Book Title: Uttaradhyayanam Sutram Part 03 Author(s): Chandraguptasuri Publisher: Anekant Prakashan Jain Religious Trust View full book textPage 8
________________ उत्तराध्ययन विंशतितममध्ययनम्. (२०) गा१८-२२ मूलम् कोसंबी नाम नयरी, पुराणपुरभेअणी। तत्थ आसी पिआ मज्झं, पभूअधणसंचओ ॥१८॥ __ व्याख्या-पुराणपुराणि भिनत्ति स्वगुणरसमानत्वात्खतो भेदेन व्यवस्थापयतीति पुराणपुरभेदिनी ॥१८॥ मूलम्-पढमे वये महाराय!, अउला मे अच्छिवेअणा। अहोत्था विउलो दाहो,सत्वगत्तेस पत्थिवा! १९ व्याख्या-प्रथमे वयसीह यौवने अतुला मे अक्षिवेदना 'अहोत्थत्ति' अभूत् ॥ १९॥ मूलम्-सत्थं जहा परमतिक्खं, सरीरविवरंतरे । आवीलिज अरी कुद्धो, एव मे अच्छिवेअणा ॥२०॥ ___ व्याख्या-'शरीरेत्यादि' शरीरविवराणि कर्णघ्राणादीनि तेषामन्तरं मध्यं शरीरविवरान्तरं तस्मिन् आपीडयेत् समन्तादवगाहयेत् ॥२०॥ मूलम्-तिअं मे अंतरिच्छं च, उत्तिमंगं च पीडई। इंदासणीसमा घोरा, वेअणा परमदारुणा ॥२१॥ व्याख्या-त्रिकं कटिप्रदेशं मे, अंतरा मध्ये इच्छां बाभिमतवस्त्वभिलाषं, न केवलं बहिस्त्रिकायेति भावः, पीडयति बाधते वेदनेति सम्बन्धः, इन्द्राशनिरिन्द्रवज्रं तत्समातिदाहोत्पादकत्वादिति भावः । घोराऽन्येषामपि भयजनिका परमदारुणाऽतीवदुःखोत्पादिका ॥२१॥ मूलम्-उबहिआ मे आयरिआ, विजामंततिगिच्छगा।अबीआ सत्थकुसला, मंतमूलविसारया ॥२२॥ UTR-3Page Navigation
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