Book Title: Visuddhimaggo Part 01
Author(s): Dwarikadas Shastri, Tapasya Upadhyay
Publisher: Bauddh Bharti

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Page 22
________________ अन्तरङ्गकथा २१ भी न हों तो धुताङ्गधारी से इनको ग्रहण करना चाहिये। इस के भी न होने पर चैत्य को निर्मल कर उत्कुटिक (उकडू) बैठकर, भगवान् के पास बैठे हुए के समान स्वयं ग्रहण करना भी उचित है। १. पांशु का अर्थ है धूल । सड़क, श्मशान या कूड़ा-कर्कट के ढेर पर जहाँ कहीं धूल पर पड़े वस्त्र 'पांशुकूल' कहलाते हैं, उन्हें धारण करने वाला 'पांशुकूलिक' कहलाता है। इसका अङ्ग (नियम) 'पांशुकूलिकाङ्ग' कहलाता है। जो भिक्षु पांशुकूलिकाङ्गव्रत धारण करता है, उसे १. " गृहस्थों द्वारा दिये गये चीवर को त्यागता हूँ”, या २. ‘पांशुकूलिकाङ्ग ग्रहण करता हूँ'- इन दोनों में से एक का अधिष्ठान करना चाहिये । २. भिक्षु के तीन वस्त्र (चीवर) होते हैं - (क) सङ्घाटि, (ख) उत्तरासङ्ग, (ग) अन्तरवासक। जो भिक्षु इन तीन वस्त्रों से अधिक ग्रहण नहीं करता उसे 'त्रैचीवरिक' कहते हैं। उसका यह धुताङ्ग 'त्रैचीवरिकाङ्ग' कहलाता है। ३. भिक्षा के रूप में प्राप्त अन्न या दूसरों के द्वारा दिया हुआ अन्न 'पिण्डपात' कहलाता है । जो पिण्डपात के लिये घर-घर घूमता है उसे 'पिण्डपातिक' कहते हैं। उसका यह धुताङ्ग 'पिण्डपातिकाङ्ग' कहलाता है। ४. ग्राम में विना अन्तर डाले प्रत्येक घर से भिक्षा ग्रहण करने वाला 'सापदानचारिक' कहलाता है। इसका यह अङ्ग 'सापदानचारिकाङ्ग' कहलाता है। ५. एक आसन पर बैठ कर भोजन करने वाला (अर्थात् रात दिन में एक बार भोजन करने वाला) भिक्षु 'ऐकासनिक' कहलाता है। उसका यह व्रत 'ऐकासनिकाङ्ग' कहलाता है। ६. भिक्षार्थ गृहीत पात्र में पड़ा हुआ अन्न 'पात्रपिण्ड' कहलाता है। उस पात्रपिण्ड को ही ग्रहण करने वाले भिक्षु के इस व्रत को 'पात्रपिण्डिकाङ्ग' कहते हैं । ७. 'खलु' इस निपात का प्रयोग यहाँ निषेध अर्थ में है, एक बार भोजन करने के बाद मिले भोजन का निषेध करना 'खलुपश्चाद्भक्त' कहलाता है। इस नियम का पालन 'खलुपश्चाद्भक्तिकाङ्ग' कहलाता है। ८. आरण्यकाङ्ग का अर्थ है -अरण्य (जंगल) में रहने वाला। जो भिक्षु ग्राम, नगर के शयनासन को छोड़ जंगल में रहने का ही नियम धारण करता है, उसका यह नियम 'आरण्यकाङ्ग' कहलाता है। ? ९. ईंट, पत्थर, तृण आदि से बने गृह, कुटी आदि को छोड़कर केवल वृक्ष के नीचे रहना 'वृक्षमूल' कहलाता है। इस नियम को धारण करने वाला भिक्षु 'वृक्षमूलिक' कहलाता है । इस के इस धुताङ्ग को 'वृक्षमूलिकाङ्ग "कहते हैं । १०. छाये हुए गृह, कुटी या वृक्षमूल को छोड़ खुले आकाश के नीचे रहने के व्रत को 'अभ्यवकाशिकाङ्ग' कहते हैं। ११. इसी तरह उपर्युक्त वासयोग्य स्थानों को छोड़कर एक श्मशान में रहने के व्रत को 'श्माशानिकाङ्ग' कहते हैं। १२. 'यह आसन आप के लिये है' यह कह कर पहले से बिछाये आसन को ही ग्रहण करने वाला भिक्षु 'यथासंस्तरिक' कहलाता है। इस के इस नियम को 'यथासंस्तरिकाङ्ग' कहते हैं। १३. सोना, टहलना, खड़ा होना और बैठना- भिक्षु के ये चार ईर्यापथ कहे गये हैं । इन

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