उत्तर देते समय भगवान महावीर की दृष्टि में अनेकान्तवाद निहित रहता है। इसलिए वे किसी दृष्टिकोण विशेष से भिन्न-भिन्न प्रकार के उत्तर देते हैं, यथा द्रव्य एवं क्षेत्र की अपेक्षा लोक सान्त है तथा काल एवं भाव की अपेक्षा लोक अनन्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 8 9 10 11 12