Book Title: Vardhaman Jivan kosha Part 2
Author(s): Mohanlal Banthia, Shreechand Choradiya
Publisher: Jain Darshan Prakashan

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Page 347
________________ वर्धमान जीवन-कोश कई श्रमणोपासक निग्रन्थों से कहते हैं कि-हममें यह सामर्थ्य नहीं है कि दीक्षित हो सकें। श्रावक के व्रत पालन कर सकें या संलेखना कर सकें। पर सामायिक व पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण दिशाओं की प्रतिदिन मर्यादा करके, उसके बाहर सब प्राणियों की हिंसा करना छोड़ देंगे और सब प्राण, भूत, जीव और सत्त्व पर क्षेत्र करनेवाले होकर रहेंगे। यदि मर्यादित भूमि के अन्दर के बस जीव -जिनकी हिंसा करना श्रमणोपासक ने जीवन भर के लिए छोड़ दी है - आयु पूर्ण करते हैं मर्यादित भूमि के अन्दर ही बस रूप से उत्पन्न होते हैं, तो श्रमणोपासक का प्रत्याख्यान उनमें सुप्रत्याख्यान होता है। वे प्राणी भी कहलाते हैं तथा वस भी कह नाते हैं अतः श्रावक के प्रत्याग्यान को निविषय बताना न्यायसंगत नहीं है। .२-तत्थ आरेणं जे तसा पाणा, जेहिं समणोवासगम्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिक्वित्ते, ते तओ आउ विप्पजहंति, विप्पजहित्ता तत्थ आरेणं चेव जे थावरा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स अट्ठाए दंडे अणि क्विते अणट्ठाए दंडे णिकि वत्ते, तेसु पच्चायति । तेहिं समणोवासगस्स अट्टाए इंडे अणि क्वित्ते अणट्टाए दंडे णिक्वित्ते । ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसा वि वुचंति, ते महाकाया, ते चिरट्टिइया । ते बहुतरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक वायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपच्चक वायं भवइ । से महया तसकायाओ उवसंतस्स उवट्टियस्स पडिविरयस्स ज णं तुब्भे वा अण्णो वा एवं वयह-- “णत्थि णं से केइ परियाए जंसि समणोवासगस्स एगपाणाए वि दडे णि वि वत्ते ।” अयंपि भे उवएसे णो णेयाउए भवइ । -सूय० श्रु २/अ ७/सू ६ मर्यादित मूमि के अन्दर जो त्रस जीव हैं-जिनको हिंसा करने का श्रमणोपासक ने जीवन भर के लिये त्याग कर दिया है-वे आयु पूर्ण करते हैं और काल करके उन स्थावर प्राणियों में उसी भूमि में उत्पन्न होते हैं -जिनकी सप्रयोजन हिमा का श्रपणोपासक ने त्याग नहीं किपा है और निष्प्रयोजन हिसा का मग किया है अतः उनको सप्रयोजन हिसा उनके द्वारा होती है और निप्रयोजन हिंसा नहीं होती। उन (स्थावर प्राणिों ) को .... (मभा शब्द नहीं होने से ) त्रस कहते हैं-यावत् यह कथन योग्य नहीं है । अर्थात वे प्राणी भी कहलाते हैं और बस भी कहलाते हैं वे चिरकाल तक स्थित रहते हैं उन्हें श्रावक-दंड नहीं देता है अतः श्रावक ने व्रत को निविषय बताना न्या पसंगत नहीं है। १-तत्थ 'अरेणं जे तसा पाणा, जेहिं समणोवासगस्स आयाणसो आमरणंताए दंडे णिकि वत्ते, ते तओ आउ विप्पजहंति, विप्पजत्तिा तत्थ परेणं चेव जे तसा थावरा पाणा, जेहिं समणोवासगम्स आयाणसो आमग्णंताए दंडे णिकि वत्ते । तेसु पच्चायति । तेहिं समणोवासगस्स सुपच्चक वायं भवइ । ते पाणा वि वुच्चंति, ते तसावि चुच्चंति, ते महाकाया, ते चिरट्ठिझ्या । ते बहुतरगा पाणा जेहिं समणोवासगम्स सुपच्चक्खायं भवइ । ते अप्पयरगा पाणा जेहिं समणोवासगस्स अपचक्खायं भवइ। से मया तसकायाओ उवसंतस्स उवठ्ठियस्स पडिविग्यस्म ज णं तुम्भे वा अण्णो वा एवं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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