Book Title: Vividh Bhas Rachnao
Author(s): Shilchandrasuri
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 6
________________ 28 अनुसन्धान ३५ धर्मदत्ता बुध सामीया निजधर्म जगंदा मुनीचंद्रनाथजी सामीया जय पर्म आणंदा ॥७॥ इति श्रीधर्मदत्तदेवप्रकासिते निजआराधभावना भासवांणी ॥ देव निरंजननें आराहो रे, श्रीभगवंत ध्यान में ध्यायो रे । परीब्रह्म पुराण पूरुष कहीजे रे, अलख निरंजन ध्यान धरीजे रे ॥१॥ जलहल ज्योतिमें ज्योति विराजे रे, सत्य चिदानंद पुरण छाजे रे । अगम अगाध में नीगम कहीजे रे, ध्येयधणी जगदीश लहीजें रे ।।२।। अलख अगोचर आप कहीजे रे, परीब्रह्म नीगमनो वेद भणीजे रे । शिवपद सासण सिध कलांण रे, नाम नारायण ज्योति वखांण रे ॥३॥ श्रीबुधदेव छे केवलसामी रे, पंच परीब्रह्म छे बहुनांमी रे ।। सिध भगवंत ठे सास्वतराया रे, निज जिनदेव प्रभुजी कहाया रे ॥४॥ पर्म अगोचर पारने पार रे, सिध भगवंत अनादि अपारे रे । श्रीबुध सासण साश्वत सिधो रे, सतर कलायुग आदि प्रसीधो रे ।।५।। अक्षरातीत ने पार पार रे, निगम माहा तिहां वेद विचार रे । निजपदभेद अगम बुधराया रे, श्रीमाहाराज्य महासिधराया रे ॥६॥ धर्म अखंडीत छे जिहां साचो रे, केवल प्रेम माहारश राचो रे । जोति झलामल जलहर(ल) दीपे रे, त्रिगढ संघासण नाथजी ओपे रे ॥७॥ पीर परम निज पारनो गायो रे, श्रीसीध मंडल ज्योति में गायो रे । परम अगोचर श्रीबुधराया रे, धर्मधुरंधर नाथ कहाया रे ॥८॥ नव रससामीनी सेवा कीजे रे, अगम आराहण ध्यान धरीजे रे । मुनीचंद्रनाथजी जगगुरु राया रे, धर्मदत्ता गुरु अविचल गाया रे ।।९।। इति श्री धर्मदत्तदेवप्रकासिके माहापर्मपदसिध आराधना भासवांणी संपूर्णः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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