Book Title: Vardhaman Deshna Part 01
Author(s): Jain Dharma Prasarak Sabha Bhavnagar
Publisher: Jain Dharm Prasarak Sabha

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Page 54
________________ श्रीवर्धमान देशना। // 24 // सिवसुक्खं // 366 // आरामसोहिआए, सम्मत्ताओ अउव्वभव्यसिरिं / सोऊण जिणमुहाओ, आणंदो इअ जिणं भणइ // 370 // भयवं ! पंचमहव्वय-पव्ययभारं घरेउमसमत्थो / पंचअणुव्वयव, सम्मं धर्म समीहेमि // 371 // धम्म सम्मईसणमूलमहिंसाइ सावयाण तत्रो / पडिवजिऊण तुह मुह-कमला सफलेमि निअजम्मं // 372 / / अज्जप्पभिई देवो, सामि ! तुमं चेव बीअराउ ति / सुगुरू वि बंभयारी, धम्मो जिणदेसिओ होउ // 373 // अन्नपरिगहिअचेइअ-अन्नुत्थिप्रदेवयाइ णो पणमे / विहिअरिहाणं, पणाममुज्झित्तु कइयावि // 374 / / इअ पणदूसणरहिअं, पंचविभूसणविभूसिधे एअं / सम्मईसणरयणं, पडिवनं तेण जिणवयणा // 375 // तदालापकस्त्वयम्-" अहम्नं भंते ! तुम्हाणं समीवे मिच्छत्ताओ पडिकमामि, सम्मत्तं उवसंपज्जामि, नो मे कप्पई अजप्पभिईअनारथिए वा अन्नउत्थिप्रदेवयाणि वा अन्नउस्थिअपरिग्गहियाणि वा अरिहंतचेइआणि वंदित्तए यथाऽचिरालभध्वं शिवसुखम् // 369 // आरामशोभायाः सम्यक्त्वादपूर्वभव्यश्रियम् / श्रुत्वा जिनमुखातू आनन्द इति जिनं भणति // 370 // भगवन् ! पञ्चमहाव्रतपर्वतभारं धर्तुमसमर्थः / पञ्चाणुव्रतरूपं सम्यग्धर्म समीहे / / 371 // धर्म सम्यग्दर्शनमूलमहिंसादिं श्रावकाणां ततः। प्रतिपद्य तव मुखकमलात सफलयामि निजजन्म // 372 // अद्यप्रभृति देवः स्वामिन् ! त्वं चैव वीतराग इति / सुगुरुरपि ब्रह्मचारी धर्मो जिनदेशितो भवतु // 373 // अन्यपरिगृहीतचैत्यान्ययूथि(तिथि)कदैवतानि न प्रणमामि / विध्यर्हचैत्यानां प्रणाममुज्झित्वा कदापि // 374 // इति पञ्चदूषणरहितं पञ्चविभूषणविभूषितमेतत् / सम्यग्दर्शनरत्नं प्रतिपन्नं तेन जिनवचनात् // 37 // "अहं किल भगवन् ! युष्माकं समीपे मिथ्यात्वात् प्रतिक्रमामि, सम्यक्त्वमुपसंपद्ये, नो मे कल्पतेऽद्यप्रभृति अन्ययूथि(तीर्थि)कान् वा 1 'जो उ' इति वा. 2 पाठान्तरे ' यस्तु. // 24 // Jain Education Internal For Private Personel Use Only www.jainelibrary.org

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