Book Title: Vikramaditya ki Aetihasikta Jain Sahitya ke Sandarbh me
Author(s): Sagarmal Jain
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 5
________________ डिसेम्बर २०११ १२१ (९) गई है, उसमें दश गर्दभिनो नृपाः के आधार पर गर्दभिल्ल वंश के दस राजाओं का उल्लेख है । जैन परम्परा में विक्रम को गर्दभिल्ल के रूप में उल्लेखित किया गया है । (८) विक्रम संवत के प्रवर्तन के पूर्व जो राजा हुए उसमें किसीने विक्रमादित्य ऐसी पदवी धारण नहीं की । जो भी राजा विक्रमादित्य के पश्चात् हुए है- उन्होंने ही विक्रमादित्य का बिरुद धारण किया है - जैसे सातकर्णी गौतमीपुत्र (लगभग ई० सन् प्रथम-द्वितीय शती) चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य (ई. चतुर्थशती) आदि-उन्होंने विक्रमादित्य की यशोगाथा को सुनकर अपने को उसके समान बताने की यशोगाथा के अनुसार अपने को उसके समान बताने हेतु ही यह बिरुद धारण किया है । अतः गर्दभिल्लपुत्र विक्रमादित्य इनसे पूर्ववर्ती हैं। बाणभट्ट के पूर्ववर्ती कवि सुबन्धु ने वासवदत्ता के प्रास्ताविक श्लोक १० में विक्रमादित्य की कीति का उल्लेख किया है । (१०) ई०पू० की मालवमुद्राओ में मालवगण का उल्लेख है, वस्तुतः विक्रमादित्य ने अपने पितृराज्य पर पुनः अधिकार मालवगण के सहयोग से ही प्राप्त किया था, अतः यह स्वाभाविक था कि उन्होंने मालवसंवत के नाम से ही अपने संवत् का प्रवर्तन किया । यही कारण है कि विक्रम संवत् के प्रारम्भिक उल्लेख मालवसंवत् या कृत संवत के नाम से ही मिलते है । (११) विक्रमादित्य की सभा के जो नवरत्न थे, उनमें क्षपणक के रूप में जैनमुनिका भी उल्लेख है, कथानकों में इनका सम्बन्ध सिद्धसेन दिवाकर से जोडा गया है, किन्तु सिद्धसेन दिवाकरके काल को लेकर स्वयं जैन विद्वानों में भी मतभेद है, अधिकांश जैन विद्वान भी उन्हें चौथीपाँचवी शती का मानते है, किन्तु जहाँतक जैन पट्टावलियों का सम्बन्ध है, उनमें सिद्धसेन का काल वीर निर्वाण संवत् ५०० बताया गया है, इस आधार पर विक्रमादित्य और सिद्धसेन की समकालिकता मानी जा सकती है। (१२) मुनि हस्तिमलजीने इनके अतिरिक्त एक प्रमाण प्राचीन अरबी ग्रन्थ

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