Book Title: Vyakhya Pragnapti Sutra
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 9
________________ 174 जिनवाणी-- जैनागम साहित्य विशेषाङ्क लिपिबद्ध किए गए। ऐसा प्रतीत होता है कि आगमों को लिपिबद्ध करते समय इस नियम का पालन करना आवश्यक नहीं समझा गया कि जिस अनुक्रम से आगमों की रचना हुई है, उसी क्रम से उनको लिपिबद्ध किया जाय। इसके परिणामस्वरूप पश्चाद्वर्ती काल में रचित कतिपय आगमों का लेखन सुविधा की दृष्टि से पहले सम्पन्न कर लिया गया।..... .. पश्चाद्वर्ती आगम होते हुए भी जो पहले लिपिबद्ध कर लिए गए थे और उनमें पूर्ववर्ती जिन आगमों के जो-जो पाठ अंकित हो चुके थे उन पाठों की पुनरावृत्ति न हो, इस दृष्टि से बाद में लिपिबद्ध किए जाने वाले पूर्ववर्ती आगमों में 'जहा नन्दी' आदि पाठ देकर पश्चाद्वर्ती आगमों और आगमपाठों का उल्लेख कर दिया गया। यह केवल पुनरावृत्ति को बचाने की दृष्टि से किया गया। इससे मूल रचना की प्राचीनता में किसी प्रकार की किंचित् मात्र भी न्यूनता नहीं आती। हो सकता है उस समय आगमों को लिपिबद्ध करते समय पुनरावृत्ति के दोष से बचने के साथ-साथ इस विशाल पंचम अंग व्याख्याप्रज्ञप्ति के अतिविशाल स्वरूप एवं कलेवर को थोड़ा लघुस्वरूप प्रदान करने की भी उन देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण आदि आचार्यों की दृष्टि रही हो ।' पं. दलसुख मालवणिया ने यह समाधान इस प्रकार किया है "यह भी कह देना आवश्यक है कि ऐसा क्यों नहीं किया गया। जैन परम्परा में यह एक धारणा पक्की हो गयी है कि भगवान् महावीर ने जो कुछ उपदेश दिया वह गणधरों ने अंग में ग्रथित किया। अर्थात् अंगग्रन्थ गणधरकृत हैं और तदितर स्थविरकृत हैं। अतएव प्रामाण्य की दृष्टि से प्रथम स्थान अंग को मिला है। अतएव नयी बात को भी यदि प्रामाण्य अर्पित करना हो तो उसे भी गणधरकृत बताना आवश्यक था। इसी कारण से उपांग की चर्चा को भी अंगान्तर्गत कर लिया गया। यह तो प्रथम भूमिका की बात हुई, किन्तु इतने से संतोष नहीं हुआ तो बाद में दूसरी भूमिका में यह परम्परा भी चलाई गई कि अंगबाह्य भी गणधरकृत हैं और उसे पुराण तक बढ़ाया गया। अर्थात् जो कुछ जैन नाम से चर्चा हो, उस सबको भगवान् महावीर और उनके गणधर के साथ जोड़ने की यह प्रवृत्ति इसलिए आवश्यक थी कि यदि उसका संबंध भगवान् और उनके गणधरों के साथ जोड़ा जाता है तो फिर उसके प्रामाण्य के विषय में किसी को सन्देह करने का अवकाश मिलता नहीं है। इस प्रकार चारों अनुयोगों का मूल भगवान् महावीर के उपदेश में ही है, यह एक मान्यता दृढ हुई।" आचार्य महाप्रज्ञ ने भगवतीसूत्र में उपांगों के अतिदेश के संबंध में भिन्न रीति से विचार करते हुए उसे भगवती में परिवर्धित विषय माना है"" जहां जहां प्रज्ञापना, जीवाजीवाभिगम आदि का निर्देश है वे सब प्रस्तुत आगम में परिवर्धित विषय हैं। यह कल्पना उन प्रकरणों के अध्ययन से स्पष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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